Book Title: Chaulukya Chandrika
Author(s): Vidyanandswami Shreevastavya
Publisher: Vidyanandswami Shreevastavya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चौलुक्य चन्द्रिका लाट नवसारिका-नन्दिपुर-वासुदेवपुर खंड विक्रम ७०० से १४४६ पर्यन्त मूल शासन पत्रों और शिला प्रशस्तियों का संग्रह और विवेचन संग्रहिता নথ अनुवादक और विवेचक श्री. विधान र कामी श्रीवास्तव्य भूतपूर्व सदस्य विहार व्यवस्थापिका सभा, अवसर प्राप्त रिसर्च स्कोलर जसदः। स्टेट, एवं श्री भगवान चित्रगुप्त, काश्मीर में कायस्थ जाति. वलभी मैत्रकों की जातीयता, आइक्नो ग्रफीकल पर्स रेटीफायड-परमार चन्द्रिका, वेद, गमायण और महाभारत कालीन भारत तथा अन्यान्य ऐतिहासिक ग्रंथां के लेखक । शरद पूर्णिमा, विक्रम १६६३ प्रथम बार १... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. II. A चौलुक्य चंद्रिका चौलुक्यों की राजकीय बाराह मुद्रा । Plate No. II. B चौलुक्य चंद्रिका Ta7Boad Taapseise चौलुक्यों के ताम्र शासन का स्वरूप । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-UMara, 'Surat" www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. IV. चौलुक्य चंद्रिका बादामी-गुफा ३ वर्तो चौलुवयों के कुलदेव भगवान बाराह की मूर्ति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. III. चौलुक्य चंद्रिका बादामी-गुफा ३ वर्ती चौलुक्यों के कुलदेव भगवान बाराह की मूर्ति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारदाकुमार श्रीवास्तव्य हिन्दुस्तानी प्रिंटिंग प्रेस २६४ गोविन्दवाड़ी कालबादेवी रोड बम्बई नं मुद्रित प्रकाशक ऐतिहामिक गौरव ग्रंथमाला पोहार ब्लोक सान्ताक्रुज (बी. बी. एन्ड सी. आय रेलवे.) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. VI. चौलुक्य चंद्रिका श्रीयुत वी. एस. श्रीवास्तव्य । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्रेम ! श्रीमान् सवाई देवेन्द्र विजयसिंहजी बहादुर नातीराजा अजयगढ़ बुन्देलखण्ड कर कमलों में: समर्पण। वी. एस. श्रीवास्तव्य । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat प्रेमोपहार : www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन । किसी भी जाति और देशके पुरावृत्त का विवेचन करने के पूर्व यह परम आवश्यक. है कि उस जाति के वंश - वंशसंस्थापक और अभ्युदय आदि तथा उसके पूर्वजों की जन्मभूमि और वर्तमान देशके साथ संबंध प्रभृति एवं उस देशके नाम करण और उस देशके पुराकालीम राजाओं तथा उसके मानचित्र और सीमा प्रभृतिका सांगोपांग विचार कर लिया जाय। अत एवं दक्षिण गुजरात अर्थात् लाट प्रदेशके चौलुक्यों के पुरावृत विवेचन में प्रवेश करनेके पूर्व हम दक्षिण गुजरात अर्थात् लाट प्रदेश के नाम करण और पूर्ववर्ती राजवंशादि का प्रथम विचार करते हैं । गुर्जर और लाट । भारतीय पुराण - रामायण तथा महाभारत आदि किसीभी एतिहांसिक प्रथमे गुजरात और प्रदेशका नाम नहीं पाया जाता । प्रत्युत जिस भूभागको संप्रति : गुजरात (पशि और उत्तर ) लाट कहतें हैं उसको आनर्त और परान्त नामसे अभिहित पाते हैं। महाभारतकालीन आर्त और परान्त प्रदेशको भिन्न करनेवाली नर्मदा थी और अपरान्तको विलग करनेवाली कावेरी थी। इससे प्रकट होता है कि सम्प्रति जिस भूभागको दक्षिण गुजरात या लाट कहते हैं यह उस समय परान्त नामसे अभिहित था । महाभारतके पश्चात् मौर्य साम्राज्य की स्थापना कुछ पूर्व अर्थात् यूनानी वीर मसुन्दर के आक्रमण कालसे भारतीय इतिहासकी ज्ञात अवधिका प्रारंभ होता है। यदि " माय कि ज्ञात एतिहासिक कालके प्रारंभ में मौर्यवंशका साम्राज्यसूर्य' वास्तवमे भारत चक्रवतीत्य सौभाग्यको प्राप्त था तो अत्युक्ति न होगी। क्योंकि इसके अधिकारमें पौराणिक भरतखंडकी ओर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका से छोर पर्यन्त था । और मौर्यवंशका परम प्रख्यात राजा अशोक था। अशोक के आज तक १४ शासन पत्र भारतके प्रायः प्रत्येक प्रान्तोंसे पाये गये हैं। वर्तमान गुजरात प्रदेशकी पश्चिम सीमापर अवस्थित प्राचीन सौराष्ट्रके गिरनार नामक पर्वतकी उपत्यका से भी अशोक का शिला शासन प्राप्त हुआ है। परन्तु उसमेंभी अथवा उसके किसी अन्य लेखमें गुजरात और लाटका नामोल्लेख नहीं पाया जाता । मौर्योंके पश्चात् सौराष्ट्र और अवन्ती आदि प्रदेशोंमें क्षत्रपोंका सौभाग्योदय हुआ था जहां उनके राज्यकालीन अनेक लेख पाये जाते हैं । परन्तु उनमेंभी गुजरात और लाटका दर्शन नहीं होता। क्षत्रपोंमें अनेक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं। इनमें रुद्रदामका एक लेख गिरनार पर्वतकी उपत्यका अवस्थित अशोकके शिलाशासन के निम्न भागमें उत्कीर्ण है। इस लेखके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि इसके आधीन अकरावती-अनुप-आनर्त-सुराष्ट्र-स्वभ्र मरकच्छ-सिन्धुसुवीर-कुकुटु-अपरान्त और निषाद देश था। कथित देशों में अकरावती पूर्व और पत्रिम मालवा, अनुप आनत और अवन्तीका मध्यवर्ती भूभाग, आनत उत्तर गुजरात प्रदेश, सुराष्ट्र वर्तमान काठियावाड, स्वभ्र-साबरमती नदी उपत्यका प्रदेश, कच्छ और मरू वर्तमान कच्छ और मारवाई देश,. सिन्धुसुवीर वर्तमान सिन्ध प्रदेश परन्तु कुकुर और निषादका परिचय निश्चित रुपैसे नहीं मिलता और अपरान्त वर्तमान प्रसिद्ध कोकण प्रदेश है । क्षत्रपवंशका अभ्युदय लगभग विक्रम संवत १५७ में हुआ था। इस वंशका परम प्रसिद्ध राजा रुद्रदाम का समय विक्रम संवत २०० और २१५ के मध्य तदनुसार ईस्वी सन १४३ से १५८ पर्यन्त हैं। अतःसिद्ध-हुआ कि विक्रम संवत २१५ पर्यन्त वर्तमान गुजरात और लाट देशका प्रकार नहीं हुआ था। हां इस समय महाभारत कालीन देशोंके मध्य अनेक छोटे मोटे देशोंका नामाभिमान अवश्य हुआ प्रतीत होता है। क्योंकि रुद्रदामके लेखमें हम देखते हैं कि आनर्त और: मारवाके अन्तर्गत स्वभ्रका-आनत और अवन्तिके मध्य अनुप देशका अभ्युदय हो चुका थानतः और अपरान्तके मध्यवर्ती परान्त देशका लोप हो कर उसका भूभाग आनत और अपमन्त में मिलाया था। गुप्त वंशका अभ्युदय विक्रम संवत ३७५-७६ और अन्त ५२७ है। तदनुसार इस्वी सन ३१८-१९ से लेकर ४७० पर्यन्त इनका राज्यकाल १५१ वर्ष है । इस अवधिमें इस वंशके सात राजा हुए हैं। इन मे चौथा राजा समुद्रगुप्त परम प्रख्यात और समस्त भारतका अधिपति था। इसका समय विक्रम संवत ४२७ से ४४२ तदनुसार इस्वी सन ३७० से ३८५ पर्यन्त १५ वर्ष है। इसके प्रयाग राज वाले स्तम्भ लेखमें इसके विजित देशों और आधीन राजाओंक WE ARE PR PR 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्राक्कथन नामोल्लेख है । उसके पर्यालोचनसे प्रगट होता है कि विक्रम संवत ४२७ से ४४२ पर्यंत भी गुर्जर और लाट नामका प्रचार नहीं हुआ था । लाट नन्दिपुर के गुर्जर | गुप्तों के बाद सौराष्ट्र देशमे मैत्रकोंका अभ्युदय होता है। मैत्रक वंशका संस्थापक सेनापति भट्टारक है। इसने अपने वंशका राज्य सौराष्ट्र देशमें विक्रम संवत १६६ तदनुसार इस्वी सन ५०६ में स्थापित किया था। इस वंशका राज्य काल विक्रम से ५६६ तदनुसार इस्वी ५०९ से ७६६ पर्यन्त २५७ वर्ष है । इस अवधि में इस वंशके १५ राजा हुए हैं। इनके राज्य कालकी समकालीनता में ही गुर्जर जातिका अभ्युदय पुराकालीन चानर्त प्रदेशमें हुआ था । क्योंकि दक्षिण गुजरात या लाट देशके नन्दिपुरं नामक स्थानमें एक गुर्जर वंशको राज्य करते पाते हैं । नन्दिपुरके गुर्जरो के साथ बल्लभके मैत्रकोंको संधि विग्रह और वैवाहिक संबंध सूत्रमें ओतप्रोत पाते हैं। नंदिपूरके गुर्जरोंका अभ्युदयकाल विक्रम संवत ६३७ और ६४४ के मध्य तदनुसार इस्वी सन ५८०-५८७ है । और इनका अन्त लगभग विक्रम संवत ११ शिदनुसार a सन ७३४ है । इनका राज्य काल इस प्रकार, १५० वर्ष मान होता है। वातापिके। चौलुक्यराज पुलकेशी द्वितीय के एहोलग्रामसे प्राप्त शक ५५६ तदनुसार विक्रम संवत् ६९१ वाले, शिलालेख श्लोक २३ में सतया गुर्जर जातिका गुर्जर जाति रूपसे उल्लेख किया गया है। अतः निश्चय हुआ कि विक्रम संवत ६३७ तदनुसार इस्वी सन ५८० 'के पूर्वही पुराकालीन' आनर्त प्रदेश गुर्जर जातिका अभ्युदय हो चुकाथा और वह एक प्रतिष्ठित जातिके रूपमें मानी जाती, अभी। एबं इन गुर्जरोंके संयोगसे श्रानर्त देशका नाम परिवर्तित होकर गुर्जर देश, गुर्जराष्ट्र तथा गुर्जर मण्डल के नामसे प्रख्यात हो चुका था । अब विचारना है कि क्या नैन्दिपुरके गुर्जरो संयोगसे आनर्त देशका नाम परिवर्तन हुआ था ? इन नदिपुरवाले गुर्जरोंके शासन पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि वे आदिसे अन्त पर्यन्त किसी न किसी रोजाके आधीन है। अतः इनके संयोगसे आनर्तका नाम गुर्जर रूपमें नहीं बदल सकता और न गुर्जर ओति एक प्रतिष्ठित जातिही मानी जा सकती थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] पुनश्च इनके अभ्युदय काल विक्रम ६३७ और चौलुक्यराज़ पुलकेशी द्वितीय के पूर्व कभित लेख में सवाल.५४ वर्षका अन्तर है। इस थोड़े समयकी अवधिमें न तो किसी विजेता जाति के नामानुसार किसी देशका नाम परिवर्तीत होकर सर्व साधारणमें उसका प्रचार हो सकता है और न वह जाति सर्व साधारण जनताकी दृष्टिमें प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। इसके अतिरिक्त पुलकेशी के लेखमें गुर्जर नाम के साथही लाटका प्रयोग किया गया है। भरुचके गुर्जरोंका लाट देशमें होना निर्धान्त है। लाटके साथ गुर्जर शब्दका प्रयोग प्रकट करता है कि मरुधवाले गुर्जरों के अतिरिक्त किसी अन्य स्थानपर गुर्जरोंका अधिकार था। और उक्त प्रदेश गुर्जर कहलाता था। क्योंकि लाट प्रदेशमें सामन्त रूप से राज्य करनेवाले नंदिपुरके गुर्जयेका उल्लेख लाट नामके साथ हो जाता है । भीनमाल के गुर्जरों का अभ्युदय । अब देखना है कि नंदिपुर के गुर्जरों के पूर्व अथवा समकालीन किसी अन्य गुर्जर राज्यका अस्तित्व पाया जाता है अथवा नहीं। चिनी यात्री हुनसेन के भारत भ्रमण वृतान्त पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि वर्तमान मारवाड़ राज्यके भीनमाल नामक स्थानमें एक अन्य मुर्व राज्यमा । उसका अधिकार बहुत बड़े भूभागपर था। उसके राज्यकी परिधि ६३३ वर्ग मील भी। हुआवसेनका भारत भ्रमण विक्रम संवत ६८७ के बाद प्रारंभ हुआ था। भता अविचारता है, कि भीनमालके गुर्जर राज्यका अभ्युदय काल क्या है। - जिस प्रकार भीनमालके गुर्जरोंका अभ्युदयकाल निश्चित रूपसे ज्ञात नही है उसी प्रकार उनके अन्दका समय भी अज्ञात है। तथापि उनका अन्त समय एक प्रकार से निश्चित रूपसे प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि गुर्जरों के बाद भीनमाल पर चांपोत्कटों ( चावडो) का अधिकार पाया जाता है। भीनमाल के चावडोका स्पष्ट रूपसे उल्लेख लाट देशके चौलुक्य राम पुलकेशी (जयकुदा) संवत्सर: ४६२ तदनुसार विक्रम संवत ७६६ वाले लेखमें हैं । उधर विक्रम संवत के आसपास भीनमालके गुर्जर राज्यको पूर्ण रूपेण विकसित पाते हैं। अतःमर सकते हैं कि भीनमालका गुर्जरोंका अन्त विक्रम संवत ६८७ और ७९६ के मध्य विक्रम संवत १४० और.७५०. के मध्य है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन लाट का अभ्युदय तृतीय शतक। अब विचारना है कि भीनमालके गुर्जरोंका अभ्युदयकाल क्या हो सकता है। क्षत्रपवंशी रुद्रदामके विक्रम संवत २०० और २१५ के मध्यवर्ती लेखमें गुर्जर प्रदेश और गुर्जर जातिका उल्लेख नहीं है ! उसी प्रकार समुद्रगुप्त के विक्रम संवत ४२७ और ५४२ के मध्यवर्ती प्रयागवालेस्तम्भ लेखमें विवेचनीय गुर्जर जाति और गुर्जर देशका अभाव है। अतः हम विना किसी संकोच के कह सकते हैं कि भीनमाल के गुर्जरोंका अभ्युदय, जिनके नामानुसार वर्तमान गुर्जर प्रदेशका नाम करण हुआ है, विक्रम संवत ४४२ के पश्चात हुआ प्रतीत होता है। परन्तु इनके अभ्युदय कालको यदि हम विक्रम ४४२ से और आगे बढ़ाकर गुप्तों के अन्त समय विक्रम ५२७ तदनुसार इस्वी सन ४७० माने तो भी कोई आपत्ती सामने आती नहीं दिखाती । क्योंकि गुप्त साम्राज्य के पतन पश्चात भारत के भिन्न भिन्न प्रान्तोमें अनेक राज्यवंशोंका प्रादुर्भाव हुआ था। गुप्तों के सेनापति भट्टारकने वल्लभि में (सौराष्ट्र) मैत्रक राज्यवंशकी स्थापना की थी। संभवतः गुर्जरोंने भी गुप्त साम्राज्य के पतन रुपी गंगा की बहती धारामें स्नान कर अनयासही राज्य संप्राप्ति रुप पुण्यका संचय किया था। हमारी समझमें जबतक भीनमालके गुर्जर राज्य संस्थापनका परिचायक स्पष्ट प्रमाण न मिले तब तक गुर्जर जातिका अभ्युदय और गुर्जर प्रदेश के नाम करणका समय निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता । तथापि तत्कालीन विविध एतिहासिक सामग्रियोंपर दृष्टिपात करने के पश्चात हम गुर्जर जाति का अभ्युदय काल विक्रम संवत ५२७ जो, गुप्त साम्राज्य का पतनकाल है, मानते हैं। पुराकालीन आनत प्रदेशका गुर्जर जातिके संयोगसे, गुजरात नामाभिधानका समयादि विवेचन करने पश्चात हम आनत और अपरान्त के मध्यवर्ती भूभाग के लाट नामाभिधान के विवेचनमें प्रवृत्त होते हैं। जिस प्रकार गुजरात देशका नाम भारतीय पुराण, रामायण और महाभारत आदि एतिहासिक ग्रंथोमें नहीं पाया जाता उसी प्रकार लाट देशका नामभी इन ग्रंथों में देखने में नहीं आता। हाँ लाट देशका उल्लेख विक्रम संवत के तृतीय शतक से लेकर १३ वें शतक पर्यन्त के विविध ताम्रपट और शिलालेखों तथा संस्कृत एतिहासिक काव्यादि में पाया जाता है। कामसूत्रके कर्ती वात्सायनने अपनी पुस्तकमें सर्व प्रथम लाट प्रदेशका 0 पनी पुस्तकर्म सर्व प्रथम लाट प्रदेशका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] प्रयोग किया है । वात्सायनका समय विक्रमका तृतीय शतक मान जाता है । एवं टौलमी के प्रन्थोंमें भी लाटका रुपान्तर लारिक शब्द दृष्टिगोचर होता है । लाट शब्द की व्युत्पत्ति । (C 66 59 लाट नामकी व्युत्पत्ति संबंध में कितने पुरातत्वज्ञोंका विचार है कि लाट शब्दका रूपान्तर र" का "ल" होकर हुआ है। वास्तवमें देखा जाय तो र का रूपान्तर “ ल ” देखनेमें आता है | चाहे जो हो दक्षिण गुजरातका पूर्व नाम लाट था। और गुजरात नाम पड़नेके कई शताब्दी पूर्व से लेकर कई शताब्दीपर पर्यन्त व्यवहृत था । हमारा संबंध केवल लाट और गुजरात नामसे होनेके कारण हम और अधिक पुराकालीन नामादि के विवेचन में प्रवृत्त न होकर अन्य बातोंका विचार करते हैं । लाट का भूभाग और सीमः । दक्षिण गुजरात तथा लाटके अन्तर्गत मही नदीसे लेकर तापी नदीके उपत्यका पर्यन्त भूभागका समावेश निर्भ्रान्ति रुपसे पाया जाता है । परन्तु अन्यान्य एतिहासिक घटनाओं पर दृष्टिपात करनेसे प्रगट होता है कि दक्षिण गुजरात और लाटकी सीमाका विभाजन करनेवाली कावेरी नामक नदी है। अतएव हम कह सकते है कि कावेरी नदीसे लेकर मही नदीपर्यन्त प्रदेश दक्षिण गुजरात तथा लाट नामसे अभिहित होता था । पूर्व समय दक्षिण और उत्तर गुजरातको विभाजित करनेवाली मही नदी थी । एवं दक्षिण गुजरात और अपरान्त अथवा उत्तर कोकणको विलग करनेवाली कावेरी नदी थी। यदि देखा जाय तो आज भी लगभग दक्षिण गुजरात की सीमा पूर्वक्तही है क्योंकि पूर्व कथित दोनों नदियां अपनी पूर्व अवस्थामें ही दृष्टियोचर होती है। प्रतएव वर्तमानः दक्षिण गुजरातकी सीमा निम्न प्रकारसे है,,, उत्तरसें उत्तर, गुजरात, स्वभावः स्वेत, रोदाका पेटलाद, खेडा जिला, आदि A जिला-पूर्व में सिन्ध और अर्बुद पर्वत । 113 श्रेणीके मध्यवर्ती खानदेश, मालवा और कुछ भाग बागड़ प्रदेशका और पश्चिम समुद्र नामसे अभिहित होनेवाले समुद्रकी खम्भात नामक खाड़ी । des Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन लाट की नदियां। दक्षिण गुजरातमें मही, ढाढर, ओरसंग, हेराण, विश्वामित्री, नर्मदा, शिवा, कीम, सेना, तापती, मिढोला, पूर्णा, अम्बिका और कावेरी नामक नदिया प्रधान हैं। इनमे मही, ढाढर, नर्मदा, कीम, तापती, पूर्णा, अम्बिका और कावेरी अन्यान्य छोटी मोटी नदी और नालाओका जल लेकर सीधे खंभातकी खाडीमे गीरती है। इनमे नर्मदा और तापती भारतकी प्रसिद्ध नदीयोमे से है। इनका गुनगान पुराणादि मे पाया जाता है। इनके तटपर अनेक पुराण प्रसिद्ध देवालय तथा तीर्थक्षेत्र है। इनमे नर्मदा तटका भृगुक्षेत्र और शुक्लतीर्थ गणमान्य है। तापी तट के प्रसिद्ध तीर्थस्थान अश्वनिकुमार-तापी नदीके संगमपर गलतेश्वर-तापी गर्भका (माडवी से उपर) रामकुण्ड-वलाक क्षेत्र और अपरा काशी नामक स्थान है। मिढोलाका. अपरनाम मन्दाकिनी-और मदाव है। इसके उद्गम स्थानपर गोमुख, मध्यवर्ती वार्धवली (बारडोली) नामक स्थानमे केदारेश्वर और पलशाणामे कनकेश्वर मन्दिर है। पूर्णा नदीपर मधुकरपूर (महुआ) मे जैनियोका विघ्नेश्वर नामक प्रसिद्ध तीर्थस्थान और लाटके चौलुक्य वंशकी राज्यधानी नवसारिका (नवसारी) है। कावेरी तटपर अनावलमें शुक्लेश्वर महादेव (अनाविल ब्राह्मणोके कुलदेव) और वातापी कल्याणके वंशधर पुरातन वासन्तपुर-बासुदेवपूरके चौलुक्योकी राज्यधानी वासुदेवपुर का ध्वंशावशेष नवा नगर नामक स्थान और वांसदा नगर है। हमारे विवेचनीय एतिहासीक कालके अन्तर्गत लाट प्रदेशमें शासन करनेवाले गुर्जर, चौलुक्य, राष्ट्रकुट, गोहिल, मुसलमान, मरहठा (पेश्वा-धमाडे-गायकवाड) और अंग्रेज राज्यवंशका समावेश होता है। इनमें गुर्जर जातिका अभ्युदय चौलुङ्गयोंसे पूर्वभावी है। अतएव हम सर्व प्रथम लाट प्रदेशमें गुर्जरोके अभ्युदय और पतन तथा अधिकार आदिका विचार करते हैं। इन गुर्जरोका परिचायक इनका अपना सात ताम्र लेख है। कथित शासन पत्र इन्डीयन एन्टीक्वेरी वोल्युम ५ पृष्ठ १०६, वोल्युम ७ पृष्ठ ६१, वोल्युम १३ पृष्ठ ८१-६१ और ११५-११६ और वोल्युम १७ तथा एपिग्राफिका इन्डिका वोल्युम २ पृष्ठ १६, जो. रॉयल एतिआटिक सोसायटी वो. १ पृष्ठ २७४, जो. बम्बे रा. ए. वो १० पृष्ठ १६ मे प्रकाशित है। कथित शासन पत्रोका पर्यालोचन प्रकट करता है कि इनका अधिकार नर्मदा और मही नदीके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका मध्यवर्ती भूभागपरही परिमीत था। परन्तु ताप्ति नदीके दक्षिण भूभागपरभी इनके क्षणिक अधिकारका परिचय मिलता है। एवं इनका विवेचन इनकी निम्न वंशावली बताता है। जय भट र ण ग्रह जय भट जय भट इनमें वंश संस्थापक दद प्रथम और उसके उत्तराधिकारी जयभटका न ता विशेष एतिहासिक परिचय और न निश्चित समयही ज्ञात है। हां दद प्रथम के पौत्र और जय भटके पुत्र दद द्वितीय और रणग्रह के तीन लेख प्राप्त हैं। कथित तीन लेखो में खेडा से प्राप्त दो लेख सं. ३८० और ३८५ के है और इसके भाई रणग्रहका एक लेख खेडा से प्राप्त सं. ३६१ का है। कथित शासन पत्रोका संवत त्रयकूट संवत्सर है ! जिसका विक्रम ३०६ तदनुसार शक संवत् १७१ में हुआ था । अंत इनकी तिथिकी समका लिनता त्रयकु. ३८० शक ५५१ और विक्रम ६८६ त्रयकु ३८० श. सं. ५५६ और विक्रम ६९१ और त्रेकु ३९१ श. सं. ५६२ और विक्रम ६९० से है। अब यदि हम दद द्वितीय का प्रारंभिक काल ३८० को मान लेवे. तो वैसी. दशामें वद प्रथमका प्रारंभिक समय लगभग ३३.२ मानना होगा परन्तु ऐसा मानने के पूर्व हुमे, विचारना होगा कि अयकू. ३८० के आसपा: समे गुर्जरोके अभ्युदयका समर्थन हो सकता है अथवा नहीं है ? हम पूर्वमे बता चुके है कि गुर्जर जातिका भीनमालमे अभ्युदय काल लगभग विकम संवत ५७०. है। अब यदि ५७० को त्रयकु बनावेतो ३०६ घटाना पडेगा । इस प्रकार २६८ त्रयकुटमे गुर्जर जातिका. राज्य संस्थापन भीनमालमे हो चुका था। गुर्जर जातिके त्रयकुटक २६४. अभ्युदय और दलू. प्रथमके अनुमानिक समय ३३० के मध्य ६६ वर्षका अन्तर हे । वल्लभिके. इतिहासका पर्यालोचन प्रकट करता है कि धरसेन द्वितीयके विरुदमे परिवर्तन हुआ है उसके गुप्त: वल्लभि संवत २५२ के तीन शासन पत्र में उसके विरुद " परं महेश्वर महाराजा" और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन गुप्त वल्लभि संवत् २६९ और २७० वाले दो लेखों में उसका विरुद “ महा सामन्त” पाया जाता है। गुप्त वल्लभि संवत और विक्रम संवत्का अन्तर ३७५ वर्ष और त्रयकुटक विक्रमका अन्तर ३०६ वर्ष है। अतः सिद्ध हुआ कि २६९-७० गुप्त वल्लभि तदनुसार २६९-७० + ६९=३३८-३९ त्रयकुटक, २६९ + २४० = ५०९ 'शक, २६९ + ३१८=५८७ ईस्वी और २६९ : ३७५=६४४ विक्रम के पूर्वही वल्लभिके मैत्रकोंको पराजित कर स्वाधीन कर लिया था। उपर हम बता चुके हैं कि लाट प्रदेश भरूच नन्दिपुर के गुर्जरोंका अभ्युदय इस समयसे लगभग आनुमानिक रीत्या ७-८ वर्ष पूर्व हैं। उधर वल्लभिमें मैत्रकोंका और भीनमालमें गुर्जरोंका अभ्युदय समकालीन है। अतः हम कह सकते हैं कि भीनमालके गुर्जरोंने बल्लभिके मैत्रकोंको उक्त समयमें स्वाधीन कर अपना अधिकार नर्मदाकी उपत्यका पर्यंत बढाया था । और साम्राज्य की अन्तिम दाक्षिणात्य सीमा पर अपने संबन्धी दद प्रथमको सामन्तराजके रूपमें स्थापित किया था। यद्यपि गुर्जरों के अधिकारमें नर्मदा की उपत्यका प्रदेश चला आया था, तथापि वल्लभिवालोंका अधिकार उत्तर गुजरात के खेटकपुर, स्तम्भ तीर्थ आदि प्रदेशों पर बना रहा। हां इतना अवश्य था कि वे सम्राट रूपसे इन प्रदेशोंके अधिपति नहीं वरन भीनमालके गुर्जरोंके सामन्त थे। इनके इन प्रदेशों पर अधिकारका प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि हम धरसेन को अपने गुप्त वल्लभि संवत् २७० वाले लेख द्वारा खेटकपुर मंडल के आहारका ग्राम दान देते पाते हैं। - भीनमालके गुर्जरों का राज्य दक्षिणमें नर्मदा और उत्तरमें मारवाड, पश्चिममें काठियावाड और पूर्वमे संभवतः मालवाकी सीमा पर्यन्त हो गया था, परन्तु इन्होंने अपने इस साम्राज्य सुखका अधिक दिनों पर्यन्त उपभोग नही किया, क्योंकि इस समयसे लगभग ४०-४५ वर्ष पश्चात् उत्तर गुजरात पर मालवावालोंने अधिकार कर लिया था। जब मालवा वालोंका अधिकार गुजरतपर हुआ और भीनमालके गुर्जरोंको पुनः उत्तरमे और वरलभिवालोको पश्चिममे हठना पडा उस समय भरुचके साथ भीनमाल वालोका संबंध विच्छेद हुआ और भरूच नंदिपुरके गुर्जरवंशको किसी अन्य राज्यवंशके आधीन होना पड़ा। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या भीनमालके गुर्जरोंको नर्मदाकी उपत्यकाका प्रदेश लभिके मैत्रकोंके हाथ से प्राप्त हुआ था ? यद्यपि वल्लभिके मैत्रकोंका अधिकार, उत्तर गुजरात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] खेटकपुर आदि भूभागपर होनेका स्पष्ट परिचय मिलता है, तथापि उनके अधिकारमें नर्मदा उपत्यकाके होनेका परिचय उस समयमें नहीं मिलता । इसके अतिरिक्त दद प्रथमके पौत्र दद द्वितीयके पूर्व कथित खेडावाले दोनो शासन पत्रोंसे प्रगट होता है कि दद प्रथमने नागजातिका उत्पाटन किया था। एपिप्राफिका इण्डिका वोल्युम २ पृष्ठ २१ में प्रकाशित शासन पत्रसे प्रगट होता है कि नर्मदा उपत्यकाको जंगली जातियोंपर निहलक नामक राजा शासन करता था। कथित शासन पत्रमे निरहुलक शंकरगणका उल्लेख बडेही आदर और उच्च भावसे करता है। जिससे स्पष्ट रूपेण प्रगट होता है कि वह शंकरगण के आधीन था। अब यदि हम निरहुलकके समय प्राप्त कर सके तो संभवतः दद प्रथम द्वारा पराभूत नागजातिका परिचय मिल सकता है। वातापि के इतिहास से प्रगट होता है कि मंगलीशने कलचुरीराज शंकरगण के पुत्र बुद्धवर्माको पराभूत किया था। मंगलीशका समय शक ४८८ से ५३२ पर्यन्त है। मंगलीश के राज वर्ष के ५ वें वर्ष के लेखमें बुद्धवाको पराभूत करनेका उल्लेख है। अतः शक वर्ष ४८८४५=४९३ में मंगलीशने बुद्धवाको जीता था। बुद्धवर्मा के पिताका नाम शंकरगण है। अब यदि हम शक ४६३ को बुद्धवर्माका अन्तिम समय मान लेंवे तो वैसी दशामें उसके पिताका समय अधिक से अधिक ५० वर्ष पूर्व जा सकता है। अर्थात् कलचुरी शंकरगणका समय शक ४४३ ठहरता है। उधर निरहुलकके स्वामी शंकरगणका समय, यदि हम उसे दद प्रथम द्वारा पराभूत मान लवे तो, किसीभी दशाम शक ४७५ के पूर्व नहीं जा सकता। अतः हम किसी भी दशामें उसे निरहुलक कथित शंकरगण · नहीं मान सकते। हां यदि बुद्धवांका समय शक ४६३ के आसपास प्रारंभीक मान लेंवें और निरहुलकका लेख इस समय से पूर्ववर्ती स्वीकार करें और उक्त समयको निरहुलकका प्रारंभकाल माने तो संभवतः निरहुलक और दद प्रथमकी समकालीनता किसी प्रकार सिद्ध हो सकती है। परन्तु इस संभवना के प्रतिकूल मंगलीश के उक्त लेखका विवरण पड़ता है। क्योंकि उसमें स्पष्टतया उसके पूर्व दिशा विजय के अन्तर्गत बुद्धवर्मा के साथ संघर्षका वर्णन है। परन्तु निरहुलक कथित शंकरगणका उत्तर दिशामें नर्मदा के आसपास में होना संभव प्रतीत होता है। हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि अपरान्त प्रदेश, वातापि से उत्तर दिशामें अवस्थित है, जहां पर त्रयकुटकोंका अधिकार था। और ताप्ति नदी के बामभाग वर्ती प्रदेशमें तो उनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ [ प्राक्कथन अधिकारका होना सूर्यवत् स्पष्ट है। इन त्रयकुटकों के अधिकारका स्पष्ट परिचय उनके शासन पत्रों तथा उनके संचालित श्रयकुटक संवत्के अपरान्त प्रदेश में सार्वभौम रूप से प्रचार होने से मिलता है। अतः हम कह सकते हैं कि निरहुलकके शासन पत्रने कथित शंकरगरण त्रयकुटवंशी और संभवत: त्रयकुटराज महाराजा व्याघ्रसेन के उत्तराधिकारीका पौत्र है। जिसका राज्यकाल त्रयकुटक संवत् २४१-४५ के मध्यकाल से प्रारंभ होता है । इस प्रकार मानने से कोई आपत्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि हम निःशंक होकर व्याघ्रसेन के और पौत्रको ५० वर्षका समय दे सकते है। और इस प्रकार २४२-४३ ५०=२६२-६३ में शंकरगरणका राज्यकाल प्रारंभ होता है। कथित समयके साथ नर्मदा उपत्यका में वसनेवाली नाग जातिके उत्पाटन - जिसका राजा निरहुलक था - कालका तारतम्य मिल जाता है। अतः हम निर्भय हों घोषित करते हैं कि दद प्रथमने इन्हीं नागोका उत्पादन कर नर्मदा - उपत्यकाको अधिकृत कर भीनमालके गुर्जर साम्राज्यमें मिलाया था। जिसके उपलक्षमें गुर्जर राजने उसे इस प्रदेशका सामन्त बनाया । पुत्र ददके पश्चात् उसका पुत्र जयभट भरूच नंदिपुर के गुर्जर सामन्त राज्यपर बैठा । परन्तु इसके राज्यकालकी किसीभी घटना का परिचय हमे नही मिलता । जयभटका उत्तराधिकारी उसका पुत्र दद द्वितीय हुआ । दद द्वितीय के खेडावाले लेखका उल्लेख हम कर चुके है। उक्त दोनों लेखोंसे प्रगट होता है कि दद द्वितीयको “ पंच महाशब्द का अधिकार प्राप्त था । और उसके राज्यके अन्तर्गत नर्मदा के दक्षिणका भूभागमी थी। क्योंकि उक्त शासन पत्र द्वारा उसने अंकुरेश्वर (अंकलेश्वर ) विषयान्तर्गत श्रीशपदक ग्राममं मृगु केछ और जम्बूसर निवासी ब्राह्मणको भूमिदान दिया था। म दद द्वितीय के प्रपौत्र जयभट तृतीयके सं. ४५६ वाले शासन पत्र (ई. १३५० के. होता है कि इसने कान्यकुब्ज पति हर्षवर्धनके आक्रमणसे वल्लभि नरेशकी चौलुक्य पुलकेशी द्वितीयके इतिहास- विवेचन | हमबता चुके हैं कि की थी। नन्दिपुरके गुर्जर उसके सामन्त थे और नर्मदा तटपर हर्षका मार्गावरोध उन्होंने उसकी आज्ञाते किया था । अंतमें युद्धस्थलमे स्वयं उपस्थित हो हर्षको पराभूत कर पृथ्वी वल्लभ की उपाधि असते, धारण को थी । पर्यालोचन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] दद द्वितीयके समय चीनी यात्री हुयानसांगने भृगुकच्छका अवलोकन किया था । और अपनी आंखों देखी अवस्थाका जो वर्णन किया था वह एक प्रकारसे आजभी भृगुकच्छके सम्बन्धमे लागू होता है । दद द्वितीयके उत्तराधिकारी जयभट द्वितोय का राज्यकाल पुनः घटना शून्य हुआ । तथापि दद द्वितीयके राज्यकालको दो महत्वपूर्ण घटना है। प्रथम घटना यह है कि लाट प्रदेशके नवसारीमें वातापिके चौलुक्य वंशको क शास्या स्थापित हुई और इस शाखाका संस्थापक विक्रमादित्य प्रथमका छोटाभाई धराश्रय जयसिंह था। द्वितीय घटना यह है कि उसने गुर्जर नामका परित्याग कर महाभारतीय वीर कर्ण से अपने वंशका सम्बन्ध स्थापित किया। एवं उसको वल्लभि और मालवावालोंसे संभवतः लडना पडा था । ____ जयभट द्वितोय अपने पिता दद तृतीयके पश्चान् गहीपर बैठा । यह महासमन्ताधिपति कहलाता था। इसकोभी पंच महाशब्दका अधिकार प्राप्त था। संभवतः इसने अपने ४८६ के लेखानुसार वल्लभिके मैत्रकोको पराभूत किया था। और इसके रायकालमें अरबोंने भरूचपर पाकमण कर संभवतः हस्तगत कर लूटपाट मचाया था। इसके अनन्ता वे आगे बढे, परन्तु धाराश्रय जयासिंहके पुत्र पुलकेशी द्वारा पीटकर स्वदेश को लौट गये । यह घटना सं. ४६१ की है। जयभट तृतीयके बाद इसबंशका कुछभी परिचय नहीं मिलता। संभवतः अरब युद्वमें राजवंशका नाश हो गया। लाट के चालुक्य । लाट प्रदेशके साथ चौलुक्योंका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दो प्रकार से सम्बन्ध पाया जाता है अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उनके केवल श्राधिपत्य और प्रत्यक्ष सम्बन्ध उनके निवास और आधिपत्य दोनों का क्षापक है। इनका अप्रत्यक्ष सम्बन्ध तीन भागोंमें बटा है । प्रथम भागमें वातापि-द्वितीय : भागमें वातापिकल्याण और तृतीय भागमें पाटणवालोंके आधिपत्य का समावेश है। वातापिवालोके सम्बन्धका प्रारम्भ चौलुक्य वंशके प्रथम भारत सम्राट और अश्वमेध कर्ता पुलकेशी प्रथमके राज्यकाल शक ४११ के लगभग और अन्त, द्वितीय भारत सम्राट पुलकेशी द्वितीयके तृतीय पुत्र विक्रमादित्य प्रथमके राज्य काल शक ५८७-८८ मे हुआ । वातापि-कल्याणवालोंके प्राधिपत्यका सूत्रपात-चौलुक्य राज्यलक्ष्मी का उद्वार कर अंकशायिनी बनानेवाले तैलप द्वितीयके राज्यकाल शक ९०० और अन्त लगभग शक १०१२ के लगभग होता है। पाटण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ [ प्राक्कथन था, वालों के संबधका सूत्रपात संभवतः शक १७७ से होता है । परन्तु इनका यह आधिपत्य क्षणिक क्योंकि गोर्गीराजने शीघ्रही इन्हें मार भगाया था । इस समय के पश्चात इन्होंने अनेकबार वसुन्धराको पददलित कर आधिपत्य स्थापित किया, परन्तु प्रत्येक बार इन्हें हटना पडा । परन्तु सिद्धराज जयसिंह के समय शक १०२० के आसपासमें लाटके उत्तराचल अर्थात् नर्मदा और मही मध्यवर्ती भूभागपर इनका स्थायी आधिपत्य हो गया था । और सिद्धराजके उ-राधिका कुमारपाल के समयतो इनका अधिकार साथी दक्षिणवर्ती भूभागपरभी था । किन्तु इनका यह आधिपत्यभी क्षणिक था । परन्तु लाटके उत्तरीय विभागपर तो पाटणवालोंका अधिकार अन्त पर्यन्त स्थायी रहा । इतनाही नहीं पाटन राज्य वंशका उत्पादन करने वाले धोलका के वघेलों के अधिकारमें भी लटका उत्तरीय प्रदेश था । जिस प्रकार चौलुक्योंका अप्रत्यक्ष सम्बन्ध तीन भागोमें बटा है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष संबंधी तीन भागो में बटा है। प्रथम भागमें नवसारिका - द्वितीय भागमें नंदिपुर और तृतीय भागमें बासुदेवपुरवालोंका समावेश है। नवसारिकावालोका अभ्युदय शक ५८७-८ और पतन शक ६६१ के पश्चात हुआ । नंदिपुरवालोंका अभ्युदय शक ६०० और पतन शक १०८० के लगभग हुआ। बासुदेवपुरवालोंका अभ्युदय शक १०२० के आसपास हुआ था इनम अस्तित्वज्ञापक प्रमाण शक १३१४ पर्यन्त मिलता है । इन्हीं तीन राजवंशो के ऐतिहासिक लेखोंका संग्रह और विवेचन प्रस्तुत ग्रंथका विषय है । यद्यपि हम यथा स्थान लेखों का विवेचन करते समय इनके इतिहासका विचार आगे चलकर करेंगे तथापि यहांपर कुछ सारांश देना असंगत न होगा। अतः निम्न भागमें यथाक्रम अति सूक्ष्म रूपमें इनके इतिहासका सारांश देनेका प्रयत्न करते हैं । लाट नवसारिका के चालुक्य । हम ऊपर बता चुके है कि इस बंशका संस्थापक वातापि प्रति चौलुक्वराज विक्रमादित्य प्रथमका छोटाभाई धराश्रय जयसिंह वर्मा था। परन्तु लाट प्रदेशमें संस्थापित वातापिकी कथित शाखा अथवा उसके संस्थापक जयसिंहका परिचय वातापिके किसी भी लेखमें नहीं मिलता है। यदि लाट प्रदेशके विभन्न स्थानोंसे जयसिंहके पुत्रों का शासन पत्र न मिले. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] होते तो हमें इस वंशका कुछभी परिचय नहीं मिलता। प्रायः देखनेमें आता है कि राजवंशोके अपने शासन पत्रोमें केवल राज्यः सिंहासनपर बैठनेवालोंकाही परिचय दिया जाता है। उनके भाई भतीजोंका नामोल्लेखभी नहीं किया जाता । गादीपर बैठनेवालोंके भाई भतीजोंका परिचय उनके किये हुए अपने दान पत्रादिमें मिलता है। जो वे अपनी जागीरके गावों में से यदा कदा ब्राह्मणादिको दान देनेके उपलक्षमें प्रचारित करते हैं। अतः जयसिंहका परिचय वातापिके शासनपत्रों में नहीं मिलना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। ___ वातापिके शासन पत्रादि केवल जयसिंह के संबंधही मौन नहीं है, वरन उसके अन्य दो बड़े भाई आदित्यवर्मा और चंद्रादित्यके संबंधमी वे समान रुपेण मौन है। यदि आदित्यवर्माका स्वयं अपना और चंद्रादित्यकी राणी विजयभट्टारिका महादेवी के शासन पत्र न मिले होते तो न तो उन दोनोंका परिचय मिलता और न पुलकेशी द्वितीय तथा विक्रमादित्य प्रथमके मध्यवर्ती अवकाशका संतोषजनक रीत्या समाधान होता। जयसिंह तथा नवसारिकाके चौलुक्यवंशका परिचायक अद्यावधि, हमें जयसिंहके पुत्र और पौत्रों के ५ लेख मिले हैं। इन लेखोंका संग्रह और अनुवाद तथा पूर्ण विवेचन " चौलुक्य चंद्रिका लाट खण्ड' में अभिगुन्ठित है। इन कथित ५ लेखोमें से जयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र युवराज शिलादित्यके दो, 'द्वितीय पुत्र तथा उत्तराधिकारी मंगलराजके एक, तृतीय पुष बुद्धव के पुत्र विजयराजको एक और चतुर्थ पुत्र पुलकेशीका एक है। इन लेखोंमेंसे युवराज शिलादित्य के प्रथम लेखमें जयसिंहका अपने बड़े भाई विक्रमादित्यकी कृपासे राज्य प्राप्त करनेका म्पध्र उल्लेख किया गया है। और द्वितीय लेनमें, बातापि पति विक्रमादित्य प्रथमके पुत्र विनयादित्यको अधिराज रूपसे स्वीकार किया गया है। इन दोनों लेिको मात्रा अल्या तीमा लेखों में अन्तर केवल इतनही है कि इसमे वातापिके तत्कालीन राजाको अधिराजापोगन्दीका किया मया है परन्तु उत्तर यी तीन लेलोंमें वातापिली संशावलीको साकासय मात्र चार्जित कियावाया है। लेखी पर्यालोचनले निकाका बंशावपलमाहोतो हैमी 31h Sri Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन की ति व मा: - - विक्रमादित्य .... धरा श्र य ज य सिंह - या दि त्य शि ला दित्य मंगल राज बुद्ध वर्मा पुल के शी ............ ... विजय राज ... पुनश्च इन शासन पत्रोंसे प्रगट होता है कि इनको राज्यधानी नवसारी में थी। और इनके अधिकार में दमनगंगासे लेकर नर्मदाके बाम भाग अवस्थित भूभाग निधान्त रूपेण था । और संभवतः इनके राज्य की पूर्वीय सोमापर खानदेश था। इनकी आग्नेय सीमा नासिकके प्रति घुसती थी। जयसिंहके ज्येष्ठ पुत्र युवराज शिलादित्यकी मृत्यु पिताकी जीवित अवस्थामेहीं हुई थी। अतः जयसिंहका उत्तराधिकारी उसका द्वितीय पुत्र मंगलराज हुआ। मंगलराज के पहिलेही बुद्धवांकी मृत्यु हुई प्रतीत होती है। मंगलराजभी निःसंतान मरा। अतः उसका उत्तराधिकारी पुलकेशी हुआ । मंगलराजके उत्तराधिकारी पुलकेशीके राज्यकालम अरबोंने भारत पर आक्रमण किया था और लूटपाट मचाते हुए भरूच तक चले आये थे। जव उन्होंने दक्षिणापथ अर्थात वातापिराज पर आक्रमण करनेके विचारसे आगे पांव बढाया तो पुलकेशीने उन्हे कमलेज के पास पराभूत कर पीछे भगाया। पुलकेशीके पश्चात् इस वंशका कुछभी परिचय नहीं मिलता । संभवतः वातापि छोननेवाले राष्ट्रकूटोंने इस वंशका नाश किया । लाट के राष्ट्रकूट। जिस प्रकार लाट वसुन्धराके साथ चौलुक्योका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षात्मक दो प्रकारसे सम्बन्ध है उसी प्रकार राष्ट्रकूटोंका सम्बन्ध है। लाट देशके साथ राष्ट्रकूटोंके अप्रत्यक्ष सम्बन्धके परिचय सम्बन्ध में हमें दक्षिणापथके इतिहासका पर्यालोचन करना होगा । दक्षिणापथके इतिहाससे प्रकट होता है कि मान्यखेटके राष्ट्रकूटोंका प्रताप शीघ्रताके साथ बढ रहा था। मान्यखेटके राष्ट्रकूट दन्तिदुर्ग के इलोरा गुफाके दशावतार मन्दिरमें उत्कीर्ण ६७२ वाले लेखसे प्रकट होता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लुक्य चंद्रिका ] कि उसने मालवा और लाटको विजय किया था। एवं उसके शासन पत्र (इ. ए. ११११२ मे प्रकाशित ) से प्रकट होता है कि दन्तिदुर्गके अधिकारमें मही नदी पर्यन्त भूभाग था। और उसकी माताने खेटकपुरके मातर परगणाके प्रत्येक गांवकी कुछ भूमि दान दी थी। इससे स्पष्ट है कि दन्तिदुर्गने सम्भवतः अरब युद्धके पश्चात पुलकेशीके हाथसे लाटका दक्षिण भाग और भरूचके गुर्जरोंसे लाटका उत्तर भाग प्राप्त किया था। दन्तिवर्माकी यह विजय सम्भव हो सकती है । क्यों कि अरब युद्ध और इसके शासन पत्रकी तिथिमें ११ बर्षका अन्तर है। लाटके साथ राष्ट्रकूटोंका प्रत्यक्ष सम्बन्धका परिज्ञापक सूरत जिलाके आन्तरोली चारोली से प्राप्त कर्क द्वितीयका शक ६६६ वाला शासन पत्र है । प्रस्तुत शासन पत्रमें शासन कर्ताकी वंशावली निा प्रकारसे दी गई है। ध्रुव गोविन्दराज पुनश्च इस शासन फासे प्रकट होता है कि शासन काकी माता नागबमाकी पुत्री थी । और इसका विरुद्ध "समधिगत पंच महा शब्द प्राप्त परं भट्टारक महाराज". था। अतः अब विचारना है कि सामन्त और स्वतन्त्र नरेशोके समान विरुद धारण करनेवाला यह सटकूट वशी कर्क कौन है ! और इसको ताप्ति और नर्मदाके मध्यवर्ती भूभाग-जो लाट नवसारिकाके चौलुक्योके राज्य मे था और जिसे मान्यखेटका राष्ट्रकूट दन्तिवर्मा अधिकृत करने । दावा करता है-का अधिकार क्यों कर मिला। प्रस्तुत शासन पत्रकी तिथि अश्वयुज शुक्ल सप्तमो शक ६६९ है। शक ६६६ की समकालीनता विक्रम ८०४ से प्राप्त होती है । नवसारीके चौलुक्यराज पुलकेशीका शासन पत्र अज्ञात संवत (त्रयकुटक) ४६० तदनुसार विक्रम ७९६ से स्पष्टतया प्रकट है कि उस समय नवसारिका के. चौलुक्यवंशका शौर्यसूर्य पूर्णरूपेण प्रकाशित हो रहा था । प्रस्तुत शासन पत्र और उसके मध्यमें केवल आठ वर्षका अन्तर है। संभवहै कि अरब युद्ध पश्चात् पुलो शीकी शक्ति नष्ट हो गई हो, और कने उसकी निर्बलतासे लाभ उठा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन अनायासही शासन पत्र कथित भूभागपर अधिकार कर लिया हो । दन्तिवर्मा और कर्क द्वितीयके लेखोंमें तीन वर्षका अंतर है । दतिवर्माका लेख उत्तरभावी और कर्कका पूर्व भावी है । अतः हम कह सकते हैं कि इसका सामंजस्य सम्मेलन असंभव नहीं है। इस सामंजस्य संम्मेलनार्थ हम कह सकते है कि वह विजय प्राप्त करनेके पश्चात् अपने अधिकृत राज्यका उपयोग नहीं कर सका । दंतिवर्माने आकर अनायासही उसके अधिकृत राज्यको हस्तगत कर लिया । चाहे हम कर्कको प्रथम विजयी मान लेवें और दंतिवर्माको उसे पराभूत करनेवाला मान लेवें परंतु हम यह कदापि नही मान सकते कि कर्कके पूर्वज शासन पत्र कथित भूभाग पर चिरकालसे अधिष्ठित और शासन करते थे क्योंकि शासन पत्रकी तिथि शक ६६९ से पूर्व कर्क प्रथमके लिये कमसे कम हमें ७५ वर्ष देने पडेंगे । इस प्रकार कर्क प्रथम का समय ६६९-७५-५६४ क आसपास पहुंचता है । इस समय वातापि और नवसारीके चौलुक्योंका प्रताप सूर्य मध्य गगनमें प्रखर रूपसे प्रकाशित होरहा था । पुनश्च शासन पत्र कथित स्थानोंके आसपास नवसारीके चौलुक्यों के अधिकारका स्पष्ट परिचय विक्रम ७६६ पर्यन्त मिलता है। अतः यह निश्चित है की कर्क ने कही अन्यत्रसे आकर अधिकार किया था और अपनी विजयका उपलक्षमें उक्त दान दिया था। ___ परन्तु इस संभावना के प्रतिकूल कर्कका विरुद "समधिगत पंच महा शब्द" पड़ता है जिससे स्पष्ट है कि वह किसी का सामन्त था और उसे पंच महा शब्दका अधिकार अपने स्वामीसे प्राप्त हुआ था । अब विचारना है कि कर्कका स्वामी कौन हो सकता है। पूर्वमें हम दक्षिणापथ मान्यखेटके राष्ट्रकूटोंके इतिहासके पालोचन से प्रगट कर चु हैं कि दंतिवर्माने लाट प्रदेशको विजय किया था । केवल इतनाही नहीं इसकी माताने खेटकपुरके मातर विषयके प्रत्येक ग्रामकी कुछ भूमि दान दिया था। अब यदि हम दंतिवर्मा और कर्कके जातीय संबंधको दृष्टिकोणमें लावें और साथही नवीन अधिकृत भूभागपर स्वजातीय बंधुओंको शासक नियुक्त करनेके लाभालाभ पर राजनैतिक दृष्टि से विचार करें तो कह सकते है कि दंतिदुर्गने कर्कको नवीन अधिकृत भूभाग पर अपने अधिकारको स्थायी वनाने के विचारसे सामन्त बनाया था । अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या कर्क द्वितीय दंतिदुर्गका केवल स्वजातीय बंधु अथवा सम्बंधी था । दंतिदुर्गके इलोरावाले लेखमें उसकी वंशावली निम्न प्रकारसे दी गई है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका दंतिवर्मा ( प्रथम) इंद्रराज (प्रथम) गोविन्दराज ककराज इंद्रराज (द्वितीय) दंतिदुर्ग अब यदि हम ककेके शासन पत्र कथित कर्क प्रथमको दंतिदुर्गके लेख कथित कर्क मान लेवें तो कहना पड़ेगा कि कर्क दंतिदुर्गका सगा चचेरा भतीजा था ! इस प्रकार मान लेनेसे मान्यखेटके राष्ट्रकूटों की वंशावली निम्न प्रकारसे होती है। दंतिवर्मा (प्रथम) इन्द्रराज (प्रथम) गोविंदराज (प्रथम) ककराज (प्रथम) कृष्णराज इन्द्रराज (द्वितीय) ध्रुवराज दन्तिदुर्ग (द्वितीय) गोविन्दराज (द्वितीय) । कर्कराज (द्वितीय) गोविन्दराज ध्रुवराज (द्वितीय) उद्धृत वंशावली तथा अन्यान्य बातों पर लक्ष कर हम कह सकते हैं कि प्रान्तरोली चारोली वाले शासन पत्र कथित कर्कराज द्वितीय दन्तिवर्माका सगा चचेरा भतीजा था। हमारी यह धारण केबल अनुमानकीही भित्ति पर अवलम्बित नहीं है वरन इसका प्रबल प्रमाणात्मक आधार है। इसी प्रकार ज्यूधृत वंशावलीका कृष्णराज दन्तिदुर्गका दूसरा चचा था। जो दन्तिदुर्गके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ [प्राक्कथन पश्चान् मान्यखेटके राष्ट्रकूट राज्य सिंहासन पर बैठा था दन्तिदुर्गके अपुत्र मरने के पश्चात् कर्कने उत्तराधिकारके लिए विवाद उपस्थित किया, और अपने चचेरा वादा कृष्णराजसे लड़ पड़ा। हमारी समझ में कर्कके इस विवादका आधार यह था कि उसका दादा ध्रुवराज दन्तिदुर्गके पिताका माला भाई था। परन्तु इस विवादमें कर्कको अपने अधिकार और प्राण दोनोंही गंवाने पडे । हमारी इस धारणाका समर्थन कृष्णके प्रपौत्र, और गुजरातमें राष्ट्रकूटवंशकी स्थापना करनेवाले इन्द्र के पुत्र, कर्कके बरौदासे प्राप्त और इन्डियन एन्टीक्वेरी बोल्युम १२ पृष्ठ १५६ में प्रकाशित लेखके वाक्य कृष्णराजने दन्तिदुर्गके पश्चात् स्ववंशके कल्याणार्थ स्ववंशके नाशमें प्रवृत्त आत्मीयका मूलोच्छेदन करके राज्यधुरी संचालनका भार स्वीकार किया। इस शासन पत्रके कथन,-"स्ववंशके नाशमें प्रवृत आत्मीयका मूलोच्छेद करके" तथा हमारी धारणा : “ कर्कको अधिकार और प्राण गंवाने पडे " का समर्थन अन्तरोली चारोली वाले कर्कराजके वंशजोंका कुछभी परिचय नहीं मिलनेसे होता है। इन बातों पर लक्ष कर हम कह सकते हैं कि लाट वसुन्धराके साथ राष्ट्रकूट वंशका सम्बन्ध स्थापित करनेवाला दंतिदुर्ग द्वितीय है। उसने स्वाधीन माट देशको, शक ६६६ के पूर्व नवसारीके चौलुक्योंको पराभूत करके राष्ट्रकूट बंशके स्वाधीन किया था । लाटदेश अधिकृत करने पश्चात उसने अपने चचेरे भतीजा कर्कको लाटका सामन्त बनाया । परन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके द्वितीय चचा और कर्कके मध्य उत्तरधिकारके लिये विग्रह मचा है । कर्क युद्धमें मारा गया और कृष्ण विजयी होकर राष्ट्रकूट राज्य सिंहासन पर बैठा। कृष्णराज के बाद उसका बडा लड़का पुत्र गोविंदराज गरी पर बैठा परन्तु उसे उसके छोटेभाई ध्रुवराजने उसे गद्दीसे उतार खुद राजा बना । ध्रुवराजने अपने वंशके अधिकारको खूब बढ़ाया । और अपने बड़े पुत्र गोविंदको बाटदेशका शासक नियुक्त किया । गोविंदने लाटदेशका शासक होनेके पश्चात् अपनी राजधनी नासिकके अन्तर्गत मयूर खण्ड नामक स्थानको बनाया । एवं स्तम्बपति और मालवराजको पराभूत किया । मालवा विजयके पश्चात् . मोविंव : विय, देशके प्रति अग्रसर हुआ और पूर्व मालवाके राजा....