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________________ निर्ग्रन्थ-प्रवचन भाषार्थ:-हे आर्य ! आये दिन कूष्ट न कुछ नवीन ज्ञान को जो ग्रहण करता रहता हो, सूत्र के सिद्धान्तों को आदर-भावों से जो अपनाता हो, जिन शासन की प्रभावना उन्नति के लिए नये-नये उपाय जो ढूंढ निकालता हो, इन्हीं कारणों में से किसी एक बात का भी प्रगाढ़ रूप से सेवन जो करता हो, वह फिर चाहे किसी भी जाति ५ कोम का क्यों न हो, भविष्य में तीर्थकर होता है। मूलः-पाणाइवायमलियं, चोरिक्व मेहुणं दवियमुच्छं । कोहं माणं मायं, लोभं पेज्जं तहा दोसं ॥१५॥ कलह अब्भक्खाणं, पेसुन्नं रइअरइसमाउत्तं । परपरिवायं माया, मोसं मिच्छत्तसल्लं च ।। १६॥ छाया:- प्राणातिपातमलीकं चौर्य मैथुनं द्रव्यमूर्छाम् । क्रोधं मानं मायां लोभ प्रेमं तथा द्वेषम् ।।१५।। कलहमभ्याख्यान पैशुन्यं रत्यरती सम्यगुक्तम् । परपरिवादं मायामृषा मिथ्यात्वशल्यं च ॥१६।। अन्वयार्थ:-हे इन्द्रभूति ! (पाणाकाय) प्राणातिपात-हिंसा (अलिय) मूंठ (चोरिक्वं) चोरी (मेहुणे) मथुन (धवियमुच्छ) द्रव्य में मूळ (कोह) क्रोध (माण) मान (मायं) माथा (लोभ) लोम (पेज्ज) राग (तहा) तथा (दोस) द्वेष (कलह लड़ाई (अन्मक्खाणं) कलंक (पेसुन्न) चुगली (परपरिवायं) परापवाद (रइअरइ) अधर्म में आनंद और धर्म में अप्रसन्नता (मायमोस) कपट युक्त झूठ (च) और (मिच्छत्तसल्लं) मिथ्यात्व रूप शल्य, इस प्रकार अठारह पापों का स्वरूप शानियों ने (समाउत्तं) अच्छी तरह कहा है। भावार्थ:-हे गौतम ! प्राणियों के दश प्राणों में से किसी भी प्राण को हनन करना, मन-वचन-काया से दूसरों के मन तक को भी दुखाना, हिंसा है। इस हिंसा से यह आत्मा मलीन होता है। इसी तरह झूठ बोलने से, चोरी करने से, मैथुन सेवन से, वस्तु पर मूर्खा रखने से, कोष, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष करने से, और परस्पर लड़ाई-झगड़ा करने से, किसी निर्दोष पर कलंक का आरोप करने से, किसी की चुगली खाने से, दूसरों के अवगुणा
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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