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निर्ग्रन्थ-प्रवचन
(नवा अध्याय) साधुधर्म-निरूपण
॥ श्री भगवानुवाच ।। मूल:--सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जि उं ।
तम्हा पाणिवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥शा छाया:-सर्वे जीवा अपि इच्छन्ति, जीवितु न मर्तम् ।
तस्मात् प्राणिवधं घोरं, निर्ग्रन्था वर्जयन्ति तम् ॥१॥ मान्वयार्थ:-हे इम्वभूति ! (सन्दे) समी (जीवा) जीव (जीविउं) जीने की (इच्छंति) इच्छा करते है (वि) और (मरिजि) मरने को कोई जीव (न) नहीं चाहता है । (तम्हा) इसलिए (निग्गया) निन्य साधु (घोरं) रौद्र (पाणिवह) प्राणीयध को (वजयंति) छोड़ते हैं । (णं) वाक्यालंकार । ___ भावार्थ:-- हे गौतम ! सब छोटे-बड़े जीव जीने की इच्छा करते हैं, पर कोई मरने की इच्छा नहीं करते हैं। क्योंकि जीवित रहना सब को प्रिय है। इसलिए निन्य साधु महान् दुख के हेतु प्राणीवध को आजीवन के लिए छोड़ देते हैं। मूलः-मुसावाओ य लोगम्मि, सन्चसाहूहि गरहिओ।
अविस्सासो य भूयाण, तम्हा मोसं विवज्जए ॥२॥ छाया:-मृषावादश्च लोके, सर्वसाधुभिर्गहित: ।
अविश्वासश्च भूतानां, तस्यान्मृषां विवर्जयेत् ॥२॥