मारः सर्वको स्वाधीन कर लाट देशको चौद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] मार्गमें भरूच जिलाके सरभौन नामक स्थानमें वर्षा ऋतु की ( इ. ए. ६. ६४) इसके अनन्तर गोविंद दक्षिण चला गया और जाते समय अपने छोटे भाई इन्द्रको लाट और गुजरातका सामन्तराज बनाता गया । अतः लाट और गुजरातका राष्ट्रकूट वंशी सर्व प्रथम राजा इन्द्र हुआ । इंद्र के वंशजोंने लाट और गुजरात देश पर पांच वंशश्रेणी पर्यंत राज्य किया। इनके लाट गुजरात राज्यकाल की अवधि शक ७३० से शक ८१० पर्यंत ८० वर्ष है । इस अवधिमें इस वंशके राजाओं की संख्या ८ है। इनके विविध शासन पत्र और ऐतिहासिक लेखके पयांलोचनसे गुजरात के राष्ट्रकूटोंकी वंशावली निम्न प्रकारसे होती है। -: वंशावली : इंद्रराज कराज गोविंदराज ध्रुवराज दंतिवर्मा कृष्ण (अकाल वर्ष) शुमतुङ्ग (अकाल वर्ष) ध्रुवराज गुजरात के राष्ट्रकूटोंके अद्यावधि ८ शासन पत्र प्राप्त हुए हैं । जिनमें कर्कके तीन लेख हैं। प्रथम बरोदासे प्राप्त शक ७३४ का, द्वितीय नवसारीसे प्राप्त शक ७३८ का और सूरत से प्राप्त शक ७४३ का है। कर्क के भाई और उत्तराधिकारी गोविंदका कावीसे प्राप्त शक ७४९ का एक लेख, ध्रुवका बरोदासे प्राप्त शक ७५३ का एक लेख और ध्रुव राजके पुत्र और उत्तराधिकारी अकाल वर्ष शुमतुङ्गके पुत्र ध्रुव द्वितीयका प्रथम लेख बगुमरासे प्राप्त शक ७८६ का और द्वितीय लेख बरोदासे प्राप्त शक ७६३, और इस वंशका अंतिम लेख कके द्वितीय पुत्र दंतिवर्माके पुत्र अकालवर्ष कृष्ण का बगुमरासे प्राप्त शक ८१० का है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राक्कथन इन शासन पत्रोंके पर्यालोचन से प्रगट होता है कि इनका अधिकार वलसाड़ दक्षिणोत्तर से लेकर खेड़ा पर्यन्त था । परन्तु इनकी पूर्वीव सीमा ज्ञात नहीं है कर्कके वरौवा से प्राप्त शक ७३४ वाला शासन वटपाद्रक के दानका - नवसारीसे शक ७३८ वाला शासन जो 'खेटपुरमें प्रचारित किया गया था, शर्मा पत्रक ग्रामके दानका और सूरत से प्राप्त शक ७४३ वाला शासन पत्र जो वन्किका से प्रचारित किया गया था, नागसारिकाके जैन मंदिर को अम्बा पाटक ग्राममें कुछ भूमि देनेका उल्लेख करता है। गोविंदका कावीसे प्राप्त शक ७४९ वाला शासन पत्र जो भृगुकच्छसे प्रचलित किया गया था, कोटिपुरके सूर्य मंदिरको ग्राम दानका वर्णन है | ध्रुव प्रथम वरोदासे प्राप्त शक ७५७ वाला शासन पत्र जो खेटपुरके समीप वाले सर्व मंगला नामक स्थानसे प्रचारित किया गया था, और वदरसिद निवासी योग नामक को ग्राम दानका उल्लेख करता है । ध्रुव द्वितीयका बगुमरासे प्राप्त शक ७८६ वाला लेख जो भृगुकच्छ से शासित था, परहृनाकके ब्राह्मणको दान देनेका वर्णन करता है । इसका बरौदावाला लेख जो भृगुकच्छसेही शासित है, मही नदीके समीपवर्ती कोनवाली नागभान ग्रामके कपालेश्वर महादेव मन्दिरके दानका वर्णन करता है । अन्ततो गत्वा कालवर्ष कृष्णका बगुमसे प्राप्त शक ८१० वाला शासन पत्र जो अकुरेश्वर से शासित है । ११६ ग्रामवाले वारिहावि (वरीआव) विषयके का विस्थल ( कोसाड ) गाम निवासी त्राह्मरंगों को मूमिदान देने का वर्णन करता है। २१ पुनश्च इन शासन पत्रों पर दृष्टिपात करने से प्रगट होता है कि गुजरातके इन राष्ट्रकूटोंका इतिहास निम्न प्रकारसे है। गुजरातके राष्ट्रकूट वंशके संस्थापकइन्द्रराजको अपने • बड़े भाई गोविंद राजकी कृपा से लाट प्रदेशका राज्य शक ७३० में मिला । परन्तु इसने प्राप्त राज्यलक्ष्मीका उपभोग केवल चार वर्ष किया इसी थोड़ी अवधिर्मेभी इसे सुख और शान्ति प्राप्त नहीं हुई। संभवतः इसपर गुर्जर नरेशने आक्रमण किया था । परन्तु इसने उसे मार 3. भगाया । अपनी इस विजयसे उन्मत्त हो स्वतंत्र बननेके प्रयोगमें लगा । इसे अपने इस कार्य में प्रवृत्त होनेका अवसर भी मिल गया । क्योंकि राष्ट्रकूटवंशी अन्यान्य सामन्तोंने प्रधान शाखाका विरोध किया । यह झटपट उनके साथ मिल गया । परन्तु राजकुमार श्री वल्लभ (सर्व अमोघ - वर्ष) ने स्वजातीयोंकी सम्मिलित सेनाका दमन कर इस विद्रोह अभिको जनमतेही शान्तकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat • www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] २२ दिया । अतः इन्द्रको स्वातंत्र्य सुखभोगका अवसर न मिला। स्वातंत्र्यकी आशा के साथही उस अपने नश्वर शरीरका संबंधभी छोड़ना पड़ा । इन्द्रके पश्चात् गुजरातके राष्ट्रकूट सिंहासन पर उसका बड़ा पुत्र कर्कराज बैठा । बसने शक ७३४ के पूर्व गब्दी पर बैठतेही अपने पिता की " प्रधान शाखाके साथ विरोध” नीतिका परित्याग कर सहयोग मार्गका अवलम्बन किया । और अपने चचा गोविंद तृतीयकी सहायतामें अपनी सेनाके साथ उपस्थित हुआ । जब गुर्जर नरेशने मान्यखेटके श्राधीन मालव नरेशके पर आक्रमण किया तो कर्क अपनी सेनाके साथ रणमें उपस्थित हो उसकी रक्षाकी थी। पुनश्च जब शक ७३६ मे गोविंद तृतीयकी मृत्यु पश्चात् राजकुमार श्री वल्लभ सर्व अमोघवर्षक उत्तराधिकारका विरोध उसके संबंधियों के संकेत से सामन्तोंने किया तो कर्क अपनी सेनाके साथ आगे बढ़ उनका दमन कर उसे सिंहासन पर बैठाया। जिसकी कृतज्ञता में उसने व.कको संभवतः उत्तर कोकणका समुद्र तटवर्ती भूभाग प्रदान किया। संभवतः शक ७४८ के आसपास कर्ककी मृत्यु हुई और उसके दोनों पुत्रों धुबराज और दन्तिवर्मा के अल्प वयस्क होनेके कारण उसका छोटाभाई गोविंद गब्दी पर बैठा । गोविंदने लाट वसुन्धराका उपभोग शक ७४८ से ७५६ पर्यन्त किया । पश्चात् कर्कका ज्येष्ठ पुत्र भुबराज बयस्क होने पर गद्दी पर बैठा यह ज्ञात नहीं कि गोविंदने अपनी इच्छासे युबराजको वयस्क होने पर राज्यभार दे दिया था अथवा उसने बल पूर्वक अपने पैतृक अधिकार को प्राप्त किया था | भुष प्रथमको गद्दी पर आने पश्चात् प्रधान शाखाके साथका सौहार्द टूट गया । गुजरात और दक्षिणके दोनों ( प्रधान और शाखा) राष्ट्रकूट वंशपुनः विग्रह जालमें फंस गये मान्यखेटके राष्ट्रकूटराज श्री वल्लभ अमोघ वर्षके लेखोंसे प्रगट होता है कि उसने अठिका पर आक्रमण कर उसे नष्ट कर दिया था । पुनश्च इस विग्रहका स्पष्ट परिचय ध्रुव प्रथमके पुत्र ध्रुव द्वितीय के बगुमरा वाले शक ७८६ के लेखमें मिलता है। उक्त लेखसे ज्ञात होता है कि ध्रुब प्रथमने श्री बल्लभ की सेनाके साथ लडता हुआ घोर रूपसे आहत हो रणक्षेत्रमें अपने नश्वर शरीरका परित्याग किया था । भुव प्रथमकी मृत्युके पश्चात् उसका पुत्र अकालवर्ष गद्दी पर बैठा और आक्रमणकारी श्रीलकी सेना को पराभूत कर अपने पैतृक अधिकारको स्वाधीन न किया । अकालवर्षके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राक्कथन २३ पश्चात् उसका पुत्र ध्रुव द्वितीय गद्दी पर बैठा । इसके राज्यारोहण के समय उसके संम्बधिने उपद्रव मचाया किन्तु उनके विद्रोहको इसने दमन किया । इस घटनाका उल्लेख ध्रुवके नगुमरा और बरौदावाले दोनों लेखोंमें है । पुनश्च ध्रुवके बगुमरावाले लेक्से प्रगट होता है कि उसके राज्य पर मेहरराजने आक्रमण किया था । परन्तु इसने अपने गोविंदराज नामक बन्धुभ्राताकी सहायता से उक्त मेहरराजको पराभूत किया । ध्रुवके राज्यकालमेंही संभवतः गुजरातके राष्ट्रकूटों के से वातापिके दक्षिणका प्रदेश निकल गया प्रतीत होता है । क्योंकि बगुमरा वाले लेखमें चार वर्ष उत्तरकालीन बरोदावाले लेखमें स्पष्टतया ध्रुवके राज्यको नर्मदा ( भृगुकच्छ ) और मही नदी मध्य परिमित होनेका उल्लेख पाते हैं। संभवतः श्रीवल्लभ श्रमोघ वर्ष उक्त प्रदेशको प्रधान शाखा अधिकारमें मिला लिया था जिसको ध्रुवके क्वा और उत्तराधिकारी अकाल वर्ष : पुनः प्राप्त किया। जिसका उल्लेख उसके बगुमरा वाले शक ८१० के लेखमें पाया जाता है। हाथ द्वितीयक मृत्यु कब हुई और इसके भाई गोविंदका क्या हुआ इसका कुछभी परिचय नहीं मिलता । संभवतः गोविंदकी मृत्यु भुक्के पूर्व हुई थी । वरना अकालवर्ष उसका चचा उसका उत्तराधिकारी नहोता । अकालवर्षके वगुमरा वाले शक ८१० के लेखों में उसे स्पष्टतया कर्कका पौत्र और दन्तिवर्माका पुत्र लिखा है। अकाल वर्षके पिता दन्तिवर्माको फर्क के शक ७३४ वाले शासन पत्र कथित दूतक राजपुत्र दन्तिवर्मा मान कर पाश्चात्य विद्वानोंने उसे कर्कका ज्येष्ठ पुत्र माना है और शंका की है कि कदाचित बगुमराके उक्त लेखकी वंशावली में कुछ भूल है । क्योंकि दन्तिवर्मा कथित शक ७३४ लेखका दूतक होने के कारण वह अवश्य उस समय वयस्क था | अतः उसके पुत्र अकाल वर्षका लगभग ७६ पर्यन्त जीवित रहना असंभव है । इन विद्वानोंकी इस उद्भाविता शंकाके समाधान हमारा विनम्र निवेदन है कि आद्योपान्त भूल कर रहे हैं। इनकी भूल करनेवाला कहनेका कारण निम्न है । १- किसी शासन पत्रमें " राजपुत्र शका प्रयोग इतके नामके साथ — दूतकको शासन कर्ता राजाका पुत्र नहीं सिद्ध कर सकता चाहे शासन कर्ताको दूतकके नामक शशी पुत्रमी क्यों न हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ," www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ... २-अनेक राजाओं के शासन पत्रोंमें दूतकके नामके साथ “ राजपुत्र" विशेषण देखनेम आता है अतः हम कह सकते हैं कि “राजपुत्र" शदका प्रयोग " राज वंशोद्भव" भाव ज्ञापन करनेके लिये किया जाता है। कथित “राजपुत्र" शब्दका विशेष प्रयोगही उत्तरभावी " राजपुत्र" शद्वका जनक है। ___.. ३-यदि उनकी संभावनाके अनुसार दन्तिवर्माकी मृत्यु पिताकी जीवित अवस्थामेहीं हो गई थी; और उसका द्वितीय पुत्र (कर्कराज) उसकी वृद्धावस्थामें हुआ था जिसके अल्प वयस्क होने के कारण गोविंद गद्दीपर बैठा। तो ऐसी दशामें हमें अकाल वर्षका जन्म अपने चचा ध्रुवके जन्मसे पूर्व मानना पड़ेगा। और ऐसा माननेपर वह अल्प वयस्क क्योंकर होसकता है। पुनश्च कर्कराजके ज्येष्ठ पुत्र होनेके कारण वह न्यायोचित उत्तराधिकारी था। वैसी दशामें गोविंद और ध्रुवको राज्य क्योंकर मिल सकता है। इन्हीं कारणोंको लक्षकर हमने यह निश्चय किया हैकि दन्तिवर्मा न तो कर्क राजका ज्येष्ठ पुत्र और न उसके शासन पत्रका दूतक था। वरन वह उसका छोटा पुत्र और ध्रुवराजका अनुज था। अब यदि हम दन्तिदुर्गका जन्म पिताकी मृत्युके कुछ पूर्व मान लेवें तो वैसी दशामें उसका जन्म हमें ७४७-४७ में मानना पड़ेगा। अतः शक ८१० में अपना शासन पत्र जारी करते समय उसकी आयु ६२ वर्षकी ठहरती है। जबके पाश्चात्य विद्वान, श्री वल्लभ अकाल वर्षका राज्य काल ७३६-७९९ वर्ष ६३ विना मीन मेष मानते हैं। तो वैसी दशामें शुमतुङ्ग अकाल वर्षकी आयु ६३ वर्ष माननेमें आनाकानी करना सरासर मनमानी घरजानी के बराबर है। ... अकाल वर्षके साथही लाट गुजरातके राष्ट्रकूटोंके प्रत्यक्ष संबंधकी समाप्ति होती है। परन्तु यह समाप्ति ठीक किस समय हुई इसका परिचय नहीं मिलता । किन्तु यह निश्चित है कि शक ८१० और ८३६ के मध्य किसी समय प्रधान शाखावालोंने लाट गुजरातकी शाखाका अन्त कर लाट-गुजरातको स्वाधीन कर लिया था। राष्ट्रकूटों का अप्रत्यक्ष सम्बन्ध - दक्षिणा पथ मान्यखेटके राष्ट्रकूटोंका द्वितीयवार अप्रत्यक्ष संबंध शक ८१० के पश्चात् कृष्ण अकाल वर्षसे स्थापित किया और यह अप्रत्यक्ष संबंध शक ८६३ पर्यंत स्थित प्रतीत होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन है। इस अवधिमें मान्यखेटके राष्ट्रकूट सिंहासनपर आठ राजा बैठे। इन राजाओंका समावेश चार वंश श्रेणीमें है । और इनकी वंशावली निम्न प्रकारसे होती है। अकाल वर्ष कृष्ण जग तुङ्ग इन्द्र रा ज (तृतीय) दिग अमो घ वर्षे गोविंद राज कृष्ण खो टिग निरुपम ककल (क के राज) इनके इतिहासके परिचायक इनके अनेक शासन पत्र हैं। कृष्ण अकालवर्षके पौत्र इन्द्रराजके नवसारीसे प्राप्त शक ८३६ के दो लेख और उस (कृष्ण) के सामन्त प्रचण्डका कपडवंजसे प्राप्त शक ८३२ का तीसरा लेख है। इन शासन पत्रोंके पर्यालोचनसे ज्ञात होता हैकि अकाल वर्ष कृष्णने संभवतः शक ८३२ में गुजरातके राष्ट्रकूट ( शाखा ) वंशका नाश संपादन किया था । उक्त युद्ध में उसके शिल्हारवंशी सामंत तथा प्रचण्ड नामक सेनापतिने पूर्व शौर्य दिखाया था । कृष्ण अकाल वर्षके बाद उसका पुत्र इंद्र तृतीय गद्दी पर बैठा। इसके समय लाट और गुजरातका संबंध अक्षुण्ण रूपसे पाया जाता है, इंद्रराजके पश्चात् लाट गुजरातके साथ इनका सम्बंध पाया नहीं जाता, इसका कुछभी परिचय नहीं मिलता। परंतु शिल्हारों के खारेपाटनवाले लेखसे प्रगट होता है कि ये राष्ट्रकूटोंको अपना अधिराज कहते थे अनंतर हम एक वयक शक ६०० के आसपासमें चौलुक्यराज तैलपदेवके सेनापति वारणको पाते हैं। शिल्हार राजवंश हमारे विवेचनीय ऐतिहासिक काल तथा देशके साथ स्थानकके शिल्हारओंका संबंध है। अतः हमारी समझमें इनके अधिकार और इतिहास पर कुछ प्रकाश डालना भावश्यक प्रतीत होता है। इस हेतु निम्न भागमें सूक्ष्म रूपसे कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न करते हैं। अद्यावधि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य पत्रिका ] ૨૯ उत्तर कोकणके शिल्हराओं के वर्तमान कोलाबा और थाना जिलाके विविध स्थानोंसे शक ७५० से ११८२ के मध्यवर्ती निम्न ताम्र शासन और शिलालेख प्राप्त हुए हैं । १ - श्री स्थानक ( वर्तमान थाना ) े प्रसिद्ध पटषष्टि (शालिशेट) द्वीपके कृष्णगिरी (कन्हेरी) " की गुफा संख्या ७८ का पुलशक्ति हे राज्यकालीन विना संवत्का शिलालेख । २ – उक्त कृष्णगिरीका गुफा संख्या १० और ७८ में उत्कीर्ण शक ७७५ और ७६६ वाला कापदि द्वितीयका शिलालेख । ३- अपराजितका शक ९९९ वाला शासन पत्र, जो थाना जिला के भीवंडी तालुकाके मदन नामक स्थान से प्राप्त हुआ था । ४- धानासे प्राप्त अरिकेसरीका शासन पत्र संवत ६३६ का । ५- चितिराजका शक ९७८ वाला शासन पत्र | 23 ६- मुममुनिका शक ९८२ ७ - अनंतपालका शक १००३ और १०१८ वाले दो शासन पत्र | ८ - अपरादित्यका शक १०६० वाला शिला लेख । ९ - हरिपालदेवका शक १०७०-१०७१ और १०७५ वाले तीन लेख । १० - मल्लिकार्जुनका चिपलूनवाला शक १०७८ और वेसीनवाला शक १०८२ का दो लेख । ११ - अपरादित्य द्वितीयका शक ११०६ और ११०९ वाले दो लेख । १२- सोमेश्वरका शक ११७१ और १९८२ वाले दो लेख । 13 "" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 1 इसके अतिरिक्त इनका राष्ट्रकूटोंके लेखोमें प्रसंगानुसार उल्लेख पाया जाता है, पुनश्च वातापि कल्याण और पाटनके इतिहासमें इनका संबंध दृष्टिगोचर होता है। इन शासन पत्रों और शिलालेखोंके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि शिल्हरा शब्दका पर्याय शिलहार-शैलहारशिलार और श्रीलार आदि है । एवं इनका जातीय विरुद " तगर पुराधीश्वर था । जिससे प्रकट होता है कि इनके पूर्वजोंकी राजधानी तगरपूरमें थी । क्योंकि हम कदम्बोंको " वनवासी पुराधीश्वर" यादवोंगे " द्वारावती पुराधीश्वर" और उत्तरकालीन चौलुक्योंके पुराधीश्वर" विरुदको धारण करते पाते हैं। जो स्पष्टरूपेण उनके पूर्वजों की राजधानीका शापक । पुनध प्रकट होता है कि इनका अधिकार वर्तमान कोलावा और थाना जिल्लाओंके भूभाग 66 कल्याण " www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन पर परिमित था । और इनकी राजधानी प्रथम पूरी में और पश्चात् श्रीस्थानक (थाना) में थी। इनका राजकीय विरुद महा सामन्त था और प्रारंभसे ही राष्ट्रकूटोंके भाधीन थे। राष्ट्रकूटों के उत्पाटन पश्चान् इन्होंने क्षणिक स्वातंत्र्यका उपभोग किया परन्तु चौलुक्योंने इन्हें सीवही पराभूत कर अपने स्वाधीन किया था। अन्ततोगत्वा इनकी वंशावली निम्न प्रकारसे प्राप्त होती है। और इसका राज्यकाल शक ७३५ से लेकर ११८२ पर्यंत ४४७ वर्ष है। का प दि (प्रथम) पु ल शक्ति का प दि (द्वितीय) वा यु व न वा ज ड देव अपराजित वा जड देव ति ति राज ना गरा ज मुम मुनी रान अनन्त देव अपरादित्य हरि पाल - - मल्लि का र्जुन अपरा दि त्य के शि दे व सो मे स्वर -- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] २८ उधृत वंशावली पर दृष्टिपात करनेसे प्रगट होता है कि पुलशक्ती जिसका विना संवतका लेख कृष्णागिरीकी गुफा संख्या ७८ में उत्कीर्ण है, अपने वंशका द्वितीय राजा था । पुलशक्ती अपने कथित लेखमें स्पष्टतया अपने आपको राष्ट्रकूट अमोघवर्षका सेवक तथा कोकण मंगलपूरीका शासक घोषित करता है । अब विचारना है कि कथित राष्ट्रकूट अमोघवर्ष कौन है। प्रस्तुत शिलालेख की तिथि न होने से कुछ मंझट सामने आती है क्यों कि राष्ट्रकूट वंशमें अमोघवर्ष नामक अनेक राजा हुए हैं । तथापि पुलशक्तीके पुत्र औरउत्तराधिकारी कापा द्वितीयके कृष्णागिरी की गुफा संख्या १० वाले शिलालेख, जिसकी तिथि शक ७७५ है, हमारा त्राण करता है। क्योंकि कथित लेखको दृष्टिकोणमें रख कर हम निर्भय होकर कह सकते हैं कि पुलशक्तीका समय अधिक से अधिक ७५० पर्यंत पीछे जा सकता है। पुलशक्तीका अनुमानिक समय, ७५० प्राप्त करनेके पश्चात् उसके स्वामी अमोघवर्षका समय प्राप्त करना कोई कठिन काम नहीं रह जाता है। राष्ट्रकूटोंके इतिहास विवेचन करते समय पूर्वमें हम दिखा चुके हैं क़ि शक ६६६ के कुछ पूर्व मान्यखेटके राष्ट्रकूट दन्तिवर्माने लाट और मालवा आदिको स्वाधीन किया था । और दन्तिदूर्गके उत्तराधिकारी और चचा कृष्णके द्वितीय पुत्र ध्रुव ने अपने बड़े भाई गोविंद को हटाकर स्वयं गद्दी पर बैठा था । एवं राष्ट्रकूटोंके अधिकारको खूब बढ़ाया था । भ्रुवने अपने बड़े पुत्र गोविंदको राज्यके उत्तरांचल प्रदेशका शासक नियुक्त किया था । जिसने मयुरखण्डको अपनी राजधानी बनाया था । और इसके अधिकारमें प्रायः नासीक, थाना सुरत और भरुच आदि जिलाओं तथा बरोदाका नवसारी प्रांत - वांसदा और धर्मपूर आदिके भूभाग थे । गोबिंद शक ७३० में अपने छोटे भाई इन्द्रराजको लाटका शासक बना स्वयं दक्षिण जाकर प्रधान शाखाकी गद्दी पर अपने पिता के पश्चात् बैठा गोविंदकी मृत्यु शक ७३६ के पूर्व हुई और उसका पुत्र अमोघवर्ष गद्दी पर बैठा । और शक ७३६ से शक ७९१ के पश्चात् पर्यंत राज्य किया । पुलशक्ती और उसके पुत्र कापदि द्वितीयके लेख इसी अमोघवर्षके राज्यकालमें पड़ते हैं । अतः हम पुलशक्तीके स्वामी अमोघवर्षको मान्यखेटपति राष्ट्रकूट गोविंद तृतीयका पुत्र और उत्तराधिकारी अमोघवर्ष घोषित करते हैं । I कापर्दि द्वितीयके पूर्व कथित कृष्णागिरीकी गुफा संख्या १० और ७८ के शिलालेख ७७५ और ७९५ के पर्यालोचनसे प्रगट होता है कि वह अपने पिता के समान राष्ट्रकूटोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ [ प्राक्कथन सामन्त था । और इसके अधिकार में पिता के समानही भूभाग था । कापर्दिके पुत्र और उत्तराधिकारी वायुबर्णके सम्बन्धमें कुछ एतिहासिक बातोंका ज्ञान हमें प्राप्त नहीं है । परन्तु उसके और उसके उत्तराधिकारी मंझ के सम्बन्ध में अवान्तर प्रमाणसे कुछ परिचय प्राप्त होता है। अरब ऐतिहासिक मासुदीके लेखोंसे प्रकट होता है कि उसके समय, अर्थात् शक ८२८ में उत्तर कोकण में झंझ राज्य करता था। मासूदीने कंझको सैमरका राजा लिखा है। मासूदीका सैमर वर्तमान थाना जिलाका चेउल है । पुनश्च शक ६१६ के शासन पत्रसे प्रगट होता है कि स परम शैव था और उसने १२ शिव मन्दिरका निर्माण किया था । एवं उसकी कन्या agrant विवाह चांदोद ( चंद्रावती) के यादव राज भिल्लम के साथ हुआ था । अन्ततोगत्वा मान्यखेटके इतिहासके पर्यालोचनसे यह बात निर्ऋत है कि कृष्ण अकाल वर्षके गुजरात विजय के समय शिल्हार राजा जो उसका सामन्त था, साथ था । अन्यान्य ऐतिहासिक घटनाओं पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि कृष्ण अकाल वर्षका सामन्त और सहायक शिलाहार राजा झंझ था । झंझ अपुत्र मरा अतः उसका छोटाभाई गोर्गि उसका उत्तराधिकारी हुआ । परन्तु गोर्गिका केवल नाम मात्र परिचयके अतिरिक्त हमें ऐतिहासिक विवरण कुछ ज्ञात नहीं है । जिस प्रकार गोर्गिके राज्यकालका हमें कुछभी ज्ञान नहीं है उसी प्रकार उसके पुत्र वाजडके राज्यकालका इतिहास अन्धकारके गारमें पड़ा है । परन्तु वाजडके पुत्र और उत्तराधिकारी अपराजितका शक ९१९ का शासन पत्र भिवंडीसे १० मीलकी दूरीपर अवस्थित भीड़ नामक स्थानसे प्राप्त हुआ है। उक्त शासन पत्र हमें बताता है कि अपराजितके राज्यकालमें राष्ट्रकूट कक्कलको चौलुक्यराज तैलपने पराजित कर राष्ट्रकूट राज्य लक्ष्मीको अंकशायिनी बनाया था। और अपराजित स्वतंत्र हो गया था । प्रस्तुत शासन पत्र हमें दो घटनाओंका परिचय देता है । प्रथम घटना राष्ट्रकूट वंशका पराभव और अन्तिम राजा कक्कलका रणक्षेत्रमें मारा जाना । दुसरी घटना अपराजितका स्वतंत्र होना है। प्रथम घटनाके पूर्णतः सत्य होनेमें हमें महती शंका है। हमारी इस शंकाका कारण यह है कि चौलुक्यराज तैलपदेवका, अधिकार राष्ट्रकूटोंके समस्त राज्यपर हो गया था । हमारी इस धारणाका समर्थन इस बातसे होता है कि जब पाटन पति मूलराजने राष्ट्रकूटवंशके पराभव से लाभ उठानेके विचारसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] दक्षिणके प्रति दृष्टिपात किया तो तैलपने अपने सेनापति वारपको लाटका सामन्तराज बनाकर भेज दिया। जिसने मूलराजको अन्त तक लाट वसुन्धरा पर पैर नहीं रखने दिया। इतनाही नहीं, वरण वारपके सहायकोमें द्वीप नरेशका नाम पाते हैं। हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि शिल्हाराओं के अधिकारका ( उत्तर कोकण) नामांतर कापदि द्वीप है। अतः हमारी समझमें द्वीप नरेशसे शिल्हराओंका संकेत है। चौलुक्यराज तैलपदेवकी राष्ट्रकूट विजयकी तिथि ८९४ और प्रस्तुत शासनकी तिथिमें २३ वर्षका अन्तर है। पुनश्च वारपराजके लाटका सामन्त बनाये जानेकी तिथि शक ६०० और प्रस्तुत शासन पत्रकी तिथिमें १६ वर्षका अन्तर है। एवं प्रस्तुत शासन पत्र तैलपदेवकी मृत्युवाले वर्षका है। अतः हम कह सकते हैं कि संभवतः तैलपकी मृत्यु पश्चात् और सत्याश्रयके वारण (वर्तमान मैसूर) वाले चौलुक्योंके साथ उलझे होनेके कारण अपराजितने अपनी स्वतंत्रताकी घोषणा की हो। यदि हम इस संभावनाको थोड़ी देरके लिये मानभी लेवें, तोभी यह कहना पड़ेगा की अपराजितकी यह स्वतंत्रता क्षणिक थी। क्योंकि वारपकी मृत्यु शक ६२२ के आसपास हुई थी। और उक्त समय कापदि द्वीपवाले उसके सहायकोंमेंसे थे। पुनश्च हमारी इस संभावनाका समर्थन इस बातसेभी होता है कि अपराजितके वंशजोंको महामण्डलेश्वर और सामन्ताधिपतिका विरूद धारण करते पाते हैं। अपराजितके कथित शासन पत्रसे उसके अधिकारका परिचय नहीं मिलता परन्तु कथित शासन पत्रको उसने श्रीस्थानकमें निवास करते समय शासित किया था। अतः निश्चित है कि इसके पैतृक अधिकारमें राज्य परिवर्तन होनेपरभी किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं हुआ। अपराजितके पश्चात् उसका बड़ा पुत्र वाजडदेव गद्दीपर बैठा परन्तु वह नाममात्रका राजा हुआ। बाद उसका अनुज अरीकेशरी गद्दीपर आया । अरीकेशरीका शासन पत्र थानासे प्राप्त हुआ है। उक्त शासन पत्रकी तिथि शक ९३६ है । इसके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि अरीकेशरीका विरुद "महा मण्डलेश्वर" था और वह संपूर्ण कोकणका शासक था। साथही शासन पत्र महभी प्रकट करता है कि वह १४०० ग्रामोंका स्वामी था। उसकी राजधानी पूरीमें थी। शासन पत्रके शासित करने का ज्ञापन स्थानक और हमयमन निवासिओंको किया है। अब यदि शासन पत्रके कान "अरीकेशरी संपूर्ण कोकणका शासक था" माने तो मानना पड़ेगा कि उसके अधिकारमें गोकासे लेकर वर्तमान सुरत जिलाके वलसाड और चिखली पर्यंत भूभाग था । परन्तु यह हम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन कदापि नहीं मान सकते। क्योंकि दक्षिण कोंकणमें इस समय दो भिन्न भिन्न शिल्हार राज्यवंश करहाट और कोल्हापूरमें शासन करता था । यदि संपूर्ण कोकणका भाग केवल उत्तर कोकण माना जाय तो वैसी दशामें हमें कोईभी आपत्ति नहीं है। पुनश्च शासन पत्र कथित १४०० प्रामोंके शासन का कुछभी भाव हमारी समझमें नहीं आता। परन्तु देखते हैं कि अरीकेशरीके पश्चात् वाले अनेक राजाओं के लिये भी •१४०० ग्रामोंका शासक कहा गया है। अतः हम कह सकते हैं कि किसी कारणवसात यह इनका वंश गत विरुद हो गया था। अरिकेशरीको क्षितिराज, नागार्जुन और मुममुनि नामक तीन पुत्र थे । जिनमें से क्षितिराज उसका उत्तराधिकारी हुआ। क्षितिराजका शासन पत्र थाना जिलाके भाण्डप नामक स्थान से मिला है। इसकी तिथि शक ६४८ है। इससे क्षितिराजका विरुद महासामन्त और महामण्डलेश्वर प्रगट होता है। जिस प्रकार क्षितिराजके पिता अरिकेशरीका शासनपत्र उसे १४०० ग्रामोंका स्वामी और कोकण पति कहता है उसी प्रकार इसका शासन इसको वर्णन करता है। यहां तक समता पायी जाती है कि अरिकेशरीके शासन समानही इसके शासनको हमयमन ग्राम वासिओंको संबोधन किया गया है। क्षितिराजका उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई नागार्जुन हुआ । परन्तु यह ज्ञात नहीं कि क्षितिराजकी मृत्यु कब हुई और नागराज गद्दी पर कब बैठा । किन्तु मुममुनि का शिलालेख शक ६८२ का हमें प्राप्त है अतः हम निश्चयके साथ कह सकते हैं कि नागराजके शासनकालका समावेश ९४८ और ९८२ के मध्य है। नागराजके बाद उसका छोटा भाई मुममुनिराज हुआ । इसका एक शिला लेख कल्याणके समीप अम्भेडनाथ नामक शिव मन्दिरमें लगा है । उसके मननसे ज्ञात होता है कि उसने अपने ज्येष्ठ भ्राता क्षितिराज कृत एक राज्यभवन का जीर्णोद्धार किया था। इसके अतिरिक्त शिल्हराओंके लेखोंसे इसके सम्बन्धमें कुछ पता नहीं मिलता। हां, वातापि कल्याणके चौलुक्योंके इतिहाससे प्रकट होता है कि विक्रमादित्य छठेके सेनापतिने उसके छोटेभाई युवराज जयसिंहके लाट और दाहल विजयके समय कादि द्वीपके राजाको रणमें मारा था । और संभवतः जयसिंहने राजयवंशकी किसी अन्य व्यक्तिको अपने प्रतिनिधि रूपसे गद्दी पर बैठाया था। इस विषयका विशेष विवेचन जयसिंहके शक १००३ वाले लेखके विवेचनमें-चौलुक्य चंद्रिका लाट वासुदेवपुर खण्डमें दृष्टिगोचर होगा। इस घटनाका उल्लेख यद्यपि शिल्हाराओंके अपने लेखमें नहीं मिलता तथापि उसका संकेत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] मुममुनिके वाद गद्दीपर बैठनेवाले अनन्तपालके द्वितीय लेख शक १०१६ वालेमें पाया जाता है। मुममुनीके उत्तराधिकारी अनन्तपालके प्रथम लेख शक १००३ वाले में बन्धुओं उपद्रवका उल्लेख नहीं है । और इसी वर्षके जयसिंहके शिला शासनमें उसके लाट विजयका उल्लेख है । इसलिये हम कह सकते हैं कि मुममुनि शक १००३ के पूर्व मारा गया था और उसका पुत्र अनन्त गद्दीपर बैठा। किन्तु जयसिंहने उसे हटाकर दुसरेको अपना प्रतिनिधि बनाया। अनन्त जैसाकि हम ऊपर बता चुके हैं शक १००३ में अपने पिता मुममुनिके मारे जाने बाद गद्दीपर बैठा। परन्तु उसे गद्दीसे उतार युवराज जयसिंहने दूसरेको बैठाया। जिसे अनंतपाल जयसिंहके पराभव पश्चात १००९ और १०१६ के मध्य हटाकर पुनः गद्दीपर बैठा। और इसके इसी घटनाका इसके शक १०१६ बाले लेखमें अलंकारिक भाषामें वर्णन किया गया है। कथित लेखके अलंकारको छोड़तेही स्पष्टतया हमारी धारणाका समर्थन होता है। अनंतपालने कबतक राज्य किया इसका कुछभी परिचय नहीं मिलता। और न उसके बाद वंशावलीका क्रम मिलता है। हां, अनंतपालके बाद ६ शिल्हाराओंको थाना जिलामें राज्य करते पाते है। परन्तु यह ज्ञात नहीं होता कि उनका परस्पर क्या संबंध था। उसी प्रकार अनंतपालके बादवाले अपरादित्यका उसके साथ क्या संबंध था अद्यावधि अज्ञेय है। अपरादित्यका शक १०६० वाला लेख प्राप्त है, इससे केवल इतनाही ज्ञात होता है कि वह शिल्हार वंशका था और सामन्त रूपसे अपने अधिकार पर शासन करता था। हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि अनंतपाल शक १००३ के आसपास गद्दीपर बैठा था, और इसका प्रथम लेख शक १००३ और दुसरा १०१६ का है। अतः अनंतपाल और अपरादित्यके मध्य ४४ वर्षका अन्तर पड़ता है। केवल ४४ वर्षके अन्तरमेंही कोई अपने पूर्वजोंका परिचय नहीं भूल सकता। अतः हम कह सकते हैं कि अपरादित्य अनंतपालका जाति बन्धु होते हुए भी निकटतर संबंधी नहीं था। संभवतः जयसिंहके पुत्र विजयसिंहने जब शक १०१२-१३ के मध्य सह्याद्रि उपत्यका पर अधिकार किया तो अपने पांव जम जाने बाद उसने शक १०१६ के पश्चात किसी समय अनन्तपालको ठोकपीट कर गद्दी से हटा अपने किसी शिल्हार वंशी सेनापतिको गद्दी पर बैठाया होगा । और उसके अधिकारमें नाम मात्रका अधिकार रह गया होगा । यही कारण है कि अपरादित्यके उक्त लेखमें अनंतपालके साथ उसके सम्बन्धका परिचय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... [प्राक्कथन नहीं मिलता। किन्तु इतना तो निश्चय है कि अपरादित्यका प्रस्तुत १०६० वाला लेख अन्तिम काल का है । अपरादित्य के पश्चात् हरिपाल देव गद्दी पर बैन । इसका समय शक १०६० और १०७५ के मध्य है। हरिपालके तीन लेख शक १०७०-७१ और १०७५ के प्राप्त हैं। इन लेखोंसे कुछभी विशेष परिचय नहीं मिलता। हरिपालके पश्चात् मल्लिकार्जुन गद्दी पर बैठा । यह वास्तवमें शिल्हार वंशका राजा था इसके अधिकारमें शिल्हारोंके पूर्व अधिकार के होनेका परिचय पाया जाता है। क्योंकि इसके दो शासन पत्र शक १०७८ और १७८२ के प्राप्त हैं। उनमें एक चिपलुनसे और दूसरा वेसीनसे प्राप्त हुआ है। पाटन के इतिहाससे प्रकट होता है कि मल्लिकार्जुनके साथ पाटनके कुमारपालका युद्ध हुआ था। और उक्त युद्ध में प्रथम मल्लिकार्जुनने पाटनके सेनापतिको पराभृत लिया था । परन्तु दूसरे युद्धमें मल्लिकार्जुनको हारना पड़ा। मल्लिकार्जुन के बाद उसका पुत्र अपरादित्य गद्दी पर बैठा। अपरादित्यके दो शिलालेख शक ११०६ और ११०९ के प्राप्त हैं । अतः हम कह सकते हैं कि मल्लिकार्जुनका समय १०७८ से ११०६ पर्यन्त है अपरादित्य के बाद सोमेश्वर नामक शिल्हार राजाके राज्य करनेका परिचय मिलता है। क्योंकि उसके ११७१ और ११८२ के दो लेख हमें प्राप्त है। परन्तु इन लेखोंसे प्रकट नहीं होता कि उसका अपरादित्यके साथ क्या संबंध था। एवं सोमेश्वरके पश्चात् शिल्हाराओं का कुछभी परिचय नहीं मिलता । सोमेश्वर के पश्चात् शिल्हार वंश के परिचय संबंधों सेउण देश (देवगिरी) के यादवों के इतिहास के अध्ययनसे कुछ प्रकाश पड़ता है। हिमाद्रि पंडित कृत " यादव राज्यवंश प्रशस्ति” तथा विविध शासन पत्रों पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि महादेव नामक राजा, शक ११८२ में यादव सिंहासन पर आया। उक्त प्रशस्तिके श्लोक ४८ से प्रकट होता है कि “यह तैलंगपति रूप रुईके समूहके लिये अग्नि-बहुत गर्जनेवाले और पर्वत समान गर्ववान गुर्जरपति के लिए वन और कोकण तथा लाटपतिको अनायासही पराभूत कर विडम्बनाका पात्र बनानेवाला था" | पुनश्च श्लोक ५० के उत्तर चरणवाले वाक्य " सोमः समुद्र प्लव पेषलोपि ममजसैनेः सः कुकुणेश" समुद्रको तैरनेमें प्रवीण सोम अपनी सेनाके साथ डूब गया। एवं अगला श्लोक प्रकट करता है कि " समुद्रने महादेवके क्रोधको वडवानलके समान मान कोकणपति सोमेश्वरकी रक्षा करनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौलुक्य चंद्रिका ] स्थानमें उसे अपने उदरमें स्थान प्रदान किया। उधृत विवरणमें कोकणपतिका दीवार उल्लेख अयिा है। प्रथमधारके उल्लेखमें राजाका नाम नहीं दिया गया है परन्तु द्वितीय धारके उल्लेखम राजाका नाम स्पष्टरूपेण सोम दिया गया है। अतः इस पुनरुक्तिसे उलेमन उपस्थित होती है। परन्तु हमारी समझमें इन दोनों उल्लेखोंको विभिन्न घटनाओंका वर्णन करनेवाला मान लेवे तो किसी प्रकारकी उलझन सामने आती नहीं दिखाती। पुनश्च कोकणका दो भागों में विभाग होकर उत्तर और दक्षिण कोकणके नामसे उल्लेख पाया जाता है। एवं देखनेमें प्राता है कि कोकणेश या कोकणपति नामसे केवल दक्षिण कोकणका ग्रहण होता है। और उत्तर कोकणका संबोधन करते समय यातो उसके पूर्व में विशेषण रूपसे उत्तर कोकण वा कापर्दि कोकणका व्यवहार किया जाता था। इन कारणोंसे हम कह सकते हैं कि प्रथम वारके उल्लेखमें दक्षिण कोकण अर्थात् कोल्हापुरके शिल्हारोंका उल्लेख किया गया है। और द्वितीय वारके उल्लेखमें उत्तर कोकणके विशेषणोंके स्थानमें राजाका नाम दिया गया। अब यदि उत्तर कोकणसे संबंध रखनेवाले उत्तर भावी दोनों कथानकको “ समुद्र तैरनेमें प्रवीण होता हुआभी डूब गया, और " महादेवके कोपके डरसे समुद्रने रक्षाके स्थानमें उदरस्थ किया" के अलंकारको निकाल बाहर करें तो सीधा सादा भाव यह निकलता है कि यादवराज महादेवसे हारकर शिल्हार सोमेश्वर नौका द्वारा समुद्र मार्गसे भागा अथवा सोमेश्वर और महादेवके मध्य जल युद्ध हुआ था। संभवतः महादेवने सोमेश्वरकी नव सेनाको पराभूत किया और बह नौकाओंके डूबनेके कारण अपनी सेनाके साथ डूब मरा अथवा सोमेश्वर जल युद्धमें हारकर जब नौकाओंके द्वारा भागा तो किसी दैवी घटनामें पड़कर नौकाओंके डूबनेके कारण डूब मरा । सोमेश्वरके पश्चात् उत्तर कोकणके शिल्हारोंका हमें कुछमी परिचय नहीं मिलता। परन्तु इनके स्थानमें यादवोंके अस्तित्वका स्पष्ट परिचय मिलता है। लाट और मुजरातमें यादव । शिल्हाराओंके इतिहासका सारांश निगुण्ठन करते समय यादवौका उल्लेख प्रसंगवश करना पड़ा था। यादवोंका उक्त उल्लेख दो बातें स्पष्ट रूपसे प्रकट करता है। प्रथमतः हमारे विवेचनीय इतिहास कालवाले राजाओंके साथ वैवाहिक संबंध, और द्वितीयतः उत्तर कोकण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन और लाट तथा गुर्जर देशके राजाओंपर यादबोंका आक्रमण। विशेषतः यादवों द्वारा शिक्हाराओं के मूलोच्छेदका उक्त उल्लेख परिचायक है। साभहो यहभी प्रकट होता है कि मादवोंने उत्तर कोकणके शिल्हाराओंका मूलोच्छेद कर उनके राज्यको अपने राज्यमें मिला लिया था। और उसका शासन वे अपने प्रतिननिधि द्वारा करते थे। अब यदि यहांपर बादवोंके संबंधमें कुछ विचार प्रकट करें तो असंगत न होगा। वरण आगे चलकर लाट नंदीपुर और लाट बासुदेवपुरके चौलुक्योंका इतिहास विवेचन करते समय इस विचारसे अभूतपूर्व सहाय प्राप्त होनेकी संभावना है। ___यादव वंशका प्रथम परिचय उनके शिला लेखोंसे चंद्रादित्यपुर या चंद्रपुरके नामसे सर्व प्रथम मिलता है। चंद्रादित्यपुर अथवा चंद्रपुरको कितने एक विद्वान चांदोद और दूसरे चम्दोद मानते हैं। यादवोंका प्रथम परिचय हमें चान्दोदके नामसे मिलता है। द्वितीय परिचयसे उन देशके यादव नामसे मिलता है। और तृतीय परिचय देवगिरीके यादव नामसे प्राप्त होता है। चौलुक्य चंद्रिका लाट खण्डके अन्तर्गत लाट नंदीपुर शीर्षकमें उधृत त्रिलोचन पालके शक संवत् ९७२ वाले लेखके विवेचनमें चंद्रादित्यपुर (चम्दोद या चांदोद) के यादवोंका उल्लेख किया गया है। और यहभी बताया गया है कि इन्हीं यादवोंके साथ लाट मंदीपुरके चौलुक्यों तथा उत्तर कोकणके शिल्हाराओंका वैवाहिक संबंध था। शिल्हाराओंका इतिहास विवेचन करते समय देवगिरीके यादवोंके हाथसे उनको पराभव तथा मूलोच्छेदका वर्णन कर चुके हैं। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि चांदोदका अवस्थान कहांपर था। और बांदोद, सेउन देश और देवगिरीका यादव वंश अभिन्न या विभिन्न था। हमारी समझमें जब तक चांदोद, सेउन देश और देवगिरीके अवस्थानका परिचय शा न कर लें, तब तक इस प्रश्नका उत्तर नहीं दिया जा सकता। दक्षिणापथ (वातापि) के चौलुक्योंके इतिहासिके लेख “ चौलुक्य चंद्रिका"-वातापि खंडके प्राक्कथनमें सेउन देशके अवस्थान प्रभृतिका पूर्णरूपेण विवेचन कर चुके हैं। और यहभी बता चुके हैं कि सेउन देश पूर्व कालमें दण्डकारण्य नामसे प्रख्यात भूभाग, अन्तर्गत संप्रति नासिक, डांग, धरमपुर और वांसदाके कुछ भूभागका समावेश है। पूर्वोत्तरमें अवस्थित था । उक्त सेउन देशके अन्तर्गत वर्तमान खानदेश और निजाम राज्यके औरंगाबाद जिलाके भूभागका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] समावेश था। सेउन नामक राजाके नामसे यादवोंके राजका नाम सेउन देश पड़ा। और इसी सेउन वंशके यादव वंशी एक राजाने देवगिरी नामक नगर स्थापित कर उसे अपनी राजधानी बनाया । तबसे सेउन देशके यादव देवगिरीके यादव नामसे विख्यात हैं। देवगिरीको संप्रति दौलताबाद कहते हैं। अतः देवगिरी और सेउन देशके यादवोंमें अभिन्नता है। इस हेतु अब विवेचनीय विषय केवल मात्र इतनाही है कि चंद्रादित्यपुर भौर देवगिरीके यादवोंके मध्य कुछ संबंध था अथवा नहीं। स्वर्गीय डा. भगवानलालने चान्दोदके यादवोंको सेउन–देवगिरीके यादवोंसे भन्न माना है और चांदोदके यादवोंको नर्मदा तटवर्ती चांदोदका अधिपति मान वर्तमान नासिक और खानदेशके भूभागपर राज्य करनेवाले यादवोंको पूर्णरूपेण भूल गये हैं। ... यदि वे ऐसा न करते और चांदोदके यादवोंकी वंशावली तथा वैवाहिक संबंधकी तुलना हेमाद्रि पंडितकी यादवराज प्रशस्ति कथित विवरणसे किये होते तो न वे चांदोदके यादवोंको नर्मदा तटवर्ती चांदोदका अधिपति और न सेउन देवगिरीके यादवोंसे विभिन्न मानते। हमारी समझमें चंद्रादित्यपुर या चंद्रपुर रूपान्तर चम्दोद माना जाता है, वह नर्मदा तटका चांदोद न होकर नासिक जिलाका चम्दोद ग्राम है। हमारी इस धारणाका समर्थन इस बातसेभी होता है कि नर्मदा तटवर्ती चांदोदके आसपास यादवोंके अस्तित्वका परिचय नहीं मिलता, परन्तु जैसा कि हम उपर बता चुके हैं नासिक खानदेशादि भूभागपर उनके अस्तित्वका परिचय स्पष्ट रूपसे मिलता है। पुनश्च हेमाद्रि पंडितने नासिक खानदेशवाले यादवोंको स्पष्ट रूपेण सेउन देवगिरीको यादवोंकी वंशावलीमें स्थान प्रदान किया है। इतनाही नहीं झंकी कन्या लष्टिगवाके विवाहका वर्णन विस्तारके साथ किया है। यादवोंके अन्यान्य ऐतिहासिक लेखोंके पर्यालोचनसे हेमाद्रिके कथनका पूर्णतया समर्थन होता है। चांदोदके यादवोंको नासिक खानदेशवाले यादवोंसे अभिन्न सिद्ध करनेके पश्चात् एवं उन्हें सेउन-देवगिरीका यादव माननेके अनंतर इनकी वंशावली निम्न प्रकारसे होती है। दृढ प्रहार से उन चंद्र-१ धा दि प्य-१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन भि ल्ल म-१ श्री राज वा डी ग-१ दि प्य-२ भि ल्ल म-२ III I i 11 i I . I अ ज न मि ल्ल म-३ वा डी ग-२ ते सु क-२ भिल्ल म-४ से उन चंद्र-२ पर म सीं घ म लु गी अपर गां गे य अपर म लु गी भिल्लम-५ गो विं द रा ज. वल्ला ल जैत्रपाल-१ सी घन : : जैत्र पाल-२ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] कृ ष्ण महादेव T रामचंद्र | शंकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ३८ दक्षिणापथके चौलुक्योंके ऐतिहासिके लेख " चौलुक्य चंद्रिका " वातापि खंड प्राक्कथनमें यादवों के सार्वभौम साम्राज्य के विस्तारका विचार कर चुके हैं। और यह भी बता चुके हैं कि उन्होंने कुछ दिनोंके लिये उत्तर कोकणसे लेकर मैसूर पर्यंत अपना आधिपत्य स्थापित किया था । अतः यहांपर उनके लाट गुर्जर और अन्यान्य राज्योपर आक्रमणादिका पुनः उल्लेख करना पिष्टपेषण मान केवल इतनाही कहते हैं कि इन यादवोंके राज्य कवि और शासन लेखक गण तिलका ताड़ बनाने और बिना शिर पैरकी प्रशंसाका पुल बांधनेमें दूसरे किसीसे कणिका मात्रभी कम न थे। यदि इनके अलंकार आडम्बरको निकाल बाहर करें और अन्यान्य राज्यवंशोंके इतिहासके साथ तारतम्य संमेलन करें तो अनायासही सत्य ऐतिहासिक घटनाओं को प्राप्त कर सकते हैं। महादेव के पूर्व उसके दादा सिंघनने अपने वंशके अधिकारका विस्तार किया । यहां तक कि उसने एक बहुत बड़ी सेना लेकर कोकण और लाटपतिको पराभूत कर पाटन के चौलुक्योंपर आक्रमण करनेके लिये अग्रसर हुआ था । इसके गुजरात आक्रमणका उल्लेख कीर्ति कौमुदीमें निम्न प्रकारसे किया गया है। " कर्नाटपतिके आक्रमणका संवाद पा गुजरातकी प्रजा ( गुजरात नामसे पाटनवाले चौलुक्योंका संबोध किया गया है) अत्यंत भयभीत हुई । लवणप्रसाद सेना लेकर आक्रमणकारी सेनाका अवरोध करनेके लिये आगे बढ़ा। लवणकी सेना बहुत थोड़ी थी। गुजरातकी सेना यद्यपि लड़ाकू और पीछे हटनेवाली न थी, तथापि शत्रुकी विशाल सेनाके सामने उसके ( लवण ) बिजयी होने में गुजरातकी प्रजाको सन्देह था । भावी भयंकर और दुःखद परिणामके डर से कोई भी नवीन मकान नहीं बनाता था। सबने घरमें अन्न संग्रह करना छोड़ दिया था । सेना के उत्पात के डर से प्रजा ग्राम छोड़कर भाग रही थी। इसी अवसरमें उत्तरसे मारवाड़वालोंने www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन गुजरातपर आक्रमण किया। अतः लवणप्रसादको सिंधनके सामने से हटकर मारवाड़वालों से लड़नेके लिये जाना पड़ा। लवणप्रसादके लौटनेका संवाद पा यादवराज सिंघन अपनी सेना साथ देशको लौट गया। क्यों कि वह भागनेवाले शत्रु, बालक और वृष्टपर आक्रमण नहीं करता था " । कीर्ति कौमुदीकारने गुजरातक इस पराभवको कितनी उसमताके साथ वर्णन किया हैं। चाहे वह इस प्रकार लिख कर अपने खामी पाटनके वाघेलोंको संतुष्ट कर सका हो- पश्चात् भावी गुजरा। तियोंकी आंख में धूल झोंक सके परन्तु आजकी न तो गुजराती प्रजा और न अन्य भारतीय उसकी इस चाटुकताकी घपलेमें आ सकती है। चाहे कोई सत्यको कितना ही द्विपाना चाहै, वह नहीं छिपता है। इसी प्रकार कीर्ति कौमुदीके कथनको तत्कालीन अन्यान्य ऐतिहासिक लेखोंके साथ तुलना करतेही कथित युद्धका परिणाम अपने आप आंखों के सामने आ जाता है अर्थात् उक्त युद्धमें पाटनकी सेनाको पराभूत होना पड़ा था और Mauसादको बाध्य होकर पराजित संधि करनी पड़ी थी। इस प्रकार संधि द्वारा सिंघनसे प्राण छुड़ा वह मारवाड़वालोंसे लड़ने के लिये अग्रसर हुआ था। गुजरात मारवाड़ युद्ध में आबू चंद्रावती के परमार राज धारावर्षेने पाटनवालोंको सहाय प्रदान किया था । इस विषयका विवेचन हम सांगोपांग पाटन और वातापिके ऐतिहासिक लेखों (चौलुक्य चंद्रिका ) में कर चुके हैं। अतः यहां पर केवल उत्तर कोकण और लाटके संबंधमें विचार करते हैं । उत्तर कोकणसे स्थानक के शिल्हाराओंका समावेश होता है। परन्तु लाट नामसे किसका उल्लेख किया गया है यह समझमें नहीं आता। क्योंकि लाट नामसे नंदीपुर के ग्रहण होता था जो तत्कालीन इतिहासमें स्पष्टरूपेण पाया जाता है। हमें यह निश्चित रूपसे ज्ञात है कि लाट नंदीपुर के चौलुक्योंका मूलोच्छेद इस समयसे लगभग ८०-८५ वर्ष पूर्व तथा पाटनपति सिद्धराज के राज्यारोहनसे लगभग ७-८ वर्ष पश्चात हो चुका था। और लाटका उत्तर प्रदेश ( नर्मदा और महीके मध्यवर्ती भूभाग) पाटन राज्यमें मिला लिया गया था। इसके पश्चात लाट नामसे किसीभी राज्यवंश की संस्थापनाका परिचय नहीं मिलता। और न हम पाटनवालों कोही अवन्तिनाथ उपाधिके समान लाटपति अथवा लाटेश्वर उपाधि धारण करने पाते हैं। पुनश्च जबकि उनका उल्लेख " गर्जत गुर्जर ” नामसे किया गया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] है, और साथही लाट विजय के पश्चात् गुजरातपर आक्रमणका वर्णन दृष्टिगोचर होता है तो वैसी दशामें लाट नामसे अवश्य किसी अन्य वंशका संत किया गया है। हमारी इस धारणावा समर्थन इससेभी होता है कि इस घटना लगभग ५० वर्ष पश्चात् यादवराज महादेवके समयमेंभी कोकण लाट और गुजरातका भिन्न भिन्न राज्यवंशोंके नामसे उल्लेख किया गया है । अतः अब विचारना है कि लाट नामसे सि वंशका संकेत है। हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि उत्तर कोकण और दक्षिण लाट मध्य वातापि कल्याणके चौलुक्य राज्यवंशोद्भव वनवासी युवराज वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहके पुत्र विजयसिंहने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। जिसकी प्रथम राजधानी मंगलपुरी दूसरी वासन्तपुर और तीसरी बासुदेवपुरमें थी। उसके तथा उसके वंशजोंके अधिकारमें लाटका दक्षिणांश एवं तापी और गोदावरीके मध्यवर्ती भूभागका होना निभ्रांत रूपेण पाया जाता है। अतः हम निश्चयके साथ कह सकते हैं कि कथित विवरणमें लाट नामसे विजयसिंहके वंशजोंका संकेत किया गया है। पुनश्च हमें यह भी निश्चित रूपसे ज्ञात है कि विजयसिंहके वंशजोंको पाटनवालों ने पराभूत कर स्वाधीन किया था । परन्तु वीरसिंह नामक राजाने पाटनवालोंसे अपनी साज्य लक्ष्मीका उद्धार कर अपनी स्वाधीनता की पुनः घोषणाकी थी। वीरसिंह । कथित स्वतंत्रता की तिथि प्रस्तुत युद्धके आसपासमें है। सम्भव है कि उसकी यह स्वतंत्रता सिंघनकी कृपाका फल हो अथवा सिंघन और पाटनवालोंके युद्ध पश्चात् इनकी अशक्तताका उपयुक्त लाभ उठा वह स्वतंत्र बन गया हो। सिंघनके बाद उसका पुत्र जयतुंग द्वितीय गद्दी पर बैठा । उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र कृष्ण गद्दी पर आया। कृष्णका उत्तराधिकारी उसका छोटाभाई महादेव हुआ। महादेवने शिल्हार वंशका उत्पाटन कर उत्तर कोकणको अपने राज्यमें मिला लिया । महादेवके राज्यकालमें ही दिल्ली सुलतान जलालुद्दीन खिलजीके भतीजोंने देवगिरी पर आक्रमण कर बहुतसा धन रत्न प्राप्त किया था । महादेवका उत्तराधिकारी रामचन्द्र हुआ । रामचन्द्र दिल्लीके गृह कलहसे लाभ उठा स्वतंत्र बन बैठा परन्तु अलाउद्दीनके सेनापति मालिक काफूरने रामचन्द्रका मद चूर्ण किया । रामचन्द्रका उत्तराधिकारी शंकर हुआ । शंकर के समय देवगिरीके यादव वंशका सदाके लिये संसारसे अस्तित्व उठ गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ नंदीपुर के चौलुक्य | 1 नंदीपुरके राज्यवंशका संस्थापक वातापि कल्याणके चौलुक्य राज तैलपदेव द्वितीयका सेनापति वारप राज है । वारपराजको तैलपदेवने पाटनपति चौलुक्यराज मूलराजको रोकने के लिये सेनापति और सामन्तराज बनाकर लाट देशमें भेजा था । वारपने नंदीपुरको अपना केन्द्रस्थान बनाया था । बादको वारपके वंशजोंकी राज्यधानी नंदीपुरमें थी । अतः यह वंश इतिहासमें नंदीपुरके चौलुक्यवंशके नामसे अभिहित है । अभीतक नंदीपुरके चौलुक्योंके केवल ताम्र लेख मिले हैं। प्रथम लेख वारप के पौत्र कीर्तिराजका शक संवत् ९४० तदनुसार १०७५ का और दूसरा लेख कीर्तिराजके पौत्र त्रिलोचनपालका शक संवत् ९७२ तदनुसार विक्रम संवत् ११०७ का और तीसरा लेख त्रिलोचनपालके पुत्र त्रिविक्रमपालका शक ६६६ का तदनुसार विक्रम संवत् ११३४ का है । इन लेखों पर दृष्टिपात करनेसे नंदीपुरके चौलुक्योंकी वंशावली निम्न प्रकारसे प्रकट होती है । 