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________________ २२८ निर्मन्थ-प्रवचन कुछेक मूल को (य) और (मितेसु) मित्रों पर (न) नहीं ( कुप्यई) क्रोध करता हो ( अपियरस) अप्रिय ( मित्तस्स ) मित्र के ( रहे) परोक्ष में (अत्रि ) भी, उसके (कल्ला ) गुणानुवाद ( मासई) बोलता हो, ( कलहडमरवज्जए) वाक्युद्ध और काया युद्ध दोनों से अलग रहता हो, (बुद्ध) वह तत्त्वज्ञ फिर ( अभिजाइए) कुलीनता के गुणों से युक्त हो, (हिरिमं) लज्जावान हो, (पहिलीणे ) दन्द्रियों पर विजय पाया हुआ हो, वह (सुविणोए) विनीत है। (त्ति ) ऐसा जारी जन (कहते है। भावार्थ: है गौतम ! फिर तत्दन महानुभाव (५) अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों का कभी तिरस्कार नहीं करता हो (६) टण्टे फसाद की बातें न करता हो ( ७ ) उपकार करने वाले मित्र के साथ बने वहाँ तक पीछा उपकार ही करता हो, यदि उपकार करने की शक्ति न हो तो अपकार से तो सदा सर्वदा दूर ही रहता हो ( ८ ) ज्ञान पा कर घमण्ड न करता हो ( ६ ) अपने बड़े-बुढे तथा गुरुजनों की कुछेक मूल को भयंकर रूप न देता हो (१०) अपने मित्र पर कभी भी क्रोध न करता हो (११) परोक्ष में भी अप्रिय मित्र का अवगुणों के बजाय गुणगान हो करता हो (१२) वाक् युद्ध और काया युद्ध दोनों से को कतई दूर रहता हो, (१३) कुलीनता के गुणों से सम्पन्न हो (१४) लज्जावान् अर्थात् अपने बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनों के समक्ष नेत्रों में शरम रखने वाला हो (१५) और जिसने इन्द्रियों पर पूर्ण साम्राज्य प्राप्त कर लिया हो, वहीं विनीत है । ऐसे ही की इस लोक में प्रशंसा होती है और परलोक में उन्हें शुभ गति मिलती है । मूलः - जहा हि अग्गी जलण नमसे, नाणाहुई मंतपयाभिसत्तं । एवायरियं उवचिट्ठइज्जा, अनंतनाणोवगओ वि संतो ॥१३॥ छाया: - यथाहिताग्निज्वलनं नमस्यति, एवमाचार्यमुपतिष्ठेत्, नानाऽऽहृतिमंत्रिपदाभिषिक्तम् । अनन्तज्ञानोपगतोऽपि सन् ||१३||
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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