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________________ निग्रंन्य-प्रवचन न कोई इसे पकड़ हो सकता है । जो अमुर्त अर्थात् अरूपी है, वह हमेशा अविनाशी है, सदा के लिए कायम रहने वाला है। जो शरीरादि से इसका बंधन होता है, वह प्रवाह से आत्मा में हमेशा से रहे हुए मिथ्यात्व-अव्रत आदिकषायों का ही कारण है । जैसे आकाश अमृत है, पर घटादि के कारण से आकाश घटाकाष के रूप में दिख पड़ता है। ऐसे हो आत्मा को भी अनादि काल के प्रवाह से मिथ्यात्वादि के कारण शरीर के बंधन-रूप में समझना चाहिए । यही बंधन संसार में परिभ्रमण करने का साधन है । मुल:-अप्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणंवणं ॥२॥ छायाः-आत्मानदीवैतरणी, आत्मा मे क्लटशाल्मली । आत्मा कामदुद्या धेनुः, आत्मा मे नन्दनं बनम् ।।२।। अन्वयार्थ:-हे इंद्रभूति ! (अप्पा) यह आत्मा ही (वेयरणी) वैतरणी (नई) नदी के समान है। (मे) मेरी (अप्पा) आत्मा (कूडसामली) कूट शाल्मली के वृक्षरूप है । और यही (अप्पा) आत्मा (कामदुहा) कामदुग्धा रूप (ण) गाय है। और यही मेरी (अप्पा) आत्मा (नंदणं) नंदन (वणं) वन के समान है। भावार्थ:-हे गोतम ! यही आस्मा वैतरणी नदी के समान है। अर्थात् इसी आत्मा को अपने कुत् कार्यों से वैतरणी नदी में गोता खाने का मौका मिलता है । वैतरणी नदी का कारणभूत यह आत्मा ही है। इसी तरह यह आरमा नरक में रहे हुए कूटशाल्मली वृक्ष के द्वारा होने वाले दुःखों का कारणभूत है और यही आस्मा अपने शुभ कृत्यों के द्वारा कामदुग्घा गाय के समान है, अर्थात् इच्छित सुखों की प्राप्ति कराने में यही आत्मा कारणभूत है । और यही आत्मा नंदनवन के समान है अर्थात् स्वर्ग और मुक्ति के सुख सम्पन्न कराने में अपने आप ही स्वाधीन है। मूल:--अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठिय सुपट्टिओ ।।३।। छाया:-आस्मा कर्ता विकर्ता च, दुःखानां च सुखानां च । आत्मा मित्रमित्रं च, दुःप्रस्थितः सुप्रस्थित: ।।३।।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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