1 त्रिलोचन पा ल T त्रिविक्रम पा ल निम्बा र क I वा र प रा ज अग्नि राज कीर्ति राज वत्स रा ज [ प्राक्कथंन ( गोर्गीराज ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat जग त्पा ल | पद्मपाल नंदीपुरके चौलुक्योंका पाटनके चौलुक्यों के साथ वंशपरपंरा गत वैर दृष्टिगोचर होता है। क्योंकि नंदीपुरके चौलुक्य वंश संस्थापक वारपको पाटनके चौलुक्य वंश संस्थापक • मूलराज के साथ लड़ते पाते हैं । अन्तमें वारप मूलराजके पुत्र चामुण्डराजके हाथ से मारा जाता www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ४२ है। और लाटके कुछ भूभागपर पाटनवालोंका अधिकार हो जाता है। जिसे वारपका पुत्र अमिराज पाटनवालों को भगा कर स्वाधीन करता है। ___इतनाही नहीं अमिराजने अपने राजके सीमावर्ती अन्यराजोंसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने अधिकारको स्थायी बनानेका सूत्रपात किया था । इसने अपनी कन्याका विवाह चांदोदके यादव वंशी तेसुकके साथ किया था । जिसका मातृक संबंध स्थानकके शिल्हारोंके साथ था। कीर्तिराज इस वंशका सर्व प्रथम स्वतंत्र राजा है। क्योंकि इसने वातापिके चौलुक्योंकी आधीनता यूपकोभी अपने कन्धेसे उठा फेंका था। कीर्तिराजको स्वतंत्र बननेमें अपने फुफेरेभाई चांदोदके यादव राजा भिल्लभ और उसके निकटतम संबंधी स्थानकके शिल्हारोंसे सहाय मिला था। कीर्तिराजके पुत्र वत्सराजके संबंधों में विशेष शान नहीं है। तथापि हम इतना अवश्य जानते हैं कि उसने नर्मदा-समुद्र संगमके समीपवर्ती सोमनाथके मन्दिरमें रत्नजडित सुवर्ण छत्र चढ़ाया था और अनाथोंके लिये एक सत्र स्थापित किया था। वत्सराजके पुत्र कीर्तिराजने अगस्त तीर्थमें स्नान कर एरथान नामक प्रामदान दिया था। कीर्तिराजके अन्त समय पाटनके करणने लाटके उत्तरीय भाग वाटपद्रक और विश्वामित्री नदीके समीपवर्ती भूभागपर और नागसारिका विषयपर अधिकार किया था। किन्तु कीर्तिराजके भाई जगत्पाल और पुत्र तथा उत्तराधिकारी त्रिविक्रमपाल तथा भतीजा पद्मपालने पाटनवालोंको भगा, अपने खोये हुए भूभागको पुनः स्वाधीन किया। त्रिविक्रमपालको पाटनवालोंपर विजय पानेके पश्चात्भी सुखकी नींद लेनेका अवसर नहीं प्राप्त हुआ, क्योंकि हम देखते हैं कि उसको अपने विजयकाल शक ELE के केवल तीन वर्ष पश्चात् शक १००२-३ में वातापि युवराज चौलुक्य चूडामणि जयसिंहकी रणक्रीडाका कंदुक बनना पड़ा था। इतनाही नहीं वह जयसिंहके शौर्यसे इतना संतप्त होगया था कि उसे सदा सशंक रहना पड़ता था। त्रिविक्रमपालके पश्चात् इस वंशका विशेष परिचय नहीं मिलता। परन्तु सिद्धराज जयसिंहके समय नंदीपुरके चौलुक्योंके अस्तित्वका भावान्तर रूपसे परिचय मिलता है। क्योंकि पाटनपति सिद्धराजके राज्यारोहणके पश्चात् उसके चचा और प्रधान सेनापति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. XII. चौलुक्य चंद्रिका नवानगर वासुदेवपुर ( वासदा ) का पुरातन चौलुक्य मन्दिर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ [ प्राक्कथन त्रिभुवनपालको नंदीपुरके चौलुक्योंके साथ युद्ध करते पाते हैं । त्रिभुवनपाल पाटनवालोंका लाट देशीय सर्व प्रथम दण्डनायक था । कथित युद्ध और पराभवके समय नंदीपुरके सिंहासन पर पद्मपालको पाते हैं । अतः हम नंदीपुर के चौलुक्योंके अस्तित्वको विक्रम संवत् १९५५ के आगे नहीं मान सकते। क्योंकि इस समय भृगुच्छादि लाटके भूभागपर पाटनवालोंके अधिकारका स्पष्ट परिचय मिलता है । एवं तापीके दक्षिणवर्ती लाटके भूभागपर एक नवीन चौलुक्य वंशको अधिष्ठित पाते हैं । उक्त राज्यवंशका अधिकार कथित प्रदेशमें संभवतः विक्रम १९४९ के पूर्व हुआ था । अतः हम कह सकते हैं कि नंदीपुरके चौलुक्य उत्तरसे पाटनवालों और दक्षिणसे नवीन चौलुक्य वंशकी राजलिप्सा चक्रमें पड़कर पिस गये और उनका अस्तित्व संसारके मान चित्रसे सदा के लिये उठ गया वासुदेवपुर के चौलुक्य | जिस समय लाट नंदीपुर के चौलुक्य अपनी राज्य लक्ष्मीको पाटनके चौलुक्योंके कराल गालसे बचाने के लिये प्राण पणसे चेष्टा कर रहे थे। उसी समय लाटके राजनैतिक रंगमंच पर विजयसिंह केशरी विक्रम नामक नवयुवक खेलाड़ी उपस्थित हुआ । और अपनी तलवारके चमत्कार दिखा, तापी नदीके दक्षिणवर्ती और उत्तर कोकणके उत्तरीय सीमा प्रदेश तथा सह्याद्रिके पश्चिमोत्तरवर्ती भूभागको अधिकृत कर मंगलपुरी नामक नगरीमें चौलुक्य वंशका नवीन राज्य स्थापित किया। इस नवीन राज्यवंशका वातापि कल्याणके प्रधान चौलुक्य वंशके साथ प्रत्यक्ष संबंध था । कल्याण नगरवसानेवाले वातापिनाथ श्रहवमल सोमेश्वरको सोमेश्वर भुवनमल, विक्रमादित्य त्रिभुवनमल और जयसिंह त्र्यलोक्यमल नामक तीन पुत्र थे । उनमें से सोमेश्वर और विक्रमादित्य क्रमशः वातापि कल्याणके सिंहासनपर बैठे । विक्रम जब अपने बड़ेभाई सोमेश्वरको गद्दी से उतार अपने आप राजा बन बैठा तो उसने अपने छोटे भाई जयसिंहको वातापि कल्याणका भावी उत्तराधिकारी स्वीकार किया । एवं उसे पिता और सोमेश्वरके समय से प्राप्त जागीर से अतिरिक्त वनवासी प्रदेशकी नवीन जागीर प्रदान की । एक प्रकारसे जयसिंह और विक्रमके मध्य वातापि कल्याण का राज्य बट गया । जयसिंह अपनी राज्यधानी वनवासीको बनाया, और वनवासी युवराजके नामसे शासन करने लगा। परन्तु विक्रमकी कूट नीतिसे असंतुष्ट हो तलवारकी धारसे विवादका फैसला • Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ४४ करनेके लिये युद्ध क्षेत्रमें प्रवृत्त हुआ। दोंनोंकी सेनायें भिड़ गई। प्रथम जयसिंह विजयी हुआ, परन्तु अन्तमें उसे हारकर जंगलोंमें भागना पड़ा। कुछ दिनोंके बाद उसके पुत्र विजयसिंहने अपने बाहुबलसे लाट और उत्तर कोकणके मध्यवर्ती भूभागको अधिकृत कर मंगलपुरीमें विक्रम ११४९ के आसपास नवीन राज्यकी स्थापना की थी । विजयसिंहके वंशधरोंने कुछ दिनों तक सुख और शान्तिके साथ मंगलपुरी में राज्य किया । परन्तु उन्हें पाटनवालोंके द्वारा पराभूत होकर मंगलपुरी छोड़ वसन्तपुरमें आना पड़ा। वसन्तपुर आनेके पश्चात् उन्होंने पाटनवालोंसे अपनी राज्य लक्ष्मीका उद्धार किया । अनन्तर इस वंशकी एक शाखा पुनः मंगलपुरी नामक स्थान में स्थापित हुई । इस वंशके पांच शिलालेख तीन शासन पत्र और एक राज प्रशस्ति हमें प्राप्त है । इस वंशके आश्रित महात्मा शंकरानंद भारतीके शिष्य कृष्णानंद भारती स्वामीके तापी तटपर बनाए हुए शिव मन्दिरकी प्रशस्ति है। अतः इस वंशके इतिहासको ज्ञापन करनेवाले ६ शिलालेख और तीन शासन पत्र हैं । इन लेखोंकी तिथि विक्रम संवत् ११४९ से १४४४ पर्यन्त है । इन लेखों को इस ग्रंथके वासुदेव शीर्षकके अन्तर्गत उधृत किया गया है। इनके पर्यालोचन से इस वंशका वातापि कल्याणके चौलुक्य वंशके साथ वंशगत संबंध प्रकट होनेके साथही इनकी वंशावली निम्न प्रकार से उपलब्ध होती है । सिंह (३) वसंतदेव (४) रामदेव मूलदेव 1 (६) कर्णदेव I (१) विजय सिंह T (२) ध व ल देव कृष्णदेव लक्ष्मणदेव (५) वीरदेव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat महादेव चाचिक भीमदेव (१) कृष्णदेव (२) उदयराज www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ (७) सिद्धेश्वर वसन्तदेव 1 (१३) वीरदेव (८) विशाल 1 महादेव (९) धवल (१०) वासुदेव I (११) भीमदेव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat | (१२) वीरदेव कृष्णदेव [ प्राक्कथन (५) कृष्ण I (३) रुद्रदेव I (४) क्षेमराज कुम्भ कीर्तिराज इन लेखोंपर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि पाटनवालोंके साथ इनका एकबार संघर्ष हुआ था । केवल संघर्षही नहीं वरन उन्होंने इनकी स्वतंत्रताका अपहरण किया था । जिसका उद्धार वीरदेवने किया, और मंगलपुरीके स्थानमें वसन्तपुरको अपनी राजधानी बनाया । वरदेव मूलदेव और कृष्णदेव नामक दो लड़के थे। कृष्णने मूलदेवको मार डाला । बादको वह मंगलपुरीमें जाकर रह गया, जहांपर उसके वंशजोंने पांच वंश श्रेणीपर्यंत राज्य किया था । वसन्तपुरमें मूलदेवके वंशज रहे। जहां सात पीढीपर्यंत उन्होंने अप्रतिबाधित रूपसे राज्य किया । अनन्तर किसी शत्रुने आक्रमण कर वसन्तपुरका नाश किया । वसन्तपुरका अन्तिम राजा भीमदेव अपने परिवारको लेकर वासुदेवपुरमें चला आया । वासुदेवपुर आनेके बाद उसने अपने बड़े लड़के वसन्तदेव के पुत्र वीरदेवको राज्यभार देकर अपनी इहलीलाको समाप्त किया । वसन्तपुरके नाश पश्चात् वासुदेवपुरका प्रथम राजा वीरदेव हुआ । वीरदेव तथा उसके वंशजोंने कब तक वासुदेवपुरमें राज्य किया इसका अभी तक कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बहुत संभव है कि भावी अनुसंधान वासुदेवपुर- वंशके वंशधरोंका परिचय हमें दे । www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] विजयपुर (बांसदा) के चौलुक्य । सम्प्रति वासुदेवपुरका ६० प्रतिशत् भूभाग गायकवाड़ और ब्रिटिश सरकारके अधिकारमें है। संभवतः उसका ५ प्रतिशत् धर्मपुर और सरगनाके और शेषभूत ५ प्रतिशत अंशपर आजभी चौलुक्य वंशका अधिकार है। वर्तमान राज्यवंशकी परंपरा राजवंशका इस भूभागपर अस्तित्व अलाउद्दीन खिलजीके समयसे बताती है। और उसका वंशगत संबंध पाटनके चौलुक्य वंशके साथ मिलाती है । उक्त दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं, पुनश्च यह अकाट्यरूपेण सिद्ध हो चुका है कि पाटनका चौलुक्य वंश जहां उत्पन्न हुआ वहांही लीन हुआ। जबकि पाटन राज्यका मूलोच्छेद और उसकी वंशतंतु भस्मीभूत हो गई, तो ऐसी दशामें वर्तमान राज्यवंशको पाटनका वंशधर बतलाना परंपराकी धृष्टता है। इतना होते हुए भी परंपरामें ऐसी बातें हैं कि जिनके बलपर राज्यवंशका अस्तित्व इस भूभागपर ६०० सौ वर्ष पूर्वभावी माननेमें आपत्तिकी अधिक संभावना नहीं है। राज्यकी परंपरा तथा अन्यान्य ऐतिहासिक लेखों इत्यादिको दृष्टि कोणमें रखते हुए हमारी दृढ धारणा है कि वर्तमान राज्यवंशका संबंध पाटनसे न होकर पुरातन वासुदेवपुरके साथ हो सकता है। परन्तु यह विषय अनुसंधान साध्य है। इस हेतु सम्प्रति इसका विवेचन छोड़ वर्तमान राज्यवंशके इतिहासकी झलक दिखाते हैं। परंपरा कथित वंशावलीका मराठी और ब्रिटिश रेकार्ड के साथ तारतम्य सम्मेलनके अनन्तर पूर्वकी कुछ श्रेणियां छोड़ राजवंशकी वंशावली निम्न प्रकारसे उपलब्ध होती है। (१) रायभान (प्रथम) (२) उदयभान " (३) मूलराज (४) मूलदेव (५) उदयभान (द्वितीय) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. XIII. चौलुक्य चंद्रिका नवानगर-वासुदेवपुर (वासदा ) मन्दिरका अन्तर चित्र । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन - - योगराज दाजीबाय - कुशलसिंह (६) वीरदेव (७) रायभान (द्वि०) - जोरावरसिंह कीरतसिंह (८) गुलाबसिंह (प्र०) (९) उदयसिंह , (१०) वीरसिंह (११) नाहरसिंह (१२) रायसिंह (१३) उदयसिंह (द्वितीय) (१४) हमीरसिंह (१५) मुलाबसिंह (द्वि०) (१६) प्रतापसिंह इन्द्रसिंह प्रवीणसिंह नटवरसिंह किशोरसिंह वर्तमान राज्यवंशको वासदीया सोलंकी कहते है। परंपराके अनुसार इसका प्राचीन विरुद वासदपुर नरेश पाया जाता है। राजकीय प्राचीन कागजोंसे प्रकट होता है कि इस संन्यका नाम विजयपुर था और कागजों में इसका उल्लेख संस्थान विजयपुर-प्रांत संसदा मिलता है। इस राज्यवंशके अस्तित्वका सापक हमारे पास विक्रम संवत् १६५१ का एक प्रमाणपत्र है। उसके अतिरिक पारसियोंके इतिहासले राज्यवंशका अस्तित्व १००-१५० वर्ष और पीछे चला जाता है। और लगभग प्राचीन वासुदेवपुरकी समकक्षतामें पहुंचा जाता है। । वर्तमान राज्यका अधिकार मुगलोंके समयमें आजसे कई गुने भूभागम था। और यह समुद्रपर्यंत फैला हुआ था । परन्तु संसार चक्रकी नैसर्गिक गतिके अनुसार इस राजवंशका अधिकार क्रमशः हास होता हुआ भाज नाम मात्रका रह मया है। मुगल साम्राज्यके अन्त सा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौलुक्य चंद्रिका यमेंभी इस वंशके अधिकारमें दक्षिण लाट और उत्तर कोकणका एक बहुत बड़ा भाग था । परन्तु मरहटोंके उत्कर्ष पश्चात इनके राज्य लोलुप अधिकारिओंने राज्यवंशकी अशक्ततासे लाभ उठा अपना अधिकार जमाना प्रारंभ किया। सर्व प्रथम पेशवाओंने राज्यवंशका विरोध किया । पेशवाओंका अनुकरण दूसरे सैनिकोंने किया । पेशवा और दभाड़े और गायकवाड़ आदिकी स्पर्धा और राज्य लिप्साने ताण्डव नृत्य करना प्रारंभ किया। वे प्रातः स्मरणीय छत्रपति शिवाजी महाराजके साधु उपदेशको भूल गये और यहां तककि गये दिन आपसमें लड़ने भिड़ने लगे। राजनैतिक दृष्टिकोणमें अपने लाभको लक्ष रखकर विदेशिओं (अंग्रेजों) से संधि आदि कर एक दूसरेपर आक्रमण कर महाराष्ट्र शक्तिके मूलमें तुषारपातारंभ किया। उनकी दृष्टिमें स्वामी भक्ति और स्वामी द्रोहमें कुछभी अन्तर न रहा । उसी प्रकार स्वजाति और स्वदेश प्रेम तथा जातिद्रोह किसीभी गणनाकी वस्तु न रही। यदि कोईभी वस्तु उनकी दृष्टिमें महत्वकी थी तो वह व्यक्तिगत लाभ नामक वस्तु थी। इनकी इस महत्वाकांक्षाने भारतमें कालरात्रि उपस्थित की। ये राहु और केतुके समान सूर्य और चंद्रवंशी राजपूत राजवंशोंको पीड़ा देने लगे। एकके बाद दूसरा राजपूत राज्य इनके शिकार होने लगे। यदि पेशवाओंने विद्रोह न किया होता-पेशवाकी बढ़ती शक्तिका विरोध गायकवाड़ और दभाड़े आदि मरहठे न किये होते-पेशवाओंसे विरुद्ध वे निज़ामुलमुल्क आदि मुसलमानोंसे न मिले होते-पेशवाकी शक्तिका नर्मदा तट पर क्षय न किये होते और अन्ततोगत्वा गायकवाड़ पेशवाके विरुद्ध अंग्रेजोंसे न मिला होता तो न मालूम आज भारतका इतिहास किस प्रकार लिखा जाता। यह हम अस्वीकार नहीं करते कि पुराकालमें भारतके किसी सैनिकने पुराने राजवंशकी घटती शक्तिका उपयुक्त लाभ उठा नवीन राज्यवंश स्थापित न किया था। ऐसा दृष्टांत केवल भारतकेही नहीं वरन सारे जगतके इतिहासमें पाया जाता है। परन्तु पेशवा, गायकवाड़, दभाडे, सिंधिया, होल्कर और पवारके परस्पर संघर्ष और मरहठा तथा राजपूत विग्रहने जो नम ताण्डव नृत्य किया था, उसका दृष्टांत भारतको कौन बतावे, सारे संसारके इतिहासके पन्ने उलटने परभी नहीं पाया जा सकता। इनका संघर्ष यदि राज्यसत्तात्मक महत्वाकांक्षाकी परधिमेही परिमित होता तो देशको उतनी हानि न उठानी पड़ती। किंतु इनके संघर्षने आगे चलकर ब्राह्मण और अब्राह्मणका रूप धारण किया, और उसका शिकार सर्व प्रथम कायस्थ (प्रभु) जातिको होना पड़ा। कायस्थ जाति महाराज छत्रपति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ [प्राक्कथन शिवाजीकी साम्राज्य धुरीका संचालन करनेवाली थी। बाजी प्रभुकी स्वामी भक्ति और पनाला युद्ध, संसारके इतिहासमें सुवर्णाक्षरों में लिखे जानेके योग्य हैं। परन्तु इस स्वामी भक्त जातिको शिवाजीके वंशजोंके साथ अपनी अनन्य भक्तिके फल स्वरूप पेशवाओंके हाथसे नाना प्रकारकी यन्त्रणायें भोगनी पड़ी। यहां तक कि मरहठा साम्राज्यके न्यायोचित उत्तराधिकारीका साथ न छोड़नेकी धृष्टतामें कितने वीरोंको असह्य यंत्रणायें भोगनी पड़ीं। अनन्तर ब्राह्मण शक्तिके उत्कर्ष और उनके, वन हृदयको दहलानेवाले, पैशाचिक कार्यको देख उनकी एक छत्रताके भावी परिणामकी चिन्ताने अब्राह्मण मरहठोंको चिन्तित किया। और वे विना किसी पूर्व निश्चयके स्वभावतः उसके नाशमें प्रवृत्त हुए। उन्होंने उसके नाशमें प्रवृत्त होतेही उचित अनुचितका कुछभी ध्यान न किया। चाहे जिस साधन, मुसलमानों अथवा अंग्रेजों आदि किसीमी विदेशी शक्तिके सहायसे क्यों न हो उसके नाशमें प्रवृत्त हुए। यद्यपि इन्होंने ब्राह्मण शक्तिका नाश संपादन किया; परन्तु उन्हें अपने देशद्रोह और विदेशियोंकी सहायता प्राप्त करनेका परिणाम शीघ्रही भोगना पड़ा। इनके अधिकृत भूभागको क्रमशः विदेशी अपहरण करने लगे अन्ततोगत्वा इनकोही नहीं वरन समस्त भारतको पराधीनताकी श्रृंखलामें आबद्ध होना पड़ा। मरहठोंके परस्पर संघर्षके पश्चात् राजपूत और मरहठा संघर्षका नग्न दृश्य हमारी आँखोंके सामने आता है। इस संघर्षकी जड़मेंभी ऊँच और नीचका भाव भरा हुआ प्रतीत होता है। यदि ऐसी बात न होती तो गायकवाडको, मुसलमानोंके समान गुजरात और काठियावाडके बॉसदा आदि कतिपय राजवंशोंको छोड़ प्रायः सभी राजपूत राजवंशोंको अपनी कन्यायें देनेके लिये आप बाध्य करते न पाते । पुनश्च ऐसा भाव न होता तो अनेक राजपूतोंकी कन्यायें प्राप्त करनेके पश्चताभी बड़ोदाके गायकवाड़ राज्यवंशको राजपूत समाजसे बहिष्कृत न पाते। मरहठोंके परस्पर संघर्षने यदि भारतके भाग्यको रसातल गमनोद्यत किया था; तो राजपूत मरहठा संघर्षने उसे औरभी शीघ्र गामी बनाया । ___ हम ऊपर बता चुके हैं, कि मरहठों की महत्वाकांक्षा ने भारत में कालरात्रि उपस्थित की। वे राहु और केतु के समान राजपूत राजवंशों को पीड़ा देने लगे। एक के बाद दूसरा इनका शिकार होने लगा। अतः यहां पर राजपूत राजवंशोंकी दयनीय अवस्था का चित्रण करना आवश्यक प्रतीत होता है । राजपूतोंने शिवाजी की सद्भावना से प्रेरित हो उनका हाथ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] मुसलमान साम्राज्य के विनाश में बटाया था। क्योंकि उनके सामने हिन्दू धर्म और साम्राज्य संस्थापना का सुखद चित्र अंकित हुआ था । वे समझते थे कि मरहठों का हाथ बंटानेसे, मुसलमानों की पारतन्त्र्य श्रृंखला से निकल, स्वातन्त्र्य सुख का उपभोग करेंगे, परन्तु उन्हें कड़ाही से कूद अग्निकुण्ड में गिरने का अनुभव होने लगा। वे पद पद पर लांछित और विताड़ित होने लगे। प्रतिदिन अपने राज्य और स्वातन्त्र्यका अपहरण देख हाथ मलने लगे। परन्तु अब पछताने से क्या होने वाला था । क्योंकि समय निकल चुका था। मरहठे प्रबल और अद्वितीय बन चुके थे। उनका सामना करना साक्षात यमराजको आमन्त्रण करना था। कितनोंने विवश हो गायकवाड़ आदिको अपनी कन्यायें दे, अपने राज्यकी ही रक्षा नहीं वरन उसकी वृद्धि की, पर जिन्हें राजपूत शान की आन थी, वे कोपभाजन बन विपत्ति के सागर में पड़े और डूब मरे जो बचे वे "नकटा जीवे बुरी हवाल" के समान धृक् जीवन हो गये । उनकी नींद हराम हो गई, और उनके राज्य का अपहरण नाना प्रकार से होने लगा। लाटके बांसदा राज्यकोभी इनके चक्रमें पड़ना पड़ा। प्रवल प्राक्रान्त पेशवा और गायकवाड़, राहुके समान इसका ग्रास करनेके लिये अग्रसर हुए। राजवंशके गृह कलहको उद्दीप्त कर अपनी महत्वाकांक्षाको चरितार्थ करने लगे। कभी एकको तो कभी दूसरेको सहाय देने लगे। सहायताके उपलक्षमें शिबंदी खर्चके नामसे हजारोंकी थैली ऐठने लगे। इसके अतिरिक्त नज़रानेकी थैलीभी लेने लगे। आज इसको गद्दीपर बैठाया, और नज़रानेकी भारी रकम करार करवायी, तो कल उसे गद्दीसे उतार, दूसरेको बैठाया, और उससे भी नज़राना कबूल कराया। राज्यलोलुप स्वार्थान्ध जोरावरसिंह, पेशवा और गायकघाड़के हाथकी कठपुतली बना। उसने ईस्वी सन १७३६ से लेकर १७७६ पर्यन्त नाना प्रकारसे राज्यको हानि पहुंचायी। होते हवाते राज्यवंशके पूर्णविनाशकी समस्या उपस्थित हुई। परन्तु गुजरात ही नहीं वरन भारतके राजनैतिक मंचपर ब्रिटिश जातिकी उपस्थिति और पेशवा गायकवाड-संघर्षन राजपूत राजवंशोंके लिये त्राणका रूपधारण किया । तत्कालीन बांसदा नरेशने सन् १७८०-८२ वाले ब्रिटिश मरहठा युद्धमें अंग्रेजोंका साथ दिया और उनके साथ मैत्री स्थापित की। इतनाही नहीं वीरसिंहके वशजोंने सन १८२० पर्यंत अनेक बार ब्रिटिश जातिकी सहायता गाढ़े समयमें की है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ [ प्राक्कथन परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो अग्रेजोंने अपन बचनका पालन नहीं किया है, केवल इतना ही नहीं वचनपालन करनेका अवसर उपस्थित होनेपर अपने स्वीकृत उत्तरदायित्वकी उपेक्षा करते हुए लिखा है । They would not have taken so far interest themselves in insignificant state" और अपने पवित्र वचनोंको " Vague promise बतलाया है । ठीक है, ऐसा क्यों न हो ? राजनैतिक प्रतिज्ञायें समयाधीन होती हैं। उनका भाव समय टलतेही बदल जाता है । सबसे बड़ी बात तो यह है एवं इस संसार सबसे बढ़कर अगर कोई पाप है तो निर्धन और अशक्त होना है । 66 कि दैवोदुर्बल घातकः an 66 लाट और } دو ईश्वरकी महती अनुकम्पा है कि इस राजवंशका अस्तित्व है, और इसका अस्थिपंजर बच गया है । इस राज्यके अधिकार सम्प्रति २४० बर्गमील भूभाग है। राज्य ब्रिटिश सरकारको ७५०० वार्षिक कर देता है । नियमित इसे ६ तोपों की सलामीका अधिकार प्राप्त है; एवं राजाको वाइसराय से स्वागत तथा बम्बई प्रान्तीय गवर्नरसे स्वागत और प्रतिस्वागतका अधिकार मिला है। लाट और गुजरात में मुसलमान । हमारे विवेचनीय इतिहास और कालके साथ मुसलमान जातिका संपर्क पाया जाता है। इनका यह संबंध कई हिस्सों में बंटा है । और यदि हम इनके इस विभिन्न भागोंको पुराकालीन दिल्हीके सुलतान अहमदाबाद और मालवा के सुलतान तथा खानदेश के मुसलमान, नाम देवें तो असंगत न होगा । अब हम पुराकालीन मुसलमानोंके संबंधका दिग्दर्शन कराते हैं सर्व प्रथम खलीफा हस्लाम के समय जुनेद की अध्यक्षता में मुसलमानी सेनाको रूचके गुर्जरोंपर आक्रमण करते पाते हैं। वहांसे जब वे आगे बढ़े तो उन्हें नवसारीके चौलुक्यराज पुलकेशीसे हार कर लौटना पड़ा । गुजरात के मुसलमान । हमारे विवेचनीय इतिहासके साथ मुसलमान जातिके संबन्धका कई बार उल्लेख हमें कर चुके हैं । प्रथमवार मुसलमानोंका उल्लेख नवसारिका के चौलुवयराज पुलकेशीके राज्य पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat " www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका आक्रमणके संबन्धम और द्वितीय बार बांसदाके राजके अस्तित्व संबंधमें दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीनका उल्लेख कर चुके हैं। एवं संजाण पर आक्रमण करनेवाले मुसलमान सेनापति अल्लफखांको और मालवाके सुलतानोंका उल्लेख विस्तारके साथ किया गया है। पुनश्च वासुदेवपुरकी पुरातन राज्यधानी वसन्तपुरको लूटनेवाले अज्ञात शत्रुका विचार करते समय गुजरातके सुलतानोंका उल्लेख किया है। एवं अतः यहां पर भारत वर्ष में मुसलमान जातिके उत्कर्ष और पतन सम्बन्धमें कुछ विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। मुसलमान धर्मके संस्थापक हजरत मुहम्मद साहेबका जन्म अरबकी कुरेशी जातिमें विक्रम संवत् ६२८ में हुआ था। उन्होंने अपनी ४० वर्षको अवस्था में विक्रम संवत् ६६८ में अपनेको ईश्वरीय दूत घोषित कर उपदेश देना प्रारंभ किया था। उन्होंने लगभग १२ वर्ष पर्यन्त अपने मतका प्रचार किया। परन्तु विक्रम ६७६ में विरोधिओंकी प्रबलताके कारण उनको मक्का छोड़ मदीना जाना पड़ा । और उनके मक्कासे मदीना प्रवास (हिजरत) के उपलक्षमें हिजरी नामक संवत् उनके अनुयायियोंने चलाया, हिजरत करनेके ११ वर्ष बाद अर्थात् हिजरी सन ११ तदनुसार विक्रम ६८६ में हजरत मुहम्मद साहबका स्वर्गवास हुआ। हजरत मुहम्मद साहबकी गद्दीपर बैठनेवाले खलीफ़ा कहलाये। हजरत मुहम्मद साहबके चलाये धर्मको माननेवाले मुसलमान कहलाये। मुसलमानों की संख्या दिन दूनी और रात चौगुनी होने लगी। थोड़े समयके भीतर मुसलमान जाति एक बहुत बड़ा साम्राज्यकी भोगनेवाली हो गई। द्वितीय खलीफा उमरके समय (जिसका राज्य काल हिजरी १३-२०, तदनुसार विक्रम संवत् ६६१-७०१) लाट देशकी राजधानी भृगुकच्छ पर आक्रमण करनेको एक सेना जल मार्गसे और दूसरी स्थल मार्गसे भेजी गई। जल मार्गसे आनेवाली सेना थाना तक आई, परन्तु उसे वापस जाना पड़ा। एवं स्थल मार्गसे आनेवाली सेना सिन्धुमेही उलझ गई। ___ इस समयके पश्चात् मुसलमानोंके अनेक आक्रमण भारतपर हुए। परन्तु हमारे इतिहासके साथ उनका कुछभी संबंध नहीं है। अतः उसे पटतर कर आगे बढ़ते हैं। खलीफा हस्सामके समय (जिसका राज्यकाल हिजरी १०५ से १२० तदनुसार विक्रम ७८१-८०० पर्यन्त है) सिन्धके हाकिम जुनेदकी अध्यक्षतामें मुसलमानी सेनाने सिन्धसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन आगे पैर बढ़ाया। उसकी एक टुकड़ी चित्तौर होकर उज्जैन पर्यन्त गई और दूसरी टुकड़ी भीनमाल होकर भृगुकच्छसे और आगे कमलेज पर्यन्त चली आई थी। परन्तु उसे विक्रम ७६६ में हार कर लौटना पडा था । ___इस घटनाके अनन्तर यद्यपि मुसलमानोंके भारतीय अधिकारकी वृद्धि क्रमशः होती गई। यहांतक कि भारतमें तुक वंशकी स्थापना हो गई। भारतकी राजधानी दिल्ही उनके अधिकारमें आ गई। परन्तु हमारे इतिहासके साथ उनका कोई संपर्क न हुआ। परन्तु मुसलमानोंके तीसरे राजवंश ( खिलजीवंश ) के तीसरे सुलतान अलाउद्दीन खिलजीके साथ हमारा संबंध स्थापित होता है। अलाउद्दीन खिलजी अपने चचा जलालुद्दीनके समय कड़ाका हाकिम था। उसी समय उसने देवगिरीके यादवोंपर आक्रमण कर बहुतसा धन रत्न प्राप्त किया था। एवं हिजरी सन ७०६ तदनुसार विक्रम १३५७ में वह दिल्हीका सुलतान हुआ और गद्दीपर बैठतेही उसने राजपूताने पर आक्रमण किया, एवं रणथंभोर पर विक्रम १३५८ में-चित्तौरपर १३६० में। अनन्तर सिवाना-जालौर-पाटन-मालवा श्रादिको अपने आधीन किया । यहां तककी अलाउद्दीनके सेनापति मलिककाफूरने देवगिरीके यादवराव रामदेव-वगलाणके राजा प्रतापचन्द्र, होयसल राज आदिको पराभूत किया । और एक प्रकारसे समस्त भारत अलाउद्दीनके अधिकारमें आ गया। अलाउद्दीनका राज्यकाल विक्रम १३५३ से १३७२ तदनुसार हिजरी ७०६ से ७२५ पर्यंत है। गुजरात के मुसलमान । अलाउद्दीन खिलजीने विक्रम १३६५ के आसपास पाटनके वघेल वंशका उत्पाटन कर गुजरातको अपने राज्यमें मिला लिया । और गुजरातमें अपना सूबा नियुक्त किया। इस समयसे लेकर विक्रम संवत् १४५३ पर्यंत (खिलजी वंशके अन्त समय और उसके बाद तुगलकोंके आरंभसे मध्यकाल पर्यंत ) गुजरातका शासन दिल्ही सुलतानोंके सूबाओंने किया। परन्तु उसी वर्ष मुजफ्फरशाहने गुजरातमें स्वतंत्र मुसलमान राज्यकी स्थापना की। इस वंशका राज्यकाल विक्रम १४५३ से १६१८ पर्यंत १६५ वर्ष है । इस अवधिमें इस वंशके १४ राजा हुए । गुजरातके मुसलमानोंकी वंशावली निम्न प्रकारसे है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ५४ मुजफ्फरशाह - अहमदशाह मुहम्मद करीमशाह कुतबुद्दीनशाह दाऊदशाह महमूदबेगडा मुजफकरशाह (द्वितीय) सिकन्दरशाह नसीरवां बहादुरशाह मीरमहमदशाह महमूदशाह अहमदशाह (द्वितीय) मुजफ्फ.रशाह (तृतीय) मुजफ्फरशाह यद्यपि स्वतंत्र हुआ परन्तु उसके अधिकारमें गुजरातका बहुतही थोड़ा भाग आया। परन्तु मुजफ्फरशाहके उत्तराधिकारी अहमदशाहने जूनागढ़, ईडर, धार आदिके साथ लड़ झगड़ अपना अधिकार चारों तरफ बढ़ाया। एवं अपने नामसे अहमदावाद बसा, उसे अपनी राजधानी बनाया। अहमदशाहका पौत्र महमद बेगडा अपने वंशका परम प्रतापी सुलतान हुआ। इसने कच्छ, काठियावाड, चांपानेर, मालवा और सूरत आदिको विजय कर, अपना अधिकार खूब बढ़ाया। एवं अपने नामसे महमदाबाद बसाया। महमद बेगडाके बाद बहादुरशाह अपने वंशका परम विख्यात राजा हुआ। इसने मालवा, मेवाड और मुगलोंसे घोर युद्ध किया। इसके साथही मुसलमान राजका सौभाग्य सूर्य अस्ताचलोन्मुख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथ ५५ हो चला था । परन्तु किसी प्रकार स्वतंत्रता बनी रही थी । किन्तु मुजफ्फरशाह तृतीयके समय विक्रम १६१८ में मुगल सम्राट अकबरने गुजरातको अपने राज्यमें मिला लिया । लाट और गुजरात में मालवा के सुलतानं । जिस प्रकार गुजरातके बघेलोंका नाशकर अलाउद्दीनने गुजरातमें सूबा नियुक्त किया था उसी प्रकार माला धारके परमारोंका उत्पाटन कर उसने सूबा नियुक्त किया था । अलाउद्दीन समय १३६५ से लेकर विक्रम १४३० पर्यन्त मालवाका शासन दिल्हीके सूबादार करते थे । परन्तु उक्त वर्ष दिलावरखां उर्फ अमीशाहने मालवा में स्वतंत्र मुसलमान राजकी स्थापना की थी । और परमारोंकी राजधानी धारको अपनी राजधानी बनाया । दिलावरखांका उत्तराधिकारी उसका पुत्र होशंगशाह, उर्फ अल्लफखां मालवाका सुलतान हुआ । इसने धारसे राजधानी उठा माडूमें लाकर अनेक सुन्दर भवन आदि बनाये । और दो बार गुजरातपर आक्रमण किया। प्रथम बार इसको सफलता नहीं प्राप्त हुई परन्तु दूसरी बार विजयी हुआ और गुजरातको पूर्ण रूपसे लूटा । गुजरात में मुगल वंश तैमूरने यद्यपि भारत में लूटपाट मचाअपना आंतक बैठा दिया था, तथापि भारत में मुगल वंशका राज्य स्थापित करनेवाला बाबर है । बाबरनेभी यद्यपि काबुलको विजय कर बादशाहकी उपाधि धारण की थी और अनेक बार हिन्दुस्तान में आकर लूटपाट मचाया था । परन्तु विक्रम संवत् १५८२ में पानीपतकी लड़ाईके बाद इब्राहिमखांको मार दिल्हीका बादशाह बना। दूसरे वर्ष विक्रम १५८३ में कनवा युद्धमें राजा संग्रामसिंहको हराया । चंदेरीमं मेदनीयको पराभूत किया । अफगानोंको पराभूत कर विहारको आधीन किया । और उसकी मृत्यु, विक्रम १५८६ में हुई । मुगल वंशावली निम्न प्रकार से है । i Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat बाबर 1 अकबर www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] जहांगीर शाहजहां औरंगजेब बहादुरशाह जहांदारशाह फरुखसियार रफीउज्जात महम्मदशाह अहमदशाह आलमगीर शाहजहां शाहआलम अकबर बहादुरशाह बाबरका उत्तराधिकारी हुमायूँ हुआ । हुमायूँका संघर्ष गुजरातके बहादुरशाहके साथ हुआ था। परन्तु गुजरातका कोई भाग उसके अधिकारमें नहीं आया। हुमायूँके पुत्र अकबर अधिकारमें गुजरात प्रान्त मुजफ्फरशाह तीसरेके हाथसे विक्रम १६१८ में आया। तब से गुजरातका शासन मुगलोंके सूबादार करते रहे। अकबरके समय गुजरातका प्रथम सूबादार टोडरमल था। और मुगल साम्राज्यके अन्तपर्यन्त अनेक सूबाओंने गुजरात देशकी सूबेदारी की। अकबरका प्रपौत्र बन्धुघाती और पितृद्रोही औरंगजेबके समय मरहठाओंका सौभाग्य सूर्य चमका। और शिवाजीने विक्रम संवत् १७२० में सर्व प्रथम मरहठाओंके शौर्यका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन गुजरात वसुन्धराको परिचय कराया और सूरतको ६ दिनोंपर्यन्त खूबही लूटा। इसक पश्चात् विक्रम संवत् १७२६ में द्वितीय बार सूरतको लूटा । औरंगजेबके बाद मुगल साम्राज्यका सौभाग्य सूर्य अस्त होने लगा था। परन्तु उसके उत्तराधिकारी बहादुर शाहके समय तक किसी 'प्रकार मुगल साम्राज्यकी प्रतिष्ठा बनी रही। इस समय शिवाजीके पौत्र शाहुने पुनः महाराष्ट्र शक्तिका संगठन कर स्वातन्त्र्य ध्वजको ऊंचा किया । बहादुरके बाद उसका बड़ा पुत्र जहांदार बादशाह बना । जहांदारके बाद उसका भतीजा फर्रुखसियार बादशाह बना । फरुखसियार मरहठा तथा अन्य सरदारोंके षडयन्त्रका भोग बन मारा गया। और उन लोगोंने रफीउज्जात को बादशाह बनाया। जो ६ महीना बाद मरा और रफीउद्दौला बादशाह बना। रफीउद्दौलाके बाद मुहम्मदशाह बादशाह बना । इसके समयमें मुगल साम्राज्यका अंग भंग होने लगा। निज़ाम स्वतंत्र बन गया और मरहठोंने गुजरातमें अपना पांव जमाया । मरहठा सरदार खण्डेराव दभाड़ और दामाजीराव गायकवाडने सूरतको लूटा और १७७६ विक्रममें सोनगढ़को अपना केन्द्र बनाया । अनन्तर मरहठोंका जोर बढ़ने लगा । और उनका आतंक छा गया । पीलाजीराव गायकवाडके पुत्र दामजीरावने प्रायः समस्त गुजरात और काठियावाड़को हस्तगत किया । और मुगल साम्राज्यका गुजरातमें अन्त हुआ। यद्यपि इस समयसेभी और आगे पर्यंत मुगल राज्यका दीप टिमटिमाता रहा परन्तु हमारे इतिहासके साथ उसका सम्बन्ध न होनेसे हम इतनेहीसे अलम् करते हैं। लाटमें मरहठे। हम ऊपर बता चुके हैं कि लाट वसुन्धराको छत्रपति महाराजा शिवाजी ने सर्व प्रथम मुगल सम्राट औरंगजेबके राज्यकाल विक्रम संवत् १७२० में पदाक्रान्त कर प्रसिद्ध सूरत नगरको ६ दिवस पर्यन्त लूट, बहुतसा धन रत्न प्राप्त किया था। एवं इस घटनाके ६ वर्ष पश्चात् विक्रम १७२७. में पुनः सूरतकी विसूरत की थी। उक्त दोनों लूट पाट लाटसे मुगल साम्राज्यका पतन और मरहठा जातिके अभ्युदयका श्री गणेश था। अत : अब विचारना है कि मरहठा शौर्यका अभ्युदय किस प्रकार हुआ, और लाट देश उनके अधिकारमें क्यों कर आया। राजपूताना और मरहठा देशोंकी परंपरा शिवाजीका संबंध मेवाड़के शिशोदिया वंशके साथ मिलाती है। और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ५६ महाराष्ट्र की परंपरा बताती है कि मेवाड़पति महाराणा अजयसिंह ने -- जिसका समय विक्रम संवत् १३६५ के आसपास है— किसी मुन्ज नामक शत्रुको यद्यपि मुखमें पराभूत किया, परन्तु उसके भाग जाने से उसे संतेोष नहीं हुआ। अत: उसने अपने दोनों पुत्रोंको मुन्जका वध कर उसका शिर लाने के लिया कहा । और प्रगट किया, कि यदि वे उसका शिर नहीं ला सकेंगे तो वह उन्हें अपना asar औरस पुत्र नहीं मानेगा। परन्तु वे दोनों भाई भीरु थे और मुन्नका शिर लाने में असमर्थ रहे । परन्तु उसके भतीजे हमीरने मुन्जका शिर अर्पण किया । इस पर राणा अजयसिंहने उन्हें बहुतही बुरा भला कहा । जिसकी ग्लानिसे एकने आत्मघात किया, और दूसरा देश परित्याग कर डुंगरपुर चला गया। डुंगरपुर जानेवाले राजकुमारकी तेरहवीं पेढीमें सज्जनसिंह हुआ। सज्जनसिंह नामक व्यक्तिने मेवाड़ छोड़ दक्षिणमें आ कर बीजापुरके मुसलमानोंकी सेवामें प्रवेश कर मधोल परगना, जिसके अन्तर्गत ८४ ग्राम थे - की जागीर प्राप्त की। हमारा संबंध शिवाजीके वंशगत इतिहाससे न . होनेके कारण हम परंपराकी सत्यता अथवा असत्यता विवेचनमें प्रवृत्त न होकर ऐतिहासिक 'घटनाका दिग्दर्शन कराते हैं । परंपरा के अनुसार सज्जनसिंहको चार पुत्र थे। जिनमें सयाजी सबमें छोटा था । उसका पुत्र भोन्साजी जिसके नामानुसार उसके वंशज भोंसले कहलाये । भोन्साजीको १० लड़के थे। जिनमें से बड़े पुत्रका नाम मालोजीराव था । उसका शाहाजी हुआ। शाहाजीने अहमदनगर और बीजापुर के मुसलमानोंका दहिना हाथ बन मुगलोंसे घोर युद्ध किया था । इसी शाहाजी के पुत्र महाराजा छत्रपति शिवाजी हुए। शिवाजीका जन्म विक्रम १६८३ में हुआ था। शिवाजी अपनी माता और गुरूकी देखरेखमें शस्त्र विद्याका अध्ययन कर १८ वर्षकी अति युवावस्था मेंही मरहठा नवयुवकोंको एकत्रित कर हिन्दु साम्राज्य के पुनरुद्वारार्थ प्रयत्नशील हुए थे। और मावलको अधिकृत कर विक्रम संवत् १७०२ में महाराजाकी उपाधि धारण कर महाराष्ट्र राज्यकी स्थापना किया। एवं २८ वर्ष पश्चात् विक्रम १७३० में बड़ी धूमसे रायगढ़ में राज्याभिषेक किया, और उसी वर्ष लाट देशमें आकर सूरतको लूटा था शिवाजीको सूरत लूटके समय वांसदावालोंसे अभूतपूर्व सहायता मिली थी। शिवाजीको संभाजी और राजाराम नामक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ [प्राक्कथन दो पुत्र थे। संभाजी जब वयस्क हुआ तो अत्यन्त दुराचारी निकला। उसके आचरणसे असंतुष्ट हो, जब शिवाजीने शासन किया तो वह विक्रम १७३४ में भाग कर एक मुगल सरदारके पास चला गया। परन्तु मुगलोंके व्यवहारसे संत्रस्त हो स्वदेश आ गया। किन्तु शिवाजीने उसे क्षमा न कर पन्हाला दुर्गमें कैद किया। इस घटनासे शिवाजीका हृदय अत्यन्त दुःखी रहने लगा, और विक्रम १७३६ में ५३ वर्षकी अवस्थामें उनकी मृत्यु हुई। और भारत उद्धार तथा हिन्दु साम्राज्यकी आशा उनके साथही चिताकी गोदमें चली गई। शिवाजीकी मृत्यु पश्चात् संभाजीके बंदी होनेका लाभ उठा उसकी विमाता सोयराबाईने अपने पुत्र राजारामको रायगढ़में गद्दीपर बैठाया और महाराष्ट्र सिंहासनकी जड़में गृह कलहका बीज वपन किया। परन्तु संभाजीको जब यह संवाद मिला तो किसी प्रकार पन्हालासे निकल अपने अनुचरोंको एकत्रित कर रायगढ़को हस्तगत किया। सोयराबाईको बंदी बना शिवाजीको विष देनेके अपराधमें मरवा डाला। और विक्रम १७३७ में गद्दीपर बैठा। एवं राजारामके साथिओंको बड़ीही निर्दयताके साथ यमराजके दरबारमें पहुंचाया। संभाजीको राजा बननेके लगभग एक वर्ष बाद बादशाह औरंगजेबका पुत्र अकबर जब अपने पिताकी कुटिल नीतिके कारण पराभूत हुआ तो राठौडवीर दुर्गादासकी प्रेरणासे संभाजीके शरणमें आया। मरहठोंने यद्यपि उसे शरण दिया, परन्तु अकबरको संतोषजनक लाभकी आशा नहीं दीखी। अकबरका संभाजीके पास जाने और मरहठोंका बुरहानपुर विजयका संवाद पाकर औरंगजेब स्वयं बुरहानपुर आकर संभाजीपर आक्रमणका संचालन करने लगा। मरहठोंके दुर्भाग्यसे संभाजीकी एक स्त्री और पुत्रको मुगलोंने बंदी बनाया। पुनश्च औरंगजेबने बीजापुर और गोलकुन्डाको विक्रम १७४३ में विजयकर अपनी समस्त सेना संभाजीके प्रतिकूल अग्रगामी की। विक्रम १७४३ में संभाजी अपने पुत्र शाहुके साथ बंदी हुआ और औरंगजेबने मुसलमान धर्म न स्वीकार करनेपर उसे मरवा डाला। एवं रायगढ़ विजयकर अनेक सरदार सामन्तों और राज्य परिवारके मनुष्योंका वध किया। परन्तु राजाराम सन्यासीके वेषमें भाग निकला। औरंगजेबने रायगढ़को स्वाधीन किया। संभाजीकी मृत्यु और उसके पुत्र शाहु (शिवाजी ) के बंदी होनेके कारण संभाजीका छोटा वैमात्रिक भाई राजाराम नाम मात्रका राजा बना; क्योंकि उस समय याप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] महाराष्ट्र देश औरंगजेबके अधिकारमें चला गया था। और तीन वष तक राज्य करने पश्चात् शिवाजी और संभाजी नामक दो पुत्र और चार स्त्रियोंको छोड़ स्वर्गवासी हुआ। जिस प्रकार राजारामके पिता छत्रपति महाराजा शिवाजीके मरने पश्चात् उसकी माताने उसे गद्दीपर बैठानेके लिये खटपट की थी। उसी प्रकार उसके पुत्रोंकी माताओंने अपने अपने पुत्रको गद्दीपर बैठानेके लिये खटपट शुरू की। परन्तु अन्तमें शिवाजी गद्दीपर बैठा। किन्तु वास्तवमें उसकी माता राज्य करती थी। १७५६ से १७६३ पर्यन्त शिवाजी राजा रहा। इसी वर्ष औरंगजेबकी मृत्यु हुई और शाहु बंदीसे छूटकर स्वदेश आया । अपने हितैषी सरदारोंकों एकत्रित कर राज्य मांगा, परन्तु ताराबाईने राज्य सौंपनेसे इन्कार किया। तब शाहुने साम दाम आदि द्वारा ताराबाईका पश्न निर्बल बना सताराको अधिकृत कर अपने राजा होनेकी घोषणा विक्रम १७६४ में की। इस घटनाके चार वर्ष बाद विक्रम १७६८ में राजारामके पुत्र शिवाजीको मृत्यु हुई। और ताराबाई कोल्हापुर चली गई। यहां संभाजी उसके हाथसे राज्य छीन कोल्हापुरका महाराजा बना। और मरहठा राज्य सतारा और कोल्हापुर नामक दो भागोंमें बट गया। आगेकी घटनाओंका दिग्दर्शन करानेके पूर्व महाराष्ट्र वंशकी वंशावली उधृत करते हैं। महाराष्ट्र वंशावली सज्जनसिंह सयाजी भोसाजी मालोजी शाहाजी संभाजी शिवाजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ संभाजी 1 शाहु ( प्रथम ) राजाराम 97 शाहु (द्वितीय) 1 प्रतापराव राजाराम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat शिवाजी 1 राजाराम (गोदगया) [ प्राक्कथन संभाजी (कोल्हापुर) 1 शाहूको बंदीपनसे मुक्त होनेके पश्चात् बालाजी विश्वनाथ नामक ब्राह्मण से प्रचुर सहायता मिली थी । अतः उसने अपने राज्यका सबसे बड़ा पेशवा पद उसे प्रदान किया । बालाजी विश्वनाथ भट्टकी पेशवा पद मिलते समय विक्रम १७६६ में, ५३ वर्षकी अवस्था थी। परन्तु उसने शाहुकी राज्य सत्ताको बढ़ाने और शत्रुओं को नाश करनेमें कोई भी बात उठा न रखी | सर्व प्रथम उसने ताराबाईका बल नाश किया। अनन्तर अन्यान्य सरदारोंको पराभूत कर शाहुकी सत्ता वृद्धिकर वास्तवमें उसे महाराष्ट्रका राजा बनाया। यहां तककि विक्रम १७७४ में एक भारी सेना लेकर अबदुल्लाखांके साथ दिल्ही गया, और बादशाह फर्रुखसियारको पदभ्रष्ट करनेमें हाथबटा रफीउद्ज्जातको बादशाह बना तीन सनद प्राप्त कीं। उनमेंसे प्रथमके अनुसार शिवाजीकी मृत्युके समय जितने भूभागपर अधिकार था, वह शाहूका स्वराज्य रूपसे माना गया। दूसरेके अनुसार मरहठोंने जो खानदेश, बेड़ार, हैद्राबाद और कोकण आदिका भूभाग विजय किया था, वह न्यायोचित शाहुका प्रदेश माना गया । तीसरेके अनुसार शाहुको खानदेश, बेड़ार, हैद्राबाद, कर्नाटक और कोकण आदि प्रदेशमें अपने कर्मचारिओंको रख कर चौथ वसूल करनेका अधिकार दिया । एवं इसकी दूसरी शर्त यह थी कि कोल्हापुरके महाराज संभाजी ( अपने चचेरे भाई ) के साथ शाहु छेड़छाड़ न करे अर्थात कोल्हापुर स्वतंत्र बना । और बादशाहने शिवाजी के परिवारके बंदी स्त्री और बच्चोंको विमुक्त कर सतारा भेज दिया । विक्रम १७७६ में बालाजीकी मृत्यु हुई। बाजीराव दूसरा पेशवा बना । अन्य बातोंके विवेचनको हस्तगत करने के पूर्व हम पेशवा वंशकी वंशावली उधृत करते हैं । www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका पेशवा वंशावली. १ बालाजी विश्वनाथ-राधाबाइ २ बाजीराव बालाजी भीऊबाई चिमनाजी अनुबाई ३ बालाजी बाजीराव रामचन्द्र ६ रघुनाथ जनार्दन सदाशिव बायाबाई विश्वास ४ माधव यशवंत ५ नारायण चिमनाजी बाजीराव ७ सवाई माधवराव G चिमनाजी ९ बाजीराव रघुनाथ जिस प्रकार बंदीसे मुक्त होनेके पश्चात बालाजीसे शाहुको अभूतपूर्व सहायता मिली थी। उसी प्रकार खण्डेराव दभाडेसे मिली थी। दभाड़े परिवार शाहुके पिता और पितामहके समयसे ही महाराष्ट्र सैनिकोंमें प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था। यहां तक कि संभाजीके मारे जाने और शाहुकी बंदी अवस्थामें राजारामने खण्डेरावको तलेगांवकी जागीर और सेना खासखेलकी उपाधि प्रदान की थी। इतना होते हुएमी खण्डेराव दभाडेने शाहुको न्यायसंगत महाराष्ट्र सिंहासनका अधिकारी मान अन्यान्य सरदारोंके विरोध करने परभी उसका साथ दिया। अतः शाहुने उसे अपना प्रधान सेनापति बनाया। खण्डेराव दभाड़े जब शाहु का प्रधान सेनापति बना, तो उस समय उसके पास नाम मात्रका राज्य था। दभाड़ेने औरंगजेबकी मृत्युसे उत्पन्न विशृंखला का उपयुक्त लाभ उठानेके विचारसे बालाजी विश्वनाथको गृहकलहके निवारणार्थ छोड़ एक बहुत बड़ी सेना लेकर विक्रम संवत १७६४ में खानदेशके मार्गसे पिम्पलनेर आदिको अधिकृत करता हुआ नवा पुराको केन्द्र बनाया । वहांसे आगे लाटमें प्रवेश किया, और नवसारी पर्यन्त लूटपाट मचाया । खण्डेराव दभाडेकोभी छत्रपति महाराज शिवाजीके समानही लूटपाट करते समय वांसदाफे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ प्राक्कथन महारावल वीरदेव से सहायता मिली थीं। खण्डेरावने नवापुरा को अपना केन्द्र बनाया। स्वण्डेराव दभाड़ेके इस आक्रमणके समय दामाजी गायकवाड़ नामक सैनिक उसके साथ था । उसने इस आक्रमणके समय अपनी वीरताका परिचय दिखाया था । दभाड़े और गायकवाड़ का यह लूटपाट विक्रम १७६३ से १७७६ पर्यन्त चलता रहा । परन्तु इसी वर्ष इन्होंने बालपुर नामक ग्राममें पूर्ण विजय प्राप्त किया । इसी वर्ष खण्डेरावने सतारा लौटकर दामाजी गायकवाड़की वीरताकी सूचना शाहुको दी। शाहुने दामाजीको समशेर बहादुर की उपाधि प्रदान की । परन्तु खण्डेराव दाभाड़े और दामाजीराव गायकवाड़ दोनों की मृत्यु थोड़ेही दिनों बाद हुई । अनन्तर खण्डेराव दाभाड़ेका - उत्तराधिकारी उसका पुत्र त्र्यम्बकराव और दामाजीका उत्तराधिकारी उसका पुत्र पीलाजीराव हुआ । उसके आगे चलकर दभाड़े परिवार के साथ लाट देशका इतिहास श्रोत प्रोत है। शाहुको अपने तीन विश्वस्त और स्वामी भक्त सेवक की मृत्यु घटना देखनेको मिली। शाहुने अपने तीनों स्वर्गीय सेवको के उत्तराधिकारिओंको उनके पिताके पदपर नियुक्त किया । जैसा कि हम ऊपर बता चुके हैं, कि बालाजी विश्वनाथका पुत्र बाजीराव पेशवा बना । उसी प्रकार खण्डेरावका पुत्र त्र्यम्बकराव दाभाड़े सेनापति और दामाजीका भतीजा पीलाजी समसेर बहादुर बना । परन्तु तीनों महत्वाकांक्षी और नवयुवक थे । साथही उनमें आत्माभिमान कूट कूट कर भरा था । शाहुने बाजीरावको पेशवा बनानेके साथही प्रधान सेनापति बनाया। जिसने यम्बकराव मनको मलीन किया । और वह एक प्रकारसे पेशवाका विरोधी बन अपने अधिकृत प्रदेशमें चला गया। पीलाजीभी दभाड़ेका साथी बना। सोनगढ़ से आगे बढ़ कर वह लूटता मारता आगे बढ़ने लगा । इसी अवसर में गुजरातके मुगल प्रबंधमें फेरफार हुआ। गुजरातका सूबा सरबुलन्दखां था । और इसका नायब निजामउलमुल्क था । बादशाहने निजामउलमुल्क के स्थान में सुजातखां को नायब बनाकर भेजा । परन्तु बादशाहकी आज्ञा प्रतिकूल. निजामउलमुल्क के चचा हमीदने बलवा किया । और शाहुके दूसरे सेनापति कन्थाजी कदम्बको दोहदसे सहायता के लिये बुलवाया तथा गुजरातकी 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ६४ चौथ सहायताके उपलक्षमें देना स्वीकार किया । इधर सुजातखांके भाई रुस्तम अलीने पीलाजीसे चौथ के शर्तपर सहायताकी प्रार्थना की। पीलाजी रुस्तमको मदद देना स्वीकार कर आगे बढ़ा और रुस्तम तथा पीलाजीकी सेना महीपार कर अड़ासके तरफ जा रही थी। अचानक हमीद ने आक्रमण किया । परन्तु हटाया गया । इसके अनन्तर रुस्तम और पीलाजी से मन मुटाव हो गया और पीलाजीने अचानक रुस्तमपर आक्रमण किया । रुस्तम वीरता से लड़ा परन्तु अन्तमें बंदी होनेके स्थानमें मरना अच्छा मान आत्मघात कर गया । रुस्तमके मरने पश्चात् पीला जीने हमीदखांसे अपने विश्वासघातके पुरस्कार में गुजरातकी चौथ मांगी। परन्तु कन्याजी कदम्बने विरोध किया । अतः महीसे उत्तरका कन्थाजीको और दक्षिणके चौथका अधिकार पीलाजीको मिला। पीलाजी सोनगढ़ और कन्थाजी खानदेश चले आये । हमीदको दण्ड देनेके लिये सरबुलन्दखां भेजा गया। जिसके आनेका संवाद पाकर हमीद भाग खड़ा हुआ । - इतनेमें कन्थाजी और पीलाजी उससे जा मिले। अन्तमें सबुलन्दको हारना पड़ा । इन दोनोंने खूबही ऊधम मचाया अन्तमें सरबुलन्दने बाजीराव पेशवासे सहायता की प्रार्थना की । और उसने सरबुलन्दसे चौथ स्वीकार कराकर अपने भाई चिमनाजीकी अध्यक्षता में सेना भेजी। चिमनाजीने सरबुलन्दसे अपने भाईकी शर्त स्वीकार कर कर उसे आश्वासन दिया की कोई भी मरहठा उसके इलाकेमें गड़बड़ नहीं मचायेगा । परन्तु त्र्यम्बकराव दभाड़े और अन्यान्य मरहठे पेशवाको गुजरात से निकाल बाहर करनेके विचार से मिल गये । उन्होंने पेशवा और भाड़े विग्रहको ब्राह्मण ब्राह्मणका रूप दिया। दभाड़े आदि यहां तक आगे बढ़े कि उन्होंने निजामउलमुल्क से मैत्री स्थापित की। और ३५००० सेनाके साथ पेशवा के