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________________ १८४ निग्रंन्य-प्रवचन पाप रुक जाते हैं । और जो पूर्व भवों के संचित कर्म हैं, वे यहाँ मोग करके नष्ट कर दिये जाते हैं। मलः-जहा महातलागस्स, संनिरुद्ध जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥६॥ छाया:-यथा महातडागस्य, सन्निरुद्ध जलागमे । उन्सिचनेन तपनेन, क्रमेण शोषणा भवेत् ॥६॥ अन्वयार्ष:-- हे इन्द्र भूति ! (जहा) जैसे (महातलगरस) बड़े भारी एक तालाब के (जलागमे जल के आने के मार्ग को (सन्निरुद्ध) रोक देने पर, फिर उसमें का रहा हुआ पानी (स्सिचणाए) उलीचने से तथा (तवणाए) सूर्य के आतप से (कमेणं) क्रमशः (सोसणा) उसका शोषण (मवे) होता है। भावार्थ:-हे आर्य ! जिस प्रकार एक बड़े मारी तालाब का जल आने के मार्ग को रोक देने पर नवीन जल उस तालाब में नहीं आ सकता है । फिर उस तालाब में रहे हए जल को किसी प्रकार उलीच कर बाहर निकाल देने से अथवा सूर्य के आतप से क्रमश: वह सरोवर सूख जाता है । अर्थात् फिर उस तालाब में पानी नहीं रह सकता है । मूल:-एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडिसंचियं कम्म, तवसा निजरिज्जइ ।।१०।। छाया:-एवं तु संयतस्यापि, पापकर्मनिराश्नवे । भवकोटिसञ्चितं कर्म, तपसा निर्जीयते ॥१०॥ अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (एवं) इस प्रकार (पावकम्मनिरासवे) जिसके नवीन' पाप कर्मों का आना रुक गया है। ऐसे (संजयस्सावि) संयमी जीवन बिताने वाले के (मवकोडिसंचियं) करोड़ों भवों के पूर्वोपार्जित (कम्म) कर्म (तपसा) तप द्वारा (निजरिमार) क्षय हो जाते हैं । भावार्थ:-हे गौतम ! जैसे तालाब में नवीन आते हुए पानी को रोक कर पहले के पानी को उलीचने से तथा आतप से उसका शोषण हो जाता है । इसी तरह संयमी जीवन बिताने वाला यह जीव मी हिंसा, मूठ, बोरी, व्यभिचार,
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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