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________________ २२६ निग्रंन्य-प्रवचन (अवि) भी (कुष्पइ) क्रोध करता रहे (सुप्पियस्स) सुप्रिय (मित्तस्स) मित्र के (अवि) भी (रहे) परोक्ष रूप में उसके (पावर्ग) पाप दोष (भासई) कहता हो । (पइण्णवाई) सम्बन्ध रहित बहुत बोलने वाला हो, (दुहिले) द्रोही हो (यो) घमण्डी हो । (लुद्धे) रसादिक स्वाद में लिप्त हो (अणिग्गहे) अनि ग्रहीन इन्द्रियों चाला हो (असंविभागी) किसी को कुछ नहीं देता हो (अवियत्त) पूछने पर भी अस्पष्ट बोलता हो, वह (अविणीए) अविनीत है । (ति) ऐमा (बुकचाइ) ज्ञानोअर कदत हैं। भावार्थ:-हे गौतम ! जो सदेव क्रोध करता है, जो कलहोत्पादक रातें ही नयी-नयी घड़ कर सदा कहता रहता है, जिसका हृदय मंत्री मावों से विहीन हो, शान सम्पादन करके जो उसके गर्व में चूर रहता हो, अपने बड़े-बूढ़े 4 गुरुजनों की न कुछ सी भूलों को भी भयंकर रूप जो देता हो, गपने प्रगाढ़ मित्रों पर भी क्रोध करने से जो कमी न कता हो, घनिष्ट मित्रों का भी उनके परोक्ष में दोष प्रकट करता रहता हो, वाक्य या कथा का सम्बन्ध न मिलने पर भी जो वाचाल की मांति बहुत अधिक बोलता हो, प्रत्येक के माथ दोह किये बिना जिसे चैन ही नहीं पड़ता हो, गर्व करने में भी जो कुछ कोर कसर नहीं रखता हो, रसादिक पदार्थों के स्वाद में सदैव आसक्त रहता हो, इन्द्रियों के द्वारा जो पराजित होता रहता हो, जो स्वयं पेटू हो, और दूसरों को एक कौर भी कमी नहीं देता हो और पूछने पर भी जो सदा अनजान को ही भांति छोलता हो, ऐसा जो पुरुष है, वह फिर चाहे जिस जाति, कुल व कोम का क्यों न हो, अविनीत है, अर्थात् अविनयपील है। उसकी इस लोक में तो प्रशंसा होगी। ही क्यों ? परन्तु परलोक में भी यह अधोगामी बनेगा। मुल:--अह पण्णरसहि ठाणेहि, सुविणीए त्ति वुच्चई । नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुछहले ।।६।। छाया:-अथ पञ्चदशभिः स्थानः, सुविनीत इत्युच्यते । नीचवृत्यचपलः, अमाय्यकुतूहल: || अन्वयार्प:- हे इन्द्र भूति ! (अह) अब (पण रसहि) पन्द्रह (ठाणेहि) स्थानों, बातों से (सुषिणीए) अच्छा विनीत है (त्ति) ऐसा (बुच्चई) ज्ञानी बन्न पाहते हैं । और वे पन्द्रह स्थान यो हैं। (नीयावित्ती) नम्र हो, बड़े-बूढ़े ।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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