विरोध में प्रवृत्त हुए। बाजीराव स्वयं इनको शिक्षा देनेके लिये गुजरात आया । परन्तु दुर्भाग्यसे नर्मदा उतरनेबाद सम्मिलित गायकवाड़ - दभाड़े सेनाके नायक पीलाजीरावके पुत्र दामाजीके हाथसे बाजीरावको पराभूत होना पड़ा । बाजीराव यद्यपि हारा, परन्तु हतोत्साह न हुआ । डभोई और वरदा मध्यवाले मीकू पुरा ग्रामके दूसरे युद्धमें सफलीभूत हुआ । त्र्यम्बकराव तथा पीलाजीका पुत्र सयाजी मारा गया। पिलाजी अपने दो पुत्रोंके साथ घायल होकर सोनगढ़ चला था । और बाजीराव विजयी होकर सतारा गया। परन्तु वह समझ गया कि ब्राह्मणेतर मरहठे सैनिकोंकी उपेक्षा करनेमें नतो वह समर्थ है, और न राजनैतिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्राक्कथन दृष्ट्या वाञ्छनीय है । क्योंकि कथित युद्धमें त्र्यम्बकरावके अतिरिक्त पीलाजीराव गायकवाड़, कन्थाजी और रघुनाथराव कदम्ब, सयाजीराव भाराड़े और आनन्दराव पवार तथा प्राय: दूसरे प्रसिद्ध सैनिक शामिल थे । इस हेतु उसने अपनी विजयको ईश्वर दत्त माना और मरहठोंके। किसी प्रकार मिलानेको युक्ति संगत मान उसे चरितार्थ करनेमें प्रवृत्त हुआ । उसने विक्रम संवत् १७८७ में मृत सेनापति त्र्यम्बकरावके बालक पुत्र आनंदरावको मराठोंका सेनापति बनाया। नवीन बालक सेनापतिके पैतृक अधिकारके स्वीकार कर उसकी माताको अभिभावक और पीलाजीराव गायकवाड़को प्रतिनिधि नियुक्त किया । इसके अतिरिक्त पीलाजीको नवीन उपाधि सेना खासखेल प्रदान की । और सेनापतिका कर्म करने का आदेश दिया । एवं घोषणा की कि आजसे आगेको कोईभी मरहठा सेनापति किसी दूसरेके अधिकारमें गुजरात, मालवा आदि किसी देशमें हस्तक्षेप नहीं करेगा । अन्ततोगत्वा बालक सेनापतिके प्रतिनिधि रूपमें पीलाजीसे गुजरातकी चौथका आधा भाग सतारा के राजा शाहुकी सेवा में पेशवा के द्वारा भेजना स्वीकृत कराया। पिलाजी गायकवाड़का - आनन्दराव दभाड़ेका - अभिभावक बनाया जाना गायकवाड़ वंशके गुजरातमें अभ्युदयका श्रीगणेश है। आगे चलकर पद पद पर हमें गायकवाड़ोंका उल्लेख करना पड़ेगा, अतः गायकवाड़ वंशावलीको उद्धृत करते हैं । गायकवाड़ वंशावली. १ दामाजी ( प्रथम ) २ पीलाजी I मालोजी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat नन्दाजी रोजी भिंगोजी । मोमाजी "कान्होजी . Į गुंजोजी केदारजी www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतुभव चंद्रिका यशवंत ३ दामाजी खण्डेराव आनन्द प्रताप सयाजी कालुजी जयसिंह मल्हारराव ६ ७ गोविन्द सयाजी' फतेसिंह मामाजी मुरारः रामराव जयसिंह कालुजी गवाजी ० सयाजी मानन्दराव भिकाजी | १३ मल्हारराव गणपतराव खण्डेराव काशीराव १४ सयाजीराव (वर्तमान) गोपालराव (गही बैठे) बाजीरावने इस प्रकार प्रबन्ध कर यद्यपि प्रत्येक मरहठा सैनिकको अपने अधिकार पर सुर क्षित कर दिया । किन्तु न तो उसका अपना मम और न मरहठा सैनिकोंका मन शुद्ध हुआ। इसका परिचय आगे मिलेगा । खैर इस प्रकार पीलाजी प्रानन्दरावका प्रतिनिधि बन कर सोनगढको अपना केन्द्र बना गुजरातका एक प्रकारसे सर्वे सर्वा बन गया। परन्तु उसे सुख और शान्ति नहीं मिली। क्योंकि मुगल बादशाहने अपने सूबा सरबुलन्दकी शर्तोंकों नहीं माना और मरहठोंको गुजरातसे निकाल बाहर करनेके लिये जोधपुरके महाराजा अभयसिंहको सूबा बनाकर भेजा। अभयसिंह दिल्हीसे चलकर अहमदाबाद आये और सरबुलन्दके मनुष्योंके हाथसे उसे बलपूर्वक छीन लिया। एवं बरोदाको हस्तगत कर महमद बहादुरखां बाबीको विजित प्रदेशका अधिपति बनाया। अभयसिंहके भानेके समय पीलाजी डाकोरकी यात्राको गया था। सम्वाद पाकर वह छीने प्रदेशको पुनः स्वाधीन करनेकी धुनमें लगा। परन्तु अभयसिंहने युद्ध में प्रवृत्त होनेके स्थानमें कौशलसे काम लेना चाहा । और पीलाजीसे मैत्रीकी बातें करने लगा। और इस संबंधमें दोनों एक दूसरेसे मिलने लगे। अन्तमें उसके संकेतानुसार पीलाजी मारा गया। अर्थात् जब एक दिन मिलनेके बाद जानेके लिये उठातो एक राजपूत सैनिकने कुछ संवाद देने के बहानेसे उसके कानमें कुछ बातचीत करनेका संकेत किया, और जब उसने उसके प्रति अपना कान झुकाया, तो बातें करनेके स्थानमें अपना कटार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मीसाजीके पेटमें भोंक दिया। इस प्रकार पीलाजीको रुस्तमखांके साथ किये हुए अपने विश्वासघातका पाल विक्रम १७८८ में भोगना पड़ा । एवं “इस हाथ दे और उस हाथ ले" कथानक चरितार्थ हुमा। पीलाजीके इस प्रकार विश्वासघातसे मारेजानेका संवाद पाकर वटपद्राके देशाईने अपने मित्रकी मृत्युका प्रतिशोध करनेके लिये भीलोंको एकत्रित कर उपद्रव मचाया । और उक्त देशाईका हाथ बटानेके लिये पीलाजीका भाई मालोजी जम्बूसरसे आगे बढ़ा और शेरखां बाबीको मार भगा बोदाको हस्त गत किया। इधर पीलाजीके आठ पुत्रोंमेंसे ज्येष्ठ पुत्र दामाजी सोनगढ़से सेना लेकर आगे बढ़ा । और मार काट, लूट खसोट का बाजार गरम किया। दामाजी साम, दाम, विभेद आदि द्वारा समस्त गुजरातको स्वाधीन करने लगा। अभयसिंहके प्रतिनिधिको अहमदावादसे मार भगाया। लूटपाट करता हुआ जोधपुरके समीप तक पहुंच गया। विक्रम १७९६ में दामाजीके सेनापति राघोजीने फकीरुदौला, जो गुजरातका सूबा बनाया गया था, को आगे बढ़नेसे रोका । दामाजीने फकीरुदौलाको सूबा न स्वीकार कर अपने हाथके कठपुतला मोमीनखांको सूबा बनाया । इसी वर्ष बाजीराव द्वितीय पेशवाकी मृत्यु नर्मदा काठेके रावेर नामक स्थानमें हुई । और उसका पुत्र नानासाहेब उर्फ बालाजी बाजीराव तीसरा पेशवा हुआ। बालाजी बाजीरावके पेशवा होने परमी दामाजीकी स्वतंत्रतामें कुछ न्यूनता न हुई। इस घटनाके तीन वर्ष बाद विक्रम १७९९ में मोमीनखां मरा और बादशाहने अबदुल अजीजको सूबा बनाकर गुजरात भेजा। परन्तु वह दामाजीके हाथसे मारा गया। अनंतर दामाजीन अपना अधिकार खूब, ही बढ़ाया। यहां तक कि विक्रम १७६७ में उसने मालवाकोभी पदाकान्त किया। इस प्रकार बालाजी बाजीरावके पेशवा होने पश्चात मरहठोंका प्रभाव समुद्र तरंगके समान बढ़ रहा था । परन्तु शाहुका दिन बड़े कष्टमें व्यतीत होता था । उसको अपने एक मात्र पुत्र और प्रिय पालीको मृत्युका घोर कष्ट हुआ। और उसका स्वास्थ्य बिगड़ा । वह अन्तिम दिनकी घड़ियां गिन सबा । मरहटा सरदार शाहुके उत्तराधिकारीके संबंधळं अनेक प्रकारके मनसूबे बांध रहे थे। अन्तमें रानारामके पौत्र और शिवाजीके पुत्र राजारामको गोद लेना निश्चित हुभा। शाहुंकी व शेपासे बालाजीने एक आज्ञापत्र प्राप्त किया। उसके आधार पर वह मरहठा साम्राज्यका सर्वे बन गया। राजारामको राजा बनाना निश्चित रूपसे घोषित किया गया। एवं उक्त माझा के अनुसार कोल्हापुस्को स्वतंत्र राज्य माना गया । पश्चात् शाहुकी मृत्यु हुइ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौलुक्य चंद्रिका ६५ शाहुकी मृत्यु विक्रम १८०५ में हुई और राजाराम गद्दी पर बैठा। उसके गद्दीपर बैठतेही बालाजीने सतार के स्थानमें पूनाको राज्यधानी बनाया और अपने मनके मुताबिक मरहठा राज्यका प्रबन्ध करने लगा । राजाराम पूर्ण रूपेण अयोग्य निकला । वह बालाजीके हाथका कठ पुतला बन गया । परन्तु उसकी दादी ताराबाईसे यह बरदास्त न हुआ । उसने एक दिवस राजारामको राज्य कारभारमें प्रवृत्त हो ब्राह्मणों के हाथमें मरहठा राज्यलक्ष्मीको जानेसे बचाने के लिये आदेश किया । परन्तु उसका आदेश निष्फल हुआ । अतः उसने विक्रम १८०७ में दामाजी गायकवाड़ को गुजरातसे शीघ्रही आकर ब्राह्मणों के ग्रास से मरहठा राज्य लक्ष्मीको बचाने के लिये मह किया । दामाजी बालाजीसे प्रश्रमसेही असंतुष्ट था क्योंकि इस घटना के कुछ महीना पूर्व बालाजीने गुजरातकी आयका आधा भाग मांगा था। इस हेतु वह गुजरात से सतारा के लिये चल पड़ा। उधर जब ताराबाईको दामाजी के आनेका संवाद मिला तो उसने राजारामको कैद कर बालाजीके अनुयाइयोंको खूबही ठोका पीटा। वे सतारा छोड़कर भाग खड़े हुए। दामाजी ताराबाईकी सेवामें उपस्थित हुआ । अनन्तर सतारा में भावी युद्धकी आशंका से अस्त्र शस्त्र और अन्नादि संग्रह किया गया। इस घटनाका संवाद पा बालाजी घटनास्थल पर उपस्थित हुआ और विश्वासघातसे दामाजी और उसके परिवार तथा दभाड़े परिवारको बन्दी बनाया । अनन्तर उसने ताराबाईसे आत्मसमर्पण करनेको कहा परन्तु उसने इन्कार किया । इसपर बालाजीने उससे लड़न युक्तिसंगत न मान पूना चला गया । अन्तमें जानोजी भोंसलेकी मध्यस्थता से ताराबाई और बालाजीके मध्य शान्ति स्थापित हुई । और ताराबाई सतारा से पूना आई । राजाराम बन्दी रखा गया । दामाजी गायकवाड़को ( दभाड़े के कर्ज रूप ) १५००००० देनेके साथही दभाड़ेके इलाके से ५०००००) प्रतिवर्ष देना स्वीकार करना पड़ा । एवं स्वभुजबल से अर्जित गुजरात प्रान्तकी आधी श्राय, चौथ और सरदेशमुखीका खर्च देनेके बाद, देना स्वीकार करना पड़ा । कथित 1 के लिये मुल्क बाटा गया। बाँसदा राज्यसे गिरों लिए हुए विसुनपुर परगनाको दामाजी ने अपने हिस्से में रखा और उसकी चौथ ३०००) वार्षिक देना स्वीकार किया। इस प्रकार दामाजी अपनी स्वतंत्रता खरीद कर गुजरात लौटने लगा तो बालाजीने उसके साथ रघुनाथरावको लगा दिया। कि वह साथ रह कर दामाजीसे कथित सन्धिके नियमोंका पालन करावे । गुजरात लौटते समय दामाजी और रघुनाथरावने खूबही लूटपाट मचाया। गुजरात के विभाजित अंशको स्वाधीन करनेके पश्चात् भी दामाजी और रघुनाथरावने लूटपाटका बाजार गरम रखा। यहां तक कि वे अहमदाबाद पहुंच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन] कर नगरको हस्तगत करनेकी धुनमें लगे। इस समय मुगल सूबा जमामुरादखां दूसरा था। प्रथम उसने वीरताके साथ मरहठोंका सामना किया। परन्तु अन्तमें उसे सुलह करनी पड़ी। सुलहके अनुसार अहमदाबाद छोड़कर उसके स्थानमें पाटन, बड़नगर, बीजापुर और राधनपुर लेकर संतोष करना पड़ा। उसने गधनपुरको केन्द्र बना नवीन स्वतंत्र राज्य विक्रम संवत् १८१३ में स्थापित किया, और गुजरातका प्रधान नगर मरहठोंके अधिक रमें आनेके साथही मुगलोंका नाम गुजरातसे सदाके लिये उठ गया। इस घटना कुछ पश्चात् पानीपतके युद्ध में मरहठोंको हारना पड़ा। और बालाजी बाजीरावकी मृत्यु हुई। और विक्रम संवत् १८१७ में बालाजी बाजीरावका दूसरा पुत्र माधवराव अपने चचा रघुनाथरावके साथ सतारा जाकर अपने पेशवा पदको राजारामसे स्वीकार कराया। यद्यपि माधवराव पेशवा बना परन्तु उसका चचा रघुनाथराव वास्तवमें पेशवा हुआ। और उसके नामसे मनमानी घरजानी करने लगा। उसने सर्व प्रथम गंगाधरको प्रतिनिधिपदसे हटाकर उसके पुत्र भास्कररावको उसका स्थान दिया। एवं नारूशंकर राजा बहादुरको मुतालिक बनाया। अनन्तर विक्रम १८१६ में पेशवाकी आज्ञासे दामाजीने राज्य पीपलाको पदाक्रान्त कर नादोद, भालोद, वारीती और गोवाली परगनाओंकी आयका आधा भाग मांगा। पर इस घटनाके एक वर्ष बाद विक्रम १८२० में राज्य पीपलाके राजा रायसिंहजीकी भतीजीके साथ दामाजीने विवाह किया और पूर्व कथित परगनाओंकी आधी आयकी मांगको छोड़ दिया। इधर दामाजी गायकवाड़ गुजरात राजपूत राज्योंको इस प्रकार एकके बाद दूसरेको कुचल रहा था। और उधर पूना और सतारा षड़यंत्रका केन्द्र बना था । रघुनाथराव मरहठा सरदारोंको पदच्युत कर अपना विरोधी बना रहा था। साथकी उसके भतीजा माधवरावके साथभी उसका मन मुटाव हो गया था। अत : माधवरावने रघुनाथरावका मृलोच्छेद करना चाहा। रघुनाथन दामाजीसे सहाय प्रार्थना की और उसने एक सेना अपने पुत्र गोविंदरावकी आधीनतामें भेजी। परन्तु रघुनाथ और गोविंदकी सम्मिलित सेना को हारना पड़ा। माधव विजयी बन कर दामाजीको ५२५००० वार्षिक कर देने और ३००० सेना शान्ति समय और ५००० सेना युद्ध समय अपने व्ययसे रखनेके लिये बाध्य कर स्वीकार कराया। एवं गुजरातका कुछ भाग दामाजीको कथित सैनिक सेवाके लिये देना स्वीकार किया। परन्तु इस अपमान जनक सन्धि पत्रपर हस्ताक्षर करनेके पूर्वही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] दामाजी की मृत्यु हुई। उसकी मृत्युका सम्वाद पाते ही माधवरावने गायकवाड़की शक्ति का नाश सम्पादनके विचार से पूनामें बन्दी रूपसे रहनेवाले गोविंदरावसे हस्ताक्षर कराकर उसे दामाजीका उत्तराधिकारी स्वीकार किया। परिणाम उसका सन्तोष जनक हुआ। क्योंकि फतेहसिंह जो गुजरात में था सयाजीरावको गद्दी पर बैठा अपने आप उसका अभिभावक बन गया । गृह कलहका कुर दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा । गोविंदराव और फतेहसिंह एक दूसरेके कट्टर शत्रु- बन गये । कुछ दिनों के बाद पेशवाने गोविंदरावके स्थानमें सयाजीरावको दामाजीका उत्तराधिकारी और फतेसिंहको उसका अभिभावका स्वीकार किया। अनन्तर पेशवाने आज फतेसिंहको निकाला तो कल गोविंदराव को अपनाया । पेशवा का यह कार्य ठीक उसी प्रकार हुआ जैसा कि दामाजी प्रभृतिविजयपुर (बांदा) के गृह कलहमें स्वार्थ साधनाथ किया था। इतनाही नहीं अंग्रेज वणिक् संघने पेशवा और गायकवाड़का मूलोच्छेद करनेके विचारसे इस नीतिका अनुकरण किया। t ६७० हमने पूर्वकी पंक्तियोंमें पेशवाको गायकवाड़की शक्तिका नाश संपादन करनेके लिए ग्रह कलहको हस्तगत करनेवाला बतलाया है। अतः उसका विशेष दिग्दर्शन कराते हैं 1 इधर गुजरात में दामाजी गायकवाड़ की मृत्यु पाटनमें हुई। और उसके पुत्र सयाजी, गोविन्द, रामराव उर्फ मल्हारराव मानाजीराव और फतेहसिंहराव के मध्य उत्तराधिकारका विवाद उपस्थित हुआ। पेशबा इस अवसरकी प्रतीक्षामें बैठे थे । गोविन्दराव अपने पिता की मृत्यु समय पूनामें था। उसने पेशबाको बहुत बड़ी भेट देकर अपनेको दामाजीका उत्तराधिकारी स्वीकार करा लिया । परन्तु फतेहसिंह सयाजीको गड्दी पर बैठा उसका अभिभावक बना। अतः कुछ दिनों बाद पेशवाने गोविन्दरावके पूर्वदत्त अधिकारको अस्वीकार कर, सयाजीरावको उत्तराधिकारी और फतेसिंहराव को उसका प्रतिनिधि स्वीकार कर गायकवाड़ वंशके गृह कलहको प्रचण्ड रूप धारण करनेका अवसर प्रदान किया । गोविन्दराव गायकवाड़ और फतेसिंहके विद्रोहको प्रचण्ड रूप धारण करनेवाला हम बता चुके हैं। उक्त विग्रहमें फतेसिंह अपनेको गोविन्दराजका सामना करनेमें असमर्थ पा " ब्रिटिश वशिक संघ ” के शरण विक्रम संवत् १८२८ में गया परन्तु उन्होंने उसकी प्रार्थनावर विशेष ध्यान नहीं दिया । परन्तु कुछ दिनों बाद ब्रिटिश वणिक संघ और फतेसिंहके मध्य “आक्रमण और प्रत्याक्रमण में परस्पर सहयोगात्मक” सन्धि स्थापित हुई। उक्त संधिब्रिटिश जातिके गुजरातमें अधिपत्यका मार्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ प्राक्कथन ] खोलनेवाली तथा गायकवाड़ आदिकी पराधीनताकी सूचिका थी । कथित सन्धिके अनुसार जब गायकवाड़ और रुचके मायके मध्य विग्रह उपस्थित हुआ तो अंग्रेजोंने आक्रमण कर भरुच - छीन गायकवाड़को दे दिया। उधर पूनामें भी गृह कलहने प्रवेश किया। नारायणराव मारा गया। माधवराव पेशवा के रघुनाथरावने अपने दत्तक पुत्र अमृतरावको पुरंदरेके साथ सतारा पेशवा पद प्राप्त करनेके लिए भेजा। परंतु विक्रम १८६० में मृत पेशवा नारायणरावके नवजात पुत्रको; सखाराम बापू और नानाराव फडनवीसके प्रतिनिधित्व करने पर, राजारामने पेशवा पद प्रदान किया और उसका अभिभावक माधवराव नीलकंठ पुरंदरेको बनाया । गोविंदराव, नारायणराव पेशवाकी मृत्यु पश्चात जब पूनाके राजनैतिक दृष्टिकोणमें अन्तर पड़ा तो पुन: अपने उत्तराधिकारका प्रश्न उपस्थित किया । परंतु फतेहसिंह पेशवाकी अधीनता स्वीकार करने के साथ बाकी पड़ा हुआ चौथ आदि देकर अपनी राज्यलिप्साको संतुष्ट करनेमें समर्थ रहा। परन्तु कुछ दिनोंके बाद फतेहसिंहने ब्रिटिश वणिक संघके साथ दूसरी संधि की। इस सन्धिका उद्देश ब्राह्मण सत्ताका नाश करना था। इसके उपलक्षमें ब्रिटिश after संघ ने गायकवाड़को स्वतंत्र नरेश स्वीकार किया । " ब्रिटिश वणिक संघ " ने फतेसिंहको उस प्रकार स्वतंत्र अधिपति स्वीकार किया उसका कारण पेशवा के साथ वाला विग्रह था । कथित पेशवा ब्रिटिश विग्रह लगभग चार वर्ष चला १८६३ में एक प्रकार से स्थगित हुआ था। इसी विग्रहका फल था कि वणिक संघने फतेसिंहको स्वतंत्र अधिपति स्वीकार किया। क्योंकि वैसा करनेमें उनको अपना लाभ था । परन्तु दो वर्ष पश्चात १८३८० में जब ब्रिटिश वणिक संघकी सफलताका सूर्योदय हो रहा था तो पूर्व कथित संधिक शर्त बदल कर गवरनर जनरलने मुम्बईके गवरनरके मार्फत फतेहसिंहके पास भेजा। इसकी शर्ते उसके स्वार्थ प्रतिकूल थीं। और वह पूर्व वत पेशवाका माण्डलिक बना दिया गया । यदि कुछ उसे लाभ हुआ तो वह इतनाही था कि उसकी बाकी कर नहीं देना पड़ा। और पेशवाकी सत्ता गुजरातमें ज्यों की त्यों बनी रही । इस घटना सात वर्ष बाद विक्रम १८४५ में फतेहसिंहराव मरा और पेशवाने: भोसको साना अभिभावक स्वीकार किया। परन्तु माधवराव सिन्धिया जो इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चालुक्य चंद्रिका समय प्रबल हो चुका था गोविंदरावका सहायक बन गया। इस पर मानोजीराव ब्रिटिश after संघके दरवाजे विक्रम १८३६ वाली फतेहसिंह कृत सन्धिकी दुहाई देता हुआ पहुंचा। परन्तु वारीक संघने विक्रम १८३८ वाली सालबाई नामक सन्धिकी आड़ लेकर सहाय देने से इनकार किया। परन्त १८४१ विक्रममें सयाजीराव और मानोजीराव दोनों की मृत्यु हुई। अतः गोविंदरावके अधिकारका अपने आप मार्ग प्रशस्त हुआ । और वह विना किसी विघ्न बाधा के गद्दीपर बैठा । इस घटना के थोड़े दिन पूर्व सताराके राजा शाहु द्वितीयन पेशवाको वकील उल मुल्क बनाया था। अतः पेशवाका बल अधिक बढ़ गया। इधर गोविंदराव गायकवाड़ पेशवासे असंतुष्ट था। साथही पेशवा और सिन्धियाके मध्यभी दुर्भावना थी । अतः सिन्धियाकी सहायकी आशा से गोविंदरावने पेशवा के साथ सद्भावना नहीं रखी। इसी समय पेशवाने स्वाधीन गुजरात प्रदेशकी मालगुजारी वसूल करनेके लिये • आपा सेरुलकरको भेजा । वह गोविंदराव गायकवाड़ के श्राधीन गांवोंकी प्रजाकोभी तङ्ग करने लगा। यहां तक कि अहमदावादका गायकवाड़ भवनभी उसने स्वाधीन कर लिया। अतः पेशवा और गायकवाड़के बीच युद्धकी संभावना उपस्थित हुई । ब्रिटिश वणिक संघ बीचमें कूदकर बीच बचाव करने लगा। इतनेहीमें विक्रम १८५६ में नवाब सूरतकी मृत्यु हुई। और वणिक संघने नवाबके प्रदेशको स्वाधीन किया । ब्रिटिश वणिक संघके शासक मिस्टर डन्कन सूरत आये । गोविंदरावने अपना दूत मिस्टर डन्कनके पास भेजा और आपा सेरुलकरके विरुद्ध सहाय मांगा। एवं अपने दूत द्वारा प्रगट किया कि यद्यपि पेशवाका सूबा चिमाजी आपा है परन्तु वास्तवमें शासक आपा सेरुलकर है । यदि ब्रिटिश वणिक संघ उसकी सहायता करे तो वह चौरासी प्रदेश संघको दे सकता है । परन्तु डन्कन महोदयने इस पर कुछभी ध्यान नहीं दिया अन्तमें सेरुलकर और गोविंदरावके मध्य युद्ध हुआ । और सेरुलकर बन्दी बनाया गया। परन्तु गोविंदरावकी मृत्यु हुई। और उसकी झाली राणी ( लख्तरके झाला ठाकोरकी बेटी ) सती हो गई गोविंदका उत्तराधिकारी आनन्दराव हुआ । परन्तु उसे सुख शान्तिके स्थानमें कांटोंका ताज मिला क्योंकि गोविंदरावके अनौरस पुत्र कानोजीरावने उत्पात मचाया। और नन्दको बन्दी बनाया। एवं प्रजा तथा मंत्री मण्डलको सताने लगा । कोनाजीके प्रतिकूल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन साधारणने अवाज उठाई। और वह पकड़कर आनन्दरावके सामने लाया गया। आनन्दरावने उसे एक किलामें बन्द रखा। इस घटना के थोड़े दिनों बाद कड़ीके सूबा मल्हाररावने विद्रोह किया। परन्तु आनन्दरावने उसके साथ सन्धि कर ली। उक्त संधिके अनुसार उसकी कड़ीकी जागीर निश्चित हो गई। इस संधिको थोड़े दिनों बाद मल्हाररावने तोड़ दिया और दोनोंके मध्य युद्ध छिड़ गया। इस विग्रहमें आनन्दरावकी बहिन और कुछ सेनापति तथा कान्होजी आदि मल्हारराव के साथ थे । बागियोंने अंग्रेजोंसे सहायकी प्रार्थना की और सहायताके उपलक्षमें सूरतकी चौथ और चौरासी परगना देनेका वादा किया। आनन्दराव भी अंग्रेजोंसे सहायकी प्रार्थना कर रहा था। अन्तमें अंग्रेजोंने आनन्दरावको सहाय देना स्वीकार किया। और उनके इस सहाय प्रदानका कारण यह था कि उन्हें शंका थी कि यदि वे सहाय न देंगे तो कदाचित सिन्धिया आनन्दरावकी मददमें आ जावेगा। अतः अंग्रेजोंने मेजर वॉकरकी अध्यक्षतामें फौज भेजी। और वे बरोदा नगरमें प्रवेश किये। अन्तमें आनन्दरावने विक्रम १८५८ में सन्धि की जिसके अनन्तर वाकरको सूरत और चौरासी की चौथ आदि वसूल करनेका अधिकार मिला। मेजर वॉकरने आनन्दरावकी खूब मदद की। आनन्दरावने अंग्रेजोंके साथ दूसरी सन्धि विक्रम १८६१ में की। जिसके अनुसार अंग्रेजोंको ११७०००० वार्षिक आयकी भूमि आनन्दरावसे मिली। अन्तमें विक्रम १८७१ में पेशवा और गायकवाड़का संबंध विच्छेद हुआ। और विक्रम १८७३ की सन्धिकेअनुसार पेशवाका आधिपत्य अधिकार अंग्रेजोंको मिला और बरोदा अंग्रेजोंका आधीन माण्डलिक बना। लाट गुजरातमें अंग्रेज। हमारे विवेचनीय इतिहास और देशके साथ अंग्रेज जातिका संबंध ओतप्रोत हो रहा है। इतनाही नहीं हमारे उत्तर कालके इतिहास कालमें तो अंग्रेज जाति सार्वभौम पद प्राप्त किये है। हम अपने उत्तर कालके इतिहास विवेचनमें अनेक बार अंग्रेजोंका उल्लेख कर चुके हैं। अतः अंग्रेज जातिके उत्कर्ष और सार्वभौम सत्ता विकासका विवेचन करते हैं। अंग्रेज जातिके देशका नाम " ग्रेट ब्रिटेन” बृहत ब्रिटेन हैं। और उसका अवस्थान यूरोप महाद्वीप के पश्चिम समुद्रके मध्य अवस्थित है। ग्रेट ब्रिटनका आकार प्रकार हमारे देशक एक छोटेसे प्रदेशके समान और जन संख्या भी उसी प्रकार नगण्य है। क्योंकि हमारे देशकी जन संख्या उससे लगभग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका आठ गुनी अधिक है। परन्तु ब्रिटन निवासी हमारेही अधिराजा नहीं वरन् संसारके सबसे बड़े साम्राज्यके भोक्ता हैं। उनके राज्यमें संसारका सबसे अधिक भूभाग है। यहां तक कि अंग्रेजोंके साम्राज्यमें कभी भी सूर्यास्त नहीं होता। हमारे देश और अंग्रेजोंके देशका अन्तर ५००० मीलसे भी अधिक है। ब्रिटन और भारतके मध्य आवागमनका जल और स्थल दो पथ हैं। और अब तो आकाश पथभी खुल गया है। परन्तु आवागमनका सुगम मार्ग जल पथही है। अंग्रेजोंने भारतमें जल पथसे प्रवेश किया था। उन्होंने हमारे देशमें विजेताके रूपसे नही वरन व्यापारी रूपसे प्रवेश किया था। और क्रमशः अपने अध्यवसाय और कौशल, जिसका नामान्तर राजनैतिक पटुता, के बलसे समस्त देशको अधिकृत कर लिया है। एवं अपनी राजनीतिज्ञता तथा वैज्ञानिक बलके सहारेसे इस विशाल देशको कौन बतावे संसारके १-६ भाग पर और १-५ जनतापर शासन करती है। सच्ची बात तो यह है कि आज संसारमें अंग्रेज जातिकी नीतिज्ञता अपना प्रतिद्वन्दी नहीं रखती। यदि शर्मन्य देशाभिजात और गोकर्ण विश्वविद्यालयके अद्वितीय विद्वान अध्यापक मोक्ष मूलरके " हिन्द हमें क्या सिखा सकता है" के वाक्य यदि हमसे पूछा जाय, "संसारमें किस स्थानके मनुष्योंने सर्व प्रथम ईश्वरी ज्ञान प्राप्त किया था और सर्व श्रेष्ठ है तो हम हिन्दुस्तानको बतायेंगे” को यदि हम इस प्रकार परिवर्तित कर लेवें “यदि हमसे पूछा जाय कि संसारमें कौन जाति सबसे अधिक नीति विदा और परं कौशला है और जिसका प्रत्येक राज्यनैतिज्ञ व्यक्ति परं प्रवीण है तो हम अंग्रेज नाति और और अंग्रेज राजनैतिकोंको बतायेंगे"। तो हमारे इस कथनमें न तो अत्युक्ति होगी और न मिथ्यात्वका समावेश होगा। खैर अब हम विषयान्तरको छोड़ सीधे मागेपर आते हैं। भारतका व्यापारिक तथा आक्रमण प्रत्याक्रमणात्मक संबंध मध्य एसिया और यूरोप खण्डके साथ बहुत प्राचीन है। परन्तु इस अधिक पुराकाल के संबंध विवेचनके झमेलेमें न पड़कर अपने इतिहासके उत्तरकालसे संबंध रखनेवाली अवधिका विचार करते हैं। प्राचीनकालके समानही भारत और यूरोप खण्डका आवागमन मार्गसे चलता था। १) जल-स्थल मार्गसे होनेवाला व्यापार प्रथम नौकाओं द्वारा अरब समुद्र होकर एलेक्जेन्ड्रीश्रा पहुँचता था। और वहांसे वेनिस और जिनेवा इत्यादि इटलीके बन्दरोंसे युरोप खण्डमें प्रवेश करता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन २) स्थल मार्ग दो भागोंमें बटा था। अ) कन्दहार' ईरान-भारतसे चलकर कन्दहार, ईरान, लघु एशीआ और पेलिस्टाइन आ) और कन्दहार' काबुल-भारतसे चलकर कन्दहार, काबुल, बलख, समरकन्द और केस्पिअन समुद्र पार कर यह मार्ग पुनः स्तम्बुल और वल्गा नदी मार्गसे जर्मनी होकर दो भागोंमें बट जाता था। प्रथम यह व्यापार मूर जातिके हाथमें इस्वी सन १४५३ पर्यन्त था। परन्तु उसी वर्ष तूर्कोने स्तम्बुल और कोन्स्टेन्टिनोपोल विजय किया और यह व्यापार मार्ग बन्द हुआ। अतः यूरोप निवासियोंको भारतके साथ व्यापार मार्ग अनुसन्धानकी चिन्ता हुई। इस समय थूरोप खण्डमें पोर्चुगीजोंका सौभाग्य सूर्य चमक रहा था। और वे परं साहसिक तथा पटु नाविक थे। अतः वे सर्व प्रथम मार्ग अनुसन्धानमें प्रवृत्त हुए । इस्वी सन १४६२ में कोलम्बस भारतका मार्ग अनुसन्धान करनेको चला परन्तु अमेरिका चला गया। किन्तु सन १४६८ में वास्को डिगामा भारत पहुँचनेमें समर्थ हुआ और भारत वसुन्धराके कालीकट नामक स्थानमें उतरा। और स्थानीय राजा जमोरिनसे साक्षात् किया। जमोरिन उसके अनुकूल पड़ा परन्तु अरबोंने उसका विरोध किया। अतः दूसरे वर्ष १४६६ में लिस्बन लौट गया। इसके अनन्तर इस्वी सन १५०७ में काल केलिकट आया और व्यापारिक कोठी खोल कर बैठ गया । एवं १५०९ में वास्को डीगामा पुनः केलिकट आया उस समय उसे जमोरिन के साथ युद्ध करना पड़ा। परन्तु कोचीन और कनानोरके साथ अनुकूलता हुई। इसी अवधिमें पोर्चुगल नरेशने ६ पटु व्यक्तियोंका आर्मडा नियुक्त कर भारत भेजा। और वे यहां आकर केवल व्यापारमेंहीं प्रवृत्त नहीं हुए. परन्तु व्यापारिक लाभकी दृष्टिसे दुर्ग आदि बना लड़ने झगड़नेभी लगे। अलबेकर्क अरमडाके पश्चात् भारत आया और १५१० में गोआ पर अधिकार जमाया। १५१२ में बीजापूरकी सेनाने गोआ पर आक्रमण किया परन्तु हटाई गई। अलबेकर्क १५१० में मरा। अनन्तर इन्होंने १५४५ पर्यन्त दक्षिण भारतमें समुद्र मार्गसे गुजरातमें आकर दिव और खम्भात आदि स्थानोंको अधिकृत किया। एवं सन १५६४ पर्वन्त भारतके विविध स्थानों में व्यापारिक केन्द्र बनाया तथा लंका आदि अनेक द्वीपोंको विजय किया परन्तु इनका सौभाग्य अस्ताचलोन्मुख हुआ। इन्हें पराभूत करनेवाले अंग्रेज और डच भारतीय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] व्यापारिक रंग मश्चपर उपस्थित हो उनके हाथसे व्यापारके साथही उनके अधिकृत भूभागको हड़प गये। तिथि क्रमके अनुसार यद्यपि अंग्रेज वणिक संघका स्थान प्रथम है और उनके संघ स्थापन तथा भारत आगमन पर विचार करना उचित प्रतीत होता है तथापि डच-डेन और फ्रेन्चोंका विचार क्रमशः प्रथम करते हैं। क्योंकि इनका संबंध क्षणिक और हमारे ऐतिहासिक कालके लिये कुछभी महत्व नहीं रखता। अंग्रेजोंके अनुकरणमें डचोंने "संयुक्त डच वणिक संघ" स्थापित किया और भारतमें व्यापार करने के लिये चल पड़े। और अपने चिर शत्रु पोर्चुगीजोंके स्थानको हस्तगत करने लगे। एकके बाद दूसरा पोर्चुगल प्रदेश उनके अधिकारमें आने लगा। इन्होंने १६४१ में लटेवियाको केन्द्र बनाया और लंकाको विजय किया । और भारत वर्षके कालीकट नामक स्थानमें उतरे। वहांसे चलकर नेगापटन, चिनसुरा, सूरत, भरुच और कोचीनमें व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। परन्तु अंग्रेजोंने इन्हेंभी अन्तमें मार भगाया । डेनोने सन १६१६ में वणिक संघ स्थापित किया और सिरामपूर आदि स्थानोंमें व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया । इनकोभी अंग्रेजोंने निकाल बाहर किया। सबके अन्तमें फ्रेन्च जाति व्यापारिक मञ्चपर उपस्थित हुई । यों तो फ्रेन्चोंका व्यापार ईसवी सनके सत्तरहवीं सदीके प्रारम्भसेही चल पड़ा था ! परन्तु ईसवी सन १६६४ में फ्रेन्च वणिक संघकी स्थापना हुई और उसका प्रथम नायक कालवर्ट हुआ । फ्रेन्चोने भारत वसुन्धराके मुसलिपट्टम् नामक स्थानमें। अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया । किन्तु डचोंने वहांसे उन्हें निकाल बाहर किया । तब उन्होंने मार्टिनके नायकत्वमें सन १६७४ में पान्डिचेरी बसाया । बंगाल में जाकर चंद्रनगरमें डेरा जमाया । और बंगालकी खाड़ीसे निकल कर अरब समुद्रके पश्चिम तटवर्ती भूभाग पर दृष्टिपात किया । एवं लाटके परं प्रसिद्ध भरुच और सूरत नामक नगरोंमें अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया । वास्तवमें यदि देखा जायतो अंग्रेजोंका सच्चा प्रतिद्वन्द्वी कोई वसुन्धरा पर हुआ है तो वह फ्रेन्च जाति है। इंगलेन्डकी गद्दी पर क्वीन एलिजाबेथ सन १५५८ में बैठी। और उसका राज्य सन १६०३ पर्यंत ४५ वष रहा। इसके इस लम्बे राज्यकालमें अंग्रेज जातिकी सर्व मुखीन उन्नति हु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ [प्राक्कथन पेंच, फ्लेण्डर्स और नेदरलेण्ड की हजारों प्रजा स्पेनके राजा फिलिप के अत्याचार से पीड़ित हो इंगलेण्ड में आकर बस गई। ४००० फ्लेण्डर्स वाले इंगलेण्ड के नोविच में बसे और वह शीघ्र ही ऊनी वस्त्र का केन्द्र बना । सैकड़ों फ्रान्सीसी रेशमी विनने वाले जुलाहे खास लण्डन में बसे और रेशम का व्यवसाय चल पड़ा । इन विदेशियों के व्यवसायके फलस्वरूप वस्त्र व्यवसाय समुद्र समान बढ़ा। योर्कशायर और लेन्कसायर केन्द्र बन गया । अंग्रेज नौकायें व्यवसायिक पदार्थ लेकर भूमध्यसागर और अन्यान्य स्थानों में आने जाने लगीं। अंग्रेज नाविक दूर देशों में प्रवास करने के लिये लालायित होने लगे। होपकिन इंगलेण्ड से चल कर गायेना पहुँचा और कुछ दिनों वहां निवास कर छल बल से ३०० निग्रो गुलामों को पकड़ा । ड्रेक प्रथम अंग्रेज नाविक है जिसने जलमार्ग से संसार भ्रमण किया । वह प्रथम पांच नौकाओं को लेकर स्पेनियार्ड नौकाओंको लूटने के लिये दक्षिण समुद्र में घुसा । परन्तु चार नौकाएं बिछुड़ गई। तथापि उसने हिम्मत नहीं छोड़ी और स्पेनियार्ड नौकाओं को लूट कर बहुतसा सोना और चांदी प्राप्त किया। किन्तु घर आते उसे डर लगा कि कहीं बड़ी प्रबल स्पेनियार्ड नौकाओंसे भेंट न हो जाय । अतः वह प्रशान्त महासागर के वीच घुस गया । और पूर्व हिन्द को पीछे छोड़ता हुआ हिन्द सागर और केप ओफ गुड होप से होकर तीन वर्ष में घर पहुंचा। रानी इलिजावेथ ने उसका पूर्ण सत्कार कर एक तलवार के साथ नाइट की उपाधि प्रदान की । जिल्बर्ट और रेलिंग नामक दो वैमात्रिक बन्धुओं ने अमेरिका में जाकर न्यु फोकलेण्ड और विर्जिनिया नामक दो उपनिवेश बसाये : स्पेन नरेश फिलिप इंगलेण्ड से असन्तुष्ट था। उसने 'इन्वीन्सीबल आर्मडा' नामक नौका संघको जिसमें १२० नावें थीं और जिसमें २०००० सिपाही और ८००० नाविक थे—को इंगलेण्डपर आक्रमण करनेके लिये भेजा। परन्तु उक्त नौका संघको पूर्ण रूपेण अंग्रेजोंने नष्ट कर दिया और साथ ही स्पेनके दक्षिण तटपर आक्रमण कर कार्डि नगरको हस्तगत किया इसके बाद ११ दिसम्बर सन १५६६ को अंग्रेज वणिकोंका "ब्रिटिश ईस्ट इंडिया" नामक संघ भारतसे व्यापार करनेके लिये बनाया गया। और भारतके साथ व्यापारीक संघर्षका प्रारम्भ हुआ। जब अंग्रेज भारतके प्रति अग्रसर हुए तो पोरचुगिज और डच उनके विरोधमें खड़े हुए। क्यों कि उस समय वही दोनों समुद्रको अपने आधीन मानते थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौलुक्य चंद्रिका ७८ यहां तक कि पोरचुगीज़ों को पोप महाशय नवीन दुनिया अमेरिका आदिका न्याय संगत स्वामी घोषित कर चुके थे । परन्तु अंग्रेजोंके भाग्य के बाल रविका उदय हो चुका था। उसकी कीरणें शीघ्रता से विकसित हो रहीं थीं । वे सन १५८८ में स्पेनियाई " इन्वीन्सिवल आमा" का नाश कर चुके थे । अंग्रेज नाबिक अमेरिका में पहुंच चुके थे संसारकी परिक्रमा कर चुके थे । अतः इन दोनों जातियोंके विरोध जन्य हानि रूप बाधासे और भी उत्साहित हो गये । एवं सन १६११ में बंगालकी खाड़ी के पश्चिम तटवर्ती मछली पट्टममें केन्द्र स्थापित किया । दूसरे वर्ष सन १६१२ में अरब समुद्रके पश्चिम तटवर्ती लाट वसुन्धरा के सूरत नगर में कोठी खोली । और सावली नामक स्थानमें पोरचुगीज का मान मर्दन किया । और अपना आतंक अन्यान्य नाविकों तथा देशियों पर जमाया। अंग्रेज वपिकोंका मार्ग प्रशस्त करनेके विचारसे तत्कालीन इंगलेण्ड नरेश जेम्स प्रथमने सन १६९५ में भारत सम्राट जहांगीरकी सेवा में अपने दूत सर थोमस रॉ को भेजा । वह इंगलेण्डसे चल कर सूरत उतरा और वहांसे बुरहानपूर होता हुआ सन १६१६ की जनवरी में बादशाहकी सेवा में अजमेर नगरमें उपस्थित हुआ । और बादशाहके लश्करके साथ मांडु, बुरहानपुर और अहमदाबाद आदि स्थानों में लगभग दो वर्ष पर्यन्त फिरता रहा । परन्तु जो व्यापारिक सुगमता इंगलेण्ड नरेशने मांगी थी उसको असंगत और अनुचित बताकर बादशाहने अस्वीकार कर दिया । तब वह सन १६१८ मे सूरत वापस आ गया । और सन १६१६ स्वदेश लौट गया। परन्तु हतोत्साह नहीं हुए। लड़ते झड़ते अपने प्रतिद्वन्दित्र डच आदिसे उनके अधिकृत भूभागको छीनते झपटते अपना व्यापार चालू रक्खा । सन १६२५ में बंगाल में प्रवेश कर गाव केन्द्र स्थापित किया । सन १६३६ में फ्रान्सीसी डे ने चन्द्रगिरीके राजासे वर्तमान मद्रास नगर और सेन्ट ज्योर्ज दुर्गका पट्टा प्राप्त किया। सन १६५० में बंगालके मुगल सूबेदारसे बंगालमें व्यापार करनेका परवाना प्राप्त कर हुगली और कासीम बजारमें केन्द्र स्थापित किया । इंगलेण्ड नरेश चार्ल्स प्रथम सन १६६० में गद्दीपर बैठा और सन १६६१ में पोरचुगल राज्य कुमारी केथेराइनसे विवाह किया । दहेज में उसे वर्तमान बम्बई द्वीप मिला । इस घटना के चार वर्ष बाद सन १६६४ में महाराजा शिवाजीने सूरत नगरको लूटा । उस समय सूरत नगरमें अंग्रेज, फ्रेंच, डच आदि अन्यान्य यूरोपिअनोंका व्यापारी केन्द्र था । परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन शिवाजीके आक्रमण समय केवल अंग्रेज और डजोंने नगरकी रक्षाके लिये अपना हाथ उठाया । उसके पांच वर्ष पश्चात इंगलेण्ड नरेश चार्ल्स प्रथमने दहेजमें मिला हुआ वर्तमान मुम्बई अंग्रेज बणिकसंघको सन १६६६ में दश पाउण्ड वार्षिक देनेके शर्तपर दे दिया। अंग्रेज बरिणक संघको अपने राजासे वर्तमान मुम्बई मिलने पश्चात् दूसरे वर्ष शिवाजीने पुनः सूरतपर आक्रमण कर तीन दिवस पर्यन्त लुटा । उससे सूरतका व्यापार सदाके लिये नष्ट हो गया । सन १६८६ में अंग्रेजोंका मुठभेड़ मुगल बादशाह औरंगजेबके साथ हुआ । सन १६६० में चा कके हुरली किनारेके गोविंदपुर, सुतानटी और कालीघाट नामक तीन प्राम ११०० रुपियामें खरीद कर वर्तमान कलकत्ता नगरका सूत्रपात किया एवं कलकत्तका प्रसिद्ध दुर्ग फोर्ट विलियमका निर्माण किया और इसी वर्ष लाट प्रदेशके सूरत नगरसे अंग्रेज बणिक संघने हटकर अपना केन्द्र मुम्बईको बनाया । इस प्रकार ब्रिटिश संघका भारतमें मुम्बई, मद्रास और कलकत्ता प्रधान स्थान हुआ। सूक्ष्म रूपसे ब्रिटिश वणिक जातिका उत्कर्ष और ब्रिटिश वणिक संघके जन्म तथा विकासका परिचय देने पश्चात हम केवल अपने विवेचनको लाट देशके साथ संबंध रखनेवाली परिस्थितिके साथ ही परिमित करेंगे। क्योंकि अन्यान्य बातोंसे हमारा संबंध नही हैं । लाट देशके साथ मुम्बई वाली वणिक संघकी शाखाका संबंध है । इस शाखाने मुम्बईको केन्द्र बना अपना व्यापार प्रचलित रखा । परन्तु देशकी राज्यनैतिक हलचलसे अपनेको पूर्ण रूपेण अक्षुण्ण रखा । परन्तु सन १७७२ में वणिक संघने लाटको राज्यनैतिक हलचलमें भाग लिया। दामाजी गायकवाड़ की मृत्यु पश्चात उत्तराधिकार लिये जब उसके पुत्रोंमें विवाद उपस्थित हुातो उसके पुत्र फतेहसिंहने संघसे सहाय माँगा और उसने उसके साथ आक्रमण प्रत्याकरणमें परस्पर सहयोगात्मक संधि की और उसके अनुसार भरुचके नवाबसे भरुच छीन उसे दे दिया। पर भरुच इलाकेका आधा भाग अपने पास रखा । इसके अनन्तर संघ देशके राज्यनैतिक मंच पर खेलने लगा। इसी वर्ष १७७२ में पेशवा माधवरावकी मृत्यु पश्चात उसका छोटाभाई पेशवा बना पन्तु थोड़े दिनों बाद १७७३ में उसे सिपाहियोंने विद्रोह कर राघोबा (रघुनाथराव ) के सामनेही से मार डाला । अनन्तर राघोबा पेशवा बन बैठा । परन्तु तीन महीना बाद नारायणरावकी स्त्री पुत्र प्रसव किया। वह जब ४० दिनका हुआ तो राजारामने उसे पेशवा बनाया। इसपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका) रघुनाथरावने विद्रोह किया परन्तु १७७४ के मार्चमें हार कर उत्तर हिन्दुस्तानमें गया। किन्तु किसी स्थानमें आश्रय न मिलनेसे सूरतमें श्राकर अंग्रेज वणिक संघसे प्रार्थना की। संघने निम्र शर्तोंपर सहाय देना स्वीकार किया। १-संघ रघुनाथरावको पेशवापद प्राप्त करनेमें सैनिक सहाय प्रदान करेगा। २-संघके सैनिक सहाय प्रदानके उपलक्षमें रघुनाथराव पेशवापद प्राप्त करनेके अनन्तर: अ) संघको सुरत और भरूचके आसपास २२५००० वार्षिक आयवाला भूभाग देगा। आ) एवं सेनाका कुल व्यय रघुनाथरावको देना होगा। इस संधिका नाम सूरत संधि पड़ा और संघने इसके अनुसार एक सेना देकर रघुनाथरावको पूना भेजा और दूसरी सेना कर्नल केटिंगकी अध्यक्षतामें गुजरातमें रवान। की । कर्नल केटिंगकी सेनाने गुजरात जाकर अड़ास नामक स्थानमें पेशवाकी सेनाको हराया । परन्तु रघुनाथरावके साथ जानेवाली सेनाको मरहटोंके सामने मुहकी खानी पड़ी। संघकी सेनाको मरहटोंसे पिटते देख कर कलकत्ताके प्रधानने रघुनाथरावके साथ सन १७७५ की सूरतवाली संधिको अन्यायपूर्ण बताकर अस्वीकार किया। पेशवासे दूसरी संधि स्थापित करनेके लिये मेजर आप्टनको इस वर्षके अन्तमें पूना भेजा। मिस्टर आप्टनने सन १७७६ के मार्च निम्न शर्तके साथ संधि की । जो पुरन्दरकी सथिके नामसे अभिहित हुई । १-संघ राघोबा (रघुनाथराव ) को नाना फडनवीसके सुपुर्द करेगा। २-संघ संधिकी शर्त पूरी करेगा इसको विश्वास दिलानेके लिये अपने दो कर्म चारियों को प्रतिभूरूपमें पूना भेजेगा। ३-भरूचके पासवाला भूभाग सिन्धियाको सौंप देगा . ४-भविष्यमें संध रघुनाथरावसे कुछ मी सम्बन्ध न रखेगा । ५-रघुनाथरावको ३००००० वार्षिक मिलेगा। और उसे कोपरगांवमें रहना होगा। ६-संघ पेशवाकी सत्ता स्वीकारेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रावकथन बलिहारी अलौकिक न्याय परायणताकी ? खैर थोड़े दिनोंके वाद संघने पुरन्दरकी इस संधिको तोड़ दिया । उनके तोड़नेका कारण यह था कि बोर्ड ओफ डायरेक्टरकी दृष्टि में राघोबा कृत सूरत वाली संधि न्यायोचित ठहरती थी । और उसने उसके पालनका आदेश किया। अतः सन १७७८ में संघने राघोबाके साथ दूसरी संधि की और उनका मरहटोंके साथ प्रत्यक्ष विग्रह प्रारंभ हुआ । इसी अवसरमें संघके नेता हेस्टींग्सने कूटनीतिसे काम लिया। माधोजी भोंसलेसे गुप्त संधि कर युद्धमें प्रवृत्त होने से उसे पृथक रखा । जमरल गोडार्ड भोपालके नवाबसे मैत्रीकर गुजरातमें घुसा । कर्नल योकाम सिंधियाके रात्रु गोहदके राजासे मैत्री स्थापित कर सिंधियासे भिड़ गया। और सन १७८१ में फतेसिंह गायकवाड़से मैत्री की जिसकीशर्ते ( १ ) गायकवाड़ पेशवासे स्वतंत्र माना जायगा (२) अंग्रेज गायकवाड़की सहायता ३००० फौजसे करेंगे (३) समस्त गुजरात प्रदेश अंग्रेज और गायकवाड़ आपसमें वाट लेंगे। बादको दोनोंने डभोई और अहमदाबादको हस्नगत किया। अन्तमें महाराष्ट्रमें घुसा परन्तु आगे नहीं बढ़ सका । किन्तु मुम्बईकी सेनाने पानवेल, कल्याण, मुम्बई आदि विजय किया । तथापिं संघको हैदरअलीके साथ बाले युद्धके कारण सन १७८२ मे सलवाईकी निम्न शर्तवाली संधि करनी पड़ी। . १-सिंधियाके कुल किला आदि संघ वापस करेगा। २-भरुच सिंधियाको समर्पण करेगा। ३-संघको शष्टि द्वीपादि मिलेगा। ४-रघुनाथरावको २५००० मासिक वृत्ति मिलेगी। परन्तु पेशवापदकी प्राप्तिपर दृष्टिपात न करेगा। ५-संघ अहमदाबाद प्रदेश फतेसिंहराब गयकवाड़को समर्पण करेगा। ६-संघ सवाई माथवरावको पेशवा स्वीकार करेगा। ७-पेशवा अंग्रेज संघके अतिरिक्त अन्य यूरोपियन व्यापारियों को सुगमता नहीं देगा। -संघ रघुनाथरावको कभी भी भविष्यमें आश्रय नहीं देगा । और पेशवाके अन्तर प्रबन्ध और अन्यान्य बातोंमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ८२ परन्तु सन १७६५ में सवाई माधवरावकी मृत्यु हुई और पेशवा पदका विवाद उठा तो अंग्रेजोंने कथित सन्धिकी शर्तोंकी उपेक्षा कर हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया । क्योंकि उन्हें उपयुक्त अवसर मिला। इस समय पेशवा पदका अभिलाषी राघोबाका पुत्र बाजीराव था । दौलतराव सिंधियाने उसको कैद कर उसके भाई चिमनाजीरावको पेशवा बनाने चला । परन्तु नाना फडनवीसने दौलतरावका विरोध कर उसे बन्दीमुक्त किया । अतः वह पुन: सन १७६६ में पेशवा बना। पेशवा बनने बाद उसने सिंघियासे मिल कर नानाको बन्दी किया । नानाके बन्दी होने पश्चात् वह सिंधियाके विरुद्ध हुआ । अतः उसने नानाको छोड़ दिया । और वह सन १८०० में मर गया । नानाके मरनेके पश्चात बाजीराव अपने सरदारों के साथ लड़ने झगड़ने लगा । उसके भाई विठोजीरावको मरवा डाला । दौलतराव सिंधियाको सर करनेके विचारसे उसके और जसवन्तराव होलकरके विवादमें घुसा परन्तु होलकरके विरुद्ध चलने लगा । उसकी जागीर जप्त की । उसके भतीजे खण्डेरावको कैद किया । अन्तमें दौलतरावको जसवन्तने सन १८०२ के अक्टोबरमें पूना में हराया और राघोबा के दत्तक पुत्र अमृतराव के पुत्र भाष्कररावको पेशवा बनाया । अतः बाजीराव अंग्रेज बल्पिक संघके शरण गया । और सन १८०२ के ३१ वीं दिसंबरको बसई नामक निम्न सन्धिपर हस्ताक्षर किया । १ - अंग्रेज बणिक संघ और बाजीराव एक दूसरेको आक्रमण प्रत्याक्रमण समय सहाय प्रदान करेंगे । २- प्रेज बाजीरावको पेशवा पद प्राप्त करनेमें सहाय देंगे । ३ - इसके उपलक्ष में बाजीराव अंग्रेजों को २६००००० वार्षिक आयवाला प्रदेश देगा । ४ - एक प्रेज सेना अपनी सेनामें रखेगा । ५- किसी अन्य युरोपियन को अपनी सेनामें नहीं रखेगा । ६ - अपने राजनैतिक विवादको अंग्रेजोंकी मध्यस्थता से निर्णय करायेगा । ७- इस निमित्त एक ब्रिटिश रेजिमेण्ट पूनामें रखेगा । गुजरात आदि छोटे राज्योंसे स्वत्व उठा लेगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन इस संधि पत्रके अनुसार एक अंग्रेज सेना पूनामें गइ और सर आर्थर वेलेस्लीने तपाकेसे उसे पेशवा पदपर अधिष्ठित किया । एवं लाटका बासदा, सचीन, राज्यपीपला, मांडवी तथा कोकणका धर्मपुर और गुजरातके दूसरे राज्य पेशवाकी आधीनतासे मुक्त हो ब्रिटिश के नैतिक जुएमें जुड़े। पुनश्च इन राज्योंपर जो पेशवाका सार्वभौम अधिकार और तज्जन्य स्वत्व था वह.अवान्तर रूपसे वणिक संघको मिला। बाजीरावको पेशवा बना उन्होंने सिंधिया और होल्करको अपने देशमें जानेके लिये संवाद दिया परन्तु इन दोनोंको कथित संधिके अनुसार महाराष्ट्र साम्राज्य और उसका अन्त प्रतीत हुआ अतः उन्होंने उसे नहीं माना । अतः सन १८०३ में अंग्रेजों के साथ उनकी लड़ाई शुरू हुई। किन्तु इस समय अंग्रेजोंका भाग्य चमक रहा था। उन्होंने सबमें विजय प्राप्त किया। सप्टेम्बरमें लार्ड लेक अलीगढ़ हस्तगत कर दिल्ही गया । और सिंधियाकी सेनाको हराकर दिल्हीपर अधिकार किया और अन्ध मुगल बादशाह अंग्रेजोंका रक्षित बना । गा यमुनाके दोआबसे सिंधियाकी सत्ताका अन्त हुआ । इधर दक्षिणमें आर्थर वेलेस्लीने अहमदनगर अधिकृत किया अनन्तर सिंधिया और भोंसलेकी सेनाको हराकर असीरगढ़ और बुरहानपुर लिया :। अन्ततोगत्वा कर्नल बुडिक्टने भरूच छीन लिया । उधर भोंसलेकी सेनाका अकोलामें पूर्ण पराजय हुआ । इस प्रकार सिंधियाको अपने साथी भोंसलेके साथ अंग्रेजोंसे सन्धि करनी पड़ी। उन्होंने दोनोंसे पृथक पृथक सन्धि की । १७ दिसम्बर सन १८०४ को भोंसलेके साथ सन्धि हुई। उसके अनुसार उसने बालेश्वर, कटक और गोदावरी तथा वर्धाके मध्यका भूभाग अंग्रेजोंको दिया। एवं सम्बलपुरके समीपवर्ती रजवाड़ों तथा निजामपरसे अपना स्वत्व उठा लिया और अंग्रेजोंका संरक्षित बना । तथा किसी युरोपियनको अपनी नौकरीमें नहीं रखना स्वीकार किया । इधर दौलतरावको भी अहमदनगर और अजण्टाके पासका मुल्क, भरूच और गंगा यमुनाके मध्यका मुल्क देना पड़ा। बादशाह आलम और जयपुर, जोधपुर और बुन्दीपरका स्वत्व छोड़ना पड़ा। अन्ततोगत्वा अंग्रेज संघका रक्षित राजा होना स्वीकार करना पड़ा। तब संघने उसे असीरगढ़, चम्पानेर और बुरहानपुर वापस दिया । इस लूटमें अहमदनगर पेशवाको, एजन्टादि भूभाग निजामको मिला। है. संघने 'मरहठों, गायकवाड़ पेशवा, भोंसला और सिंधिया, की कमर तोड़ कर गंगा यमुना तटके दिल्ही आदि, बुन्देलखण्ड, गोंडवाना, ओड़ीसा, छोटा नागपूर, मालवा, www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौलुक्य चंद्रिका राजपूताना, गुजरात और काठियावाड़ में अपना आधिपत्य स्थापित कर लियाथा परन्तु मरहठा साम्राज्यका दीप टिम टिमाता था। संभव था कि उसे पुनः शक्ति संत्र्य रूप तेल मिल जाय और वह पूर्ण शक्ति रूप ज्योति प्राप्त कर सके। यह आशंका होलकरके तरफसे थी। क्योंकि उसकी शक्ति अक्षुण्ण बनी थी । एवं वह कथित सिंधिया, .