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________________ भाषा स्वरूप १३७ भावार्थ :- हे गौतम 1 इस संसार में ऐसे भी लोग हैं, जो कहते है कि जड़ और चेतन स्वरूप एवं सुख-दुख युक्त जो यह लोक है, इसकी इस प्रकार की रचना देवताओं ने की है । कोई कहते हैं कि ब्रह्मा ने सृष्टि बनाई है । कोई ऐसा भी कहते हैं कि ईश्वर ने जगस् की रचना की है। कोई यों बोलते हैं कि सत्य, रज, तम, गुण की सम अवस्था को प्रकृति कहते है। उस प्रकृति ने सार की रचना की है। कोई यों भी मानते हैं कि जिस प्रकार कांटे तीक्ष्ण, मयूर के पंख विचित्र रंग वाले, गन्ने में मिठास, लहसुन में दुर्गन्ध, कमल सुगंधमय स्वभाव से ही होते हैं; ऐसे ही सृष्टि की रचना भी स्वभाव से ही होती है । कोई इस प्रकार कहते हैं कि इस लोक की रचना में स्वयंभू विष्णु अकेले थे । फिर सृष्टि रचने की चिन्ता हुई जिससे शक्ति पैदा हुई। तदनंतर सारा ब्रह्माण्ड रचा और इतनी विस्तार वाली सृष्टि की रचना होने पर यह विचार हुआ कि इस का समावेश कहाँ होगा ? इसलिए जन्मे हुओं को मारने के लिए यम बनाया। उसने फिर गाया को जन्म दिया। कोई यों कहते हैं कि पहले ब्रह्मा ने अण्डा बनाया। फिर वह फूट गया। जिसके आधे का कष्वं लोक और आधे का अधोलोक बन गया और उसमें उसी समय समुद्र, नदी, पहाड़, गोव आदि सभी की रचना हो गई। इस तरह सृष्टि बनायी। ऐसा उनका कहना, हे गौतम! सत्य से पृथक है । मूल:- सएहि परियाएहि, लोयं या कडे त्तिय । तस ते ण बिजाणति, ण विणासी कयाइ वि ॥ २१ ॥ छाया: स्वर्क: प्रयायै लोकमब्रुवन् कृतमिति च । तस्त्वं ते न विजानन्ति न विनाशी कदापि च ॥ २१ ॥ अन्यमार्थ :- हे इन्द्रभूति ! जो (सएहि ) अपनी-अपनी (परिया एहि ) पर्याय कल्पना करके (लोय) लोक को अमुक अमुक ने (कडे ति) बनाया है, ऐसा ( बूमा) बोलते हैं । (ते) के ( तत्तं ) यथातथ्य तत्व को (ण) नहीं (विजाति) जानते हैं। क्योंकि लोक ( क्या वि) कभी भी ( विणासी) नाशवान (ण) नहीं है।
SR No.090301
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year
Total Pages277
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size4 MB
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