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________________ प्रमाद-परिहार मूल:--पंचिदिकायमइगओ, उक्कोसं जीवो उ संवसे ! सत्तभवग्गहणे, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१३॥ छाया:-पंचेन्द्रिय कायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । सप्ताष्टभवग्रहणानि, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥१३॥ अन्वयार्थ:-(गोयम !) हे गौतम ! (पंचिदियकायमहगओ) पाँच इन्द्रिय वाली योनि को प्राप्त हुआ (जीवो) जीव (उवकोस) उत्कृष्ट (सत्तट्टमवागहणं) सात बाठ भव तक (संवसे) रहता है। अत: (समय) समय मात्र का मी (मा पमायए) प्रमाद मत कर । भावार्थ:-हे गौतम ! यह आत्मा पंचेन्द्रियवाली तिर्यंच की योनियों में जब जाता है, तब यह अधिक से अधिक सात आठ भव तक उसी योनि में निवास करता है अतः हे गोतम ! समय मात्र का भी प्रमाद कमी मस कर | मुल:--देवे नेरइए अइगओ, उक्कोसं जीवो उ संबसे । इक्किक्क भवग्गहरो, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१४।। छाया:-- देवेन रयिकेचातिगत:, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत् । एककभव ग्रहणं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।।१४।। अन्वयार्थः-(गोयम !) हे गौतम ! (देवे) देव (नेरइए) नारकीय भवों में (अइगओ) गया हुआ (जीवो) जीव (इश्किक्कमवगहणे) एक एक भव तक उसमें (संवसे) रहता है । अतः (समय) समय मात्र का भी (मा पमायए) प्रमाद कभी मत कर। भावार्थ:-हे गौतम ! जब यह आत्मा देव अथवा नारकीय भवों में जन्म लेता है तो वहाँ एक एक जन्म तक यह रहता है (बीच में नहीं निकल सकता) अतएव हे गौतम 1 समय मात्र का भी प्रमाद मत कर । मुल:-एवं भवसंसारे, संसरइ सुहासहेहि कम्मेहि । जीवो पमायबहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ।।१५।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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