भोसले और वएिक संघके युद्ध सयय चुप चाप बैठा था। यदि उसने अपने भाइयोंका साथ दिया होता तो कदाचित इस युध्दके परिणामका इतिहास भिन्न प्रकारसे लिखा गया होता। परन्तु खेदकी बात है कि उनका साथ देनेको कौन बतावे जब संघ सेना एक आध स्थानों पर विजयी हुई तो उसने संघके सेनापतिके पास सम्वाद भेजा कि वह सिंधियाके प्रतिकूल संघकी सहायता करेंगे यदि संघ उसे कुछ भूभाग देनेका वचन देवे। बलिहारी है स्वार्थान्धातकी ! परन्तु संघको उसकी सहायताकी आवश्यकता न थी। अत: उसने उसकी उपेक्षा की। अनन्तर जसवंतरावने राजपूतानाके राजाओंको-जो संघके आधीन हो चुके ये-सताने लगा। अन्तमें सन १८०४ में संघके साथ जसवंतका विग्रह प्रारंभ हुआ । प्रथम जसवंत विजयी हुआ। कर्नल सासूनको युद्ध क्षेत्रमें अपना सारा सामान छोड़ भागना पड़ा । जसवंतराव दिल्ही तक मारता कूटता चला गया परन्तु अन्तमें उसे हारना पड़ा। उसके परं मित्र भरतपुर वालोंको अंग्रेजोंने हराया। उसने अंग्रेजोंकी आधीनता स्वीकार कर ली । जसवंतकी कमर टूट गई । अन्तमें उसने अंग्रेजोंके हाथ आत्म समर्पण किया। उन्होंने उसको उसका सारा प्रदेश कुछ भूभागको छोड़ वापस किया। वहमी सन १८०५ में उसे मिल गया। १८११ में जसवंतरावकी मृत्यु हुई। अन्ततोगत्वा होते हवाते सन १८१८ में अंग्रेजोंको पूर्ण विजय प्राप्त हुई । बाजीराव पेशवा पराभूत हुआ तथा पदभ्रष्ट कर उत्तर हिंदुस्तानमें विठूर नामक स्थानमें भेज दिया। सतारा पति अंग्रेजोंका करद बना । अंग्रेज गुजगत, लाट, महाराष्ट्र आदिके स्वामी बन गये। इतनाही नहीं काठियावाड़, राजपूताना, मालवा, बुदेलखण्ड, गंगा यमुना दोआब, बंगाल, बिहार, ओड़ीसा, नागपूर, छोटा नागपुर तथा दक्षिण भारत आदि भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें संघका सार्वभौम एक छत्र प्रभाव स्थापित हो गया। संघ मनभाया करने लगा। किसी भारतीय नरेशमें इसके प्रतिकूल उंगली उठानेका साहस न रहा। हां १८५७-५८ के बलवाके समय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्राक्कथन अंग्रेजोंको घोर चिस्तामें पड़ना पड़ा था। इस समय बाजीरावने अपने मनके गुब्बारे जुल कर फोड़े। कानपूर आदि हस्तगत कर एकबार पुनः स्वाधीनता प्राप्त करनेकी चेष्टामें प्रवृत्त हुआ। महाराणी लक्ष्मीबाईने भारतीय स्त्री समाजका-अपने हाथ के बलका कौशल दिखना मुखोज्वल किया। तांतिया टोपीने खाट प्रदेश तक आकर अपने हाथके जौहर दिखलाये। परन्तु भारतीय संरक्षित नरेशोंने दिल खोल कर संघको साहाय प्रदान किया। संघ इस विप्लव समयमी विजयी हुआ। परन्तु संघका अन्त दूसरे प्रकारसे हुआ। भारत, इंगलेन्डकी राणी विक्टोरियाके आधीन हुआ। उन्होंने भारतकी वगडोर अपने हाथ ली। अनेक प्रकारका वादा किया। परन्तु उसका पालन किया या नहीं यह अज्ञेय नहीं है। अंग्रेज जाति भारतका शासन पर कौशलके साथ करती है इसने भारतकी सेनासे अंग्रेज साम्राज्यका खुब विस्तार किया। भारतीय सेनाने काबुल, बरमा, चीन, आफ्रीका में युध्द किया है। और वहांकी जातियोंको अंग्रेज साम्राज्य के आधीन बनाया है। इसने विद्या आदिका खूब प्रचार किया। रेल, तार, डाक आदि बना कर प्रजाको आनन्द दिया है। परन्तु सबसे अमूल्य वस्तु स्वातंत्र्यका अपहरण किया है। अंग्रेजोंके संसर्गसे भारतीयों के दृष्टिकोण पदल गए हैं। उनके हृदयमें जातीयताके अंकुर रोपण हो चुके हैं। वे स्वाधीनता और पराधीनताके अन्तरको समझ गये हैं। धर्म और जातीयता के संकुचित विचारके कुपरिणामसे वे अब अनभिज्ञ नहीं रहे हैं। परन्तु चिरकालसे आनेवाली फूट जन्य विशृंखला धर्मान्धता और ..नीत्वका भाव अभी उनका पिंण्ड नहीं छोड़ रहा है. तथापि दूरदर्शी और अनुभवी व्यक्तियों और स्वदेश और खजातिके निमित्त सर्वस्व परित्याग करनेवाले नव युवकोंका अभाव नहीं है। वे स्वातंत्र्य प्राप्तिके लिये प्रयत्नशील हो रहे हैं। जातीयः महासभा सन १८८५ से इसमें प्रयत्न शील है विगत जर्मन युद्ध समय भारतीयोंने अंग्रेजोंकी सहायता अन, जनसे दिल खोलकर की थी। १२००००० से अधिक भारतीय सेनाने युद्धमें भाग लिया . प्रान्सके अल्सास और लोरेन्समें जकर जर्मनोंके छक्के छुड़ा फ्रान्सकी लाज बचायी। सेपोटेमियामें जाकर तुर्कोंके दांत तोड़े । अंग्रेजोंने भारतीयोंकी शक्ति और राज्यभक्तिकी भूरि भूरि प्रशंसा की। उपलक्षमें शासन सुधार हुआ । परन्तु वह भारतीयोंको संतुष्ट तहकर सका। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] अतः भारतीयोंने नवीन शासन सुधार योजनाका जन्मकाल सन १९२१ से ही विरोध किया। सर्व प्रकारके आन्दोलन से काम लिया। अन्तमें सरकारका आसन डोला उसकी कुम्भकरणी निद्रा भंग हुई। उसे नव निर्मित "माऊट फर्ड" सुधार योजना में परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत हुई । इतना होते हुए भी उसने भारतीयोंकी मांग "स्खभाग्य विधान ( Selfdetermination ) की उपेक्षा कर साइमन कमीशन नियुक्त किया। देश के ओरसे छोर पर्यन्त विरोधका बवन्डर उठ गया। गर्म नर्म सबोंने विरोध किया पर कमीशन अपने मार्ग पर अग्रसर होता गया। अन्त में अपनी रिपोर्ट उपस्थित की। रिपोर्टने भारतीय विक्षुब्ध हृदयको और भी विक्षुब्ध बनाया। ___ अन्तमें सरकारको अपनी भूल मालूम हुई। उसने भारतीय और ब्रिटिश प्रतिनिधियोंकी गोलमेज सभा आवाहन किया परन्तु दुर्भाग्य से भारतीय प्रतिनिधियोंका निर्वाचन जनता से न होकर उनकी नियुक्ति सरकार द्वारा हुई । अतः तीनबार गोलमेज सभा होनेपरभी सन्तोषजनक परिणाम नहीं हुआ। गोलमेज सभाकी रिपोर्ट “ साइमन कमीशन" की रिपोर्ट से भी असन्तोषकारक हुई। यदि कुछ हुआ तो वह यह ही कि भारतीय-भारत और ब्रिटिश-भारतके :शासनका एकीकरण स्वीकृत किया गया। एकी करणकी योजना अब राजकीय स्वीकृति प्राप्त कर चुकी है। प्रस्तुत सुधारके अनुसार अब भारत वर्षकी सरकारका नाम “ Federal Government" संघ सरकार होगा। इसके “ Federal Unit" सांधिक मण्डल दो भागोंमें विभक्त हैं। जिनका नाम भारतीय भारत और ब्रिटिश भारत है। “Federal Legislatature " संघसभा दो भागोंमें बटी है। प्रत्येक शासन सभामें ब्रिटिश भारतको २-३ और भारतीय भारतको लगभग १-३ प्रतिनिधि निर्वाचन करनेका अधिकार है। भारतीय भारत का सांधिक मंडल आसाम, बंगाल बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश संयुक्त प्रदेश, पंजाब, सीमा प्रदेश, सिन्ध, मद्रास, बम्बई १२ भागोंमें बटा है। प्रत्येक मंडलको अपने आभ्यान्तरिक शासनमें “ Provincial Autonomy" स्वतन्त्र शासन का अधिकार प्राप्त है। योंतो प्रत्येक प्रान्त और मंडलको अपना “ Legis lature " प्राप्त है परन्तु बंगाल बिहार आदि कतिपय प्रान्तोंमें छोटी बड़ी दो धारा सभायें हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ মাখন ____ भारतीय भारतका सांघिक (Unit) मंडल भी अनेक भागोंमें बटा हुआ है। मैसूर, ट्रावनकोर, हैदराबाद, बडोदा, काश्मीर आदि बड़े राज्य “ Separate entity'' हैं और छोटे राज्यों का अनेक “Unit" बनाया गया है। प्रस्तुत सुधार ने यद्यपि भारतीय भारत को ब्रिटिश भारतके कार्यों में हस्त क्षेप करने का अधिकार प्रदान किया है परन्तु ब्रिटिश भारतको भारतीय भारतके अन्तर विधानमें हस्तक्षेप करने का कुछ भी अधिकार नहीं दिया है। अतः भारतीय संघ शासनके स्थापित होतेही भारतीय नरेशोंको ब्रिटिश भारतके अन्तर में हस्तक्षेप करने का अवसर मिलेगा। परन्तु भारतीय संघशासन तमी संगठित होगा जब लगभग आधे राजगण संमिलित होंगे। ___ नवसुधार योजना ब्रिटिश भारत में १ ली अप्रैल सन १६३७ में लागू होगी। इसके निमित्त अमीसे धारा सभाओंके निर्वाचनके लिये प्रत्येक राजनैतिक दल सरगर्मी से काम कर रहा है। हम विवेचनीय इतिहासके समी पूर्व और परकालीन राज्यवंशोंके उत्कर्षापकषका दिग्दर्शन करा चुके हैं । आशा है इसके अवलोकन पश्चात् आगे चलकर इतिहासके अंगो पांगोंके विवेचनको हृदयंगम करनेमें हमारे पाठकोंको सहायता मिलेगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका लाट नवसारिका खंड । युवराज शिलादित्य का दान पत्र । प्रथम पत्रक। १ ॐ स्वस्ति जयत्याविष्कृतं विष्णोराहं क्षोभितार्णवं । दक्षिणो न्नत दंष्टाग्रे वि २ श्रान्त भुवनं वपुः ।। श्रीनता सकल भुवन संस्तूयमान मानव्यस गोत्राए ३ हारिती पुत्राणां सप्त लोक मातृकाभिस्सप्त मातृकाभिर्वर्धितानां कार्तिकेय प ४ रि रक्षण प्राप्त कल्याण परंपराणां भगवन्नारायण प्रसाद समासा. दितवाराह ला ५ ञ्छनेक्षण वशीकृताशेषमहीभृतां चौलुक्य नामान्वये निज भुज बल पराजिता ६ खिल रिपु महिपाल समिति विराम युधिष्ठिरोपमान सत्य विक्रम श्री पुलकेशी वल्ल नः तस्य ७ पुत्रः परम महेश्वर मातापितृ श्री नागवर्धन पादानुध्यात् श्री विक्रमादित्य सत्या। ८श्रय पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परप महेश्वर भट्टारकेन अनिवारित पौरुषा ६ क्रान्त पल्लवान्वयाज्यायला भ्रातासमभिवर्धित विभूनिर्धराश्रय श्री जयसिंह १० वर्मा तस्य पुत्रः शरदमल सकल शशधर मरीचिमाला वितान विशुद्ध कीर्ति पताका । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [चौलुक्य चंद्रिका युवराज शिलादित्यका मान-पत्र। द्वितीय-पत्रक। १ विभास्ति समस्त दिगन्तरालयः प्रदत्त द्विजराज वर लावण्य सौ २ भाग्य संपन्न कामदेव सकल कलाप्रवीण पौरुषवान विद्याधर चक्र ३ वर्तीव श्रयाश्रय श्री शिलादित्य युवराजः नवसारिकामधिवसतः नवसारि ४ का वास्तव्य काश्यप गोत्र गामीः पुत्र स्वामन्त स्वामी तस्य पुत्रा ५ य मातृ स्थविरः तस्यानुजन्म भ्राता किक्क स्वामिनः भागिकक स्वामिने अध्वर्यु ब्रह्मचारि ६ थे ठहारिका विषयान्तर्गत कण्डवलाहार विषये प्रासही ग्राम सोद्रकं सप रिकर उदकोत्सर्ग पूर्वम्मातापित्रोरात्मनश्च पुण्य यशोभि वृद्धये दत्तवान् ॥ ८ वाताहतदीप शिखा चंचला लक्ष्मीमनुस्मृत्य सर्वैरागामिभि प. तिभि धर्मदायोऽ ६ नु मन्तव्यः । यहुभिर्वसुधा भुक्ता राजाभिः सगरादिभिः। यस्प यस्य पदी भूमि १० स्तस्तस्य तस्य तदा फलं। माघ शुद्धत्रयोदश्यां लिखितमिदं सन्धि विहिक श्री धनंजयेन ११ संवत्स शत चतुष्टय एक विंशत्यधिक ४२१ ओं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ [ लाट नवसारिका खण्ड युवराज शिलादित्य के दान पत्र का छायानुवाद | कल्याण हो । वाराह रूप धारी भगवान विष्णु, जिन्होंने समुद्रका मन्धन और अपने ऊपर उठे हुए दक्षिणदन्तके अग्रभाग पर पृथ्वीको विश्राम दिया, का जय हो । श्रीमान् मानव्य गोत्र सम्भूत हारिती पुत्र, जो सकल संसार में स्तुतिका पात्र है, और जिसको सप्त माने सप्त मातृकाओं के समान पालन किया तथा जिसकी रक्षा भगवान कार्तिकेयने की है, और जिसने परंपरागत वाराहध्वजको भगवान विष्णुकी कृपासे प्राप्त किया है, पुनश्च जिसने क्षण मात्रमें पृथिवीको शत्रु रहित किया उस चौलुक्य वंशमें राम और युधिष्ठरके समान सत्याश्रय श्री पुलकेशी वल्लभ हुआ जिसने अपने भुजबल से समस्त शत्रु राजाओं को वशीभूत किया। उसका पुत्र परम महेश्वर माता पिता और नागवर्धनका पादानुध्यात श्री विक्रमादित्य सत्याश्रय हुआ। उस परम भट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वी वल्लभने पल्लवों के समस्त पौरुषको आक्रान्त किया । उसका छोटाभाई जयसिंह अपने भाई के द्वारा अभिवर्धित राज श्री जयसिंहवर्म्मा हुआ। जिसका पुत्र पूर्ण विकसित चंद्रमा समान कीर्तिमान, कामदेव के समान कान्तिमान- ब्राह्मणों के समान विनीत-सकल कलाओं का ज्ञाता - पौरुष तथा विद्वान चक्रवर्ती तुल्य श्री आश्रय युवराज शिलादित्यने नवसारिका बास करते हुए नवसारी के हने वाले काश्यप गोत्री गामी स्वामीके पुत्र स्वामन्त स्वामी - उसके पुत्र मातृस्थविर के छोटे भाई किक्कास्वामी के पुत्र भागिकस्वामी अध्वर्यु ब्रह्मचारीको ठाहरिका विषय के उप विषय कण्डवला - हार के आसठ्ठी नामक ग्रामको समस्त भोगभाग आदि दाय युक्त संकल्प पूर्वक माता पिता तथा अपने पुण्य और यशकी वृद्धि के लिए सांसारिक वैभव को वायु क्रान्त दीप शिखा समान चल विचार कर प्रदान किया । इस धर्मदायको समस्त आगामी नरेशोंको पालन करना चाहिए । क्योंकि इस वसुधा का पूर्ववर्ती सागर आदि अनेक राजाओं ने भोग किया परन्तु पृथ्वी का जो होता है उसको ही उसके दान का फल मिलता है । माघ शुद्ध त्रयोदशी को इस शासन पत्र को सन्धि विग्रहिक श्री धनंजयने लिखा । संवत्सर सौ चार एक विंश । ४२१ । ओं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] युवराज शिलादित्यके दान पत्र का विवेचन। प्रस्तुत ताम्रपत्र युवराज शिलादित्य का शासन पत्र है । ८. १ । २ लम्बा और ४. ३।४ चौड़े आकार के ताम्रपट पर उत्कीर्ण है। ताम्रपटों की संख्या दो है । प्रथम ताम्रपट में पंक्ति ओं की संख्या १० और दूसरे में ११ है । दोनों पटों के मध्य छिद्र हैं उसमें एक अंगूठी लगी है। अंगूठी के ऊपर राजा की मुद्रा है । उसमें श्री आश्रय अंकित है । ताम्र लेख पुरातन चौलुक्य शैली का है, लेखकी भाषा संस्कृत है। लेख पर दृष्टिपात करने से दानदाता की वंशावली निम्न प्रकारसे उपलब्ध होती है। पुलकेशी वल्लभ सत्याश्रय (विक्रमादित्य) धराश्रय (जयसिंह वर्मा) श्री श्रिय शिलादित्य युवराज वातापिके चौलुक्य वंशकी बंशावलीसे हमें प्रकट होता है कि सत्याश्रय-विक्रमा दित्य-पुलकेशी द्वितीयका पुत्र था । इस ताम्रपत्रमेभी उक्त बातें पाई जाती हैं अतएव इस ताम्रपत्र कथित पुलकेशी वल्लभ और पुलकेशी द्वियीय अभिन्न व्यक्ति हैं । इस लेखमें सत्याश्रय विक्रमादित्यको “ माता पितृ श्री नागवर्धन पादानुध्यात” कथित किया गया है ताम्रपत्रोंमें “पादानुध्यात” पद स्वर्गीय राजाके उत्तराधिकारीको ज्ञापन करता है । चाहे वह पूर्व राजाका भाई-भतीजा-चचा अथवा पुत्र प्रभृति कोई भी क्यों न हो। अत एव सम्भव है कि विक्रमादित्यको अपने पितासे राज्य न मिला हो । उसके और उसके पिताके मध्य नागवर्धन ने राज्य किया हो इसीको ज्ञापन करनेके लिये यहांपर “माता पिता और श्री नागवर्धन पादानुध्यात” पदका प्रयोग किया गया है । सम्भव है नागवर्धन पुलकेशीका चचेरा भाई हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट नवसारिका खण्ड परन्तु डाक्टर फ्लीट द्वारा संपादित लेखसे प्रकट होता है कि पुलकेशी द्वितीयके लिये भी "नागवर्धन पदानुध्यात पदका प्रयोग किया गया है। अतएव डाक्टर फ्लीट "नागवर्धन पादानुष्यात” पदका अर्थ किसी देव विशेषका करते हैं । पण्डित भगवान लाल इन्द्रजी भी फ्लीट महोदयके कथनसे सहमत हैं । हमारी दृष्टिमें भी उक्त विद्वानोंकी धारणा सत्य प्रतीत होती है । क्योंकि "नागवर्धन पादानुष्यात” पदका प्रयोग नागवर्धनके लेखमेंभी पाया जाता है । यदि हम देवताका ग्रहण न करें तो पिता पुत्र दोनोंका एकका उत्तराधिकारी होना सिद्व होता है । यह क्योंकर हो सकता है ? अतः "नागवर्धन पादानुध्यात" पदका यथार्थ भाव देवता ग्रहण करनेसे ही सिद्ध होगा। विक्रमादित्यका उत्तराधिकारी धराश्रय जयसिंह और उसका उत्तराधिकारी श्री आश्रय शिलादित्य प्रकट होता है। यही शिलादित्य इस ताम्रपत्रका शासन कर्ता है। परन्तु वातापिके चौलुक्य वंशावलीमें न तो जयसिंयका और न उसके पुत्र शिलादित्यका नाम पाया जाता है। इस अभावका कारण भी वातापिके चौलुक्योंके लेखमें नहीं मिलता। वर्तमान लेखसे उक्त उलझन मिट जाती है क्योंकि इसमें जयसिंहके सम्बन्धमें निम्न वाक्य है :. "ज्यायसा भ्रात्रा समभिवर्धितविभूतिः" पाया जाता है । इसका भाव यह है कि विक्रमने जयसिंहको लाट देश दिया था। और जयसिंह लाट प्रदेशमें चौलुक्य वंशका राज्य संस्थापक हुआ। पर वलसाड़से प्राप्त गुजरातके चौलुक्य मंगलराजके ताम्रपत्रामें वंशावली निम्न प्रकार से दी गई है कीर्तिवर्मा पुलकेशी वल्लभ - सत्याश्रय विक्रमादित्य धराश्रय जयसिंह वर्मा विजयादित्य युद्धमल जयाश्रय मंगलराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका } दोनों वंशावलियोंके तारतम्यसे प्रकट होता है कि कीर्तिवर्मासे लेकर विक्रमादित्य और जयसिंह पर्वत कोई अन्तर नहीं है । परन्तु जयसिंहके पुत्रोंके नामादि सम्बन्धमें मतभेद है। नक्सारिका ताम्रपत्र उसके पुत्रका नाम श्री आश्रय शिलादित्य बताता है और वलसाड़का ताम्रपत्र विजयादित्य, युद्धमल, जयाश्रय और मंगलराज नाम ज्ञापन करता है। अतएव दोनोंमें घोर मतभेद है। मंगलसजने उक्त क्लसाड़वाला लेख मंगलपुरीमें शासनी भूत किया था। अन्यान्य विवरणमें भी पाया जाता है परन्तु मंगलराजके लेखमें शिलादित्यका उल्लेख नहीं । यद्यपि वह नवसारीवाले लेसमें स्पष्टतया युवराज लिखा गया है इससे स्पष्टतया प्रकट होता है कि वह जयसिंहका बड़ा लड़का था। मंगलराजके लेखमें शिलादित्यका उल्लेख न पाये जानेके दोही कारण हो सकते हैं या तो वह युवराजावस्थामें ही मर गया था अथवा मंगलराजने उसे गद्दीसे उतार दिया था हमारी समझमें उसके मंगलराज द्वारा गद्दीपरसे उतारे जानेकी अधिक सम्भावना है। जबतक इसका परिचायक कोई स्पष्ट प्रमाण. न मिले हम निश्चयके साथ कुछ भी नहीं कह सकते . इसके अतिरिक्त नवसारी वाले प्रस्तुत ताम्रपत्र और वलसाड़वाले मंगलराजके ताम्र पत्रकी तिथियोंका अन्तर बाधक है शिलादित्यके शासनपत्रकी तिथि अंकों और अक्षरों में स्पष्टरूपेण संवत ४२१ और मंगलराजके शासनपत्रकी तिथि शाके ६५३ है। पूर्व संवत ४२१ न तो शक और विक्रम संवत हो सकता है । क्योंकि उसे विक्रम संवत माननेसे उसको हो शक बनानेके लिये १३५ जोड़ना पड़ेगा। अतः ४२१+१३५=५५६ होता है। इस प्रकार मंगलराजके लेख और प्रस्तुत लेसमें १७ वर्षका अन्तर पड़ता है। दो भाइयों के मध्य ६७ वर्षका अन्तर कदापि सम्भव नहीं : इस हेतु उक्त संवत ४२१ विक्रम संवत नहीं हो सकता। पुनश्च उक्त संवतको विक्रम संवत न माननेका कारण यह है कि यह समय शाके ५५६ के बराबर है। और हमें निश्चितरूपसे विदित है कि वातापिके चौलुक्य राज्य सिंहासनपर शिलादित्यका दादा पुलकेशी द्वितीय आसीन था । पुलकेशीके पश्चात हमें आदित्यवर्मा और चन्द्रादित्यके राज्य करनेका स्पष्ट परिचय प्राप्त है। एवं चन्द्रादित्यके पश्चात उसकी राणी विजयभट्टारिका महादेवीके शासन करनेका भी प्रमाण उपलब्ध है। अन्ततोगत्वा शाके ५५६ से लगभग २० वर्ष पर्यन्त शिलादित्यके चाचा किक्रमादित्यको गद्दीपर बैठनेका अवसर नहीं प्राप्त हुआ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाट नबसारिका खण्ड था । जब वह स्वयं गद्दी पर नहीं बैठा था तो वह क्योंकर अपने छोटे भाई धराश्रय जयसिंह वर्माको लाट प्रदेशका राज्य दे सकता है । जब शिलादित्य के पिताको शाके ५५६ में स्वयं ही राज्य नहीं मिला था तो वैसी दशा में उसका पुत्र शिलादित्य युवराज क्योंकर माना जा सकता है। यदि कहा जाय कि मंगलराज के शासनपत्र की तिथि अनर्गल है। तो हमारा विनम्र निवेदन यह होगा कि उक्त तिथि ठीक है क्योंकि उसके साथ वातापिके चौलुक्य राजवंशी तिथिका क्रम मिलजाता है। अतएव हम उसे अशुद्ध नहीं मान सकते। इन विपत्तियों से त्राण पानेके लिये पण्डित भगवानलाल इन्द्रजीने निम्न संभावनाओंका अनुमान किया है । १ - चौलुक्यवंश में शिलादित्य नाम नहीं पाया जाता । श्रतएव या तो यह ताम्रपत्र वल्लभी के राजा शिलादित्यका है अथवा जाली है । २- यदि वल्लभी के राजा शिलादित्य का यह लेख नहीं है तो वैसी दशा में यह अवश्य जाली है। क्यों कि इसकी तिथि का मेल वातापि के राज्यवंशकी तिथि से नहीं मिलता । इसके संबंध में हमारा निवेदन यह है कि इस शासन का कर्ता वल्लभी का शिलादित्य नहीं है क्यों कि इसकी शैली का 'वल्लभी वालों के लेखों की शैली से मेल नहीं खाता । पुनश्च यह लेख जाली इस कारण से नहीं है कि इसमें सूक्ष्मतर विवरण पाये जाते हैं । एवं इसकी शैली का वातापि के चौलुक्यों के लेखसे पूर्ण सामंजस्य पाया जाता है । पुनश्च इस लेख के अतिरिक्त शिलादित्य का एक और लेख सूरत से प्राप्त हुआ है । उसके पर्यालोचन से प्रगट होता है कि उक्न लेख के लिखे जाने के समय भी धराश्रय जयसिंह लाट के चौलुक्य राज्य सिंहासन पर सुशोभित था और राजकार्य में उसका हाथ युवराज शिलादित्य बटाता था । अपरंच नवसारी से प्राप्त अन्य दो लेखों में संवत ४२१-४४३-४९० मिला है। ऐसी दशा में इस संवतका परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। कथित संवत ४२१ को हम विक्रम संवत से भिन्न सिद्ध कर चुके हैं। अतः अन विचारना है कि यह कौनसा संक्त है । मगध के गुप्तों का राज्य वर्तमान गुजरात और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] काठियावाड़ प्रदेश में था। गुप्तों का गुप्त नामक संवत्सर अपना था। उक्त गुप्त संवत्सरका प्रचार उनके राज्य काल तथा कुछ दिनों पर्यन्त वर्तमान गुजरात-काठियावाड़ में था। अतः संभव है कि कथित संवत ४२१ गुप्त संवत हो। गुप्त संवत का प्रारंभ शक ८८ तथा विक्रम २२३ में हुआ था । अब यदि हम कथित संवत ४२१ को गुप्त संवत मान लेवें तो वैसी दशा में उसे शक संवत बनाने के लिये उसमें हमें ८८ वर्ष जोड़ना होगा । कथित संवत ४२१ में ८८ जोड़ने से शक ५०६ होता है। इस प्रकार युवराज शिलादित्य और मंगलराज के मध्य पूर्व कथित १७ वर्षका अन्तर और भी अधिक बढ़ जाता है। अर्थात उक्त ६७ वर्ष का अन्तर १७ से बढ़कर १४४ हो जाता है। इस हेतु संवत ४२१ को हम गुप्त संवत नहीं मान सकते। वर्तमान गुजरात और काठियावाड़ प्रदेश में विक्रम, शक, गुप्त और वल्लभी संवत्सरों के अतिरिक्त त्रयकूटक नामक संवत्सर का भी प्रचार था। अब विचारना यह है कि कथित संवत ४२१ प्रयकूटक संवत्सर हो सकता है या नहीं। त्रयकूटक संवत्सर का प्रारंभ विक्रम संवत ३०५ में हुअा था । अब यदि हम इसे त्रयकूटक संवत मान लेवें तो ऐसी दशा में इसे विक्रम बनाने के लिये ४२१ में ३०५ जोड़ना होगा । ४२१+३०५=७२६ होता है। उपलब्ध ७२६ विक्रम को शक बनाने के लिये हमें १३५ घटाना होगा। ७२६-१३५=५६१ शक होता है। मंगलराज के शासन की तिथि ६५३ शक हमें ज्ञात है। अतः इन दोनों का अन्तर ६२ वर्षका पड़ता है। इस हेतु इस विवादास्पद संवत ४२१ को हम प्रयकूटक संवत भी नहीं मान सकते । अनेक पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों ने कथित संवत ४२१ को त्रयकूटक संवत माना है। परन्तु हम उनका साथ नहीं दे सकते। ऐसी दशा में इस संवत को हम अज्ञात संवत्सर कहते हैं। विवेचनीय संवत ४२१ को अज्ञात संवतमानने के बादभी हमारा त्राण दृष्टिगोचर नहीं होता क्यों कि शिलादित्य और मंगलराज के समय की संगति मिलाना आवश्यक है। हम ऊपर शिलादित्य के दूसरे लेख संवत ४४३ वाले का उल्लेख कर चुके हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ए ] हमारी समझमें यह लेख हमारा त्राण दाता है । इस लेखकी संप्राप्ति हमारी दृढ़ नौका है । इसके पर्यालोचन से प्रगट होता है कि इसमें वातापि के चौलुक्य राज सत्याश्रय विनयादित्य वल्लभ महाराज को अधिराज रूपसे स्वीकृत किया गया है । अतएव यह लेख विनयादित्य राज्यारोहण के बादका है । विनयादित्य वातापि के चौंलुक्य राज विक्रमादित्य प्रथम कापुत्र और उत्तराधिकारी था । इसका राज्यकाल शक ६०१ से ६१८ पर्यन्त है । अतः सिद्ध हुआ कि युवराज शिलादित्य का प्रथम लेख ६०१ से पूर्वका और दूसरा इसके बाद का है । अब यदि हम शिलादित्य के दूसरे लेख संवत ४४३ वाले को विनयादित्य के अन्तिम समय शक ६१८ का मान लेवें तो इस अज्ञात संवत और शक संवत में १७५ वर्षका अन्तर होता है । इस प्रकार युवराज शिलादित्य का प्रथम लेख संवत ४२१ वाला शक ५६६ का ठहरता है । अतः हम निश्चय के साथ कह सकते हैं कि इस अज्ञात संवत और शक का अन्तर १७५ है । क्यों कि इस प्रकार मानने से वातापि के चौलुक्य राज वंशकी तिथि का क्रम सुचरुरूपेण मिल जाता है। इस अज्ञात संवत्सर का शक संवत से अन्तर प्राप्त करने के पश्चात भी हमारा त्राण नहीं हुआ। क्यों कि युवराज शिलादित्य और मंगलराज के समय का अन्तर का समाधान नहीं होता। इसके संबंध में हम कह सकते हैं कि शिलादित्य के द्वितीय लेख संवत ४४३ तदनुसार शक ६१८ और विक्रम ७५३ से मंगलराज के लेख का अन्तर तारतम्य संमेलन से ही श्राण होगा। युवराज शिलादित्य के द्वितीय लेख संवत ४४३ वाले को शक ६१८ का सिद्ध होते ही मंगलराज के लेखसे केवल ३५ वर्षका अन्तर रह जाता है। यह अन्तर कोई महत्व पूर्ण अन्तर नहीं है । इसका निश्चित तथा संतोषजनक रीत्या समाधान शिलादित्य और मंगलराज के लेखों को उनके अन्त समय के समीप वाला मान लेने से हो जाता है | मंगलराज के लेखको उसके अन्त समय का अथवा अन्त समय के समीप का मानना केवल हमारे अनुमानपरही निर्भर नहीं है। वरन् हमारी इस धारणा का प्रबल सहायक मंगलराज के उत्तराधिकारी और लघुभ्राता पुलकेशी का संवत ४६० वाला लेख है | मंगलराज के लेख और इस लेखके मध्य केवल ८ वर्षका अन्तर है । पुनश्च शिलादित्य युवराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बी अवस्थामें ही मरचुका था। अतः हम कह सकते हैं कि प्रथम लेख संवत ४२१ वाले के लिखे जाते समय वह अल्प वयस्क बालक था। परन्तु द्वितीय लेख संवत ४४३ वाले के समय वह अवश्य पूर्ण यौवन प्राप्त था। इन लेखों के संवत के संबंध मंगलराज के उत्तराधिकारी तथा लघु भ्राता पुलकेशी के संवत ४६० वालेलेखका विवेचन करते समय विशेष विचार करेंगे। जयसिंह वर्मा के शिलादित्य, मंगलराज, बुद्धवर्मा नागवर्मा और पुलकेशी नामक पांच पुत्रांके होनेका परिचय मिलता है यह परिचय हमें इन पुत्रों के शासन पत्रों से मिलता है। शिलादित्य और मंगलराज के लेख का हम उपर उल्लेख कर चुके हैं। पुलकेशी का शासन पत्र नवसारी से, बुद्धवर्मा के पुत्र का शासन पा खेड़ासे और नागवर्धन का नासिक से मिला है। इन सब शासन पत्रों में वंशावली दी गई है। हम अपने पाठकों के मनोरंजनार्थ प्रत्येक शासन पत्र की वंशावली निम्न भागमें उधृत करते हैं। आशा है कि उधृत वंशावलियों पर दृष्टिपात करते ही हमारे कथन कि जयसिंह वर्मा के पांच पुत्र थे, की साधुता अपने आप सिद्ध हो जायगी। शासन पत्रोंकी वंशावलियाँ:-- पुलकेशी कीर्तिवर्मा पुलकेशी कीर्तिवर्मा कीर्तिवर्मा | पुलकेशी । पुलकेशी पुलकेशी विक्रम जयसिंह । विक्रम जयसिंह । | जयसिंह । - शिलादित्य विक्रम जयसिंह बुद्धवर्मा । विक्रम जयसिंह | पुलकेशी मंगलराज विजयराज नागवर्धन 1-1-1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सी इन वंशावलियों पर दृष्टिपात करने से इनकी एकता अपने आप सिद्ध हो जाती लाट नवसारिका के चौलुक्य वंश की वंशावली निम्न है । एवं इनके तारतम्य से प्रकार से पाई जाती है। परिष्कृत वंशावली विक्रमादित्य ( वातापि ) 1 विनयादित्य कीर्तिवर्मा 1 पुलकेशी 1 जयसिंह वर्मा (लाट ) 1 I शिलादित्य मंगलराज बुद्धवर्मा पुलकेशी नागवर्धन 1 विजयराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat विजयादित्य ताम्र पत्रों के पर्यालोचन से प्रगट होता है कि पुलकेशी की तुलना सूर्य कुल कमल दिवाकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम और चन्द्र पौरव वंश विभूषण धर्मराज युधिष्ठिर के साथ की गई है । यदि वास्तवमें देखा जाय तो पुलकेशी कथित तुलना का भाजन अवश्य है क्योंकि चान्द्र पौरख वंश की युधिष्ठिर और महाभारत पश्चात क्रमशः अवनति होती गई थी, और उदयन के बाद तो वह एक प्रकारसे नष्ट ही हो गया था । क्योंकि इस वंशका मुख उज्वल करने वाला पुलकेशी का दादा पुलकेशी प्रथम है। चंद्र वंशमें युधिष्ठिर के बाद पुलकेशी सर्व प्रथम अश्वमेघ यज्ञ करने वाला किन्तु पुलकेशी द्वितीय ने चंद्रवंशको पांडवों के समान गौरव www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८ डी पर पहुँचाया था। क्योंकि वह भारत का एक छा चक्रवर्ती साम्राट था । एवं उसने अन्य देशोंके साथ राज नैतिक संबंध स्थापित कर राजदूतोंका परिवर्तन किया था। उसकी राज सभामें पारसी राजदूत रहता था। एवम् प्रसिद्ध चीनी यात्री हुआंगतसांग भारत भ्रमण करता हुआ उसकी राज सभामें आया था। इन दोनों विदेशियों का नाम भारतीय इतिहासमें सदा अमर रहेगा। क्योंकि दोनों का चिह्न आज भी उपलब्ध है। ____पारसी र.जदूत, भारत सम्राट चौलुवय चंद्र पुलकेशीकी सेवामें, पारसी नरेश की भेजी हुई भेंट की वस्तुएं. उपस्थित करते समय, का चित्र ऐजन्त गिरि (अजन्टा ) की गुफामें चित्रित किया गया है, एवम् हुआंगतसांगने अपनी आंखों देखे चौलुक्य वंशके वैभवका, मनुष्यों के सदाचार प्रभृति तथा धार्मिक भावनाओं, रहनसहन, और युद्ध नीति इत्यादिका वर्णन अपने यात्रा विवरणमें बड़ीही ओजस्विनी भाषामें उत्तमता के साथ किया है। पुनश्च ताम्र पत्र के मनन से प्रगट होता है कि पुलकेशी द्वितीय के पश्चात चौलुक्य वंशका सौभाग्य मंद पड़ा । क्यों कि पल्लवों ने इनकी बहुतसी भूमि दबाली थी। परन्तु जब विक्रमादित्य गद्दीपर आया तो उसने पल्लवों को अच्छा पाठ पढ़ाया। पल्लवों को पाठ पढ़ाने वाला धराश्रय जयसिंह वर्मा था। जिससे संतुष्ट हो कर विक्रमादित्य ने साम्राज्य के उत्तरीय भाग गोप मंडल, उत्तर कोकण, और लाटादि का राज्य प्रदान किया था । पल्लव विजय का विवेचन हम चौलुक्य चंद्रिका वातापि खण्ड में विक्रम के लेखों में कर चुके हैं। प्रस्तुत ताम्र पात्र के शासन कर्ता युवराज शिलादित्य के लिये इसमें "शरद कमल सकल शश धर मरीचि माला वितान विशुद्धकीर्ति पताका" वाक्य का प्रयोग किया गया है। परन्तु हमारी सम शिलादित्यमें इस विशेषणका यथार्थ अधिकारी नहीं था। क्यों कि प्रथम तो वह स्वयं राजा नहीं था यदि कुछ था तो केवल युवराज । द्वितीय वह स्वतंत्र राजाका नहीं वरन माण्डलीक राजा का पुत्र था। तीसरे हम ऊपर प्रगट कर चुके हैं कि प्रस्तुत लेख लिखे जाते समय वह अल्प वयस्क बालक था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ [ लाट नव सारिका खण्ड ऐसी दशा में हम कह सकते हैं कि कवि ने अपने स्वामी के प्रति पूर्ण रूपेण चाटुकता धर्मका पालन किया हैं । हमारे पाठक जानते है कवि बड़ेही निरंकुश और कल्पना साम्राट होते हैं । वे तिल का ताड़ और ताड़ का तिल अनायासही बना सकते हैं। यहां भी कविने शिलादित्य को अपनी निरंकुश कल्पना द्वारा महत्व के शिखर पर चढ़ा दिया है । परन्तु वह वास्तव में इस महत्त्वका अधिकारी नहीं था । हमारी समझ में शासन पत्र के वाह्य विषयों का सांगोपांग विवेचन हो चुका । अत एव हम इसके अन्तर विवेचन में प्रवृत्त होते हैं । शासन पत्र से प्रगट होता है कि शासन पत्र लिखे जाने के समय शिलादित्य का निवास नवसारी में था । इसका वर्णन शासन पत्र के वाक्य "( नव सारिका मधि वसतः ” में किया गया है । अब विचार उत्पन्न होता है कि क्या इस वंशकी राज्यधानी नवसारी में थी । नवसारी के पास जयसिंह ने अपने नाम से धराश्रय नगरी नामक नगर बसाया था । उक्त नगर संप्रति धराम्री नामसे अभिहित होता है । और नवसारी से लगभग दो मील की दूरी पर है । धराम्री के ध्वंशावशेष से आज भी उसके पुरातन गौरव के द्योतन करने वाले अनेक अवशेष पाये जाते हैं । अतः संभावना होती है कि जयसिंह का निवास और उसकी राज्यधानी धराग्री में हो । परन्तु स्पष्ट प्रमाण के अभाव में हम निश्चय के साथ कुछभी नहीं कह सकते । पुनश्च उसके विरुद्ध शासन पत्र में शिलादित्यका निवास नवसारी में होना स्पष्ट रूपसे लिखा गया है। एवं नवसारी की प्राचीनता और राजनगर होनेका प्रमाण नवसारीकी भूमि में जहां भी खोदें प्राप्त होता है । एवं प्रस्तुत शासन पत्र भी नवसारी के खंडहरों में से मिला था । अतः नवसारी को ही चौलुक्य वंशकी राज्यधानी मानने में हमें कुछ भी आपत्ति नहीं । शासन पत्र कथित दान के प्रतिग्रहीता कश्यप गोत्री भागिक्कस्वामी अध्वर्युब्रह्मचारी । प्रतिग्रहीताकी वंशावली शासन पत्र में निम्न प्रकार से दी गई है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] वंशावली गामीस्वामी स्वामन्त स्वामी मातृस्थविर स्वामी किनकास्वामी भागिक्कस्वामी दानका विषय ठहारिका विषय के उपविषय कण्डवलाहार अन्तर्गत आसट्री नामक ग्राम है । खेदकी बात है कि प्रस्तुत ग्राम की सीमा आदि का कुछ भी परिचय नहीं दिया गया है अतः वर्तमान समय में इस ग्रामका अस्तित्व है या नहीं हम कुछ भी नहीं कह सकते । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड जनाश्रय श्री पुलकेशी का शासन पत्र। ११ ॐ स्वस्ति ॥ जयत्याविष्कृतविष्णोराहं क्षोभितार्णवम् । । दक्षिणोन्नत दंष्टाने र विश्रान्त भुवनं वपुः ॥ श्रीमतांसकलभुवनसंस्तूयमान मानव्यस । गोत्रा रणां हारितीपुत्राणां कार्तिकेयपरिरक्षणप्राप्तकल्याणपरंपराणां सप्त लोकमातृभि स्स १.प्तमातृभिरभिरक्षितानां भगवन्नारायणप्रसादसमासादित वाराह लाञ्छनानिक्षणे नक्षणे वशीकृताशेषमहिभृतांचौलुक्यानामान्वये। कमल युगल स्सत्याश्रय श्रीपृथिवीषल्लभमहाराजाधिराज परमेश्वर श्रीकीर्तिवर्मा राजस्तस्य सुत स्तत्पादानुध्यात पृथिवीपति श्रीहर्षवर्धनपराजयोपलब्धोग्रप्रतापः परम महेश्वरोऽ परनामासत्याश्रयः यः श्रीपुलकेशीवल्लभस्तस्यसुतस्तत्पादानुध्यातो इयक्रमागतराज्याश्रिय: परमभट्टारकस्सत्याश्रय:श्रीविक्रमादित्यराज स्तस्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] १७ रम माहेश्वरपरमभहारकधराश्रय : श्रीजयसिंहवर्माराजस्तस्यसुत स्तत्पादानु परममाहेश्वर परम भहारक जयाश्रय श्री मंगलराज स्यानु २१ ज स्तत्पादा २३ शरझ सीर मुद्गरो द्धारिणि तरल तर तार तरवारि वा २४ रितोदित सैन्धव कच्छेल सौराष्ट्र चापोत्कट मौर्य गुर्जरादि राज्य निःशेषदक्षिणात्यक्षितिपतिजिगी २५ षया दक्षिणापथ प्रवेश......प्रशममेव नवसारिका विषय प्रध. नाया गतत्वरित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जनाश्रय श्री पुलकेशी का शासन पत्र | द्वितीय पत्रक | [ लाट नवसारिका खण्ड AVE २६ तुरंग खर मुखर खुरोत्वात घरिणि धूल धूसरित दिगंतरे कुं प्रांत नितांत विमर्द्यमान रभसः भि धावितो २७ भट स्थलोदार विवर विनिर्गतांत्र पृथुतर रुधिराराज कवच भीषण वपुषे स्वामि महा २८ सन्मानदानराजा ग्रहण ऋयोपकृत स्वशिरोभिरभिमुखमापतितैः प्रपद प्रदर्शनाग्रदंष्ट्रोष्ठपुटकैरने २६ क समराजिर विवर वरिकरि कटि तट हय विघटन विशालित घन रुधिर पटल पाटलित पट कृपाण पटैरपि महा ३० यो वैर लब्ध परभागः विपक्ष क्षपण क्षेत्र चित्र क्षिप्रतीक्षण तुर प्रहार विलून वैरि शिरं कमलगलनाले रा ३१ ह वर सरभ सरोमाञ्च कंचुकाच्छादित तनुभिरनेकचैरि नरेन्द्र वृन्द वृन्दारकै र जितपूर्वैः व्यपगत स्माक ३२ मण मनेन स्वामिनः स्वशिरः प्रदानेना व्यातावदेक जन्मीयमित्यमीयविजात परितोषानन्तर प्रहत पटु प - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 1 ३३ टहर प्रवृत्त कबन्ध बद्ध रास मण्डलीकेः समर शिरसि विजिता जिकान के शौर्यानुरगिणा श्रविदत्रमनरे १४ न्द्रेण प्रसादी कृता परनाम चतुष्टय स्तद्यथा दक्षिण पथ साधारण चलकी कुलालंकार पृथिवी व श्रमानिवर्त्तकानि ३५ वर्त्तयित्रावनिजनाश्रय श्री पुलकेशी राजस्सर्वाण्येवात्मीयान् १६ समनु दर्शयत्यस्तुवः संविदितं यथा स्माभिर्मातापि www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ३७ ब्रो रास्मनश्च पुण्य यशोभि वृद्धधे वलिचरु वैश्व देवाग्नि क्रियो सर्पणाथं वनवासि विनिर्गत वत्स ३८ सगोत्र तैत्तरिक सब्रह्मचारिणे द्विवेदि ब्राह्मणागदे ब्राह्मण गोविन्दसू नुने कार्मण्येयाहार विषयान्तरगते ३६ पदक ग्राम सांद्रक धर्मदायत्वेन प्रतिपादितो यतो स्या ४१ संवत्सर श ४६ त ४००, ६० कार्तिक शुद्ध १५ लिखित मेत महासन्धि डिग्रहिक प्राप्त पंच महाशब्द सामन्त श्री बप्प ५० दि..... ......."धिकृत हरगण सुनुना ऊनाक्षरमधिकाक्षरं वा स........... 'प्रमाणं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड जनाश्रय पुलकेशीके शासनपत्र विवेचन प्रस्तुत ताम्रपत्र नवसारी ग्रामसे प्राप्त हुआ था । इसके पत्रकोंकी संख्या दो है । प्रत्येक पत्रकमें लेख पंक्तियां २५ हैं। पत्रकोंका आकार प्रकार ११२-६।१।२ इंच है। प्रथम पत्रकके नीचे और ऊपरके दोनों भागोंमें ३.१।२ दोनों तर्फ छोड़कर दो दो छिद्र हैं। इससे प्रकट होता है कि इन छिद्रों द्वारा कड़ीके संयोगसे वे जोड़े गये थे। परन्तु इनको जोड़नेवाली कड़िया उपलब्ध नहीं हैं । अतः दोनों पत्रे पृथक हैं । अक्षर यद्यपि कम खोदे गये हैं तथापि स्पष्ट हैं । लिपि नवसारीसे प्राप्त शिलादित्यके शासनपत्रके समान और भाषा संस्कृत हैं। इस लेखके सम्बन्धमें वियेनाके ओरियण्टल कोन्फरेन्समें एक निबन्ध पढ़ा गया था और उक्त कोन्फरेन्सकी रिपोर्ट पृष्ट २३० में प्रसिद्ध की गई है । एवं इस लेखका कुछ अंश बाम्बे गेझेटिअरके गुजरात नामक वोल्युम एकके पार्ट एकमें उध्दृत किया गया है । मूल लेख सम्प्रति प्रिन्स ऑफ वेल्स म्युजियममें सुरक्षित है । लेखका मंगलाचरण और अन्तिम शापात्मक अंश पद्यात्मक और शेष भाग गद्यात्मक है । इसका लेखक पंच महाशब्द प्राप्त महासन्धि विग्रहिक सामन्त श्री वप (जिसके पिताका नाम हरगण ) है। लेखका प्रारम्भ स्वस्ति श्रीसे होता है । और सर्व प्रथम चौलुक्योंके वुलदेव वाराहकी स्तुति की गई है । पश्चात उनका वंशगत विरुद देनेके अनन्तर शासनकर्ताकी वंशावली निम्न प्रकारसे दी गई है। वंशावली कीर्तिवर्मा पुलकेशी वल्लभ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] - - - - -- - - विक्रमादित्य __ जयसिंह वर्मा मंगलराज पुलकेशी लेखमें स्पष्टरूपसे वंशावली कथित नामोंका सम्बन्ध प्रकट किया गया है । लेखसे प्रकट होता है कि कीर्तिवर्माके पुत्र पुलकेशीको विक्रमादित्य और जयसिंह नामक दो पुत्र थे । विक्रम वातापिकी गद्दीपर बैठा और जयसिंहको लाट मण्डलकी जागीर मिली । जयसिंहके मंगलराज और पुलकेशी नामक दो पुत्रोंका उल्लेख है। जयसिंहका उत्तराधिकारी मंगलराज हुआ और मंगलराजका उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई पुलकेशी हुआ। पुलकेशीही प्रस्तुत दानपाका शासनकर्ता है । इस शासनपत्रके द्वारा उसने तैत्तरीय शाखाध्यायी वत्सगोत्री गोविन्द दिवेदीके पुत्र अंगद द्विवेदीको जो वनवासी प्रदेशका रहनेवाला था, कार्मण्येयाहार विषयका पद्रक ग्राम दान दिया था। प्रदत्त ग्राम पद्रककी सीमा आदिका उल्लेख दानपत्रमें नहीं है । अतः हम नहीं कह सकते कि प्रदत्त नाम पद्रक का वर्तमान समयमें अस्तित्व है या नहीं । परन्तु कामध्येयको हम निाश्चतरूपसे जानते हैं कि यह स्थान तापी तटपर अवस्थित है और वर्तमान समय कमरेजके नामसे प्रख्यात है । कार्मण्येयका उल्लेख इस शासनपत्र के पूर्ववर्ती शासनपा, जो पुलकशोके ज्येष्ठ भ्राता युवराज शिलादित्यका शासनपत्र है और सूरतसे प्राप्त हुआ था, में किया गया है । और हम भी इसके अवस्थानादिका पूर्णरूपेण विचार उक्त शासनपत्रके विवेचनमें कर चुके हैं। दुर्भाग्य से इस शासन पत्र का संवत् स्पष्ट नहीं है । अतः अनेक प्रकारकी आशंकाएं विकराल रूप धारण कर सामने खड़ी होती हैं । चाहे इसका संवत् स्पष्ट हो या न हो, इसमें कथित ग्रामका परिचय हमें न मिले, परन्तु यह शासन पत्र भारतीय इतिहास के लिये बड़ेही महत्व का है। इस शासनपत्र के पालोचनसे प्रगट होता है कि पुलकेशी के राज्य कालमें ताजिक अर्थात यवन सेनाने सिन्ध, कच्छ, सौराष्ट्र, वापोत्कट, मौर्य और गुर्जर को कर दिया था, अर्थात विजय करती हुई आगे बढ़ती तापी तट के वर्तमान कमलेज पर्यन्त चली आई थी । उसका विचार दक्षिणा पथ में प्रवेश करनेका था। किन्तु पुलकेशी ने उनके विषैले दांत निकाल उन्हें स्वदेश लौटनेके लिये बाध्य किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड शासन पा कथित इस यवन आक्रमणका समर्थन मुसलमानी इतिहास से भी होता है। मुसलमान इतिहास कुतूहुल बलादान के पर्यालोचन से ज्ञात होता है कि खलीफा हस्सामने जुनेद को सिन्ध का शासक नियुक्त किया था। और वह खलीफाकी आज्ञा से सिन्ध से आगे बढ़कर मरमाड, मण्डल, दलमज, बास्स, अमेन, मालिव, बहेरमिद और जुज पर आक्रमण किया था। इन नामों पर दृष्टिपात करने से प्रगट होता है कि अरबी लिपि के दोष से स्थानों और राज्य के नाम में अन्तर पड़ गया है। कथित देशों में से कुछ देशों का वर्तमान परिचय पाना असंभव है किन्तु अधिकांश नाम ऐसे हैं जिनका अनायासही परिचय पाया जा सकता है। हम निम्न भागमें कुतूहुल बलादान कथित नामों को लिख कर उनके समानन्तर में वर्तमान नामों को लिखते है। तुलनास्मिका सूचि कुतूहुल बलादान के नाम वर्तमान नाम भरूच १-मरमाड मारवाड २-मण्डल वीरमगाम (चतुर्दिक) ३–दमलेज कमरेज ४-बरस ५–अमेन उज्जैन ६–अलबेले माल भीनमाल (श्री माल) -वहिरमद (संभवतः मौर्य वन) ८-मालिव मालवा ९-जुज भुज प्रस्तुत शासन पत्र हमें बताता है कि मुसलमानोंने सिन्ध, कच्छ, सौराष्ट्र, चापोत्कट मौर्य और गुर्जरोंपर आक्रमण किया था । इनसे अतिरिक्त वह स्थानोंका परिचय उद्धृत सूची से मिलता है । मुसलमानों के इस आक्रमणका मौर्य वन (चित्तोड़) के मोरी परमारों उनके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] १८ इतिहास से भी समर्थन होता है और प्रगट होता है कि मुसलमानोंने मौर्य वन पर आक्रमण करने के पश्चात् मालवा उज्जैन के प्रति गमन किया था । श्रतः हम निश्चय के साथ कह सकते हैं कि मुसलमानी इतिहास का बहिरमद मौर्य वन है । ताम्र पत्र कथित गुर्जर भरूच के गुर्जर और चापोत्कट, भीनमाल के नावड़ा हैं। चावड़ों ने भीनमाल के गुर्जरों से मारवाड़ का राज्य प्राप्त किया था । मुसलमानों का कमलेज वर्तमान कमरेज शासन पत्र का कार्मण्येय है। हमारी समझ में मुसलमानों ने भरूचके गुर्जरों को विजय करनेके पश्चात चौलुक्यों के राज्य पर दृष्टिपात किया होगा । और आक्रमण करने के विचार से जब वे आगे बढ़े होंगे तो पुलकेशी ने कमलेज नामक दुर्ग के समीप आगे बढ़कर उनका मुकाबला किया होगा । आजभी भरूचसे नवसारी भूपथसे आने वालों को कमरेज होकर आना पड़ेगा । परन्तु मुसलमानों को कमरेज के समीप चौलुक्य सेना से सामना होतेही लेने के देने पड़े होंगे। और वे बाध्य होकर स्वदेश लौट गये होंगे। हम देखते हैं कि मुसलमानी इतिहासमें मुसलमानोंके कमलेज विजयका उल्लेख है । परन्तु हमारी समझमें यह मुसलमान ऐतिहासिकोंकी डींगमात्र है। यदि वास्तवमें वे कमलेजको विजय किए होते तो वे अवश्य नवसारीतक जाते और उसे लूटते । क्योंकि नवसारी चौलुक्य राज्यकी राज्यधानी थी। वैसी दशामें अपनेको कमलेज विजेता लिखनेके स्थानमें की नवसारी विजेता लिखते । हमारी इस धारणाका समर्थन इस बात से भी होता है कि कमलेज उस समय कोई राज्य नहीं, वरन नवसारीके चौंलुक्योंका एक विषयमात्र था । अतः हम शासनपत्र के कथनको निवांत और ऐतिहासिक सत्य मानते हैं। हमारी समझमें शासनपत्रके कथनका एक प्रकार से पूर्णरूपेण विवेचन हो गया । श्रब केवल उसके संवत्सरका विचार करनामात्र शेष है। हमारी समझमें इसी शासनपत्र के संवत्सररका निर्णय होनेसे नक्सारीके चौलुक्योंके अन्य तीन लेखोंके संवतोंका निर्णय होगा । हम पूर्वमें मुसलमान और मुसलमानी इतिहासका अनेक बार उल्लेख कर चुके हैं। और फिर भी हमको उसका आश्रय लेना पड़ता है। हम पूर्वमें बता चुके हैं कि आक्रमणकारी मुसलमान सेना के सेनापति जुनेदको खलीफा इस्सामने सिन्धका शासक बनाया था। खलीफा हस्सामका समय हिजरी १०५ - १२५ पर्यन्त है । हिजरी सनका प्रारंभ विक्रम संवत ६७६ में हुआ था। अतः हिजरी १०५= Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड विक्रम ७८४ और हिजरी १२५=विक्रम ८०४ के हैं। परन्तु हिजरी और विक्रम संवत्के मध्य में प्रत्येक तीसरे वर्ष एक महीनेका अन्तर पड़ता है । अतः हिजरी सन १०५ और १२५ को विक्रम बनानेके लिये पूर्व कथित ७८४ और ८०४ में से ३ और ४ वर्ष घटाने पड़ेंगे । इस प्रकार हिजरी १०५ विक्रम ७८१ और हिजरी १२५ विक्रम ८०० के बराबर हैं। अन्यान्य ऐतिहासिक घटनाओंपर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि जुनेदको हिजरी सन १२० में पुलकेशी द्वारा पराभूत होना पड़ा था। अर्थात् यह घटना खलीफा हस्सामके राज्यके १५ वें वर्षकी है। अतः जुनेदका उक्त पराभव काल हिजरी १२० तदनुसार ७६६ विक्रम है। प्रस्तुत शासनपाकी तिथि कार्तिक शुद्ध १५:४६० है । यह मानी हुई बात है कि पुलकेशीने अपनी विजयके उपलक्षमें इस शासनपत्रको शासनीभूत किया था। यदि यह बात ऐसी न होती तो उक्त विजयका उल्लेख इसमें न होता । मुसलमान इतिहाससे उसके आक्रमणका समय हम पूर्वमें विक्रम संवत् ७६६ सिद्ध कर चुके हैं । अतः इस शासन पत्रका समय ४६० विक्रम संवत् ७६५ के बराबर है । इस प्रकार दोनों सवतोंका अन्तर ३०६ वर्ष प्राप्त होता है । हमारी समझमें इस अज्ञात संवत्सरका सांगोपांग विचार हो चुका । और साथ ही जयसिंह वर्माके पुत्र युवराज शिलादित्यके दोनों शासनपत्रों के संवत् ४२१ और ४४३ का निश्चित समय शाके ५६२ और ६१४ तथा विक्रम ७२७ और ७४६, मंगलराजके लेख शाके ६५३ और विक्रम ७८८, और पुलकेशीके लेखका अज्ञात संवत् ४६० शाके ५६१ और विक्रम ७६६ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहुच चंद्रिका] चौलुक्यराज विजयराजके शासनपत्र का प्रथम पत्र। १ स्वस्ति विजय स्कन्धा पारात् विजयपुर वासकात् शरदुपगम प्रसन्न गगन तल विमल विपुले विविध पुरुष रत्नगुण। ५ निकरावमासिते महा सत्वापाश्रय दुर्लध्ये गांभिर्यवति स्थित्यनु पालन परे महोदधाविवमानव्यस गोत्राणां हा ३ रिति पुत्राणां स्वामी महासेनपावानुध्यातानां चौलुक्यानामान्वये व्यपगत सजल जलधर पटल गगन तल गत शिशिर कर ४ किरण कुवलयतर यशाः श्री जयसिंह राजः । तस्य सुतः प्रबलरिपु तिमिर पटलभिवरः सतत मुदयस्थोनक्तंदिव ५ माय सहित प्रतापो दिवाकर इव वल्लभ रण विक्रान्त श्री बुद्धवम्म राजः ॥ तस्य सूनु पृथिव्यामप्रतिरथाश्चतुरुदधि सलिला ५ स्वादित यशां धनद वरुणेन्द्रा क्रान्तक सम प्रभावः स्ववाहवलो पात्तोर्जित राज्य श्री प्रतापाति शयोपनत समग्र सामन्त म ७ पडलः परस्परा पीडित पार्थ कामनिर्मोचिप्रणति मात्रसु परितोष गंभीरोनत हृदयः सम्यक्प्रजा पानाधिगतः दीना ८ व कृपणं शरणागत वत्सलःयथाभिलषित फल प्रदो मातापित पावानुध्यातः श्री विजयराज सर्वानेव विषयपति राष्ट्र (कूटान्) ६ ग्राम महत्तराधिकारिकाविनामनु दर्शयत्यस्तु वस्सं विदित मस्माभि पंथा कायाकूल विषयान्तरगतः सन्धिय पूर्विण परिचय एषः प्रामः सोद्रका सपरिकः सर्वादित्य विष्टिप्राति भेविका परिहिणः भूमिच्छिद्रन्यायेन चाटभ प्रावेश्य जम्बुस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड ११ र सामान्य मावाजसनेय काण्वाध्वर्यु सब्रह्मचारिणां माता पित्रो रात्मनश्च पुण्य यशोभिवृद्धये वैशाख पौर्णमास्या मुदकाति १२ सर्गेण प्रतिपादितः ॥ भारद्वाज सगोत्राय रवि देवाय पत्तिके द्वे इन्द्रसूराय पत्तिका ताथीसुराय दिवर्षपत्तिका इश्वरस्या पत्तिका १३ दामाय पत्तिका द्रोणाया पत्तिका अर्त स्वामिने sधं पशिका मैलायाधं पत्तिका षष्ठि देवायाध पत्तिका सोमाया पत्तिका राम शर्मणेs १४ ध पत्तिका मायायाध पत्तिका द्रोणधराया पतिका धूमायण सगोत्र आणुकाय द्विवर्ष पतिका सूरायाध पस्तिका ॥ दण्डकीय १५ सगोत्र भो पत्रिका समुद्राय दिवध पत्तिका द्रोणाय पतिका श्रयं तावीशमणे पति के द्वे भहिनेऽर्ध पत्तिका वत्राय पस्तिका १६ द्रोण शर्मणे पत्तिका द्वितीय द्रोण शर्मणेऽधं पतिका । काश्यपस गांत्र वप्प स्वामिने त्रिनः पचिकाःदुर्गशर्मणेऽर्ध पत्तिका वस्तायों १७ ई पतिका कौण्डीन सगोत्र पापाया---वर्ष पपिका सेलाय पतिका द्रोणाय पतिका सोमाया पत्तिका सेजाया पत्रिका १८ बलशर्मणेऽर्ध पत्तिका मायिखामिनेऽर्ध परिका मारसगोत्र विशाखाय पत्तिकाधराय पतिका नान्दने पत्तिका कुमाराय पतिका रामाय पत्रिका व अयस्यार्ध पत्तिका गणायार्थ पतिका कोर्दुबाया पत्तिका मायिव भहायाध पत्तिका शर्मण पतिका राम शर्मणेऽर्ध २. पतिका हारित सगोत्रधर्म धराय विवर्ष पत्तिका ।। वैष्णव सगोत्र भष्टिने पतिका गौतम सगोत्र धाराया पत्तिका प्रमधरा २१ या पचिका सेलायार्ष पचिका ॥ शाण्डिल गोत्र दामाया परितका लक्ष्मण सगोत्र काकस्य पस्तिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका चौलुक्यराज विजयराजके शासनपत्र द्वितीय पत्र। २२ वत्स सगोत्र गोपादित्याय पत्तिकाविशाखाया पत्तिका सूरायार्ध पत्तिका मावि स्वाभिनेऽर्ध पत्तिका यक्षशर्मा २३ धपत्तिका तावस्लूिराय पत्तिका कार्कस्या पत्तिका तावाशर्मणेऽर्ष पत्तिका शर्मा पस्तिका कुमाराया पत्तिका २४ मात्रीश्वरायाधं पतितका पाटलाया पतिका ॥ एतेभ्यः सभ्यः बलिधरु वैश्वदेवाग्नि होत्रादि क्रियोपसर्पणार्थ आचंद्राकर्णिव क्षि २५ ति स्थिति समकालीनःघुन पौत्रान्वय भोग्या यतोमवंशजैरन्यैर्वा गामिभूमिपतिभि स्सामान्य भूप्रदान फलेप्सुभिः नलवेणु कदालि २६ सारं संसार मुदधि जलवीचि चपलांश्च भोगान् प्रबल पवना हताश्वत्थ पत्र संचलं च श्रियं कुसुमित शिरीष कुसुम सह २७ शायंच यौवनं माकल्य अयमस्मादायोऽनु मन्तव्यः पालयितव्य श्व योऽवज्ञान तिमिर २८ पटलावृत्त मतिराच्छिद्याच्छिद्य २६ मान वानुमोदते स पंचमि महापातकै संयुक्तः स्यात् । उक्तं च भगवता व्यासेन षष्ठि (वर्ष सहग्राणि स्वर्गे) । ३० वसति भूमि आच्छेत्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके वसेत । विन्ध्याटविस्वतो यासु शुष्क कोटर वासिनः। कृष्ण स १ पाहि जायन्ते भूमिदानापहारकाः बहुभि वसुधा (भुक्ता राजभि स्सगरादिभि.) (यस्य यस्य यदा भूमिः ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड ३२ तस्य तस्य तदा फलं । पूर्व दत्तं द्विजातिभ्योः (यत्नाद्रश्य युधिष्ठिर महीमतां श्रेष्ठःदाना च्छ्रेयोऽनु पालनम् ) यानीह ३३ दत्तानि (पुरा नरेन्द्रः धर्मार्थ कामादि यशस्कराणि॥निर्माल्यवन्ति प्रतिमानि तानिको नाम साधुः) पुनरा ददीत ॥ संम्वत्सर श ३४ त त्रये चतुर्नवत्यधिके वैशाख पौर्णमास्यां नन्नवासायक दूतकं लिखितं महा सन्धि विग्रहाधि कृतन खुडस्वामिना १५. संवत्सर ॥१६॥ वैशाख शुद्ध १५॥ क्षत्रिय मातृसिंहनोत्कीर्णानि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ चौलुक्य चंद्रिका ] प्रस्तुत ताम्र पटोत्कीर्ण लेख आज १०७ वर्ष पूर्व सन १८२७ में उत्तर गुजरात के खेटकपुर मण्डल (खेड़ा) के समीप बहने बाली वत्रुच्चा नदी के कटाव से तट भागकी भूमि कट जाने से मिला था। इन पत्रों का प्रकाशन अध्यापक डासन ने रायल एसि - चाटिक सोसायटी के पत्र भाग १ पृष्ट २४७ में किया था। वर्तमान समय यह शासन पत्र उक्त सोसायटी के बोम्बे विभाग के अधिकारमें है । इन पत्रों का आकार प्रकार लगभग १३५/८ + ८ ७/८ इल है। प्रथम पत्रक की लेख पंक्तियाँ २१ तथा द्वितीय पत्रक की १३ हैं । इस प्रकार दोनों पत्रोंकी कुल लेख पंक्तियाँ ३४ हैं । एक प्रकार से पत्रों की आयन्त भावी पंक्तियाँ सुरक्षित हैं । परन्तु द्वितीय पत्रक के लेखकी पंक्तियाँ २८, २९, ३०, ३१, और ३२ प्रायः नष्ट हो गई हैं। यह लेख विजयराज नामक चौलुक्य राजा का शासन पत्र है। इसकी तिथि वैशाख शुद्ध १५ संवत ३६४ है । इसके द्वारा विजयराज ने जम्बुसर नामक ग्राम निवासी ब्राह्मणों को उनके बलि वैश्य देवाग्नि होत्रादि नित्य नैमित्तिक कर्म संपादनार्थ भूमिदान दिया है। पुनश्च दान का उद्देश्य अपने माता पिता और स्वात्म्य के पुण्य और यश की वृद्धि की कामना है । लेखकी भाषा संकृत और लिपि केनाडी है । यह शासन पत्र उस समय लिखा गया था जब शासन कर्ता विजय राज का निवास विजयपुर नामक स्थान में था। विजयराजकी वंशावली का प्रारंभ जयसिंह से किया गया है। और उस पर्यन्त वंशावली में केवल तीन नाम दिये गये हैं । और प्रत्येक का संबंध स्पष्ट रूपेण वर्णन किया गया है। पुनश्च बिजयराज के वंशका परिचय चौलुक्य इतना सब कुछ होते हुए भी शासन पत्र में घोर त्रुटियाँ पाई जाती हैं क्यों कि इसमें यह नहीं बताया गया है की जयसिंह कहां का राजा और उसके बाप तथा दादा कौन थे । एवं जयसिंह की राज्यधानी कहां थी। अंततोगत्वा विजयसिंह का बाप बुद्धवर्मा तथा स्वयं विजयसिंह कहां रहता था । इसके अतिरिक्त शासन पत्रका संघत कौन संवत था यहमी नहीं पाया जाता। सबसे बढ़कर शासन पत्रकी त्रुटि प्रदशनाम " पर्याय " की सीमाओं के उल्लेखका न होना है। अतः यह शासन पत्र और इसमें कथित नामसे दिया गया है। I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट नवसारिका खण्ड राजशिविर का स्थान विजयपुर-ब्राह्मणोंका प्रान जंबुसर घोर विवादका कारण हो रहा है। आज तक अनेक विद्वानों ने पक्ष विपक्ष में लेख लिखे हैं । किसी के मत से यह शासन पत्र बनावटी तो दूसरे के मतसे सत्य है। वास्तव में देखा जाय तो इस शासन पत्र कथित प्रामादि विवाद की वस्तु हैं क्यों कि शासन पत्र विजयपुर नामक ग्राम में अवस्थित राजशिबिरसे लिखा जाता है । यह जम्बुसर के ब्राह्मणों को दिये हुए भूमिदान का प्रमाण पत्र है अर्थात इसके द्वारा उक्त ग्राम के ब्राम्हणों को दान दिया जाता है। यह जंबुसर नामक स्थान से लगभग ५० मिल की दूरी से प्राप्त होता है । पुनश्च इसके प्राप्त होने के स्थान से विजयपुर नामक स्थान जिसके प्रति अद्यावधि विद्वानोंकी दृष्टि पड़ी है वह ७०-८० मिल से भी अधिक दूर प्रान्तिज नामक स्थानके समानान्तर पर लगभग २० मील की दूरी पर उत्तर पश्चिम में अवस्थित बीजापुर नामक ग्राम है। अब यदि देखा जाय तो इसके लिखे जाने के स्थान से प्रतिग्रहीता ब्राम्हणों के निवास स्थान की दूरी १२५-३० मील से भी अधिक है। परन्तु इस शासन पत्र को ब्राम्हणों के निवास स्थान तथा लिखे जाने के स्थान से कुछ दूरी पर मिलने के कारण बनावटी मानने वालोंने इस साधारण बात पर भी ध्यान नहीं दिया है कि शासन पत्र को जंबुसर नामक स्थान से कोई मनुष्य अपने साथ लेकर अन्य स्थान को जा सकता है । पुनश्च उन्होंने भरूच जिला के जम्बुसर नामक तालुका के ग्राम जंबुसरको ही शासन पत्र कथित जंबुसर मान लिया है। अब यदि इनके माने हुए जंबुसरको लेखका जंबुसर और बीजापुरको विजयपुर मान लेवें तो वैसी दशामें प्रश्न उपस्थित होगा कि क्या चौलुक्यों का अधिकार जंबुसर, खेड़ा और बीजापुर पर्यन्त था। इस प्रश्नका उत्तर हम दृढ़ता के साथ दे सकते हैं कि उनका अधिकार बीजापुर पर्यन्त नहीं था । हमारे इस उत्तर का कारण यह है कि यह सर्व मान्य सिद्धांत है कि प्रस्तुत शासन पत्र कथित जयसिंह लाट नवसारिका के चौलुक्य राज्य वंशका संस्थापक था। जयसिंह के राज्य काल में भृगुकच्छ [भरूच] में गुर्जरों का और मानत अथवा उत्तर गुजरात के खेटकपुर [खेड़ा] पर सौराष्ट्र के वल्लभी राज के स्वामी मैत्रंकों का अधिकार था। हां तापी और नर्मदा के मध्य वर्ती भूभाग पर जयसिंह के अधिकार का चिन्ह पाया जाता है। क्यों कि उसके बड़े पुत्र युवराज शिलादित्य के सूरत से प्राप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ चौलुक्य चंद्रिका] शासन पत्र ४२१ वाले लेखमें और दूसरे पुत्र पुलकेशी के संवत ४६० वाले लेख में इसका उल्लेख पाया जाता है। एवं तापी के वाम तटवर्ती भूभाग पर उसके अधिकार का स्पष्ट चिन्ह कथित लेखों से पाया जाता है। इन दोनों लेखों में कार्मण्येय का उल्लेख है। कार्मण्येय वर्तमान कमरेज है। और तापी के वाम तट पर अवस्थित है। इस नगरकी प्राचीनता निर्विवाद है। क्यों कि इसके दुर्गावशेष से अनेक पुरातात्विक पदार्थ पाये जाते हैं। कमरेज सूरतसे लगभग १५ मीलकी दूरी पर वायव्य कोण में है। कमरेज प्रामसे लगभग २०-२५ मील उत्तर पूर्व में राजपीपला के अन्तर्गत जम्बु नामक एक पुरातन ग्राम है। वर्तमान समय इस गाँवमें केवल १०-१५ झोपड़िय पाई जाती हैं। परन्तु गाँवके चारो तरफ लगभग दोमील पर्यन्त अनेक मन्दिरों और मकानों के अवशेष पाये जाते हैं। अब यदि हम इस जम्बु गांव को शासन पत्र कथित जंबुसर मान लेवें तो वैसी दशा में शासन पत्र संबंधी अनेक आशंकाओं का समाधान हो जाता है। प्रथम शंका जो चौलुक्यों के जंबुसर खेड़ा और प्रान्तिज के समीप वाले बीजापुर पर्यन्त अधिकार संबंधी है-का किसी अंश में निराकरण हो जाता है। क्यों कि कमरेज से और अधिक आगे २० मील पर्यन्त उनके अधिकार का होना असंभव नहीं है। अब यदि हम जंबुग्राम और कमरेज के पास पर्याय और बीजापुर नामक ग्रामों का परिचय पा जाये तो सारी उल्झी हुई गुथ्थी अपने आप सुलझ जाय । कमरेज से ठीक सामने तापी नदी के दक्षिण तट पर कठोर नामक ग्राम है। कठोर से सायण नामक ग्राम लगभग ४ मील की दूरी पर है। सायण बी. बी. सी. आई, रेल्वे का एक स्टेशन है। सायण से पश्चिम देढ़ दो मील की दूरी पर परिया ग्राम है। हमारी समझमें शासन पत्र कथित पर्याय ग्राम वर्तमान परिया है । क्यों कि पर्याय का परिया बनना अत्यंत सुलभ है। इस परिवर्तनको निश्चित करने के लिये परिवर्तन नीति को भी काममें लानेकी आवश्यकता नहीं है। क्यों कि पर्याय के अन्तरभावी यकार का परित्याग होकर परिया बना है। इस प्रदेशमें जयसिंह तथा उसके पुत्रों के अधिकारका होना अकाट्य सत्य है । अतः हम निःशंक होकर वर्तमान परिया को शासन पत्र कथित पर्याय मानते हैं । परन्तु दुर्भाग्य से शासन पत्र कथित विजयपुर का परिचय प्राप्त करनेमें हम असमर्थ हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट नवसारिका खण्ड प्रदत्त ग्राम पर्याय का अवस्थान निश्चित होते ही जंबुसरको हम शासन पत्र कथित जंबुसर घोषित करते हैं। और पाश्चात्य विद्वानों की धारणा कि यह शासन पत्र बनावटी है को भ्रान्त और आधार शून्य प्रकट करते हैं। शासन पत्र कथित जंबुसर आदि ग्रामों के स्थानादिका विवेचन करने पश्चात इसकी तिथि का विचार करना आवश्यक प्रातीत होता है। इसकी तिथि संवत ३६४ है। हमारे पाठकों को ज्ञात है कि जयसिंह के ज्येष्ठ पुत्र युवराज शिलादित्य के संवत ४२१ और ४४३ के दो लेख द्वितीय पुत्र मंगलराजका शक ६५३ का एक लेख और तृतीय पुत्र पुलकेशी के शक ४६० के लेखका हमें परिचय है । कथित लेखों का संवत विक्रम ७२७,७४६, ७८८, और ७६६ है। अतः प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रस्तुत शासन पवका संवत ३९४ कौनसा संवत है। यह अज्ञात संवत्सर नहीं हो सकता क्यों कि पुलकेशी के लेख के विवेचन में हम दिखा चुके हैं कि उक्त अज्ञात संवत्सर और विक्रम संवत्सर का अन्तर ३०६ वर्ष का है। संभव है यह गुप्त संवत्सर हो । गुप्त संवत मानने से इसे विक्रम बनाने के लिये विक्रम और गुप्त संवत का अन्तर ८८ वर्ष इसमें जोड़ना होगा। ३९४+ ८८४८२ प्राप्त होता है। अतः यह गुप्त संवत्सर नहीं। कदाचित यह शक संवत हो। शक मानने से इसमें शक और विक्रम के अन्तर १३५ को जोड़ना होगा । अतः ३६४=१३५-५२६ उपलब्ध होता है। अतः यह शक संवत भी नहीं है । अब केवल शेषभूत वल्लभी संवत रह गया है। यदि वल्लभी संवत मानने से भी इस संवत का क्रम नहीं मिला तो हमें हार मानकर इस शासन पत्र को जाली मानना पड़ेगा। वल्लमी और विक्रम संवत का अन्तर ३७५ वर्षका है। अतः प्रस्तुत संवत ३६४-३७५ -७६९ विक्रम होता है। इस संवत का जयसिंह के तिथि क्रमसे क्रमभी मिल जाता है। परन्तु तिथि क्रमके मिलने बाद भी एक दूसरी विपत्ति सामने आकर खड़ी होजाती है। वह विपत्ति यह है कि प्राप्त विक्रम संवत ७६६ जयसिंह के द्वितीय पुत्र मंगलराज के राज्य काल में पड़ता है। क्यों कि उसका समय विक्रम ७४६ से ७८६ के मध्य है। इसका समाधान यह है कि जयसिंह ने अपने चौथे पुत्र बुद्धवर्मा को जागीर दिया होगा। और उसका पुत्र उसकी मृत्यु पश्चात अपने पिताकी जागीरका उत्तराधि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] कारी हुआ होगा। परन्तु इस संभावनाका मूलोच्छेद शासन पत्र के वाक्य 'स्व बाहुबलोपार्जित राज्य' से होता है। क्यों कि विजयसिंह स्पष्ट रूपसे अपने बाहुबलके प्रताप से राज्य प्राप्त करनेक उल्लेख करता है। इस संबंध में हम कह सकते हैं कि जयसिंहकी मृत्यु पश्चात मंगलराज विक्रम ७४९ में गद्दीपर बैठा तो संभवत' बुद्धवर्मा से उसका मतभेद हो गया। और कदाचित उसने बुद्धवर्माकी जागीर के साथ कुछ छेड़छाड़ की हो। जिसका विजसिंह ने अपनी बाहुबलसे दमन कर अपने अधिकार की रक्षा की हो । अथवा वह भी संभव है कि विजय और मंगलराज का मतभेद हुआ हो। पैविक जागीर का अधिकार प्राप्त करने पश्चात विजयने किसी छोटे सामन्तको मार उसके अधिकार को अपने अधिकार में मिला अपने विजय के उपलक्ष में इस शासन पत्र को प्रचलित किया हो। हमारी समझमें यही यथार्थ प्रतीत होता है। किन्तु यह भी हम निश्चय के साथ कह सकते हैं कि शासन पत्र प्रचलित करते समय विजयका मंगलरज के साथ कुछमी संबंध नहीं था। वह पूर्ण स्वतंव था वरन उसके शासन पव में मंगलराज के नामोल्लेख के अभाव के स्थान में उसे अधिराज रूपसे स्वीकार किया गया होता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नवसारिका खण्ड श्री नामवर्धनका दान पत्र । प्रथम पत्रक। १ ॐ स्वस्त । जयत्यविष्कृतं विष्णोराहं क्षोभितार्णावं । दक्षिणोन्नत २. दंशाग्र विश्रान्तं भुवनं वपुः। श्रीमतां सकल भुवन संस्तूयमान मा ३ नव्य सगोत्राणां हरिती पुत्राणां सप्त लोक मातृभिः सप्तमातृभि ४ रमिबपिता कार्तिकेय परिरक्षणाचाप्त कल्याण परंपराणां ५. भगवन्नारायणप्रसाद समासावित बराहलाञ्छनेक्षण ६ क्षणवशी कृता शेष महीभृतां चौलुक्यानां कुलमलंकरिष्णार ७ श्वमेधावभृत्थस्नानपवित्रीकृतगात्रस्य सत्याश्रय श्रीकीर्तिवर्मा ८ राजस्यात्मनोऽनेक नरपति शतमकुटतर कोठि धृष्ठ चरणारवि ९ न्दो मेरु मलय मन्दर समान धैर्योऽहरहराभि वर्द्धमान वर करि रथ १० तुरग पदाति बलो मनोजवैक कंन्ठ चित्राख्यः प्रवर तुरंग ११ मेण पार्जित स्वराज्यविजिन चेर चोल पण्डयः क्रमागत राज्यत्र १२. क श्रीमदुशेसपथाधि पति श्री हर्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका j श्री नागवर्धनका दान पत्र । द्वितीय पत्रक। १३ पराजयोपलब्धा परनामधेयः श्री नागवर्धनपादानुध्या १४ तपरम माहेश्वरः श्री पुलकेशी वल्लभः तस्यानुजो भ्रात्रा विजिता १५ रि सकलपक्षो धराश्रयः श्री जयसिंह वर्मराजः तस्य सूनुः त्रिभुवनाश्रयः १६ श्री नागवर्धनराजः सर्वानवागामी वर्तमान भविष्यांश्च नरप १७ तीन्स मनुर्दशयत्यस्तु वः संविदितं यथास्माभिर्गोपराष्ट्र विषयान्त १८ पाति बलेग्रामासोद्रक सपरिकर अचाट भट्ट प्रवेश्य प्राचन्द्राकार्णवं १९ क्षिति स्थिति समाकालिन मातापित्रोरुदि श्यात्मनश्च विपुलपुण्य यशोभि २० वृद्ध्यार्थं वल्लमकुंर विज्ञप्तिकया कापालेश्वरस्य गुगुल पूजा निमित्त २१ तन्निवासि महाव्रतिभ्य उपभोगाय सलिल पूर्वक प्रतिपादित स्तदस्मद्वंश्यै रन्यैश्चैवागामी नृपतिभिःशरदान चंचलं जीवीतमा कलय्यायमस्म हायोनु मन्तव्य। २३ प्रति पालितव्यश्चेत्युक्तं भगवताव्यासेन । बहुभि वसुधाभुक्ता राजभिस्स २४ गरादिभिः । यस्य यस्य यदाभूमिः तस्य तस्य तदा फल मिति । २५ स्वदत्तां परदत्तांवायो हरते वसुन्धरां । षष्ठि वर्षसहस्त्राणि विष्ठागां जायते कृमिः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.१ छायानुवाद | कल्याण हो । बाराह रूप भगवान विष्णुकी, जिन्होंने समुद्रमंथन किया और अपने ऊपर उठे हुए दक्षिणदन्त के अग्र भागपर वसुन्धराको आश्रय दिया, जय हो । समस्त संसारमें प्रशंसा प्राप्त मानव्य गोत्र संभूत हारिती पुत्र, जो सात माताओंके समान सप्त मातृकाओं द्वारा परिवर्धित, भगवान कार्तिकेय द्वारा संरक्षित, भगवान नारायण के प्रसाद से सुवर्ण बाराहध्वज संप्राप्त—जिसके देखने मात्र से शत्रु वशीभूत होते हैं- -उस चौलुक्य वंशका अलंकार - जिसका शरीर अश्वमेधावभृत्थ स्नान से पवित्र हुआ है और जो सत्य का आश्रय है- श्रीमान कीर्तिवर्माका पुत्र — जिसने अनेक राजाओं के मुकुटों को अपने पग तलमें किया है, जो मेरु और मन्दर के समान धैर्यशाली तथा नित्य वृद्धिमान है, जिसकी सेनामें गजारोही, अश्वारोही रथी और पदाति हैं, एवं जिसने वायु समान वेगवान चित्रकंठ नामक अश्वपर आरूढ़ हो अपने शत्रुओं का मर्दन कर स्वराज्य के अपहृत भूभागको, स्वाधीन किया है, एवम् चेर, चोल और पांडय राज्यत्रयको पद दलित किया है और अन्ततोगत्वा उत्तरापथ के स्वामी श्री हर्षको पराभूत कर नवीन विरुद धारण किया है— श्री नागवर्धन का पादानुध्यात परम माहेश्वर श्री पुलकेशी वल्लभ है। उसका छोटा भाई राजा श्री जयसिंह वर्मा जिसने अपने भाई के शत्रुओं के समस्त मित्र राजाओं की संमिलित सेनाको पराभूत किया । और धराका आश्रय बन धाराश्रय विरुद ग्रहण किया । उसका पुत्र त्रिभुवनाश्रय राजा नागवर्धन समस्त वर्तमान और भावी राजाओं को ज्ञापन करता है कि हमने गोप राष्ट्र विषयका बलेग्राम नामक ग्राम समस्त भोग भाग हिरण्यादि सपरिकर सहित – आचार्य भट्ट की प्रेरणासे - यावत् चन्द्र सूर्य तथा समुद्र और भूमि की स्थिति पर्यन्त-भगवान कपालेश्वर के पूजनार्चन निर्वाहार्थ तथा कपालेश्वर के महाव्रतियों के उपभोगार्थ — अपने माता पिता तथा आत्म पुण्य और यश की वृद्धि अर्थ जलद्वारा संकल्पपूर्वक प्रदान किया है। हमारे वंशके तथा अन्य वंशके भावी राजाओंको उचित है कि लौकिक एैश्वरको नश्वर मान हमारे इस दान धर्मका पालन करें क्योंकि भगवान व्यासने कहा है— सगरादि अनेक राजाओं ने इस वसुन्धराका भोग किया है, परन्तु वसुधा जिसके अधिकारमें जिस समय रहती है— उसको ही भूमिदानका फल मिलता है । जो मनुष्य अपनी दी हुई अथवा दूसरे की दी हुई भूमिका अपहरण करता है वह साठ हजार वर्ष पर्यन्त विष्ठामें कृमि बनकर वास करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ लाट नवसारिका खण्ड - LAZKAO www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] विवेचन | प्रस्तुत लेख चौलुक्यराज नागवर्धन का दान पत्र है। इस के द्वारा दाताने कपालेश्वर महादेव के पूजनाचेन निर्वाहार्थ गोप राष्ट विषय का क्लेग्राम नामक ग्राम दान दिया है। लेख वर्तमान नासिक जिला के निर्माण नामक ग्राम से मिला था। इसका दोवार प्रकाशन बॅम्बे रायल एसिटिक सोसाइटी के जोर्नल मे हो चुका है। प्रथमवार बालगंगाधर शास्त्री ने भाग २ पृष्ट ४ और द्वितीय वार प्रो. भंडारकर ने भाग १४ पृष्ट १६ मे प्रकाशित किया था । लेख ८.५/८५.३/५ आकार के दो ताम्र पटोंपर उत्कीर्ण है। दोनो पट काडियोंके सयोग से जुड़े है। कडियो के उपर सज मुद्रा है। उसमे श्री जयाश्रय वाक्य अंकित है। उक्त वाक्य के पर चन्द्रमा और निम्न भागमे कमल की आकृति बनी है। प्रथम पटकी लेख पक्तियां १२ और द्वितीय: पट की १६ है । इस की शैली प्रचलित चौलुक्य शैली है। भाषा संस्कृत और लिपी गुजराती है। " लेख का प्रारम्भ चौलुक्यों के कुलदेव बाराह रूप भगवान विष्णुकी प्रार्थन और अन्त दान धर्म से किया गया है। लेख मे लेख की तिथि नहीं है । साथही लेखक और दूतक के परिचय का अभाव है । एवं प्रदत ग्राम की सीमा आदि भी नही दी गई है । कथित त्रुटियां विशेष चिन्तनीय है | भगवान बाराह की प्रार्थना के अनन्तर चौलुक्य वंश की परंपरा वर्णन करने पश्चात अश्वमेधावभृत्थ स्नान द्वारा शरीर पवित्र करनेका उल्लेख है। एवं उक्त प्रकारसे पवित्रभूत शरीरवाले राजा का नाम कीर्तिवर्म्मा अंकित किया गया है। लेख कीर्तिवम्मांके सत्याश्रय पुलकेशी और धरा जयसिंन नामक दो पुत्र बताता है । एवं दाता के पिता जयसिंह को लेख अपने बडे भाई पुलकेशी के शत्रुओं का नाश करने वाला प्रगट करता है। लेख मे दाता की वंशावली स पर्यंत निम्न प्रकार से है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ३२ वंशावली । सत्याश्रय कीर्तिवर्मा वल्लभ जयसिंह त्रिभुवनाश्रय नागवर्धन हम उपर बता चुके है कि लेख मे तिथि, लेखक और दूतक आदि का अभाव विशेष चिन्तनीय है । परन्तु हमारी समझ मे लेखका कीर्तिवर्मा का विरुद सत्याश्रय, पुलकेशी द्वितीयके घोडे का नाम चित्रकठ और धराश्रय जयसिंह को उसका भाई बताना इसे शंका महोदधी के www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नक्सारिका खण्ड महान भवरमे डाल देता है। कितने विधान लेखकी अयथार्थताकी शंकासे लेलकी शाक्ली गत दोषरापरिहर्य कीर्सिकम्माके पुलशी, जयसिंह, बुद्धवम्मी और विष्णु वढन नामक चार पुत्रोंका होना प्रकट करते है। एवं प्रकट करते है कि पुलकेशी ने जिस प्रकार विष्णु वर्धनको वेंगी मंडल का सामन्त बनाया था उसी प्रकार जयसिंह को गोप राष्ट्र का और बुद्धवर्मा को उत्तर कोकण का बनाया था। परन्तु हमारी समझ में इस प्रकार वंशावली गत दोष परिहार करने से त्राण प्राप्त नही होगा । क्योंकि सैकड़ों की संख्या में प्राप्त चौलुक्योंके शासन पत्र इसका विरोध करते है। चाहे भाप पश्चिम या पूर्व चौलुक्य वंश के शासन पत्रों का लेवें नतो आपको कीर्तिवर्मा का विरुद सत्याश्रय मिलेगा और न उसके अश्वमेधावमृत्थ स्नान कृत पवित्र भूत शरीरका परिचय मिलेगा। अन्यान्य लेखों को पटतर करने पर भी केवल कीर्तिवमा के पुत्र पुलकेशी द्वितीय के विविध शासन हमारे कथन का समर्थन करेगे। हम यहां पर अपने समर्थन मे वेगम वाजर हैदराबाद दक्षिण से प्राप्त पुलकेशी द्वितीय के शासन पत्र का अवतरण करते है " अश्वमेधावभृत्य स्नानपवित्रीकृत मत्रस्य सत्याश्रय श्री पुलकेशी बल्लभ महाराजरय पौत्रः पराक्रमाक्रान्त वनवा स्यादि पर नृपति मंडल प्रतिवद्ध विशुद्ध कीतिषताकस्य कीर्तिवम्म बल्लभ महाराजस्य तनयो नय बिमयादि गुण विभूत्याश्रय श्री सत्याश्रय पृथिवी बल्लभ महाराज समर शत संघट संसक्त पर नृपति पराजयोपलब्ध परमेश्वरापर नामधेय"। उधृत वाक्य हमारी धारणाका समर्थन पूर्णतः करने के साथही प्रस्तुतलेख के कथन 'पुलकेशी चित्रकठ नामक अश्व पर आरुढ हो" का मूलोच्छेद यद्यपि फुलकेशीके चित्रकंठ घोडे पर चढने और कीर्तिवमी के अश्वमेधावभृत्य स्नान कृत पवित्र शरीर होने तथा सत्याश्रय विरुद का खडण पर्याप्त रुपेण उपरोक्त वाक्य से होता है तथापि हम यहां पर अपने समर्थन मे पुलकेशी द्वितीय के पुत्र विक्रमादित्य प्रथमके वेगम वजार हैदराबाद दक्षिणसे प्राप्त शासन पत्रका निम्न वाक्य "अश्वमेधावभृत्य स्नान पवित्री कृत गात्रस्य श्री पुलकेशी बल्लभ महाराजस्व प्रपौत्रः पराक्रमाक्रान्त बनवास्यादि पर नृपति मंडल प्रणिबद्ध विशुद्ध कीर्ति पताकस्य श्री कीर्तिवम बल्लभ महाराजस्य पौत्रः समर संसक्त सकलात्तरापथेश्वर श्री हर्षवर्धन पराजयोपलब्ध परमेश्वरपरनामधेयस्य सत्याश्रय श्री पृथिवी बल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वरस्य प्रिय तनयः चित्रकमख्य प्रवर तुरंग मेनैकेनैव प्रेरितोऽनेक समर मुखेषु रिघुनृपति रुधिरजल्लास्वादन .........विक्रमादित्यः" का अवतरण करते है। भवतरित वाय हमारी पूर्व कथित धारणाका । समर्थन करनेके सायही चित्रकंठ घोडे का सम्बन्ध विक्रमादित्य प्रथम के साथ जोडता है। हमारी समझमे आलोच्य लेखके कथन “कीर्तिवमा अश्वमेधावभृत्य स्नानकृत पवित्र शरीर तथा पुलकेशी द्वितीय चित्रकंठ घोडे का स्वामी था" की अयथार्थता पर्याप्त रूपेण सिद्ध हो चुकी । अतः हम इस सम्बन्धमे और प्रमाण आदिका अवतरण न कर वंशावलीकी अयथार्थता प्रदर्शन करने में प्रवृत्त होते है। पूर्वोकृत वाक्य व्यसे विक्रमादित्य पर्यन्त चार नाम प्राप्त होते है। प्राप्त चार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ३४ 1 व्यक्तियों का सम्बन्ध स्पष्ट रुपेण वर्णीत है। पुलकेशी द्वितीयके शासन पत्र मे उसे पुलकेशी प्रथम का पौत्र और कीर्तिवम्मी का पुत्र कहा गया है । उसी प्रकार विक्रमादित्य के शासन पत्र मे उसे पुलकेशीं प्रथमका प्रपौत्र, कीर्तिवर्म्मा का पौत्र एवं पुलकेशी द्वितीय का प्रिय तनय बताया गया है । साथ हीं विक्रमादित्य को चित्रकंठ घोडे पर आरुढ होने वाला वर्णन किया गया है । आलोच्य शासन पत्र को घराश्रय जयसिह के भाई के पास चित्र कंठ घोडा का होना स्वीकार है। उधर धराश्रय जयसिंह के अन्य पुत्र युवराज शिलादित्य के पूर्व प्रकाशित शासन पत्र मे धराश्रय जयसिंह को स्पष्ट रुपेण विक्रमादित्य का भ्राता और पुलकेशी का पुत्र बताया है । ऐशी दशा मे हम निश्शंकोच हो आलोच्य शासन पत्र की वंशावली को दोषपूर्ण बताते है । आलोच्य लेख को, हम उपर बता चुके है; वंशावली गत दोष अन्यान्य दोषो के साथ मिल कर शंका महोदधि के महान भवर डाल देता है । अब विचारना है कि प्रस्तुत शासन पत्र में इस प्रकार की त्रुटियां क्यो पाई जाती है। यद्यपि लेख कथित त्रुटियों के कारण शंका महोदधि के महान भवंर में पडा है । इसकी यथार्थता संदिग्धता को प्राप्त है । तथापि हमारी समझ मे लेख मे कितनी ऐसी साम्यता आदि पाई जाती हैं जिनको दृष्टि कोण मे लाते हीं लेख शंका महोदधि को अपने आप उत्तीर्ण कर जाता है । हमारी समझ सम्यतादि का दिग्दर्शन कराने के पूर्व इसकी तिथि आदि त्रुटियों का विचार करना हीं उत्तम प्रतीत होता है | अतः हम लेख का समय विवेचन सर्व प्रथम हस्तगत करते हैं। लेखमें दान दाताको घराश्रय जयसिंहका पुत्र और राजा नामसे अभिहित किया गया है । अतः यह स्वतः सिद्ध है कि प्रस्तुत लेख दान दाता के राजा होने पश्चात लिखा गया है । साथहीं यही भी मानी हुई बात है कि दाता अपने पिता की जीविता अवस्था मे राजा नामसे कदापि अभिहित नहीं हो सकता । इस हेतु लेख दाता के पिता की मृत्यु पश्चात लिखा गया है। पूर्व मे युवराज शिलादित्य के शासन पत्रका विवेचन करते समय सिद्ध कर चुके है। कि धराश्रय जयसिंह शक ६१८ के आसपास पर्यन्त जीवित था । अतः यह लेख अवश्य शक ६१८ के बाद लिखा गया होगा। क्योकि धराश्रय जयसिंह की मुत्यु होने के लक्षण दिखते है । जयसिंह का उत्तराधिकार उसका दूसरा पुत्र मंगलराज हुआ था । एवं मंलराजकी समकालिता जयसिंह के पौत्र और बुद्धवर्मा के पुत्र विजयराज को राजा रूपमें शासन पत्र प्रचलित करते पाते है। संभवतः जयसिंह ने अपनी मृत्यु समय मंगलराज को उत्तराधिकारी और अन्य पुत्रों बुद्धवमी, नागवर्धन और पुलकेशी आदि को जांगीर प्रदान किया हो और वे अपने अधिकृत स्थानों पर राजा रुपसे शासन करते हों । यदि ऐसी बात न होती तो बुद्धवमाका पुत्र विजय राज अथवा नागवर्धनको इस प्रकार शासन पत्र शासित करते न पाते । आलोच्य शासन पत्र की तीथि संबन्धी दोष का आनुमनिक रुपेण समाधान करने पश्चात हम लेख की वंशावली गत दोष के परिहार मे प्रवृत होते है । प्रस्तुत लेख की लिपी गुर्जर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ [ लाट नवसारिका खण्ड लिपी है । अतः इसके लेखक को उक्त लिपी का ज्ञान था और वह संभवतः गुर्जर था । गुर्जर लिपी का नागवर्धन के प्रदेश मे प्रचार नही था । इस हेतु लेखक उसके यहां नवागन्तुका था । उसे चौलुक्यों के इतिहास और वंशावली आदि का ज्ञान नही था । उसकीही अज्ञानता वसात वंशावली मे दोष आगया है । वंशावली गत दोष को लेखक के मत्थे डालने पर भी हमारा त्राण नहीं क्योंकि गुर्जर प्रदेश मे रहने वाले के चौलुक्यों के इतिहास से अनभिज्ञ होने की संभावना को मानने की प्रवृती नही होती । कारण कि गुर्जर प्रान्त चौलुक्यों के प्रभाव से दूर नही था । दान दाता के पिताका राज्य लाट प्रदेश मे था। जहांपर दान दाताके भाई और भतीजे लेख लिखे जाते समय शासन करते थे । इतनाही नही उनका अधिकार लाट मे लगभग ३४-३५ वर्ष पश्चात पर्यन्त स्थित होनेके प्रत्यक्ष चिन्ह पाये जाते हैं। इनका सबन्ध भी वातापिके साथ बना हुआ था । क्यों मंगलराज के भाई और उत्तराधिकारी पुलकेशी को दक्षिणापथ मे प्रवेश करने वाले अरबों के साथ युद्ध कर पाते हैं। ऐसी दशा मे हम लेखक को चालुक्य इतिहास से अनभिज्ञ कदापि नहीं मान सकते। अब विचरना है कि आलोच्य लेख की लिपी से परचित पर चौलुक्यों के इतिहास से अनभिज्ञ यदि गुर्जर नहीं था तो कौन था । हमारी समझमें प्रस्तुत लेखकी लिपीको गुर्जर लिपी न मान कैथी लिपी माननाहीं युक्ती संगत प्रतीत होता है। कैथी लिपी प्रदेश निवासी का चौलुक्यों के इतिहास से अनभिज्ञ होना असंभव नहीं । क्योंकि उक्त प्रदेश में चौलुक्यों का प्रभाव नहीं था । अब देखना है कि वह कौनसाप्रदेश है जहांपर गुर्जर लिपी से मिलती जुलती कैथी नामक लिपी का प्रचार था । आलोच्य कैथी लिपीका प्रचार चौलुक्योंके प्रभाव से ि दूर मगध प्रदेशमें था और आज भी है। कैथी लिपी और गुर्जर लिपी के मध्य पूर्णरुपेण साम्यता है । दोनो के दो तीन अक्षरों को छोड कर सब अक्षर एक है। अतः हम आलोच्य लेख के लेखक को गुर्जर न मान मागधी घोषित करते है । आलोच्य लेख की लिपी को मागधी "कैथी" लिपी घोषित करते हीं प्रश्न उपस्थित होता है | गुजराती और कैथी लिपीयोंका अति दूरस्थ दो भिन्न प्रान्तो मे क्योकर प्रचार हुआ ? गुर्जर लिपी कैथी लिपी की जननी या कैथी लिपी गुर्जर लिपी की जननी है ? गुर्जरों की प्रवृती अपनी लिपी को कैथी की जननी वतानेकी अधिक होगी और हम उन्हे उनकी इस प्रवृती के लिये दोष नही दे सकते क्योकि यह मानव स्वभाव है। उधर कैथी लिपी वालों कीं प्रवृती अपनी लिपी को गुर्जर लिपी की जननी बताने की होगी । परंतु इस का निर्णय करने के पूर्व हमे विचारना होगा । " किसी देश अथवा जाति की लिपी अथवा संस्कृती का प्रभाव अन्य देश और जाति पर तब तक नही पडता जब तक : प्रभावान्वित देश अथवा जाति प्रभाव डालने वाले देश या जाति के राज नैतिक प्रभाव मे 1. कुछ समय के लिये नहो । कथित तुछ समय शताब्दियों का होना आवश्यक है" । क्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] वर्तमान गुर्जर प्रदेश का राजनैतिक प्रभाव कैथी लिपी वाले प्रदेश मगध, मिथिला, बनास्ता, अवध आदि में किसी समय था। इस प्रश्न का सिधा उत्तर है कि भारतीय इतिहास उच्चे स्वर में घोषित करता है। किं उक्त प्रदेश गुर्जर प्रदेशके प्रभाव में कदापि नहीं थे वस्न गुर्जर प्रदेश ही सेकडो वर्ष पर्यंत कैथी लिपीवाले प्रदेशों के राजनैतीक यूप में बंधा था। इतनाही नहीं ज्ञात ऐतिहासिक काल से लेकर आज पर्यत का इतिहास प्रगट करता है कि गुजरात प्रदेश में राज्य करने वाले मौर्य, क्षत्रप, यकूठक, सेंन्द्रक गुप्त, मैत्रक, गुर्जर, चौलुक्य और राष्ट्रकूट आदि कोईभी वंश गुर्जर प्रदेश का निवासी नहीं था। कथित राजवंशोंमेसे मौर्य, गुप्त और मैत्रक मगध-अवध निवासी, अयन और सेन्द्रका संभवतः मध्य प्रान्त बासी, चौलुक्य और राष्ट्रकूट दक्षिणापथ बासी थे। हां गुर्जर वंश और क्षत्रपोंका मूल निवास अद्यावधि निश्चित नहीं है। ऐसी दशा में नतो सैन्द्रक या वयकूटक और न चौलुक्क या राष्ट्रकूट गुर्जर लिपी का प्रचार करने वाले माने जा सकते है। इन वंशो के हटते ही गुर्जर और क्षत्रप वंश सामने आता है परन्तु इन दोनों को हम गुर्जर लिपी का प्रचार करने वाला नहीं मान सकते। कारण कि यद्यपि इनका राज्य गुर्जर प्रदेश में था परन्तु इनके प्रभाव का मगध आदि कैथी लिपी प्रदेश में अत्यन्ताभाव था। कथित चौलुक्य आदि राज वंशों के विचार क्षेत्र से हटतेही केवल मौर्य गुप्त और मैत्रक वंश त्रय शेषभूत रह जाते हैं । इस तीनों वंशों का राजनैतिक प्रभाव गुर्जर प्रदेश में लग भय एक हजार वर्ष रहा। संभव है इन तीनो में से किसी ने मगध प्रवासी होने के कारण अपनी लिपी का प्रचार अपने अधिकृत काठियावाड-गुर्जर प्रदेशो में किया हो। ___ हम मौर्य तथा गुप्तों को कैथी लिपी का गुर्जर प्रदेश में प्रचार करनेवाला नहीं मान सकते। हां मैत्रकोंको हम निशंकोच होकर कैथी लिपी का गुर्जर प्रदेश में प्रचार करने वाला घोषित करते हैं । हमारी इस घोषणा का कारण प्रबल है। काठियावाड प्रदेश में मैत्रक वंश की स्थापना करने वाला भटारक था। वह गुप्तों का सेनापति था। वह कठियावाडमें नवागन्तुक था। वह गुप्तो द्वारा कठियावाडमें शासक रुपसे भेजा गया था। अतः जब स्वतंत्र बना तो उसने अपनी लिपी का प्रचार अपने अधिकृत प्रदेश में किया। एवं काल पाकर उसकी लिपी गुर्जर लिपी नामसे प्रख्यात हुई। हमारी कथित धारण शेख चिली की उड़ान मात्र नहीं है। वरन हमारे पास उसके प्रबल कारण है। मैत्रक वंश को पश्चात्य और प्राच्य अनेक विद्यानों ने अपनी अभिरुची के अनुसार किसी ने विदेशी, किसी ने गुर्जरोसे अभिन्न किसी ने हून और किसी ने अन्य जातिका बताया है। जिनकी प्रवृती भारतीयता के प्रति अधिक झुकी थी तो उन्होंने मैत्रकोंको पौरणिक सूर्य वंश से मिलाकर उन्हे शिशोदियों का पूर्वज घोषित किया है । परन्तु कबि सोढल कृत उदय सुन्दरी की उपलब्धी ने सभ को मोन बमा दिया है । कथित पुस्तक का लेखक अपने को मैत्रक राज वंश का वंशधर और अपनी जाति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ફ્ fire after का नाम बालम कायस्य लिखता है। हमारी समझमें यद्यपि हमने अपनी पुस्तक "नेसनलिटी ऑफ दी वल्लभी कीगंस" में पूर्ण रुपेण मैत्रकों की जातीयता पर प्रकाश डाला है। तथापि यहां कवि सोढलके कथन का अवतरण देना असंगत नही वरन विषय को स्पष्ट करने वाला होगा। इस हेतु यहां पर उसका अवतरण देते है । ::: वंशस्य सच्चरितः सारवतः किमंग संगीयते सुललिता कुटिलस्य तस्य । येनान्तरा धृतभरेण धराधिपत्ये राज्ञां जयत्यहत विस्तरम। तपत्रं ॥ किंबहुना । तृतीय मतोन्मेष कायस्थः अति लोचनं । राज वर्गों बहन्नेष भवेदत्र महेश्वरः ।। उधृत वाक्य में कवि ने अपनी जाति का परिचय दिया है। हां मानते है कि कायस्थों के प्रचलित जातीय कथानकसे इसमे कुछ अन्तर है । हमारी ससझमे वह अन्तर नगण्य है क्योंकि अपनी मातृभूमि से हजारो मिल की दूर पर रहने तथा अपने जातीय बन्धुओं से संबंध विच्छे हो जाने के कारण अपने जातीय कथानक में अन्तराभास कां संमेलन करना असंभव नहीं है । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमारे सामने अग्निकुल मानने वाले चौलुक्य, चौहान, प्रतिहार और परमार आदि राज वंश है। इन चार राजवंशों में परमारो को छोड किसी के शासन पत्र आदि में उनका अग्निकुंड से उत्पन्न होना नहीं पाया जाता । पर आप उनमेंसे किसी से पूछें बे अपनेको अग्निकुल बतावेंगें । परमारोके शासन पत्र आदि उन्हें अग्निकुण्ड संभूत बताते हैं पर ऐसा प्रकट करने वाले शासन पत्रों से पूर्व भावी शासन पत्रों में उनका भी अग्निवंशी होना नहीं पाया जाता । कवि सोढल के पूर्वज बल्लभी राजवंश के नाश पश्चात लाट देश में चले आये थे और वह अपने मातृक वंशमें आश्रित था । कवि का समय विक्रम की दशवी शताद्वि का प्रारंभ है। इस हेतु बल्लमी राजवंश की स्थापना और कवि सोढल के समय में लगभग ५५० वर्ष का अन्तर है। राजवंश के उच्छेद और कवि के समय में लगभग डेढ सौ वर्ष का अन्तर है 1 कवि सोढल ने अपनी पुस्तक स्थानक (वर्तमान थाना) पति शिलाहार वंशी राजा ममुनि को अर्पण की थी । अतः कवि का आत्म परिचय के अन्तर्गत अपने को बल्लभी राज बंशोद्भूत — केवल इतना हीं नहीं शेष वंशधर - प्रकट करना ध्रुव सत्य है । यदि ऐसी बात न होती तो लाट के चौलुक्य और स्थानक के शिलाहार जिनके साथ उसका घनिष्ट संबंध था, एवं अन्यान्य राजवंश तथा जन समुदाय और विद्वान प्रभृति उसके कथनका अवश्य हीं विरोध किए होते। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ चौलुक्य चंद्रिका ] कवि के वंश परिचय के संबन्ध में हमारा विचार है कि कोईभी व्यक्ति अपने वंश परिचय को सौ डेढसौ वर्ष के अन्तर्गत नहीं भूल सकता, अतः उसका स्वदत्त परिचय निर्भ्रान्त है । हां उनकी बातें विलग हैं। जिनके वंशका कोई स्थान हीं नहो । यहां तो arat दूसरी है, कवि का वंश, वल्लभी का प्रख्यात राजवंश है। जिसनें लगभग तीन शताब्दियों पर्यन्त बड़े गौरव के साथ कुशद्विप अर्थात वर्तमान काठियावाड़ और आनर्त वर्तमान खंभात और खेडा आदि प्रदेश में राज्य किया था । धर्म और न्याय परायणता में अद्वितीय था । विद्वानों को आश्रय प्रदान करने मे मुक्त हस्त था । दान धर्म में कर्ण का प्रतिद्वन्द्व भही ऐसे महाकवि जिसकी राजसभा के भूषण थे। जहां बौद्ध, जैन, और वेदानुयायी सम भाव से निवास करते थे । धार्मिक चचा नित्य प्रति हुआ करती थी । जो उत्तराधीश्वर श्री कंठ जाधिपति के वंश के साथ वैवाहिक संबन्ध सूत्र में बँधा था । ऐसे प्रख्यात वंश का स्मृति चिन्ह शेष वंशधर के हृदय पट पर नहो यह कदापि माना नहीं जा सकता । साधारण से साधारण वंश के वंशधर आज साभिमान अपने वंशका स्मृति चिन्ह अपने हृदयमें जीवित रखे हुए हैं। हजारों वर्ष व्यतीत होने के कारण कथानकमें यद्यपि नाना प्रकार की अनर्गल बातें घुसी हैं पर उसका चिन्ह लुप्त नहीं हुआ है। फिर कविको हम अपने वंश का स्मृति चिन्ह अन्यथा वर्णन करने वाला क्यों कर मान सकते हैं । अतः कविने जो अपना वंश परिचय दिया है, उसमें किन्तु परन्तु को स्थान प्राप्त होने की संभावना कालत्रय में भी नहीं है । इस हेतु कवि चित्रगुप्त वंशीय (वाल्मीकि) बालम कायस्थ था । मैत्रक वंशकी जातीयता निश्चित होते हीं उसका मूल निवास कायस्थ जाति का केन्द्र स्थान सिद्ध होता है । कायस्थों का केन्द्र संयुक्त प्रान्त ( अवध और काशी आदि ) और विहार (मगध और मिथला आदि ) था और है। जहां आज भी कैथी लिपी का प्रचार है । 1 आलोच्य शासन पत्र के लेखक और उसकी लिपी का निश्चय करने पश्चात हम पूर्व कथित साम्यतादि को लेते हैं। आलोच्य लेख की पंक्ति १० में दान दाता के पितृव्य को चित्रकंठ अश्व का स्वामी कहा गया है । विक्रमादित्य के शासन पत्र के पूर्वोद्धृत वाक्य में स्पष्ट रुपेण उसे उक्त घोडे का स्वामी ' माना गया है। प्रस्तुत लेख की पंक्ति १३ में दाता को नागवर्धनका पादानुध्यति कहा गया है। युवराज शिलादित्य के पूर्व प्रकाशित लेख की पंक्ति ७ में नागवर्धन पादानुध्यात बताया गया है । इन साम्यता आदि तथा पूर्व कथित कारणो से हम शासन पत्र को यथार्थ घोषित करते साथही शासन पत्र का पर्याप्त रूपेण विवेचन मान इतनेहीं से अलम् करते है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड लाटपति त्रिलोचनपाल शासन पत्र । ॐ नमो विनायकाय । स्वाति जयोऽभ्युदयश्च । वाएंवीणाक्ष माले कमल महिमयो वीजपूरं त्रिशूलं खट्वागं दान हस्त सहिताः पाणयो धारयन्तः ॥ रचन्तु व्यंजयन्तः सकल रस मयं देव देवस्य चित्तं - नो देवं कथं वा त्रिभुवन मग्विलं पालितं दानवेभ्यः ॥१॥ दधाति पग्रामथ चक्र कौस्तुभ गदामथो शंखमिहेव पंकजं । हरिःस पातु त्रिदशाधिपो भुवं रसेषु सर्वेषु निशरण मानस॥॥ कमण्डलुं दरार मय श्रुचं विभु विभाति माला जपवत्त मानसः । सृजत्यजोलोक मयोहितं रिपुं रसैश्च सर्वे रसितो विशेषतः॥३॥ कवाधिवत्यै खेदोत्थ चिन्ता मन्दर मन्थनात। विरंचे चुलुकाम्मोधे राजरत्नं पुमान् भूत ॥ ४ ॥ देव किं करवाणीति नत्वा प्राह तमेव सः। __ समाविष्ठार्थ संसिद्धो तुष्ठा स्रष्टा ब्रवीच्चतं ॥५॥ कान्यकुब्जे महाराज राष्ट्रकूटस्य कन्यकां । लब्ध्या सुखाय तस्यात्वं चौलुक्याप्नु है संमति ॥६॥ इत्थमन्त्र भवेत्वत्र संतति वितता किल । चौलुक्यात्मथिता नद्याः स्रोतांसीव महीधरात् ॥७॥ तत्रान्वये दपित कीतिरकीर्ति नारी संस्पर्श भीत इव पार्जितवा-परस्य । पारप राज इति विश्रुत नामधेयो राजा बभूव भुपि नाशित लोक थोकः ॥ ८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औलुक्य चंद्रिका श्री खाट देश माधगम्य कृतानि येन सत्यानि नीति वचनानि मुदे जनानाम् । तत्रानुरंज्य जनमाशु निहत्य शत्रून् कोशस्य वृद्धि फलमा निरन्तरं यः ॥ ६ ॥ तस्माज्जातो विजयवर्मता गोर्गिराजः क्षितीशा ___ यस्मादन्ये मनु पतयः शिक्षता राजधर्मम् । यो गोत्रस्य प्रथम निलयो पालकोया प्रजानां . यः शत्रूणामामत सहसो मूर्ध्नि पाई व्यधच ॥१०॥ मात्मभू रुघृता येन विष्णुनैव महीम्भसा ॥ वलिभिः सा समानान्ता वान वैस्वि वैरिभिः ॥ ११ ॥ प्र गुस्न बन्मयन रुपधरोऽच्युतस्य श्री कीर्तिराज नृपतिःस बभूव तस्मात् । यो लाट भूप पदवीमधि गम्यचक्रे । धर्मेण कीर्ति धवलानि दिगन्तराणि ॥ १२॥ सन्तान तन्तुषु प्रोताश्चौलुक्य मणये नपा: तस्यां तु मणिमालायां नायकः कीर्तिभूपतिः ॥ १३ ॥ गो : पिण्डे भौतिकमूरि पदार्थायतने गुंगे। सूते क्षीरं शिशुकार्थ माता स्त्रीषु तथैव लम् ॥ १४ ॥ भाजन्म दृष्टयांति मनाहरस्य मुवा तथा पूर्वतः सर्वलोकः ॥ . यथामृता पूर्ण घटीसमानं नारिश्चतापि स्तुति विन्दुपात :॥ १५ ॥ समेऽपि स्पृहणीयत्वे पक्वान्नस्यैव योषिताम् । ___भोगस्तेन परस्त्रीणां मुच्छिष्यत्येव वर्जितः ॥ १६॥ लग्न तथा आमापनि पाण पादे स्थितं यानि स्नाहा गांण त्यजद्धिः श्रुति कुण्डलाभ्यां कृतमा हुल्य मास्थित सौ॥१७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्पुिर खड चालम्बनीभूत महीधरास्तानुल्लंघ्य जुष्टं पतनं गुणौघैः ॥ कुतोऽन्यथा ते सहजा बभ्रुवुः कथं च ते तत्सह वृद्धिमायुः ॥ १८ ॥ सयौवनोन्मत्त गजेन्द्र पार्श्वद्धावन्मनो मारय देव तत् तस्मादृते ही द्रिय खेट क्रेन विलंधिता वैषयिकीन सीमा १९ ॥ कायेन गेहादि निभेन जीवो व्योमेव जन्तो व्यवधीयते स्म ॥ तस्मात्परस्मिन्नहमेव मत्वा लक्ष्मी समां योऽर्थि जनैर भुक्त २० ॥ बाहूबली कोप गुरोश्च वासो वक्षस्तथा नम्र मवेच्य च । दयोद्धतं मस्तक मेव येषां द्विषां छिनन्ति स्मरणे स वीरः २१ पृष्ठ वदच्या मभिद्विषं यः प्रियं चकार द्विषति प्रयुक्तः लक्षानुगा मार्गेण पुंगवास्ते जाताः कृतार्थास्तत एवं तस्मात् ॥ २२ तस्यादि विचार कीर्ति दयिता निस्त्रिशस्तस्य या संग्रामे सभयेव हन्त सहसा गच्छत्परेषाम् गृहम् सा वावगमातेन दधती दिव्यं प्रताप पुरी すば दुभ्रन्ता सप्तसमुद्र मण्डल भुवं शुद्धति गीता सुरैः ॥ २३ ॥ तस्माच्च वत्सराजो गुणरत्न महानिधि जतिः । 2 शूरो युद्ध महार्णवं मथनाय मन्दरः हयानः ॥ २४ ॥ आपल्यादिमंत्र मूर्ति भुवने भद्रेः समं श्रीः स्थिता ' क्रीडापयत्र वधूरिव स्वविषयं प्रच्छादयन्ती सतीः । तामेवाधिकर्ता नपस्य विरता भर्तु : मनो जानती सा विष्णोरिव वत्सराज नृपतेः सावन वर्ज स्थिता । १५ । सहैकाम्पेर दुस्स्वे काश्मिरकोषः श्रता दिशः । इती वाच्छादयश्यागी वस्लेशः कीर्ति क ॥ २६ ॥ तस्याङ्ग संभवः श्रीमांस्त्रिलोचनपति नृपः भोक्ता श्री लाट देशस्य पाण्डवः कवि भूभुजां । २७ । हेमरत्न प्रभं छत्रं सोमनाथस्य भूषणम् दीननाथ कृते सत्र मधारित मकारि च २८ ॥ त्यागेऽपि मार्गणा यस्य गुण ग्रहण गामिनः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] सत्य धर्मों धवे वक्रः शौर्यगोपाल विक्रमः २९॥ अहो वृद्धस्य तस्यासन्शनवो विकला भृशम् भोक्तु-स्तस्यैव ते चित्रं विहार पल शालिनः ३० शत्रोः संगर भूषणस्य समरे तस्यासिना पातिते मूर्धन्याशु गलत्सु कण्ठ पलया युक्तस्य पूरेऽवलम् तत्तेजोमय वान्ह तापित वपु स्तस्या सवय तं नूनं भाजन मुल्ललास सहसा खग्गोवं हस्तं चलम् ॥ ३१॥ धर्म शीलेन तेनेदं चलं वीक्ष्य जगत्रयम् । गोभूहिरण्य दानानि दत्तानीह द्विजन्मनां ॥३२॥ शांके नव शते युक्ते द्विसप्तत्यधिके तथा । विकृते वत्सरे पौष मासे पक्षे च तामसे ॥ ३३ ॥ अमावास्या तिथी सूर्य पर्वण्यंगार वारके । गत्वा प्रत्यगुवन्वतं तीर्थे चागस्त्य सत्रके ॥३४॥ गोत्रेण कुशिकायात्रभार्गवाय द्विजन्मने । विश्वामित्र देवराता बादलः प्रवरास्त्रयः ॥ ३५॥ इमानुद्वहते ग्राम माधवाय त्रिलोचनः।। पिलावर पथकान्त र्द्विचत्वारि संख्यके ॥३६ ॥ एरथाणा नव शत मवादुक्क पुर्वकम् । समस्तायं ससीमान मघाटै स्तरुभि युतम् ॥ ३७॥ देव ब्राह्मणयोदीयान्वर्जयित्वा क्रमागतान् । पूर्वस्यां दिशि नागाम्बा प्राम स्तन्तिका तथा ॥ ३८ ॥ घटपद्रक माग्नेयां याम्यां लिङ्गवटः शिवः ॥ इन्द्रोत्थनतुनैऋत्यां बहुनावश्वा परे स्थित : ॥ ३९ ॥ वायव्यां टेम्परूकं च सौम्यां तु तलपद्रकम् । इशान्यां कुरूण ग्रामा सीमायां खेटकाष्टकम् ॥ ४० ॥ भाघाटनानि चत्वारि प्रायः सहसीमकैः । तस्मा द्विज वरस्य (मस्य) भुन्मतो न विकल्पना ॥४१॥ . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ कर्तव्या कैश्च न नरैः सार्थ साधु समाख्यकैः । अथैवं यदि लोप्तास्य स सदा पापमाजनम् ॥ ४२ ॥ पालनेही परो धर्म हरणे पातकं महत् ॥ तथाचोक्तम् ॥ सामान्योऽयं धर्म सेतुं नृपाणां काले काले पालनीयोभवद्भि । स्ववंशजेो वा परवंशजो वा रामावतः प्रार्थयते महीशाः ॥ ४३ ॥ कन्या मेकां गवामेकां भूमे रथ्यार्ध मङ्गुलम् ॥ हरन्नरक माप्नोति यावदा भूत संप्लवम् ॥ ४४ ॥ यानीह दत्तानि पुरा नरेन्द्रे धर्मार्थ कामादि यशस्कराणि । निर्मान्ति प्रति मानि तानि को नाम साधुः पुनराददीत ४५ ॥ बहुभि वसुधा भक्ता राजभिः सगरादिभिः । यस्य यस्य यदा भूमि तस्य तस्य तदा फलम् ॥ ४६ ॥ लिखितंमयामहासन्धिविग्रहिक श्रीशंकरेण स्वहस्तोऽयं श्रीत्रिलोचनपालस्य [ लाट नन्दिपुर खण्ड Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य वंशिका -1 लाटपति श्री त्रिलोचनपाल शासन पत्र । का. छायानुवाद। भगवान विनायक को नमस्कार । कल्याण-जय और अभ्युदय हो । भगवान देवाधि देव महादेव जिन के हाथों में- बाण, विणा, पद्य त्रिशूल खट्वान वरदान और भयकी प्रचूर शक्ति है-अन्यथा वे किस प्रकार दानवो से संसारकी रक्षा कर सकते है रक्षा करे ॥१॥ भगवान हरि जिनके हाथों में शंख चक्र गदा और पद्म और गलेमें कौस्तुभ मणीकी माला है और जो समस्त संसार के मानस पर निवास करते हैं उक्त त्रिदशाधिप रक्षा करें २ ॥ भगवान चतुरानन ब्रह्मा जिनके हाथों में कमण्डलु दण्ड और श्रुवा है जो अपनी जप मालिकाकी दानाओ के संचार क्रमसे मंत्रो का उच्चारण तथा स्वयं अज होते हुए भी संसारकी हित कामनासे मानवी सृष्ठिकी रचना करते हैं-रक्षा करें ३ ॥ किसी समय ब्रह्मा के संध्या करते समय सूर्याध प्रदान करने के लिये हाथके चुलुक में लिये हुए जल के दैत्यो के उपद्रव जन्य खेदात्मक रुप मन्दर के मन्थन से राज रत्नरूप पुरुष उत्पन्न हुआ ४॥ इस प्रकार भगवान ब्रह्मदेव के चुलुक से पैदा हुआ महा पुरुष ने हाथ जोड नमस्कार कर पूछा कि है देव मुझे क्या करनेकी आज्ञा होती है । इसपर ब्रह्माने अपने समादिष्ठार्थ अथात दैत्यो के उपद्रव समन को लक्ष कर आल्हादित हो आदेश दिया ५॥ हे चौलुक्य तुम सुखकी इच्छासे कान्यकुब्ज के राष्ट्रकूट वंशी महाराज की कन्या को प्राप्त करो और उससे यथेष्ट संतान तंतुका प्रसार करो। जिस प्रकार पर्वतसे निकली हुई नदिओं से पृथिवी परिपूर्ण है उसी प्रकार तुमसे उत्पन्न चौलुक्य बंशका संसार में विस्तार होगा ॥ ६॥७॥ उक्त चौलुङ्गय वंशमे अतुल कीर्ति, परस्त्रिों के संस्पर्ष भय से मीत बारपराज नामक राजा हुआ। जिसने संसार के शोक को दूर किया। ॥८॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट बन्दिपुर खण्ड . उक्त बारप राज ने लाट देशमे जाकर अपनि निति निपुणता और भुजबल से शत्रुओं का नाश कर प्रजा को आनंद वे राज कोशकी निरंतर वृद्धि की ॥ ६ ॥ ४५ उक्त विजयी. बाप राज का पुत्र पृथिवी का पालक गोरगि राज हुआ। जिससे अन्यान्य राजाओंने राजनितिक शिक्षा ग्रहण किया। उक्त गोरगिराज अपने वंशका प्रथम पृथिवी पालक हुआ और उसने अपने शत्रुओं के शिर पर पाद प्रहार किया ॥ १० ॥ पुनश्च गोरगिराज ने अपनी अधिकृता भूमि— जो बलवान दानव रुप बैरीओंसे माकान्त हुई थी का बाराह रूप विष्णु के समान उद्धार किया ॥ ११ ॥ जिस प्रकार भगवान अच्युत (कृष्ण) के सकाश से मदनने प्रदुम्न रूपसे अवतार लिया था उसी प्रकार गोरगिराज से प्रतिरूपवान कीर्तिराज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ । जिसने लाट देशका राज्य पाकर अपने सुन्दर कार्य रूप उज्वल कीर्ति के किरणों से दिशाओं को परिपूर्ण कर उज्वल बनाया ॥ १२ ॥ वंश तंतु में प्रोत चौलुक्य राजओं रूप मणिमाला के मध्य श्री कीर्तिराज नायकमारी अर्थात सुमेरु मणि के समान हुथा ॥ १३ ॥ कीर्तिराज के जन्म समय उसके मनोहर रूपको देख समस्त पुरजन और परिजन आनंदको प्राप्त हुए और जनता को उसके रूपकी प्रशंशा बारंबार करने परमी संतोष प्राप्त न होता था ॥ १४ ॥ इस प्रकार अलौकिक रूप पाने परमी वह परस्त्रियों का संसर्ग उच्छीष्ट अन्नके समान परित्याग करने वाला हुआ । १५ ।। /* उसके पाणीपादो में धर्म इस प्रकार आश्रित था जिस प्रकार मनुष्य के हृदय पर रत्नहार आश्रय पाता है । एवं श्रुति अर्थात वेद उसके मुखसे निश्रित होकर कपोल मार्ग से श्रवण रन्ध्र में प्रवेश करता था और उसका प्रवेश कर्णकुण्डलोंके कपाल पर संचार समान प्रतीत होता था ॥ १६ ॥ उसके गुणों से संतुष्ट हों धर्म महिधर के समान उसमें अचल रूप बनकर स्थित हुआ जिससे धर्मका उसमें सहज रूपसे चाश्रित अथात स्वाभाविक रूपसे स्थित होता प्रतीत होना था इस कारण धर्मकी अधिक वृद्धि हुई अन्यथा धर्मका वृद्धि प्राप्त करना कैसे संभव हो सकता है ॥ १७ ॥ ก इसमे अपने यौवन उमंगोम्म मनरूप बलवान गजेंद्र को संयम रूप अंकुश से वसीभूत किया था अतः मनके बसीभूत होकर शान्त होने पश्चात उसके सहाय बिना उसके इन्द्रियों को अपनी मर्यादा की सीमा का उलंघन करना असाध्य हो गया ॥ १८ ॥ वह अपनी सर्व व्यापक आत्मको भौतिक शरीर रूप व्यवधान से आच्छन्न होते हुएमी पकड मण्डल गगन के समान घटपट सर्व पदार्थों में प्रतिवाधित रूपसे व्याप्त मान अपनी लक्ष्मी का भजनो के बीच सदा निशंक होकर विभाग करता था । १६ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ चौलुक्य चंद्रिका ] उसके बाहुबलमें कोपगुरु अर्थात भगवान शंकर का वास था अतः उसने संग्राममें धनुष्यकी प्रत्यंचाको वक्षःस्थल पर्यन्त खीच शत्रुओं के अभिमानी शीरका छेदन किया ॥२०॥ ___ उसने भागते हुए शत्रुओं के पृष्ट प्रदेशमे बाण मार उनका हितविंतन किया क्योंकि उसके ऐसा करने पर शत्रुगण कृतार्थ हो फिर गये । अर्थात जब उसने भागते शत्रुके पृष्ट प्रदेश पर बाणमारा तो वे व्याकुल हो .फर कर पीछे देखने लगे और जब बाणा घात के कारण उनकी मुत्यु हुई. तो रणक्षेत्रके प्रति मुख करनेके कारण रणमें सन्मुख मरनेका फल अर्थात स्वर्ग प्राप्त हुआ। अतः उनका हित साधन किया अर्थात उन्हेस्वर्ग दिलाया ॥ २१ ॥ उसकी जो अविचार कीर्ति नामक. दयिता थी वह उसके संग्राममे जातेही अचानक दुसरे अर्थात शत्रुओंके घर चली गई ॥ जब शत्रुओं ने वापस करना चाहा तो वह अपने प्रतापी पतिके नगरको लोटते समय भय विमल हो उन्मादिनी बन सप्तसागरमें प्रवेश कर गई । परन्तु डूबने के स्थान में परं पवित्र बन और देवताओं से वन्दित हो बाहर निकली ॥२२॥ उसका अर्थात कीर्तिराज का पुत्र सर्व गुण सागर तथा अत्यन्त शूर और युद्धरूप महार्णवका मन्थन करने वाला प्रसिद्ध मन्दर पर्वत समान हुआ ॥ २३ ॥ ___यहां पर इस मूर्ति भवनमे बाल्य कालसे ही श्री कल्याण सम बन कर निवास करती है और शक्ति नवबधू के समान जहां पर अपने प्रिय के साथ आनन्द वर्धन करती हुई क्रीडा करती है। एवं वीरता अपने पतिके मनोभावको जानकर उसे विशेष रूपसे प्राप्त करती है और वत्सराज को विष्णु समान मान लक्ष्मी सापत्नी दाहको छोड निवास करती है ॥ २४॥ सारा संसार एक वस्त्रा से ढांका नहीं जासकता ऐसा मान किसी एक कोणा अर्थात स्थान का आश्रय लेना आवश्यक मान उसका आश्रय लिया तो उसने (वत्सराज) कीर्तिपटसे आच्छादन किया ॥२५॥ वत्सराज ने सोमनाथ महादेवको रत्नजडित सुवर्ण छत्र चढाया और दिन जनों के लिये एक अन्न सत्र बनाया ॥२७॥ __वत्सराज का पुत्र त्रिलोचनपाल हुआ जो कलियुग में पाण्डवों के समान लाट देशका भोग करने वाला हुआ ॥२८॥ त्रिलोचनपाल सत्यवादितामें युधिष्ठिर-नाश करने में वक्र और शौर्य में कृष्ण के समान है। जिसके बाण त्यागने अर्थात सन्धान करने पर भी धर्मा धर्म विवेचन करने लगते हैं ॥२६॥ . त्रिलोचनपालके वृद्ध शत्रुगण अत्यन्त भ्रममे पड़ गये थे। क्योंकि उसके मुखपर आनन्द चित्रित था कारण कि वह (गिलोचनपाल) आनन्द देने वाला था॥३०॥ रणक्षेत्र के भुषण रूप उसके शत्रुका शिर जब उसकी तलवारसे कट कर भूमि में गिर पडा और तो उनके शरीर निश्रित रुधिर प्रवाहसे प्रवाहित शरीर रक्त प्लावित हो चमक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( लाट नन्दिपुर खण्ड उठा उस समय सहसा उसके समस्त बन्धुगण उसके शौर्य से आतप्त हो अपने खग पूण हाथको उपर उठाये अर्थात उसकी त्रिलोचनपालकी आधिनता स्वीकार किये ॥ ३१ ॥ धर्मात्मा त्रिलोचनपालने त्रयलोक को नश्वर मान ब्राम्हणों को गायें-भूमि और सुवर्ण दान दिया ॥ ३२॥ शक ६७२ विकृत संवत्सर के पौष कृष्ण अमावास्या तिथि मंगलवारको-सूर्यग्रहण के समय पश्चिम समुद्र तट के अगस्त्य तीर्थ में जाकर ॥ ३३-३४॥ कुशिक गोत्री विश्वामित्र-देवरात और यादव नामक तीन प्रवर वाले माधव नामक भार्गव नाम्हण को नवशत मण्डलके द्विचत्वारी नामक धिलीष्वर पथकान्तवर्ती एरथान प्राम चतुराघाट युक्त समस्त आय के साथ त्रिलोचनपाल ने हाथमें जल लेकर दान दिया है ।। ३५-३६-३७ ॥ प्रदत्त ग्राम का दान क्रमागत पूर्वदत्त देव ब्राम्हण दाय वर्जित है। इस प्रदत्त प्रामकी पूर्व दिशा में नागम्बा और तन्तिका-आग्नेय दिशा में वटपद्रक याम्य दिशामें लिगंवट शिव-नैऋत्य दिशामें इन्दोत्थान- पश्चिम दिशा में बहुनदश्व-वायव्य दिशा में टेम्बरूक, सौम्य दिशामें तलपद्रंक और इशान दिशा में करूण प्रामादि आठ ग्राम हैं ॥३८-३९-४०॥ इन चारो आघाटो से आवेष्ठित समस्त प्रायों के साथ इस प्राम को-कथित द्विजवर माधव के-उपभोग में विकल्पना अर्थात बाधा न हो ॥४१॥ __ साधु समाज के किसी व्यक्तिको इसमें बाधा न करना चाहिए। यदि कोई बाध उपस्थित करेगा तो उसे पाप होगा ॥४२॥ पालनेमे पुन्य और अपहरणमे पातक होता है । कहा मी गया है ॥४३॥ श्री राम अपने तथा अन्य वशोभत भावी राजाओं से आदेश करते हैं कि राजाओं का यह सामान्य धर्म है कि वे अपने पूर्व भावी राजाओं चाहे वे अपने अथवा दुसरे वंशके ही क्यों न हो-उनके धर्मदायकी रक्षा करें ॥४४॥ कन्या गाय तथा अर्ध अंगुली भूमिका भी अपहरण करने वाला चंद्र सूर्य स्थिति पर्यन्त नर्कमें वास करता है ॥४॥ पूर्वभावी राजाओं के-धर्म अर्थ काम और मोक्षकी इच्छा वाले को-यशको फैलानेवाले धर्मदाय को निर्माल्यके समान मान कर उसका अपहरण कोइभी साधु व्यक्ति नहीं करता ॥४६|| सगरादि बहुतसे राजाओं ने इस वसुधाका भोग किया है किन्तु भूमिदानका फल उसको ही होता है जिसके अधिकारमें जब वसुधा होती है ॥ ४ ॥ महासन्धि विप्रहिक शंकरने लिखा । हस्ताक्षर श्री त्रिलोचनपाल । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] लाटपति त्रिलोचनपाल शासन पत्र । विवेचन. प्रस्तुत लेख लाट देशके प्रख्यात नगर सूरत के एक कंसारा के पाससे श्री एच. एच. ध्रुव को निर्भय राम मनसुखराम के द्वारा प्राप्त हुआ था। जिसका प्रकाशन ध्रुव महोदयने इन्डीयन ऐन्टिक्वेरी वोल्युम १२ में किया था। कथित लेख लाट नंदिपुर पति चौलुक्यराज त्रिलोचनपीला कृत दानका प्रमाण पत्र है। यह तांबेके तीन पटॉपर उत्कीर्ण है। तीनों पटी के मध्य में दो छिद्र बनें हैं। उक्त छिंद्रों में कड़ियां लगी हैं। राजमुद्रा में राजवंशको राज्यचिन्हें मैंगवान शंकरको मूति बनाई गई है। लेखकी लिपी देव नागरी और भाषा संस्कृत है। प्रथम पंक्ति और मध्यकी पंक्ति का कुछ अंश और अंतकी पंक्ति गद्य और शेष लेख पचमें है। लेखके पद्य विविध वृत्तों के छंद हैं। लेखकी तिथि पौष कृष्ण अमावास्या विकृत संवत्सर और शक वर्ष ९७२ है। लेखका लेखक महा संधिविग्रहिक शंकर है। लेखका प्रारंभ " नमः विनायकाय" से किया गया है । इसके पश्चात दूसरा बाक्य "स्वस्ति जयोऽभ्यदयश्च" है। इसके बाद लेखकी कविता का प्रारंभ होता है। प्रथम भावी तीन पद मंगलाचरण युक्त हैं। चार से सात पर्यन्त चार श्लोक चौलुक्य वंशको उत्पत्ति वर्णन करते हैं। ८ और ६ श्लोक राज्यवंश संस्थापक वारप देवके गुणगान करते हैं। पंचात श्लोक १० और ११ गोरगिराज का, १२-२२ कीर्तिराजकी, २३-२६ वत्सराज का और २७-३० दान कर्ता त्रिलोचनपालके शौर्य आदि का वर्णन करते हैं। . . . . . . . . श्लोक ३१ शासन कर्ता त्रिलोचनपालके विविध दानोंका, ३२-३३ शासन पत्र की तिथि तथा प्रदत्तग्राम और स्थानादि का अभिगुण्ठन करते हैं। ३४-४० श्लोकों में दान प्रतिग्रहीता ब्राह्मण और प्रदत्त प्रामकी सीमादि का विवरण है। अन्ततोगत्वा श्लोक ४१-४६ भूदानका महत्व, पालन का फल और अपहरणका प्रायश्चित आदि बताता है लिखके अन्तमें शासनकर्ता त्रिलोचनपाल का हस्ताक्षर "स्व हस्तो श्री त्रिलोचनपालस्य रूपसे दिया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड लेखका साधारण रूपेण भावार्थ देनेके पश्चात हम इसके विवेचन में प्रवृत्त होते हैं। और सर्व प्रथम लेख कथित चौलुक्य वंशकी उत्पत्तिको हस्तगत करते हैं । वंशावली are करने वाले कथित लोकों से प्रयट होता है कि भगवान ब्रह्मा के चुलुक रूप समुद्र में उनके हृदय में दैत्यों के उपद्रव जन्य खेदात्मक मंदरके मथन से राजरत्नोंका मूल पुरुष उत्पन्न हुआ । उसनें उत्पन्न होते ही नमन कर ब्रह्मासे पूछा कि हे भगवान हम क्या करें। उसकी विनम्र वाणी सुनकर ब्रह्माने आदेश दिया कि हे चौलुक्य राष्ट्रकूट वंशी कान्यकुब्ज नरेशकी कन्या को प्राप्त कर - संतान उत्पन्न कर । चौलुक्य वंश जिस प्रकार पर्वत से निकली हुई नदिओं से पृथिवी परिपूर्ण है उसी प्रकार संसार में व्याप्त होगा" । चौलुक्य चंद्रिका aa aush प्राक्कथन नामक शीर्षकके अन्तर्गत चौलुक्य वंश की उत्पत्ति आदि का हमने पूर्ण रूपेण विवेचन किया है । और अकाट्य रूपेण सिद्ध किया है कि प्रस्तुत लेखके कवि शंकर और उसके कुछ परकाल में होने वाले वातापि कल्याण के चौलुक्य राज विक्रमादित्य छठे के राज्य पण्डित बिल्हण एवं पाटणके चौलुक्यों के इतिहास लेखक जैन पण्डित गरण में से किसीको चैलुक्यों के वास्तविक वंशवृत्तका ज्ञान नहीं था । उन्हों ने अपनी अज्ञानता अथवा निरंकुश कल्पनाभावी भावुकता के कारण चौलुक्य पदके यौगिक अर्थको लक्ष बना अभूतपूर्व कल्पना की है । अतः यहां पर पुनः विवेचन में प्रवृत्त होना पिष्ट पेषण और समयका दुरुपयोग मान आगे बढते हैं। आशा है पाठक हमें क्षमा करेंगे और विशेष बातों को जानने के लिये उक्त स्थानको अवलोकन करने के लिये कष्ट उठावेंगे । ४६ हम ऊपर बता चुके हैं कि प्रशस्ति के ८ से ६१ पयन्त में त्रिलोचनकी वंशावली और वंशावली गत पुरुषोंका कुछ ऐतिहासिक विवरण अलंकार के आवरण से ढक दिया गया है । इन श्लोकों के पर्यालोचन से वंशावली में वारपराज, गोरगिराज, कीर्तिराज वत्सराज और त्रिलोचनापाल आदि पांच नाम पाये जाते हैं । परन्तु त्रिलोचनपालके दादा और लाट देश प्राप्त करनेवाले वारपराज के पौत्र कीर्तिराजके शक ६४२ के शासन में वंशावली का प्रारंभ वारप के पिता निम्बारकसे किया गया है। अतः दोनों शासन पत्रोंके तारतम्य से निम्न वंशावली त्रिलोचनपाल पर्यन्त होती हों निम्बा र क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat वार पराज गोरगि राज | कीर्तिराज वत्स राज T त्रिलोचन पाल www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका वंशावली का विशुद्ध स्वरूप करने पश्चात हम प्रशस्ति कथित विवरण के विवेचन में प्रवृत्त होते हैं प्रशस्ति के श्लोक ८ और से प्रकट होता है कि वारपराजने अपनी नीति निपुणता तथा सुप्रबंध से लाट देश प्राप्त किया और वहां जाकर शत्रुओंका नाश कर प्रजाका मनोरंजन करता हुआ कोषकी वृद्धि किया। इससे स्पष्ट है कि वारपराज ने लाट देश अपने भुजबल प्रतापसे नहीं प्राप्त किया था और न वह अपनी इच्छासे लाट देशमें आया था वरन वह किसीके आधीन और किसी देश विशेष का शासक था। उसके स्वामी ने उसके सुप्रबंध आदि से प्रसन्न हो उसे लाट देश का शासन भार दिया। जहां जाकर वारपने अपने स्वामी के शत्रुओं का नाश किया और सुन्दर शासन द्वारा लाट देशकी प्रजाको प्रसन्न करता हुआ राज्य कोषकी वृद्धि संपादन किया। अतः विचारना है कि वारपका स्वामी कौन था जिसने उसको लाट देशका सामन्त शासक बनाया और वारप ने अपने स्वामी के किस शत्रुका नाश किया । कीर्तिराज के कथित शासन पत्र शक ६४२ वाले के विवेचन में वारपदेव क स्वामी और सामन्त बनाने वालेका नामादि प्रकट कर चुके हैं एवं यह भी बता चुके हैं कि लाट देशका शत्रु कौन था अतः यहां पर उसका पुनः विचार करना अनावश्यक मान आगे बढ़ते हैं। और सर्व प्रथम प्रशस्ति कारकी चाटुकता संबंध में कुछ विचार करते है। प्रशस्तिकारने वारप राज को लाट देशका राज्य देनेवालेका नाम छिपाना जिस प्रकार उचित प्रतीत हुआ उसी प्रकार वारप को परास्त करनेवालेका भूल जाना युक्ति संगत प्रतीत हुआ। परन्तु प्रशस्तिकार हमारी समझमें अपने इन दोनों प्रयत्नों में विफलमनोरथ हुआ है। क्योंकि उसने वारपराजको अपनी निपुणता तथा सुप्रबंध के कारण लाट देश प्राप्त करना लिखा है। यदि वह ऐसा न लिख कर स्पष्टतया लिख देता कि वारपने अपने भुजबलसे लाटदेश प्राप्त किया तो वह अपने प्रयत्न में सफल होता । उसी प्रकार प्रशस्तिकार वापराजके पुत्र और उत्तराधिकारी का वर्णन करते समय अपने छिपाए हुए भावका भण्डा फोर करता है । प्रशस्तिकार लिखता है कि "गोरगिराज स्ववंशका भवन हुआ । इसने भगवान वाराह रूप किष्णु के समान शत्रु रूप समुद्र जलसे प्लावित लाटदेशका उद्धार किया" । इससे स्पष्ट है कि गौरगिराज के राज्यारोहण समय के पूर्वहो लाटके कुछ अंश पर शत्रुओं ने अधिकार कर लिया था। जिसको इसने अपने भुजबलसे उद्धार किया। पाटण के चौलुक्यों के इतिहास से हमें विदित है कि वारप को लाट देश प्राप्त करनेके पश्चात् अपने जीवन पर्यन्त मूलराज और उसके पुत्र चामुण्डराज से लड़ना पड़ा था। और अन्तमें वारप चामुण्डके हाथ से मारा गया था । एवं उसके मरने के पश्चात लाट देशके कुछ भाग पर पाटणवालोंका अधिकार हो गया था । जिसका उद्धार गोरगिराज ने किया। अन्ततोगत्वा प्रशस्तिकारने वाराहकी उपमाद्वारा अवान्तर रूपसे वारपके स्वामी वातापिके चौलुक्य राज तैलपदेव द्वितीयका संकेत कर दिया है। जिसको छिपानेका प्रयत्न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ [लाट नन्दिपुर खण्ड प्रथम किया था क्यों कि वाराह लांछन वातापिवालोंका था । पुनश्च इससे यह भी प्रकट होता हैं कि गोरगिराज वारपके मारे जाने के समय लाट देशमें उपस्थित नहीं था। परन्तु उसकी मृत्युका संवाद पाकर वातपिकी वाराह ध्वजकी छत्रछाया में सेना लेकर युद्धमें प्रवृत्त हो लाट देशकी अपहृत भूमि का उद्धार किया था। गोरगिराजसे संबंध रखनेवाले प्रशस्तिके कथनका पूर्ण रूपेण विवेचन हो चुका। अतः गोरगिराज के पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिराजसे संबंध रखनेवाले कथनका विचार करें तो असंगत न होगा । परन्तु ऐसा न कर गोरगिराजसे संबंध रखनेवाली अन्यान्य बातोंका विचार करते हैं। चांदोदमें द्वारावतिसे आकर शक संवत ७७२ में यादवों ने एक छोटेराज्यकी स्थापना की थी। इस वंशके सेवुनचंद्र द्वितीयका शासन पत्र शक ६६१ का हमें प्राप्त है । उक्त शासन पाके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि सेवुनचंद्र द्वितीयके पूर्वज तेसुकने गोरगिराजकी कन्या नयीयालासे विवाह किया था। हमारी समझमें यह विवाह राजनैतिक दृष्टिसे हुआ था । क्यों कि इस विवाह द्वारा गोरगिराज तथा उसके वंशजों को अपना बल बढानेका अवसर प्राप्त हुआ। क्योंकि आगे चलकर देखनेमें आता है कि गोरगिराजका दौहित्र भिल्लम वातापि पति चौलुक्यराज आहवमल से लड़ा था। किन्तु बड़े शोककी बात है कि प्रशस्ति कारने काल्पनिक उपमाओं के अभिगुण्ठन करने में तो कविताओंकी भरमार किया है परन्तु इस महत्व पूर्ण घटना । वर्णन अनावश्यकमान छोड़ दिया है। आगे चलकर प्रशस्ति गोरगिराजके पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिराजके संबंधों चाटुकताका अंत कर देती है। प्रशस्ति इसे रूपमें कामदेव-चौलुक्यवंशी राजारूप मालामें सुमेरु मणि-जितेन्द्रिय-परंधार्मिक वेदज्ञ-उदार-वीरशिरोमणि-विजेता और अपनी उज्जवल कीर्ति से सूर्य समान दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला बताती है । परन्तु कीर्तिराजके सबसे उत्तम महत्व को उदरस्थ कर जाती है। हमारे पाठकों को मालूम है कि कीर्तिराज नंदिपुरके चौलुक्यों में प्रथम था जिसने वातापिके आधीनता थूपको फेंककर राजापदको धारण किया था। और इसके इस कार्य में उसका फुफेराभाई चांदोदका यादव राजा भिल्लम सहायक हुआ था। पुनश्च प्रशस्ति कीर्तिराजका शत्रुओं पर विजय पाना वर्णन करती है, परन्तु उक्त शत्रु कौन था इत्यादि के संबंध में मौनालंबन करती है। क्या प्रशस्ति अपने इस संकेत द्वारा वातापिवालों का उल्लेख नहीं करती है। संभव है कि वातापि वालेही हों क्यों कि जब कीर्तिराजने उनकी आधीनताका परित्याग कर स्वतंत्रताकी घोषणा किया होगा तो वे अवश्य उसे स्वाधीन करने के लिये प्रयत्नशील हुए होंगे। परन्तु वातापिका इतिहास इस संबंधमें चुप है। किन्तु मालवा धर के परमारों के इतिहास से हमें ज्ञात है कि उन्होंने चिरकालके विग्रह के पश्चात वातापि वाले जयसिंह का रणक्षेत्रमें वध कर विजय पाया था। जिसके प्रतिहारके लिये आहवमलने मालवा पर आक्रमण किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ५२ हमारी समझमें वातापि वालों के मालवावालों से पराभव समय उनकी निर्बलताका लाभ उठा कर अपने निकट संबंधियों चांदोदके यादवों और स्थानक के शिल्हरोंकी सहायता से कीर्तिराज स्वतंत्र बन गया । अतः हम प्रशति कथित उक्त संकेतको वातापिवालोंका द्योतक नहीं मान सकते । प्रशस्ति सांकेतिक शत्रु जब वातापिवाले नहीं हैं तो वैसी दशामें कथित शत्रु कौन हो सकता है । पाटण के चौलुक्योंके इतिहाससे प्रकट होता है कि पाटणपति चौलुक्यराज दुर्लभराजने लाट देशपर विजय पाया था । दुर्लभराज के इस लाट देशके विजयका उल्लेख कुमारपाल भूपाल चरित्र में है और उससे प्रकट होता है कि दुर्लभराजने लाट नाथको मार कर उसके राज्य चिन्हको धारण किया था ! इसका समर्थन कुमारपाल के बड़नगर की प्रशस्तिके वाक्य: 66 यस्य क्रोध पराङ्गवस्य किमपि भूवल्लरी भंगुरा । सौ दर्शयतिस्मलाट वसुधा भंग स्वरूपं फलं ॥ "3 से समर्थन होता है । अतः हम कह सकते हैं कि संभवतः इस युधका प्रशस्तिमें संकेत किया गया हो, किन्तु हम ऐसाभी नहीं मान सकते, क्योंकि संकेतमें कीर्तिराजका बिजयी होना प्रकट किया गया है। यदि इसका संकेत प्रशस्तिकार करता तो अपने स्वभाव वशात वह लाट देशपर आपत्तिका आना वर्णन करता । ऐसी दशामें हम कह सकते हैं कि उक्त संकेत वातापीवालों पर विजय पानेका संकेत करता है। और प्रशस्तिकारने कीर्तिराज के पराभवको - जिसमें उसको अपने दादा वारपराज के समान - प्राण गमाने पड़े थे - को पूर्ण रूपेण उदरस्थ कर लिया है। कीर्तिराजके उत्तराधिकारी और वत्सराज के संबंध में प्रशस्तिकार केवल इतनाही लिखता है कि उसने सोमनाथ महादेव के मन्दिरमें रत्नजड़ित सुवर्ण छत्र चढ़ाया था । और अनाथों के लिये अन्नसत्र बनवाया था। इसके अतिरिक्त उसके संबंध में प्रशस्तिसे कुछभी प्रकट नहीं होता । पुनश्च यहभी नहीं प्रगट होता कि सोमनाथ मन्दिर सौराष्ट्रका मन्दिर है अथवा कोई अन्य मन्दिर | और यदि उक्त मन्दिर सौराष्ट्रका मन्दिर सोमनाथ है तो क्या वत्सराज वहां स्वयं गया अथवा किसीके द्वारा उक्त रत्नजडित सुवर्ण छत्रको भिजवा दिया था । अथवा नर्मदा समुद्र संगम के समीपवर्ती अम्मलेठा ग्रामवाला सोमनाथ मन्दिर है । हमारी समझमें सौराष्ट्रका सोमनाथ मन्दिर न होकर नर्मदा समुद्र के निकटवर्ती अंम्मलेठा ग्रामकाही सोमनाथ मन्दिर है क्यों कि यह स्थान पवित्र माना जाता था और नंदिपुरके चौलुक्यों के राज्यमें था भी । अन्ततोगत्वा प्रशस्ति वत्सराज के पुत्र और उत्तराधिकारी शासन कर्ता त्रिलोचनपालका वर्णन करती है और उसे धर्मराज युधिष्ठिर के समान सत्यवादी और भगवान कृष्ण के समान शौर्यशाली और विजयी बताती है। एवं उसे अनेक प्रकारके दानादिका करनेवाला प्रकट करती है। प्रशस्तिसे प्रगट होता है कि त्रिचोचनपालने अगस्ततीर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट नन्दिपुर खण्ड में समुद्र स्नान करके करित एरथाण ग्राम दान दिया था । प्रदत्त ग्राम एरथान के अष्ट सीमावर्ती ग्रामोंका नाम नागम्बा, तन्तिका, बटपद्रक, लिङ्गवट शिव, इन्द्रोत्थान बहुणादश्वा, टेम्बरुक, तलपद्रक और करुण ग्राम है। प्रदत्त ग्रामके विषय का नाम धीलिश्वर है अब विचारना है अगस्त तीर्थ और धीलिश्वर विषयका प्रदत्त ग्राम एरथाण तथा उसके सीमावर्ती कथित आठ ग्रामों का संप्रति अस्तित्व पाया जाता है या नहीं। मि० ध्रुव इन्डीयन एन्टिक्वेरी वोल्युम १२ पृष २०१-३ में इसके परिचय संबंधमें लिखते हैं। “ERTHAN ", the village granted is situated in the Olpad Taluka of the Surat District. Five Kosh from Erthan is the place called Karanj Pardi. Near Karanj Pardi there is a Hillock called Mahellaruno Tekro, and a tradition there goes that it was a place of resort of the Padshahs of old in the Padshahi Time. It contained once a Palacial Building which was a place of Takhat, meaning thereby the Metropolish of the country. At about a Kosh and a half from Karanj Pardi is Bhagwa Dandi. And they are separated by a creek running in land. Nagamba is Nagda, Vadantha is lying to the South-East of Erthan. Lingvatis Lingoda or Nagda in the South of Erthan or it may be Lingtharja in the Chorasi Taluka, belonging to the Sachin State. Shiv is Shiv still. Can. Indothan be modern Earthan P Timbaruk is Taloda or Talda to the south of Erthan. The other places cannot be identified." "प्रदत्त ग्राम एरथाण सूरत जिला के अलपाड तालुका में है। एरथाणसे पांच कोषकी दूरी पर करंजपारडी है । करंजपारडी के समीप महेलारना टेकरा नामक एक टीला है । स्थानिक परं परा प्रगट करती है कि बाहशाही जमाने में उक्त टैकरा बादशाहों का अरामस्थान था । वहां पर राजकी राज्यथानी थी। आजभी पुरातन भवनोंका अवशेष वहां पाया जाता है । करंजसे देढ कोषकी दूरी पर भगवा दांडी नामक दो प्राम हैं। जिनको एक समुद्रकी छोर (क्रक) विभाजित करती है । नागम्बा वर्तमान नागडावारंथा है। यह ग्राम एरथान के दक्षिणमें अब स्थित है । परन्तु संप्रति ऊजड़ है। वटपद्रक वर्तमान बडोदा है। जो एरथाण के दक्षिण पूर्व में भवस्थित है। लिंगोदा संभवतः एरथाण से दक्षिण अवस्थित लिंगोदा या नगदा है। यह भी संभव है कि प्रशस्ति कथित लिंगवट चौरासी तालुकाके अन्तर्गत सचीन राज्यके आधीन लिंगथराजा नामक ग्राम हो शिव वर्तमान शिवा है। क्या प्रशस्ति का इद्रोत्थान आधुनिक एरथाण हो सकता है। टेम्बरुक एरथाण से दक्षिणवाला तलोदा है। इसके अतिरिक्त प्रशस्ति कथित अन्य प्रामोंका कुछ भी परिचय नहीं मिलता। ध्रुव महोदय के इस कथनसे एस्थाण ग्राम सूरत जिला के ओलपाड तालुका अन्तर्गत वर्तमान एरथाण सिद्ध होता है । परन्तु इनके कथनमें कितनी बातें ऐसी हैं कि इनके कथनको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] माननेकी प्रवृत्ति हमारी नहीं होती। सबसे बड़ी बात तो यह है कि एरथाणकी अष्ट सीमाओं वर्ती ग्रामों का अवस्थान का इन के कथनसे विरोध पड़ता है। क्योंकि इनके कथनानुसार एरथाण की चारो तरफ वाले ग्रामों में से अधिकतर दक्षिणमें पाये जाते हैं। इनके कथनानुसार एरथाण के चतुर्दिक वाले ग्रामोंका सीमाचक्र निम्न प्रकारसे है। चक्र १. उत्तर वायव्य इशान HIR एरथाण ke दक्षिण नागम्बा वटपद्रक बड़ोदा (नागड़ा) लिंगवट (लिंगोदा या नगदा) शिवा (शिव) टेम्बरुक (नलोदा) परन्तु प्रशस्ति अष्ट सीमावर्ती ग्रामोंका अवस्थान निम्न प्रकारसे बताती है । प्रशस्ति के कथित सीमाचक्र. निम्न प्रकारसे हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड चक्र २. In टेम्बरूक उत्तर इशान वायव्य वटुनाद पश्चिम नागम्बा और नंतिक एरथाण ऋत्य दक्षिण इन्द्रोत्थान वटपद्रक लिंगवटशिव दोनों सीमाचक्रोंपर दृष्टिपात करतेही ध्रुव महोदय के कथनकी अनर्गलता अपने आप प्रकट हो जाती है। अतः इसके संबंध में कुछभी कहनेकी आवश्यकता नहीं है। ध्रुव महोहय लिंगवटको सचीन राज्यका लिंगथरजा बताते हैं। अब यदि हम लिंगवटको लिंगथरजा मानें तो यह मानना पड़ेगा कि प्रशस्ति कारने एरथाणकी चतुःसीमाका वर्णन करते समय उसकी सीमा पर २०-२५ मील की दूरी पर होने वाले ग्रामोंको बताया है। ऐसा विचार करना भी हास्यास्पद है। परन्तु ध्रुव महोदयने क्यों ऐसा लिख दिया है यह हमारी समझ में नहीं आता । परन्तु उनके लेखके पर्यालोचनसे हमारी यह धारणा होती है कि उन्होंने लेख लिखते समय मानचित्रका विबेचन नहीं किया था। वरना वह कदापि ऐसा न लिखते। हमारी समझमें उनके लेखकी पूर्ण रूपसे अनर्गलता प्रकट करने के लिये वर्तमान एरथाण की सीमा पर होने वाले ग्रामोंका सीमाचक्र देना असंगत न होगा। वर्तमान एरथाण का सीमाचक्र निम्न प्रकार से है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका : चक्र ३. कद्रण पदा जादादा उत्तर belle काम्भ kh एरथाण शिवानदी सरसना मीठ दक्षिण शिवानदी और टकरया आशा है वर्तमान सीमाचक और ध्रुव महोदय कथित सीमाचक्रकी तुलना से हमारे पाठकों को हमारी बातोंमें कुछभी शंका करनेको अवकाश न मिलेगा। एवं हम देखते हैं कि ध्रुव महोदय ने संभवतः प्रशस्ति के ऊपर पूर्ण विचार भी नहीं किया है। क्योंकि वे एरथाण के दक्षिणमं शिवा नदीका होना प्रकट करते हैं । उनके इस कथनका वर्त मान एरथाणकी दक्षिण सीमा में अवस्थित शिवा नदीसे तारतम्यमी मिल जाता है। परन्तु चाहे उनकेकथनका वर्तमान एरथाण की दक्षिण सीमा पर अवस्थित शिवा नदी से तारतम्यमी मिल जाय तो भी उनके कथनको स्वीकार नहीं कर सकते। क्योंकि प्रशस्ति में शिवा नदी का उल्लेख नहीं । संभवतः ध्रुव महोदय ने प्रशस्ति के वाक्य " याम्यां लिङ्गवटः शिवः ” के शिव शब्दों को शिवा नदी मान लिया है। किन्तु यह उनकी भारी भूल है। क्योंकि यहांपर “लिङ्गवटः शिवः” वाक्य में शिवा नदी नहीं परन्तु शिवः पद है। इससे स्पष्ट है कि प्रशस्तिकार लिङ्गवट नामक शिवका उल्लेख करता है। पुनश्च उसे यदि शिवा नदी का संकेत करना होता तो "शिवः” न लिख “शिवा” लिखता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाद नन्दिपुर साह ध्रव. महोदय द्वारा निश्चित अवस्थान को अस्वीकृत करने पश्चात. प्रश्न उपसिना होता है कि एरथाण तथा उसके सीमावर्ती ग्रामो का संप्रति. अस्तित्व क्या नहीं है। इस प्रश्नका उत्तर देने के पूर्व हमें मानचित्रका पयालोचन करना होगा. टोपोग्राफिकल मैप्स, शीट नां. ३७. पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि बडे दा राज्य के नवसारी मण्डल, तालुका पलशाणा के. अन्तर्गत एरथाण नामक एक ग्राम है। उक्त ग्राम बी. बी. सी. आइ. रेल्वे के टी. वी. सेक्शन के चलथाण नामक स्टेशन से लगभग.. चारमील की दूरी पर हैं। कथित एरथाण के चतुस्सीमावर्ती ग्राम का सीमा चक्र निम्न प्रकार से है। चक्र ४. तलोदरा (तलपद्रक) उत्तर हिबरुक (टिबखा) वायव्य शान वाणोद) वाणाद (वाणो एरथारण नागदा अ.र तन्तिका तन्तिका) वल्यान (इन्द्रोस्थान बड़दला ट) ( (2 ) - उद्धृत चक्र पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि प्रशस्ति कथित एरमाणकी सीमाका, वर्तमान एरथापकी सीमासे अधिकांशमें तारतम्य मिलता है। उत्तरभावी तलाक का ; तळोदरा, वामन्यभावी टिम्बरुक का टिम्बस्वा, पश्चिमभावी बहुणावश्याका बाणा नैऋत्यभाषी इन्द्रोत्थान का वलक्षण, दक्षिण भावी लिावट का लिजसकईसानभागी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका) ५८ करुण का करण रूप परिवर्तित हुआ है। इस रूप परिवर्तनकी क्रिया में किसि प्रकारकी आशंका का समावेश नहीं हो सकता। हां पूर्व और आग्नेय दिशावर्ती ग्रामों के वर्तमान परिचय संबंध में हम सशंक हैं । तथापि आठ सीमावर्ती ग्रामों में से 2 का निश्चय ज्ञान होने पश्चात हम निःशंक हो कर कह सकते हैं कि प्रशस्ति कथित एरथाण ध्रुव महोदय कथित ओलपाड तालुकावाला एरथाण न होकर बडोदा राज्य के नवसारी प्रान्त के तालुका पलशाणा का एरथारण ग्राम है। हमारी समझमें प्रशस्ति कथित सब वातों का विवेचन हो चुका । अतः यदि हम इतने ही से अलं करें तो असंगत न होगा तथापि ध्रुव महोहय के पूर्व अवतरित कथन में एक बात ऐसी है जिसके संबंध में कुछ कहे बिना विवेचन को समाप्त करने का साहस हम नहीं कर सकते । ध्रुव महोदय ने अपने कथनमें महलेरुना टेकरा का उल्लेख कर अपनी पूर्व कथित संभावनाका समर्थन करनेका प्रयास किया है। और उद्धृत अवतरण के पूर्व शासन कता के वंशकी राज्यधानी संबंधमें लिखते हैं। "Trilochanpal bathes in the western Sea at the Port of Agast Tirth and makes the grant from which I conclude that it or some place near it was most probably the Capital of the Monarch." "त्रिलोचन पश्चिम समुद्र तटवर्ती अगस्ततीर्थ में स्नान कर दान देता है। इससे हम परिणाम पर पहुंचते हैं कि कदाचित अगस्त तीर्थ अथवा उसके समीपवर्ती कोई ग्राममे इस राजा की राज्यधानी थी।" अब यदि ध्रुव महोदय के कथनको, महेल्लेरुना टेकरा वाले कथनके साथ मिलाकर पढ़ें तो उनके आन्तरिक भावका परिचय अनायासही मिल जाता है। अन्यथा महेल्लेरुना टेकरा का उल्लेख कथित विवरण में अप्रासंगिक तथा 'सिन्दूर बिन्दु विधवा ललाटे' विधवा के ललाटमें सिन्दूर की टीका के समान असंगत प्रतीत होता है। हमें खेदके साथ कहना पड़ता है कि त्रिलोचनपालके पूबजोंके इतिहासको ध्रुव महोदयने पूर्ण रूपेण पटतर किया है। अन्यथा वे इनकी राज्यघानीको भगवा दांडी या उसके समीपवर्ती महेल्लुरुना टेकरा में निर्धारित करनेका दुःसाहस न करते। हां हम यह अस्वीकार नहीं कर सकते कि इनकी राज्यधानीके संबंधमें विद्वानोमें घोर मतभेद नहीं है। परन्तुं उक्त मतभेद कुछभी महत्व नहीं रखता क्यों कि राज्यधानीका नाम नन्दिपुर सर्वमान्य है। यदि मतभेद है तो वह यह है कि नन्दिपुर भरुच नगरका उपनगर अथवा राजपीपला स्टेटका नादोद है। परन्तु हमारी प्रवृती भरुच के उपनगरको नंदिपुर माननेके स्थानमें राजापीपलाके नादेोदके : नंदिपुर मानने के प्रति अधिक झुकती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड, लाटपति चौलुक्यराज त्रिविक्रमपाल ५६ का शासन पत्र ९ ॥ ॐ स्वति जयोऽभ्युदयश्च ॥ भगवते चंद्र चूड गंगाधर शिति कण्ठ भुजङ्गगमाली व्याघ्राम्बर धारी त्रिशूलपाणये नमः॥ स्वति संवत्सरशतेषु नवसु नवति नवाधिकंषु शक कालातीतेषु श्रावण शिते षष्ठ्यां यथा तिथि पक्ष मास संवत्सरेषु समस्त राजावली समलङ्कृत मधेह नान्दिपुरे श्री मन्निम्बार्क कुल कमल दिवाकर देव सेनानी समतोपलब्धानिपति श्री वारपदेव स्नरपदापुध्यात सारस्वातीय पाटन महोदधि मन्थन मन्दर मेरु कर कृपाण बलाप्त वसुधाधिपत्यं श्रीमन्महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री गोर्गिर/ज देव स्तत्पादानुध्यात श्रीमन्महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक कीर्तिचंद्रदेव स्तत्पादानुध्यात् श्रीमन्महाराज परमेश्वर परम भट्टारक वत्सराजदेव स्तनपादानुध्यात श्रीमन्महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक त्रिभुवनपाल देवात्मजः कर्ण कुमुदाङकुर तुषारोऽपि चौलुक्याब्धि विवर्धनेन्दु श्रीमन्महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक त्रिविक्रमपालदेवः समस्त राज पुरुष ब्राह्मणेतरा जनपदांश्च प्रतिबोधयत्यस्तु सुविदितमवः नूतन जलद पट सम पाटाम्बराच्छादिते वसुधरे स्वपितृव्य श्रीमन्महाराज जगत्पाल भुजाघात संचारित वायु विताडित शत्रु मेघान्धकार विनिर्मुक्ते नागसारिका मण्डले स्त्रभुज बलार्णवे वाट पद्रक विषये वैश्वामित्री तटे दानवानी निमज्जिते ब्राह्मणेभ्यः स्वास्तिक मंत्रोच्चारेण समाहते पुरजनै हर्षातिरेक मर्यादा विस्मृत सावृते वल्लभीस्थिता पुरवधू प्रेक्षित पुष्पधारा निमज्जिते परिपूर्ण जल पल्लवाच्छुदिते कनक कुम्भ सिर स्थापितो दाहार्या छत कोकिल रव मंगल गान शब्दाश्रव पूर्ण कर्णकूटरे मेरी शंख मृदंग ताल भंकर रवपूर्ण दिगन्तले चैतादृशे परिवृते जनन्या लचिते रेवायां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौलुक्य चंद्रिका ] स्मात्या भूदेवान्विविध दानेन संतुष्य पितृव्य वारितऽपिपैतृव्य श्रीमन्महाराज पन देवं नागसारिका मण्डलपति पञ्चशत ग्राम विषयाष्टाग्रामे सामन्त्याधिपत्ये संस्थापितश्चति । ब्रह्मावर्तान्तर्गत पाञ्चाल जन पदस्य काम्पिल्य नगर विनिर्गतवेद वेदान्त सकल सच्छास्त्र निष्णात सम दम उपरति तितिक्षादि साधन चतुष्टय संपन्न जप तप स्वाध्यायाग्निहोत्र निरत गौतम सगोत्र पंच प्रवराध्वर्यु कारवशाखाध्यायी ब्रह्मदेव शर्मणा प्रचोदितः । जगत्गुरु भवामि पतिं समभ्यर्च्य संसारस्या सारतां मनुवीक्ष्येति जगतो विनिश्वर स्वरूप माकल्य शुक्लतीर्थे स्वपितामहेन संस्थापित सत्रे स्वापता निर्मिता पाटशालाया पंचशत विद्यार्थीणां भोजनादि निर्वाहार्थ नन्दिपुर विषयान्तर्गत हरिपुर ग्रामोऽयं स्वलीमा तृणगोचर कृति पर्यन्तं सहिरण्य भाग भोग सपरिकर सर्वादायः समेत श्चास्माभिः प्रवत्तः। सामान्यं चेतत् पुण्य फलं ज्ञात्वाऽस्मद्वंशजै रन्यै रपि भाषिभोक्तृभि स्स्मत्यदत्त धर्मदायोऽय मनु मन्तव्या पालितव्य व । उक्तं च। बहुभि वसुधा भुक्ता राजभि स्सगरादिभिः । यस्य यस्व यदा भूमि स्तस्य तस्य तदा फलं ॥ षष्टि वर्ष सहस्त्राणिस्वर्गे मोदति भूमिदः । भाच्छेता चानुमंतांच तान्येव नरके वसेत। दूतकोऽत्र महादण्डाधिपति भीमराजा। लिखित मिदं भूदेवेन सुवर्णकार विजय सुत अखटेनोत्कीर्णम् । इति स्वहस्तीयं श्री विधिक्रमपालस्य। - - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड लाटपति चौलुक्यराज त्रिविक्रमपाल शासन पत्रका छायानुवाद । कल्याण हो । जय और अभ्युदय हो । भगवान जिनके ललाटपर चंद्र विराजमान, जिनने गंगाको अपनी जटाओमें अटका रखा-जिनका कण्ठ नीला- जिनके गलेमें भाग माला और कटिमें व्याघ्राम्बर तथा हाथमें विशूल है-को नमस्कार है। शक वर्ष EEE के श्रावण शुक्ल षष्ठीको समस्त राजा वलीसे अलंकृत नन्दिपुर में-श्रीमानिम्बार्क कुलरूप कमलको विकसित करनेवाला दिवाकर-देवसेनानी स्कंध के समान सेनापति श्री वारपदेव । और श्री वारपदेवका पादानुध्यात सारस्वतीय पाटण महोदधिका मन्थन करनेवाला मेरू और अपनी सलवारकी धारसे वसुधाका आधिपत्य प्राप्त करनेवाला श्रीमन्महाराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री गोरगिराज-और श्री गोरगिराजका पादानुध्यात श्री कीर्तिराज-और श्री कीर्तिराजका पादानुध्यात श्री वत्सराज-और श्री वत्सराजका पादानुध्यात श्री त्रिभुवनपाल-और श्री त्रिभुवनपालका पादानुध्यत कर्णरूप कुमुद अर्थात कमलके अंकुर का नाशक तुषार तथा चौलुक्य वंश अब्धि को आनंद देने वाला चंद्रमा श्री त्रिविक्रमपाल-आज समस्त राजपुरुषो-ब्राह्मणों तथा इतर प्रजावर्गको आदेश करता है कि-नवीन बादल रूप अम्बर से आच्छादित वसुंधरा के होने पर अपने चाचा श्रीमान्महाराजाधिराज जगत्पाल के भुजाघात से संचारित प्रचंड वायु से विताडित शत्रु रूप अन्धकारके नाश द्वारा नागसारिका मण्डलके बंधन मुक्त होने और वठपद्रक विषयके विश्वामित्री नदी तटपर अपने भुजबल रूप महार्णव में शत्रुरूप दानव सेनाके डूबने पश्चात ब्राह्मणोंके स्वस्ति वाचक मंत्रोच्चार ध्वनिसे समाहत, आनंद विभोर मर्यादा त्यागने वाली प्रजासे घिरा हुआ-नगरकी अटारिकाओंकी झरोखामे अवस्थित कुलवधुओंके फेंके हुए पुष्पोंकी धारा में निमज्जित-सिरपर जल परिपूर्ण सुवण कलस लिये सैकड़ों पानी भरनेवाली त्रिओं के मधुरगान से परिपूर्ण श्रवण रंध्र और भेरी शंख मृदंग ताल झांझ के गुज़ार ध्वनि से परिपूर्ण दिगन्तर अवस्थामें अपनी माताके आदेशसे नर्मदामें स्नान के अनन्तर विविध प्रकारके दानोंसे ब्राह्मणों को संतुष्ट कर-अपने चचाके मना करने परभी-अपने चचेरे भाई श्रीमन्महाराजधिराज पद्मदेवको नागसारिका मण्डलके पांचसौ गाम वाले अश्याम नामक विषयका सामन्तराजा बनाया और। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ब्रह्मावर्त प्रदेशान्तर्गत पंचाल जनपदके काम्पिल्य नगरसे आनेवाले, वेदवेदान्तादि सकल शत शास्त्रोंमें प्रवीण, सम दम उपरति तितिक्षादि साधन चतुष्टय संपन्न, जप तप स्वाध्याय अग्निहोत्र निरत गौतम गोश संभूत पंच परवर काण्वशाखाध्ययि ब्रह्मदेव शर्माकी प्रेरणासे जगदगुरू भवानीपति शकरकी अभ्यर्चनाकर संसारकी असारता देख शुक्लतीर्थमें अपने पितामह द्वारा संस्थापित क्षेत्र के मध्य पिताद्वारा संचालित पाठशालामें अध्ययन करनेवाले ५० विद्यार्थिओं के भोजनादि निर्वाहके निमित्त नंदिपुर विषयके हरिपुर नामक ग्राम को सीमादि तथा सर्व प्रकारकी आयके साथ दान दिया। दानकी रक्षा का फल सामान रूपसे मान हमारे वंशजो तथा दूसरे होनेवाले भावी राजाओंको उचित है कि इसका पालन करे। कहा गया है। सगरादि बहुतसे राजाओंने इस वसुधाका उपभोग किया है परन्तु वसुधा जिस सयय जिसके अधिकारमें रहती है उस समय उसकोही पूर्वदत्त भूदानका फल मिलता है। भूमिदान देनेवाला साठ हजार वर्ष पर्यन्त स्वर्गमें सुख भोग और अपहरण करने तथा अपहरणकी अनुमति देनेवाला उतनीही अवधि पर्यन्त नरकमें दुःख भोगता है। ___इस शासन पत्र का दूतक महा दण्डाधिपति भीमराज, लेखक भूदेव और ताम्र पटों पर लिखने वाला सुवर्णकार बज्जल का बेटा अल्लट है। यह हस्ताक्षर श्री त्रिविक्रमपालका है। इति ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाट नन्दिपुर खण्ड - लाटपति चौलुक्यराज श्री त्रिविक्रमपाल शासन पत्र । विवेचन, प्रस्तुत लेख लाट नन्दिपुर के चौलुक्यराच त्रिविक्रमपाल कृत शुक्ल तीर्य अत्र स्थित सत्रवर्ती पाठशालाके विद्यार्थीओं के भोजनादि निर्वाहार्थ दनका प्रमाण पत्र है।यह शासन पत्र तांबे के दो पटों पर उत्कीर्ण है। पटों के। मध्य दों छीद्र हैं। उनमें कडीयां लगी हैं। कडीओं पर राजमुद्रा है। राजमुद्रा में राज्यचिन्ह रूप भगवान शंकरकी मूर्ति है। पटोंका आकार प्रकार १२४८ इंच है। लेखकी लिपी देवनागरी और भाषा संस्कृत है। लेख अद्यान्त-दान फलके दो श्लोकोंको छोड पद्यमय है । इसकी तिथि श्रावण शुक्ल षष्टि EEE शक है। इसका दृतक महादण्डाधिपति भीमराज-लेखक भूदेव और उत्कीर्णकार अल्लट है। अन्तमें शासन कर्ता त्रिविक्रमपालका हस्ताक्षर है। लेखका आरंभ "ॐ स्वस्ति जयोभ्युदयश्च" से किया गया है । पश्चात भगवान शंकरको नमस्कार और लेखकी तिथी शब्दो में है। अन्तमें शासन कर्ता का निवास नन्दिपुरमें बताने पश्चात वंशावली दी गई है। और वंशावली निम्न प्रकार से है। निम्बारक वा र पदे व गोगिराज की र्ति चंद्र वत्सराज त्रिभुवन पाल जगत्पान त्रिविक्रम पाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ], वंशावली पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि शक,६४२ और ६७२ वाले पूर्व उधृत वंशावली के नामों से इसके नामों में कुछ अन्तर. पडता है। क्यों कि पूर्व वाले दो लेखों में लाट प्रदेश प्राप्त करनेवाले का नाम वारपराज और इसमें वारपदेव है । इसी प्रकार उनमें तीसरा नाम कीर्तिराज और पांचवा नाम त्रिलोचनापाल है। परन्तु इसमे कीर्तिचंद्र और त्रिभुनपाल है। इस अन्तर के संबंधमें हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार पाटन के चौलुक्य ऐतिहासिकोंने लाटके वारपका नामोल्लेख द्वारप नमासे-वारप शब्दको संस्कृतका आवर्ण देकर-किया है उसी प्रकार प्रस्तुत शासनमें वारपको वारपदेव बताया गया है। एवं कीर्तिराज और कीर्तिचंद्र तथा त्रिलोचनपाल और त्रिभुवनपाल के संबंधमें हमारा निवेदन है कि इनका अन्तरमी नामान्तर जन्य है। नन्दिपुर के चौलुक्यों के पूर्व उधृत दोनो लेखोंमें वारपराजके संबंध वुछभी स्पष्ट रुपसे नहीं लिखा गया है। परन्तु पाटणके इतिहाससे हमें ज्ञात है कि वारपका परिचयू लाइ देशके सेनापति नामसे: दिया गया. है। किन्तु प्रस्तुत शासन पत्र के, ".श्रीमन्निम्वार्क कुल कमल दिवाकर देव सेनानी समतोपलब्ध अनीपति श्री वारपदेव." वाक्य में वारपको केवल सेनापति कहा गया है। इससे प्रकट होता हैं कि, प्रस्तुत शासन पत्र, के लेखकने निर्भय होकर ऐतिहासिक सत्यको प्रकट किया है.। इतनाही: नही आगे चल कर, वारप के पुत्र गोगिराजका वणन करते समय, लिखता है. “ सारस्वतीय पाटन महोदधि मन्थन मन्दर मेरु कर कृपाण बलाप्त वसुधाधिपत्यम्" कि वारप देवके पुत्र गोर्गिराजने सारस्वतीय पाटन रुप महोदधिको मन्थन करनेवाला मन्दराचल पर्वत था. जिसने अपनी तलवारके, बलसे बसुधाधिपत्य पदको प्राप्त किया था । हमारे पाठकोको ज्ञात है कि चौलुक्य चन्द्रिका पाटण खण्डमें उधृत मूलराजके लेखमे, उसके राजका नामोल्लेख सारस्वत मण्डलके लामसे किया गया है। अतः इस लेखमें सारस्वतीस पदसे पाटणका ग्राहण है। अतः हम कह सकते हैं. किं त्रिलोचनपालके लेखमें.. वारपकी मृत्यु पश्चात गोगिराजका दानवोसे लाटदेशके उद्धारका उल्लेख करते समय कथित दानवोका नामोल्लेख नहीं किया गया है। जो शासन पत्र को त्रुठी पूर्ण तथा संदिग्ध बनाता है परन्तु उसकी पूर्ति प्रस्तुत शासन पत्र करता है। इतना होते हुए भी प्रस्तुत शासन पत्र में कीतिराजके संबंध में कुछ भी नही लिखा गया है। परन्तु अन्यान्य ऐतिहासिक सुत्रसे हमें ज्ञात है कि उसकोमी संभवतः अपने दादाके समान पाटणके दुर्लभराजके हाथसे प्राण गवाना पडा था। पुनश्च कीर्तिराजके उत्तराधिकारीका नाम मात्र परिचय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिया गया है तथापि प्रस्तुत शासन पत्रके वाक्य शुक्लतीर्थे स्वपितामहेन संस्थापित सत्रे" में उसकी कीर्तिको स्वीकार किया गया है। अनन्तर शासन पत्र त्रिलोचनपाल के पुत्र और शासन कर्ताका वर्णन निम्न वाक्य "कर्ण कुमुदाड़कुर, तुषारोऽपि चौलुक्याब्धि विवर्धनेन्दु” में करता है और बताता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड कि वह कर्ण रुप कुमुद नामक कमलके मूलको नाश करने वाला तुषार और चौलुक्य वंश रूप समुद्रको आनन्द देनेबाला चंद्र था। अब यदि इस वाक्यको शासन पत्र कथित अधोभाग वर्ती वाक्य "नूतन जलद पट समपाटनाम्बराच्छादिते वसुन्धरे स्वपितृव्य श्रीमन्महाराज जगत्पाल भुजाधात संचारित वायु विताडित शत्रुमेघान्धकार विनिर्मुक्त नागसारिका मण्डले स्वभुजबलार्णवे वाटपद्रक विषये वैश्वामित्री तटे दानवानी निमज्जिते " को एक साथ रखकर विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि कथित "कर्ण कुमुदाड़कर तुषारः” का वास्तविक तात्पर्य क्या है। इससे स्पष्ट है कि त्रिलोचनपाल के समय पाटन के चौलुक्यराज कर्णदेवने अपनी सत्ता का विस्तार कर दक्षिण में लाटदेशकी सीमा महि नदीका उलंधन कर वर्तमान वरोदा के पास बहने वाली विश्वामित्री नदीसे आगे बढकर अधिकार जमा लिया था। इतनाही नहीं संभवतः स्तंभतीर्थ “वर्तमान केम्बे" से समुद्र मार्गद्वारा नवसारी प्रान्तकोभी अपनी सत्ता के आधिन किया था। जहां से पाटण वालोंको प्रस्तुत शासन पत्र के अनुसार त्रिभुवनका भाई जगत्पाल-भतीजा पद्मदेव और पुत्र त्रिविक्रमपालने ठोकपीटकर निकाल बहार किया था । पाटणके कर्णदेवका नागसारिका मण्डलपर अधिकार होनेका प्रत्यक्ष प्रमाण-शक संवत ६६ का धमलाछासे प्राप्त शासन पत्र है। उक्त शासन पत्र द्वारा कर्णने धमलाछा ग्राम दान दिया है । अतः हम कह सकते है कि कर्णदेवने कथित दान नागसारिका विजयके उपलक्षमें दिया होगा। परन्तु पाटण वालोका अधिकार नागसारिका मण्डलपर क्षणिक था। क्योंकि इस समय के बाद बहुत दिनों पर्यन्त उनके अधिकारका परिचय नही मिलता। और यह शासन पत्रतो रही सही शंकाको भी नष्ट करता है । क्योंकि दोनों शासन पवोंमें केवल ३ वर्षका अन्तर है। शासन पत्रके ऐतिहासिक कथनोका विवेचन करने के पश्चात इसके अन्तर विवेचनमें हम प्रवृत्त होते हैं। शासन पत्र से प्रकट होता है कि शासन कर्ताके चचा जगत्पालने शत्रुओंका मान मर्दन कर नागसारिका मण्डलका उद्धार किया था। और त्रिविक्रमपालने अपने कथित चचाके लडके पद्मदेवको नागसारिका मण्डलके अष्टग्राम नामक विषयका सामन्त बनाया था। अब विचारना है कि अष्टग्राम नामक नगर का संप्रति अस्तीत्व पाया जाता है या नहीं। टोपोग्राफीकल मान चित्रपर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि नवसारीसे लगभग ४-५ मीलकी दूरीपर दक्षिण सुरत जिला के जलालपुर तालुकामें “ आठ" और उसी तालुकामें नवसारी से लगभग ७-८ मीलकी दूरीपर अष्टग्राम है। संभवतः इन दोनो गांवोमेंसे कोइभी एक प्रशस्ति कथित अष्टयाम हो सकता है। हमारी समझमें अष्टप्रामही प्रशस्तिका अष्टप्राम है । क्यों कि वहांपर पुरातन अवशेष पाये जाते हैं अष्टग्राम विषयके अतिरिक्त शासन पत्रमे शुक्लतीर्थ, नन्दिपुर विषय और पदत्त ग्राम हरिपुरका उल्लेख है। अब विचारना है कि इनका संप्रति अस्तित्व है या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ६६ नहीं । इनमें शुक्ल तीर्थ नर्मदा तटका प्रसिद्ध तीर्थस्थान है और आजभी शुक्लतीर्थके नामसे हीं प्रख्यात है । इसका अवस्थान नर्मदाके दक्षिण तठपर भरूचसे लगभग १०-१२ मीलकी दूरीपर है । एवं कलेश्वर राज्य पिपला लाइनके झघडी नामक स्टेशनसे ठीक उत्तरमे १ - १॥ मीलकी दूरीपर नर्मदा वहती हैं। नर्मदा बाम तठपर लिंबोद्रा नामक ग्राम हैं। अतः शुक्लतीर्थ और झघडी के मध्य लिंबोद्रा और नर्मदाका व्यवधान हैं । नन्दिपुरका शासन पत्र में दोवार उल्लेख है । प्रथमवार शासन कर्ताीके निवासके रूपमे और द्वितीयवार नन्दिपुर विषयके रूपमे । नन्दिपुर स्थानमें शासनकर्तीके पूर्वजोंकी राज्यधानी थी । नंन्दिपुरमें राज्यधानी होनेके संबंध में हम पुर्बमें पूर्ण रूपेण विवेचन कर चुके हैं । नन्दिपुर प्राम वर्तमान समय नांदोद नामसे प्रख्यात है और यह शुक्लतीर्थसे पूर्वदिशा में कुछ उत्तर हठा हुआ लगभग १७ - १८ मीलकी दूरीपर हैं। नादोंदसे नर्मदा पुर्व दिशामें लगभग ६-७ मील और उत्तर दिशामें उतनीही दूरीपर बहती हैं। शुक्लतीर्थ घडी और नांदोदके मध्यमे दोवती नदीसे पूर्व हरिपुर नामक ग्राम हैं। हरिपुर ग्राम नांदोद और झघडीयाके मध्यवर्ती उमाला स्टेशनके निकट है । हरिपुर शुकतीर्थसे लगभग ७-८ मील पूर्व और नांदोदसे लगभग १०-११ मील पश्चिम हैं । हमारी समजमें हरिपुरका उल्लेख शासन पत्रमे नन्दिपुर विषयके अन्तर्गत किया गया हैं । वह संभवतः वर्तमान हरिपुरही पुरातन हरिपुर हैं क्योंकि विषयके अन्तर्गत १०-११ मीलकी दूरीपर होनेवाले गावोंका होना असंभव नहीं इस हेतु वर्तमान हरिपुरकेहीं 'पुरातन हरिपूर होने की संभवना है । पुनश्च पाठशाला के निमित्त दिया हुआ गावं पाठशालाके स्थानसे दूर देशमें नही हो सकता । तीसरे स्थानका नाम काम्पिल्य है । काम्पिल्यके विषयमें शासन पत्रसे प्रकट होता है कि ब्रह्मावर्त के पांचाल जनपदका वह नगर था जहां के रहेने वाला ब्रह्मदेव ब्राह्मण था । जिसने शासन कर्ताको अपने उपदेश द्वारा कथित दान देनेके लिये अनुकुल बनाया था । ब्रह्मवर्त और पांचाल नाम पुराण प्रसिद्ध है। पांचाल नामसेभी पुराने ब्रह्मावर्त का ग्रहण होता है । ब्रह्मावर्त की भूरी भूरी प्रशंसा मनुस्मृतिमें पाई जाती है। प्रयाग से पश्चिम और दिल्हीसे पूर्व गंगा और यमुनाके मध्यवर्ती देशको ब्रह्मावर्त कहते है । इसी ब्रह्मावर्त के मध्य अलिगड से पूर्व और कानपुरसे पश्चिम गंगा यमुनाके मध्यवर्ती स्थानको दक्षिण पांचाल कहते थे । दक्षिण पांचलकी राजधानीका नाम कम्पिल्य था । और गंगाके तटपर बसा था। आजभी फरूखाबाद जिलामें कपिला नामक ग्राम है। जिसके चारो तरफ पुरातन नगरका अवशेष पाया जाता है। हमारी समजमें शासन पत्र का बाह्य और आभ्यान्तरं विवेचन हो चुका। अतः अब इतनेही से अलम् करते है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपूर खण्ड अराकिरी-नागेश्वर मन्दिर (होनाली) शिला प्रशस्ति श्री स्वास्त सकल जगति संस्तुयमान चरित्र महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलकं चौलुक्य वंशोद्भव श्रीमत् त्रयलोक्यमल्ल देवार राज्य प्रवर्धामान चन्द्रार्क तारा वरं सालुतं इरे । स्वास्त समधिगत पंच महाशब्द पल्लवान्वय श्री पृथिवी वल्लभ पल्लवकुल तिलकं अमोघ वाक्यं कांचीपुर-त्रयलोक्यमल्ल ननि नोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहदेवर कोगली अयनुरु-एलपतु का ग्राम पालुतं इरे । शक वर्ष ९६९ नेमे सर्वजित संवत्सराय पुष्य शुद्ध पंचमी वृहस्पति वारं उत्तरायण संक्रान्ति यन्दु अरकेरेय अरोदेय केशीमय--भो-वज पण्डितारा कालं कलचीधारा पूर्वकं नागेश्वर देवरिगे देगुलद यन्दु काम ४/१-२ मतक्के तेङ्गनके -कामं ४१-२ अतु गलदे मत्त १ अरिम होर वेदले मत्तरा हृदवर्ग परे केरेगे तेन्कन कोडियाली नलदे मत्तर १ वेदले मत्तर ५ इ धर्म चन्द्रार्क नारावरं सलवद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] अराकिरी प्रशस्ति छायानुवाद। कल्याणहो । जब के समस्त संसारमे संस्तुयमान चरित्र महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलकं चौ क्य वंशोद्भव श्रीमत् त्रयलोक मल्ल देव का राज्य वर्तमान था उस समय पंच महाशब्द अधिकार प्राप्त पल्लववंशी पल्लवकुल के तिलक पृथिवी वल्लभ पवित्र वाणी (सत्यसंघ) त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहदेव कोगली प्रान्त का महासामन्त था। उस समय सर्वजित संवत्सर शक ९६९ पौष्य मास शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि गुरुवार उत्तरायण संक्रान्ति के शुभ अवसर पर अराकिरी निवासी ओदियार केशीमाया ने पण्डितोंका पाद प्रक्षालन पूर्वक भगवान नागेश्वर देव के भोग राग नित नैमित्तिक पूजार्चन' के निर्वाहार्थ अराकिरी प्राममें निम्न प्रकारसे भूमिदान दिया। (१) देगुलद के लिये ,, ४ १/२ (३) गलदे (४) ओदिम हरि वेहले (५) कोदियाली (६) वेहले (२)..... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अराकिरी प्रशस्ति का विवेचन । लाट बासुदेवपुर खण्ड, द प्रस्तुत शिला लेख मयसूर राज्य के सिमोगा जिला के हो अराकिरी नामक ग्रामके नागेश्वर मंदिर में लगा है। यह लेख अ ओरदेया केशीमाया के दानकी प्रशस्ति है । प्रशस्ति कथित द नागेश्वर देवके भोग राग निर्वाहार्थ किसी पण्डितका पाद प्रक्षालन पूर्वक दिया गया है | प्रशस्तिका कुछ अंश टूट जाने से यह प्रकट नही होता कि कथित पण्डित, जिसका पाद प्रक्षालन पूर्वक दान दिया गया है, का नाम क्या था और उसका नागेश्वर देव के साथ क्या सबंध था । परन्तु नागेश्वर देवके भोगरागार्थ प्रदत्त भूमिदान होने से उक्त पण्डित को हम नागेश्वर मंदिरका पूजारी कह सकते हैं । प्रशस्ति की तिथि शक संवत ९६९ और सर्वजित नामक संवत्सरकी पुरुष शुक्ल पचमी तथा दिन बृहस्पति वार है। प्रशस्ति लिखे जाते समय चौलुक्य कुल तिलक त्रैलोक्य मल्लका राज्य काल था और उस समय पंच महा शब्द अधिकार प्राप्त पल्लवान्वय श्री पृथिवी वल्लभ पल्लव कुल तिलक अमोघ वाक्य कांचीपुर - त्रयलोकमल्ल ननिनोलम्ब पल्लब परमनादि जयसिंह कोगली पंच शत तथा कतीपय अन्यान्य प्रदेशोंका सामन्त था । प्रशस्ति में राजाका नाम त्रयलोक्यमल्ल दिया गया है। हमें अन्यान्य शिला लेखों तथा शासन पत्रों और एतिहासिक लेखोसे झात है। कि वातापि के चौलुक्य राज्य सिंहासन पर शक ६६२ से ६६० पर्यन्त आहवमल्लका अधिकार था । आहमलका विरुद्ध त्रैलोक्यमल्ल और नामान्तर सोमेश्वर था । अतः प्रस्तुत लेख आहवमल्ल त्रयलोकमल्लके राज्य कालिन है और उसके राज्य के सातवे वर्षका है । आहवमल्ल त्रयलोकमल्लको सोमेश्वर, विक्रमादित्य और जयसिंह नामक तीन पुत्र थे, इनमें तीसरे जयसिंहका नामान्तर सिंहन या सींगी और विरूद बीरनोलम्ब पल्लव परमनादि त्रयलोक मल्ल था । अतः प्रस्तुत प्रशस्ति कथित कोगली पंच शत प्रभृतिका सामन्त पल्लव परमनादि जयसिंह हबमल्ल त्रयलोकमल्ल का कनिष्ठ पुत्र है । प्रशस्ति से प्रकट होता है कि आहवमल्ल ने जिस प्रकार अपने ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वरको केशवलाल प्रदेश और विक्रमादित्यको वनवासी प्रदेशकी जागीर दिया था उसी प्रकार जयसिंहको कोगली पंच शत तथा अन्यान्य प्रदेशों का सामन्तराज बना शासनभार दे रखा था। अब प्रश्न उपस्थित होता है कि आहवमल्लकी आयु राज्य पाते समय और प्रस्तुत प्रशस्ति लिखे जाते समय शक ६६६ मे उसके तीसरे पुत्र जयसिंहकी आयु क्या थी । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंडिका ] बिल्हण कवि कृत “ विक्रमांक देव चरित्र " के पर्यालोचनसे प्रकट होता है। कि आह मल्ल को राज्य पाने पश्चात बहुत दिनों पर्यन्त कोई पुत्र नहीं हुआ था । परन्तु बिल्हण ही दुसरे स्थलके कथनसे प्रकट होता है कि हवमल्ल के सोमेश्वर विक्रम और जयसिंह तीन पुत्र उसके स्वर्गवास समय शक ९६० मे पूर्ण वयस्क थे । आहवमल्लका राज्यकाल ६६२ से ६६० पर्यन्त २६ वर्ष है । अब यदि हम बिल्हण का पूर्व कथन " आहवमल्लको राज्य पाने पश्चात बहुत दिनों पर्यन्त कोई पुत्र नहीं हुआ था " मान लेवे तो वैसी दशा में उसकी मृत्यु समय सोमेश्वर आदि को अल्प वयस्क बालक होना चाहिये । परन्तु इसके विपरीत शक १९१ से लगभग २३ वर्ष पूर्व शक ६६८ मे विक्रमादित्यका अपने पिता के साथ युध्ध में जाना और चोल पति राजाधिराज प्रथम के साथ लडना पाया जाता है। इस युध्धका राज्याधिराज के राज वर्ष के २९ वें वाले अर्थात शक ६६८ के लेखमें वर्णन है । एवं चोल के राजा वीर राजेन्द्र के राज्य काल के चोथे वर्ष अर्थात शक ६८८ के लेखमें उसके कुण्डल संगम नामक स्थान पर आथवमल के साथ लडने का वर्णन है । उक्त युध्ध में हमल के दो पुत्र विक्की [विक्रमादित्य ] और सिंगन [जयसिंह ] सामिल थे । ७० विक्रमादित्य की प्रथम युध्ध यात्रा शक ६६८ और द्वितीय युध्ध यात्रा शक ६८८ में २० वर्षका अंतर है । अब यदि हम प्रथम युद्ध यात्रा के समय विक्रमकी आयु १५ वर्षकी भी मान लेवें तो उसका जन्म अपने पिता के राज्य प्राप्त करने के ८ वर्ष पूर्व अर्थात शक १५३ से पूर्व सिद्ध होता है । अतः यदि हम विक्रम और उसके बडे भाई सोमेश्वर के जन्म कालका अंतर वर्षभी मान लेवे तो आहवमल के बडे पुत्रका जन्म शक ६५१ में ठहरता है । परन्तु जयसिंह अपने पिता का तीसरा पुत्र और विक्रम से कनिष्ट था । अब यदि हम इन दोनों के जन्मका अन्तर दो वर्ष भी माने तो इसका जन्म शक ६५५-५६ में ठहरता है । अथवा संभव है कि जयसिंहका जन्म शक ६५५-५६ से कुछ पूर्व हुआ हो । क्यों कि आहवमल्ल को कई रानिया थी । ऐसी दशा में सोमेश्वर, विक्रम और जयसिंह का जन्मकाल अंतर दो वर्ष को कौन बतावे । उससे बहुत कम अर्थात केवल महिना, दिनों या घडी पल का हो सकता है। इन तीनो भाईओं का एक माता से जन्म नहीं हुआ था। यह ध्रुव सिध्धांत है। और इनके जन्मकाल का निश्चित ज्ञान न होने से इनकी आयु पिता के रज्यरोहन समय क्या थी कहना कठिन है । परन्तु इनका जन्म पिता के राज्यारोहन के समय से बहुत पहले हो चुका था इन प्रमाणो के सामने बिल्हण कवि का कथन भावुक और निरंकुश कवियों के कथन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । इसके अतिरिक्त बिल्हण के कथनकी उपेक्षा करानेवाली उसके कथनमें अनेक प्रकारकी निराधार बातों की संप्राप्ती है A हां बिल्हणके " जयसिंहका शक ६६८ के युध्धमें सामिल न होना ” प्रकट करनेवाले कथनमें कुछ सत्यांशको स्वीकार करने के लिये मनोवृत्तिका झुकाव होता है । और हम थोडी देरके लिये उसमें कुच सत्यांश मान लेवे तो भी कहना पड़ेगा कि उसका जन्म ६६६ के पूर्वही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड हुआ था। क्योंकि उस वर्ष उसको कोगली आदि प्रदेशोकी जागीर मिल चुकी थी। हां इसके अतिरिक्त यदि हम थोडी देरके लिये यहभी मान लेवें कि जयसिंहका जन्म शक ६६९ में ही हुआ था और जन्मके पश्चात ही उसे जागीर दे दी गई थी। क्योंकि ऐसा प्रायः देखनेमें भी आता है कि राजा लोग भावी विग्रह से बचने के बिचारसे अपने प्रत्येक पुत्रके जन्म पश्चात उसे जागीर आदि दे कर दृढ प्रबंध कर देते हैं । एवं जब तक वह अल्प वयस्क रहता है तब तक उसकी जागीर का प्रबंध उसके नमिसे कोई कर्मचारी करता है। इस प्रकार के दृष्टांत का अभाव भी नहीं है। आहवमल्ल के द्वितीय पुत्र विक्रम की अल्पवयस्कता सयय उसकी जागीर वनवासी का प्रबंध उसकी माता करती थी। चाहे हम विल्हण के कथनको अबकाश देने के लिये पूर्व कथित रूपसे मान लेवें चाहे उसे अधिकांशमे अन्यथा होने ( अर्थात विक्रमादित्य और सोमेश्वर का अपने पिता आहवमल्ल के राज्यारोहन समय से पूर्व जन्म न होंने प्रभृतिकथन ) के कारण उसे त्याग देवे तोंभी हमे यह मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि शक ६६८ वाले युध समय जयसिंह युध्धमें जाने योग्य नहीं था। वरना उसके समान वीर प्रकृती बालक यदि उसकी आयु युध्धमे जानेकी आज्ञा देती तो कदापि राज्य महल में क्रिडा करने के लिये पिता और भ्राता को रणक्षेत्र में जाता देखकर भी पीछे न ठहरता। अतः हम निशंक होकर कह सकते हैं कि इस शासन पत्र के लिखे जाते समय जयसिंह अल्प वयस्क बालक था और उसे कोगली पंच शत और अन्यान्य प्रदेशोकी जागीर मील चुकी थी । परन्तु हमारी इस धारणा का मूलोच्छेद प्रस्तुत प्रशस्ती का वाक्य अमोघ वाक्यं करता है। क्योंकि अमोध वाक्यं का अर्थ है । जिसका कथन कालत्रयमें अन्यथा न हो, जो अपनी बातों का धनी अथवा पूरा करनेवाला हो। हमारी समझमें ऐसे वाक्य का प्रयोग अल्प वयस्क अबोध बालक के लिये नही हो सकता। अतः कहना पडेगा कि जयसिंह प्रशस्ति लिखे जाते समय अल्प वयस्क नही वरण पूर्ण वयस्क था । और अपनी सत्य प्रियता, वचन बध्धता तथा प्रतिपालनता आदि गुणों के कारण ख्याति प्राप्त कर चुका था। किन्तु इस भावना का विमर्दक उसका शक ६६८ के युध्ध में सामिल न होना है। हमारी समझमें युध्धमें सामिल न होना किसीका किसी युध्ध समय न तो उसके अस्तीत्व का विमर्दक हो सकता है और न उसकी अल्प वयस्कता सिद्ध कर सकता है। क्योंकि शक ६६८ और ६८८ वाले युध्धो में जयसिंह के ज्येष्ठ भ्राता सोमेश्वर का हम उल्लेख नहीं पाते हैं । परंतु वह उस समय जिता जागता और अनेक प्रदेशो का शासन करता था। पुनश्च प्रशस्ति कथित वाक्य "अमोघ वाक्यं"के आगे (कांचीपुर आदि) वाक्य है । यदि दुर्भाग्यसे अमोघ वाक्यं कांचीपुर और त्रयलोकमल आदि के मध्य कुछ अक्षर नष्ट न हुए होते तो स्पष्ट रूपसे ज्ञात हो जाता कि कांचीपुर के साथ जयसिंहका क्या संबंध था । परन्तु श्रमोंध वाक्यं कांचीपुर और त्रयलोकमल्ल ननिनोलम्ब के मध्यवर्ती प्रशस्ति के टुटे हुए अंश को दृष्टि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका) कोण में लातेही स्पष्ट हो जाता है कि उक्त स्थानमें चार अक्षरोवाला कोई शब्द होना चाहिए संस्कृत साहित्यमें सौहार्य तथा मनो मालिन्य भाव प्रदर्शक चार अक्षरवाले अनेक शब्द पाये जाते हैं । परन्तु वातापि के चौलुक्यों और कांचीपुर वातो वंशगत विग्रहको दृष्टिकोण में लाते ही हम कह सकते है कि उक्त स्थान में सौहार्य भाववाले शब्दोका होना सर्वथा असंभव है। पुनश्च अमोघ वाक्यं के पश्चात कांचीपुर आने से स्पष्ट है कि उसके कांचीपुर विजय अथवा संहारादि भाव द्योतन करने वाला पद होना चाहिए। अतः हम सुगमता के साथ कह सकते हैं कि अमोघ वाक्यं कांचीपुर और त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब के मध्य टुटे हुए स्थान पर चार अक्षर वाला विग्रह भाव प्रदर्शक "शब्द कालानल दावानल, संहारक, विध्वंशक तथा विमर्दक" आदि कोई पद होना चाहिए। हमारी समझमें अमोघ वाक्यं के पश्चात त्रयलोक्यमल्ल और कांचीपर के मध्य कालानल पद उपयुक्त प्रतीत होता है। हम देखतेभी है कि जयसिंहके शौर्यकी उपमा तुम्वुरू होसुरु वाली प्रशस्ति में दाहलके संबंध में इसी प्रकार के पदका प्रयोग किया गया है । अतः कथित वाक्य "अमोघ वाक्य कांचीपर कालानलं त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहदेव" ज्ञात होता है । क्योकि इसका अर्थ होगा कि अमोघ वाक्य त्रयलोक्यमल्ल ननिनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह देव कांचीपुरीका कालानल अर्थात जलानेवाला। जिसका भावार्थ यह है कि शक ६६८ वाले अपने पिता और भ्राता के पराभव का बदला कांचीपुर के मान मर्दन द्वारा लेनेकी प्रतिज्ञाको पुरा करनेवाला जयसिह । इस वाक्यका इस प्रकार सुन्दर मनोग्राम तारतम्य संमेलन हो जाता है। इन बातों और अन्यान्य बातो को लक्ष कर हम कह सकते हैं कि शक ६६६ में इस प्रशस्ति के लिखे जाते समय जयसिंह पूर्ण वयस्यक और अपने पिता और भ्राताओं के शत्रओंका मान मर्दन करनेवाला था । प्रस्तुत प्रशस्ति में जो उसके पिताको राजा और उसे सामन्त रुपमें वर्णीत है इसके संबंध में इतनाही कहना पर्याप्त है कि जयसिहका पिता राजा और वह अपने पिता का सामन्त था । प्रशस्ति में जयसिहको पल्लव कुल तिलक प्रभृति लिखनेका उद्देश्य यह है कि उसकी माता पल्लव देशकी राज्य कुमारी थी । अथवा हम यह भी कह सकते है कि जयसिह अपने नानाके यहा दत्तक रूपसे चला गया था। अतः उसके नामके साथ पल्लव वंशोद्भव भाव द्योतक विरुद्ध लगे है। परन्तु ऐसा मानने से एक बड़ी भारी आपत्ति का सामना करना पडेगा । उक्त आपत्ति यह है कि जयसिह के बडे भाईओं विक्रम और सोमेश्वर के नाम के साथ भी हम उक्त प्रकारकी उपाधिओं को पाते हैं। और यदि कथित उपाधि अपने नाना के यहां चले जानेका भाव दिखाने वाली हैं तब तो तीनो भाइओं का अपने नाना के यहां जाना सिध्ध होता है। जो किसीमी दशा में माना नही जा सकता । अतः उक्त उपाधियां जयसिहकी माता के वंशका द्योतन करने वाली है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । लाट बासुदेवपुर - नेरल गुण्डी-होनाली तालुका {ईश्वर मन्दिर] काली वीरनोलम्ब जयसिंह परमनादि की शिला प्रशस्ति । स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमश्वर परम भधारक सत्याश्रय कुल तिलकं चौलुक्याभरणं श्रीमत् त्रयलोकमल्ल देवरू चतु स्समुद्र पर्यन्तं वर सुख सत्कथा विनोदि राज्यं गेयुक्तं इरे । तत्पद पायोपजीवी समधि गत पंच महाशब्द पल्लवान्वय श्री पृथिवी वल्लभ पल्लककुल तिलकं एकवाक्यं श्री.त् त्रयलोकमल्ल नोलम्ब पल्लव परमनादि देवार ददिरवलिगे शशिरवं वल्लकुण्डे मुनुहं कोनादियु रुमं सुख सत्कथा विनोदि राज्यं गेयु इरे । तत्पद पायोपजीवी समस्त राज्यमार निरूपित महामात्य पदवी विराजमान मानोन्नत्त प्रभु मन्त्रोत्साह शक्तित्रय संपग्न शिवपाद शे पर यतिदित गरूड नामादि समस्त प्रशस्तिसहित श्रीमत् त्रयलोकमल्ल नोलम्ब परमनादि राज्य मनु विष्ठं इरे । शके वरीस ९८६ जय संवत्सरात-द्वेय नेरिलु गुन्डीय कर आदेय दितमाय सूर्य ग्रहणदोलु मल्लीकार्जुन देवरगे गदेक ४०० वेदलेय ४ मम-लिकाप्य काल कचिधारा पूर्वकं आदि कोट गो-शासनं । - - - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] नेरलगुन्डी प्रशास्ति का छायानुवाद । कल्याण हो जब के सकल संसार के आश्रय, पृथिवी के स्वामी महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलक चौलुक्य वंश विभूषण श्रीमत् त्रलोक्यमल्लदेव का राज्य चारो समुद्रकी अवधि पर्यन्त सुख और शान्ति से लहरा रहा था और श्रीमान महराजाधिराज त्रयलोक्यमल्ल के पादपन्न आश्रित पंच महा शब्द अधिकार प्राप्त पल्लवान्वय श्री पृथवी वल्लभ कुल तिलक एक वाक्य श्री त्रैलोकमल्ल नोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहदेव ददिरवलीग शशिरव (सहस्त्र) बलकुन्डे सुनुरु (जयरति) और कोन्डीयरुम प्रदेशका शासन सुख और शान्ति के साथ करते थे। एवं श्री जयसिंहदेव का चरणरत-समस्त राज्यभार अधिकार प्राप्त सकल मान संभ्रम युक्त स्वामी कार्य निपुण-शक्ति त्रय संपन्न-रुड समान स्वामी कार्य सम्पादक महामात्य कथित प्रदेशोंका राज्य भार संचालन करता था। उस समय जय संवत्सर शक ६८६ के सूर्य ग्रहण पर्बके अवसर पर नेरलगुन्डी के ओदियार हितमाय ने मल्लिकार्जुन देवके नित नैमित्तिक भोग राग पूजन अर्चन निर्वाहार्थ शासन पत्र द्वारा जल पूर्वक भूमि दान दिया । १-गदेक निमित्त ४०० २-वेहलेय निमित्त ५ इस शासन का उल्लंघन कोई न करे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड नेरल गुन्डी होनाली प्रशस्ति का विवेचन. प्रस्तुत शिला प्रशस्ति मैसूर राज्य के सिमोगा जिला के होनाली तालुके नेरल गुन्डी ग्रामस्थ ईश्वर मन्दिर में लगी है । प्रशस्ति नेरल गुन्डी ग्राम के ओरया हितमाया के सूर्य ग्रहण के समय मल्लिकार्जुन नाम मन्दिर को दिये हुए दान का वर्णन करती है प्रशस्ति की तिथि जयनामक संवत्सर शक ६८६ है । प्रशस्ति लिखे जाने के समय चौलुक्य नरेश त्रैलोक्यमल्ल का शासन काल था । और प्रशस्ति वाला ग्राम नरेल गुन्डी त्रैलोक्यमल्ल के द्वितीय पुत्र जयसिंह वीरलोलम्ब पल्लव परमानदि के शासनाधीन प्रदेश के अन्तर्गत था । जयसिंह के शासनाधीन प्रशस्ति के अनुसार ददिर वलीगसहस्त्र बलकुण्डा त्र्यशत और कुण्डीयार प्रदेश थे । प्रशस्ति से वह प्रकट नहीं होता है कि कथित तीनो प्रदेशो में से नेरलगुण्डी ग्राम किस प्रदेश में था । पुनश्च प्रशस्ति के पर्यालोचन से प्रकट होता है कि जयसिंह के प्रतिनिधि रूपमें उसका महामंत्रि उसके शासनाधीन प्रदेशोंका शासन करता था । उक्त मंत्रि को शासन संबंधी पूर्ण अधिकार प्राप्त था क्योंकि प्रशस्ति वाक्य समस्त राज्यभार निरुपित्” शासन संबंधी पूर्ण अधिकार प्राप्ति का भाव प्रकट करता है । (6 अराकिरी पूर्वोधृत प्रशस्ति वाली प्रशस्ति से हमे प्रकट है कि जयसिंह को कोगली पंचशत तथा अन्यन्य प्रदेशों की जागीर शक ६६६ में मिली थी । परन्तु उक्त प्रशस्ति के कुछ अंश नष्ट हो जाने से अन्य प्रदेशोंका नाम ज्ञात नहीं हो सकता था । वर्तमान प्रशस्तिमें ददिर वलीग, वलकुण्डा और कुण्यार प्रभृति तीन प्रदेशोंका नाम स्पष्ट तया उल्लिखित है परन्तु कोगली पंचशत का पूर्णतया अभाव है, यद्यपि कोगली पंचशतका इसमें उल्लेख नहीं है तथापि इसका समावेश इत्यादि में हो जाता है और जयसिंहके शासनाधीन प्रदेशों में चारका नाम स्पष्ट मालुम हो जाता है। प्रशस्ति में जयसिंहके अन्यान्य विरुदों और विशेषणों के साथ एक वाक्य विरुद दृष्टिगोचर होता है। एक वाक्यपद पूर्व प्रशस्तिका अमोघ वाक्यका पर्यायवाचक वाक्य हैं। इससे प्रकट होता है कि जयसिंह बाल्यकाल से ही अपने वाक्य का धनी अथवा अपने वचनको पूरा करने वाला था । वह सामान्य राजा और राजकुमारों के समान अपने वचनको गौरव और महत्व शून्य उपेक्षनीय नहीं मानताथा वरण जो कुछ कहता था उसे अपने लिये प्रतिबंधरुप मान उसे पुरा करता था । कितने महानुभावों के विचारसे जयसिंह समान के लिये “एक वाक्य और अमोघ वाक्यं" पदक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ पौलुक्य चंद्रिका ] प्रयोग कविकी भावुकता मात्र है। परन्तु हमारी समझमें वह भावुकता नहीं वरण यथार्थ है, क्योंकि मानव स्वभाव जो बाल्यकाल में पडजाता है वह मरते दम तक नहीं छूटता चाहे वह असत्य भाषण आदि कुछभी क्यों न हो, मानव जीवनमें किसी प्रकार के वचनका पूरा करना महत्वका प्रदर्शक है जो मनुष्य अपने वाक्य का धनी होता है उसमें किसी प्रकार के दुर्गुणका समावेश नहीं होता। हमारी इस धारणाका देदीप्यमान उज्वल प्रमाण जयसिंह के पूर्ण यौवनकालीन शक ६६६ के चितलदूर्ग जिला के हुलगुण्डी ग्राम वाली प्रशस्ति में पाया जाता है। उधृत प्रशस्ति कथित जयसिंह के गुणोंका आस्वादन हमारे पाठकों को विवेचन में अवश्य मिलेगा, इस हेतु यहां पर हम उसका उल्लेख नहीं करते हैं। प्रस्तुत प्रशस्ति के विवेचन को समाप्त करनेके पूर्व हम इसकी तिथि सम्बन्धमें कुछ विचार प्रकट करते हैं । इसकी तिथि जय संवत्सर शक ६८६ है । परन्तु संवत्सर केसाठ नाम बाले चक्र पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि शक ६८६ में जय नहीं वरण क्रोध संवत्सर था एवं शक ६८६ से ठीक दश वर्ष पूर्व शक ६७६ में जय संवत्सर था। ऐसी दशामें हम कह सकते हैं कि शक ६७६ के स्थान में भूल से ६८६ उत्कीर्ण हो गया है । हमारी इस धारणा के प्रतिकुल कहा जा सकता है कि वर्ष लिखने में भूल नहीं वरण संवत्सर के नाम में भूल हुई है । विनम्र समाधान यह है कि प्रस्तुत प्रशस्तिके संवत्सरका निश्चय करने के लिये हमारे पास दो साधन हैं। प्रथम साधन तो यह है कि पूर्व भावी किसी भी विक्रम अथवा शक संबतों के संवत्सरों का यथार्थ नाम जानने की प्रक्रिया जो हमारे ज्योतिषशास्त्रके प्राचार्योंने निर्धारित किये हैं और दूसरा साधन यह है कि प्रस्तुत प्रशस्ति के पूर्वभावी निर्धान्त संवत्सर वाले लेखों और प्रशस्तियों के समय से संवत्सरोंके चक्रकी परिगणनाकी जाय । . प्रथम साधन के संबंध में हमारा इतनाही कहना है कि उक्त गणना के अनुसार शक ६८६ में नही वरण शक ९७६ में जय संवत्सर पड़ता है । अब रहा द्वितीय साधन उसके संबंधमें मी हमारा निवेदन है कि इसके अनुसार मी जय संवत्सर शक १८६ में नही वरण ६७६ में पडता है हमारे पाठकों को ज्ञात है कि जयसिंह के पिता और पितामह प्रभृतिके अनेक लेख हम चौलुक्य चंद्रिका के वातापि खडमें पूर्व उधृत कर चुके हैं एवं जयसिंहका पाराकिरीवाला लेख पूर्व उद्धृत किया है उक्त अराकिरीवाले लेखका संवतसर्वजीत है एवं चौलुक्य राज्य उद्धारक तैलपदेव द्वितीय के निगुण्ख्वाले लेखका संवत्सर चित्रभानु और शक वर्ष १०४ है । इस लेखकी तिथि और संवत निप्रान्त है । अतः हम अपने दूसरे साधनका आधार स्तंभ उसीको बताते हैं। - इमें यह ज्ञात हो गया कि शक १०४ चित्रभानु संवत्सर था, अतः संवत्सर चक्र पर दृष्टि पात कर ज्ञात करना होगा कि चित्रभानु संवत्सर ब्रह्मा, विष्णु, और रुद्र की वीसीओं में से किस पीसी में है और इसकी संख्या क्या है। चित्रमानु संवत्सर ब्रह्मा की वीसी में है और इसकी संख्या १६है। एवं वीसियोंकी सम्मिलिति संख्या बाले चक्रमें भी इसकी संख्या १६ पड़ती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .[ लाट वासुदेवपुर सड शक १०४ और विवेचनीय शक ६८६ में ८२ वर्षका अन्तर है। इधर संवत्सरोंकी संख्या केवल ६० हैं। पुनश्च उनमेंसे मी १६ व्यतीत हो गये हैं। अतः संवत्सरकी संख्या ४८ हैं। इस ४८ को ८२ बनाने के लिये हमे संवत्सर चक्रका पूर्ण परिभ्रमण कर पुनरावर्तन करना पड़ेगा और ३८ संख्या वाले चक्रवर्ती संवत्सर पर्यन्त पहुंचना होगा। ___संवत्सर चक्र पी ३८ की संख्या विष्णु की है। वह १८ वे नामको लेकर पुरा होता है। अब देखना है कि विष्णु की वीसी वाले १८ वें संवत्सरका क्या नाम है। उक्त वीशी के नामचक्र पर दृष्टिपात करने से १८ वी संख्यावाला संवत्सर क्रोधी संवत्सर प्राप्त होता है। अतः इस प्रकारमी हमारा पूर्व कथन कि, शक ६८६ में क्रोधी संवत्सर था सिद्ध हो गया। अब केवल मात्र शक ६७६ में जय संवत्सरका होना निश्चित करना मात्र रह गया है। यह अत्यन्त सहज है, क्योंकि शक ६८६ से पूर्व शक ६७६ पडता है। जब ६८६ में विष्णुकी वीशीका १८ वां संवत्सर क्रोधी है तो उसे १. वर्ष पूर्व अर्थात विष्णुकी वीशीका ८ वां संवत्सर पड़ेगा । विष्णुकी वीशीका आठवा संवत्सरका जय नाम है । इस प्रकार मी हमारा पूर्व कथन, कि जय संवत्सर शक ६८६ में नहीं वरन् शक ६७६ में था सिद्ध हो गया। अतः हम निशंक होकर प्रकट करते हैं कि प्रस्तुत प्रशस्ति का शक वर्ष १८६ के स्थान ६७६ में भूल से उत्कीर्ण हो गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] श्री वीर लोलम्ब जयसिंह का जतिग रामेश्वर गिरी वाली शिला प्रशास्ति। . १ ॐ स्वस्ति समस्त भुवन संस्तुत महा महिम . २ श्रोदमोदय ओलसित पल्लवानवयं श्री ३ पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वरं ४ परम महेश्वरं विदग्धी विलासनी विलोचन चकोर चन्द्र ५ प्रत्यक्ष देवेन्द्र राज विद्या भुजंग अन्नन सिंग ६ श्रीमत् लोक्यमल्ल नोलम्ब पल्लव परमनादि जय ७ सिंह देवर गोयदवादाय परिवदिनल सुखादि राज्यं ८ गेयुतं ईरे । शक वर्ष ९९३ नेम विरोधिकृत संवत्सराय ९ फालगुन द अमावासे बुधवारं वलगोति तीर्थ स्थान व रामेश्वर देवरगे फानीयकल मुनूरी वलीय ११ वारं वन्नेकलं सर्वनमस्यं भागी अमृतराशी १२ जीयर्गे धारा पूर्वक मादी कोत्तर । ई धान १३ श्रावनोर्व किंदीमिदवं वानराशी वाल गोतियल १४ कावेलुयुं ब्राह्मण रप आलीद पातकन अक्कु । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. VII. जतीग रामेश्वर का शिलालेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat चौलुक्य चंद्रिका www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । लाट वासुदेवपुर या श्री वीर नोलम्ब जींसह जतिंग रामेश्वर प्रशस्ति छायानुवाद । कल्याण हो । जब के समस्त संसारका स्तुतिपात्र-महामोदय-पल्लवान्वय पृथिवी बल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर-परं माहेश्वर-विदग्ध विलासिनी विलोचन चकोर चंद्र साक्षात देवेन्द्र राजविद्या भुजंग–अनन सिंग-श्रीमान लोक्यमल्ल नोलम्ब पल्लव परमनादी जयसिंह देव गोन्दावाडी सिनिर के बहिर्भूत स्थित होकर शासन करते थे। उस समय विरोधि संवत्सर शक ६६३ के फालगुण अमावस्या बुधवारको वलगोती तीर्थके श्री रामेश्वर देव के भोगराग पूजन अर्चन निर्वाहार्थ कनेयकाल शत विषयान्तवर्ती बानेकाल नामक अमृत राशी को जलधारा पूर्वक प्रदान दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर नोल्ब जयसिंह की जतिग रामेश्वर प्रशस्ति विवेचन । प्रस्तुत लेख वीरनोलम्ब पल्लव परममनादि त्रैलोक्यमल्ल जयसिंह के दानका शासन है। यह लेख २ १/२४२ १/३ फीट प्रस्तर पर उत्कीर्ण है। उक्त प्रस्तर जतिग रामेश्वर मन्दिर के पृष्ट प्रदेश में है। अर्थात जतिग रामेश्वर मन्दिर एक प्राचीन मन्दिर है जो शक ८८४ में बनाया गया था । मन्दिर जतिग गिरि नामक पर्वत पर बना है । उक्त गिरि समुद्र तलसे ३४६६ फीट उंचा है। और चितलदुर्ग जिला (मयसूर राज्य) के सिदापुर ग्राम के समीप है। ... प्रशस्तिकी लेख पंक्तिया १४ हैं। लेखकी लिपि हाले कनाडी और भाषा संस्कृत तथा कनाडी मिश्रित है। प्रशस्तिके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि जयसिंह जब नोलम्बवाडी का शासन करता था तो गोदावाडी प्रामके बाहर अपनी चमुमें निवास करते समय बालगोती तीथके रामेश्वर नामक शिव मन्दिरके भोगाराग निवाहार्थ कानीयाकल तीन सौ विषयके वानेकल प्रामको चढ़ाया था। कथित दानकी तिथि नव चंद्र बुधवार फाल्गुण मास विरोधिकृत संवत्सर शक ९६३ है। उक्त तिथि बुधवार ३१ मार्च सन १०७२ के बराबर है। यह समय सोमेश्वर द्वितीय के राज्य काल में है। क्योंकि उसका समय शक ६६० से ६६८ तदनुसार ईस्वी सन १०६८ से १०७६ पर्यन्त है। प्रशस्तिके पर्यालोचनसे जयसिंह के अन्यान्य विरुद के साथ "अनन सिंह" विरुद प्रकट होता है। अनन सिंह कनाडी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ अपने बडे भाइका सिंह होता है। अतः हम कह सकते है कि जयसिंह अपने बड़े भाई सोमेश्वर द्वितीयके आधीन था । प्रशस्ति में जयसिंहको परम महेश्वर कहा है इससे प्रकट होता है कि वह शिवका अनन्य भक्त था । एवं प्रशस्ति कथित “ पल्लवान्वय" का विचार पूर्वोक्त प्रशस्ति में पूर्ण रूपेण कर चुके है। अतः यहां पर इसके संबंध में कुछ भी लिखना पिष्टपेषण मात्र है। प्रशस्ति से प्रकट होता है कि जयसिंह ने प्रशस्ति कथित दान उस समय दिया था जब पागोन्दावाडी शिवीर के समीप में निवास करता था। शिवीर अथवा उसके समीप निवास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१ [लाट वासुदेवपुर खण्ड करने का अभिप्राय शान्ति का नहीं वरण युद्धकाल का सापक है। अतः यह निश्चित है कि जयसिंह या तो उस समय किसी बुद्ध के लिए जा रहा था अपना किसी युद्ध में विजय प्राप्त कर लौट रहा था। अब विचारना है कि विवेचनीय युद्ध किस और किसके साथ युद्धका संकेत करता है। जयसिंहने स्वतंत्र रूपसे किसीके साथ युध नहीं किया था क्योंकि प्रशस्तिमे . उसके लिये “ अननसिगम " अर्थात अपने बड़े भाईका सिंह लिखा गया है। इस विरूदका भावार्थ यह है कि जयसिंह अपने बड़े भाई सोभेश्वरका सिंह अर्थात सिंह समान प्राक्रमी अद्वितीय वीर था । अतः स्पष्ट है कि जयसिंह सोमेश्वर पर आक्रमण करनेवालों का पराभव करके अथवा उसकी माझासे उसके शत्रुओंके देशको विजय कर कथित गोन्दावाडी शिवीर के बाहर निवास कर रहा था और अपनी विजय के उपलक्षमे अपने आराध्य देव भगवान शंकर के रामेश्वर नामक मन्दिरको उक्त दान दिया था। शक EEE में सोमेश्वर के राज्यरोहन पश्चात चौलुक्य राज्यका अपहरण करने के विचारसे बीर चोल ने आक्रमण किया था और उसे सोमेश्वर विक्रम और जयसिह के सामने लेनेके देने पडे थे। उक्त युध्ध वर्तमान प्रशस्तिकी तिथि से लगभग दो वर्ष पूर्व हुआ था। अतः उस विजय के उपलक्षमें यह दान नही हो सकता। अब विचारना है कि इस प्रशस्तिमे सांकेतिक कौनसा युग्ध है। ___ कांचीपति वीर राजेन्द्र चोल के राज वर्ष सातवें के सदर्न इन्डीया इस्लीशन जिस्व ३ पृष्ठ २६३ में प्रकाशित-लेखसे प्रकट होता है कि उसके और सोमेश्वर भुवनमल्ल के बीच एक युध्ध हुआ था । उक्त लेखसे यह भी प्रकट होता है कि कथित युग्धमें सोमेश्वर का मसला भाई विक्रम राजेन्द्र चोलसे मिल गया था और सोमेश्वरको हारना पड़ा था। एवं राजेन्द्र चोलने सोमेश्वर से कन्नड और रट्टवाडी प्रदेश छीन लिया था तथा रट्टवाडी विक्रमको उसके देशद्रोहके पुरस्कारमें दिया था। अब यदि हम इस युध्धको प्रस्तुत प्रशस्तिमें सांकेतिक युग्ध मान लेवें तो वैसी दशा में दो विपत्तियां विकराल रूप धारण कर सामने आती हैं। प्रथम विपत्ति यह है कि वीर राजेन्द्र चोल के कथित लेखमें शक आदि संवत का उल्लेख नहीं है और दुसरी विपत्ति यह है कि विक्रमादेव चरित्र के कर्ता बिल्हण के अनुसार विक्रम सोमेश्वर का साथ छोड़कर कल्याण से माते समय जयसिंहको अपने साथ लेता आया था। प्रथम विपत्ति के संबंध में यह कह सकते है कि वीर राजेन्द्र चौल का राज्यारोहन अन्यान्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर शक ६८६ का प्रारंभ माना जाता है। अतः उसका सात वां राज्य वर्षे शक ६६३ का प्रारंभ अर्थात कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा हुआ । अतः उसके सातवें वर्ष वाला युध्ध शक १६३ के कार्तिक मासके वाद होना चाहिए । संभव है कि कथित युग्ध कार्तिक और फालगुण के मध्य किसी समयमें हुआ हो। हम उक्त गुग्धको ही प्रस्तुत प्रशस्ति सांकेतिक युग्ध मानते है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ . [चौलुक्य चंद्रिका अब रहा द्वितीय विपत्ति के सबंधका साजमस्य संमेलन। इस संबंधमे हम बिल्हण के कथनको अस्वीकार करते हैं। क्योंकि बिल्हणने अपने आश्रयदाता विक्रमादित्यके चरित्रको निर्दोष और सोमेश्वरके चरित्रको दोषपूर्ण चित्रित किया है। बिल्हण के कथन और कांचीपति वीर राजेन्द्र चोलके लेखको समानान्तर पर रख तुलना करतेही बिल्हणकी पोल खुल जाती है क्योंकि उसने विक्रमदित्यके युध्ध समय अपने जातीय शत्रुसे मिल जानेका उल्लेख नहीं किया है। अपने बड़े भाई और राजाका साथ युद्ध समय छोड शत्रुसे मिल जाना यदि निर्दोष और प्रशंसनीय चरित्र है तो निर्दोष चरित्रको शब्द सागर और साहित्य क्षेत्र से निकाल बहार करना पडेगा । पुनश्च हम बिल्हण के कथनको निम्न कारणोंसे भी नहीं मान सकते। वीर राजेन्द्र चोलकी प्रशस्ति कथित युद्ध के पश्चात भाविनी प्रस्तुत प्रशस्ति और इससे दो वर्ष पश्चात वाली हुले गुण्डी सिद्धेश्वर प्रशस्ति जयसिंहको स्पष्ट रूपसे सोमेश्वर के आधिपत्य को स्वीकार करनेवाला बताती है। ___ अतः हम अन्तमें निशंक हो प्रस्तुत प्रशस्ति कथित जयसिंहका गोवुन्द शिवीरके बाहर निवास करने प्रभृति से यही परिणाम निकालते हैं कि विक्रमादित्य जब युद्ध क्षेत्र से निकल कर शत्रु से जा मिलाना और सोमेश्वर को भागना पडा उस समय जयसिंह अपने स्थान पर डटा रहा और शत्रुको प्रचुर लाभ नहीं उठाने दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड हुले गुन्डी प्रशस्ति स्वस्ति समस्त भूवनाश्रयं पृथिवी बल्लभं महाराधिराज परमेश्वरं परम भट्टारकं सत्याश्रय कुल तिलकं चौलुक्या मरणं श्री मुवनमल देवारु राज्यं उत्तरात्तराभ प्रवृद्धि वर्धमान आचंद्रार्क तारा वरं सालुतं इरे। स्वस्ति सास्त भवन स्तुतं अप्य महामहि मोदयोल्लासत पल्लवान्वय श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर वीर महेश्वरं विदग्ध विलासिनी विलोचन चकोर चंद्र प्रत्यक्ष देवन्द्र विक्रान्त कण्ठीरवं मंण्डलीक भैरवं शरणागत वज पंजरं चौलुक्य दिक कुंजरं साहसालंकारं कीर्तिवल्लरी लर्पित त्रिलोकं राज विद्यान्गना भुजगं अन्न नि.शमं श्रीमत त्रयलोक्यमल्ल नोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह देवारे दिव्य पाद पोपजीवीय अप्य । स्वस्ति समस्त दुष्ठराति मानेय मदान्ध गन्ध गजसिंह स हसोतुंग रणरंग राक्षसं विशालमदे भानांकुशं चाल मानेय गोन्डल चतुर्मुखं मच्छरिव वैरी घट भुभुंक केतु गन्दं कडन प्रचण्डं कायावर भी जलद अंक राम पगेयं धेङ्गकोलवं कलीय मार कोलबंवाभ दसेरे मल्लम भितार कोलन-रत्तांग हवं मरेवरे कावनरे कवं अहित जन कदलीवन कुंज सुमट ललाट पट वैरी घृतं त तपुयं वोरिदिन्द ओपुर पर मण्डल सुरेकार वैविणारं अरिवल करि चूराकं वीराग्रणराय हनवितत कोलाहलं कविगमक वादा वाग्मी सम्ब.रणं नामादि समस्त प्रशस्ति सहितं श्रीमन्महासामन्तं केरेयूर मङगीय एच्छायं सूलगाल एल्ल रातुमान भालुतं इलदु स्वस्ति शक ९९५ नेय प्रमादि संवत्सरात पुष्य बहुलाष्ठमी सोम्बाराद अनद उत्तरायण संक्रानी तिथ्याल स्वास्त यम नियम स्वाध्याय घ्यान धारणा मौणानुष्ठान जप समाधि सम्पन्नार अय्य श्रीमत केरेयूर ज्ञानशिव देव मौनी मुनिवर कालं करच्छी धारा पुर्वक मादी सुरगल तिथाद भीमेश्वर हिडम्बश्वर वादीय प्रागलीय उल्लदेवाण एल कोतेयी पश्चिम दिशा वर दोल वित्त केत मर्या अरुवत्तु श्रीमान महा सामन्तं गयन गाकुर्द Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौहान पत्रिका वीम्मगावुवं केरेयुर तन्न केरेय केरेगोदन गेयलु भीमेश्वर देयरगे वित्त गलदे कम्मम १०० इन्तु भूमिदान मादीदरगे फल ॥ लोक ॥ घाबरण्ड भवेवभूमिः सामन्तो दयसादिता। तावत्युग सहस्राणि रुद्रलोके महीयते। इम्त इ धर्मम प्रतिपालिसिद वरगे। श्लोक ॥ चतुरसागर पर्यनं पृथ्वी पर स्थ भूषिते ॥ यद्वेदार्थे द्विजेन्द्राणां राहु ग्रहसने दिवाकरे ॥ तस्य तत्फल माप्नोति शिवलोके महीयते । इन्त धम्म मलीदं महा पात्तकान अक्कु । अलिसाहिते श्लोक । भ्रमन्ति सुधिरं कालं क्षुत्पिपाशादि पिटीतः। भाघोर नरकं यान्ति यावचन्द्रदिगकरं ॥ न विष विषमित्याहुः देव स्वविष मुच्यते । विष मेका केनं हन्ति देवस्वं पुत्र पौत्रकं ।। ३ शिला लेखकं वरदं श्रीमन्महा सामन्त मगीय चायत सन्धि विग्रही वम्मयान। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. IX. चौलुक्य चंद्रिका हुलेगुन्ड (चितल दूर्ग) सिद्धेश्वर मन्दिर का शिलालेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ हुले गुण्डी प्रशस्ति का छायानुवाद. स्वस्ति । समस्त संसार के आश्रय पृथिवी पति महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलक चौलुक्य वंश विभूषण श्री भुवनमल्ल देव का राज्य लहरा रहा था। और सकल संसारमें स्तुति प्राप्त महा महिम पल्लवान्त्रय पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर वीर महेश्वर - विदग्ध विलासनीके नयन रूपी चकोर का चंद्रमा - साक्षात इन्द्र विक्रान्त कन्ठीरव - माण्डलीक भैरव शरणागत वत्र पंजर - चौलुक्य दिक् कुंजर - सहसालंकार कीर्ति वलरी परिवेष्ठित त्रिलोक्य राज्य विद्यांगना भूजंग - अनन निशिम, श्री त्रयलोक्यमल्ल नोलम्बा परमनादि जयसिंह देव का : - [ लाट नन्दिपुर खण्ड दुष्टशत्रु मानभंजक | मदान्ध गजसिंह साहस चूड़ामणि युध्धमे राक्षस समान प्राक्रमी, बडे बडे विशाल शत्रु रूपी हाथीओं का वशकर्ता अंकुश परम प्रचण्ड, भीमाकार दुरूप कदलीवनका विनाशक हाथी, बडे बडे योद्धाओं के ललाट पटका विदारक शत्रु रूप घृतका तापक अग्नि, शत्रु बल नाशक विराग्रगण्य, कवियोंकी कविता प्रबाह का निरोधक, केरेयुर निवासी महा सामन्त मंगीय एच्छायं सुलगाल प्रदेसका शासन करता था । - - उस समय शक ९६५ प्रमादि संवत्सर के पुष्य बहुलाष्टमी तिथि सोमवार उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर केरेयुर निवासीने यम नियम स्वध्याय ध्यान धारणा मौणानुष्ठान जप समाधि संपन्न ज्ञान शिव देव मुनीको सुरगाल तीर्थ के भीमेश्वर और हिडम्बेश्वर तथा अन्यान्य देवताओं के नित्त नैमित्तिक भोगराग पूजार्चन निवाहार्थ १०० मत्तल भूमिदान दिया । संसारमें जबतक सूर्य चंद्र और तारागणों की स्थिती है । भूमिदान देनेवाला रुद्रलोकमें सहस्रयुगपर्यन्त वास करता है । वेदार्थ वित्त ब्राह्मणों को सूर्य ग्रहण के अवसर पर जो समस्त संसारके दानका पुण्य प्राप्त होता है वही पूण्य परदत्त दानके संरक्षरण का होता है । भूदान का अपहरण करने वाला क्षुत्पीपासापिडीत प्रलय काल पर्यन्त घोर रौख में वास करता है । विष वास्तवमें विष नहीं वरण देवस्व विष है । क्यों कि विषतो केवल विषपान करने वाले कां प्राण हरता है परन्तु देवस्व पुत्र पौत्र आदि सब को नरक देने वाला है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat इस शासन का लिखने वाला महासन्धि विग्रहिक महा सामन्त मंगीय एच्छायन और उत्कीर्ण करने वाला बम्मायान है । www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ८६ हुले गुन्डी प्रशस्ति विवेचन. प्रस्तुत प्रशस्ति मयसूर राज्य के चितलदूर्ग जिलाके चितलदूर्ग होवेली के ग्राम हुले गुण्डी के सिध्धेश्वर मन्दिर में लगी है। प्रशस्ति लिखे जाने के समय चौलुक्य राज भुवनमल्लका शासन था। भुवनैकमल्ल विरुद जयसिंह के ज्येष्ठ भ्राता सोमेश्वरका था । सोमेश्वरका राज्यारोहण अपने पिता आहवमल्ल - त्रयलोक्यमल्लकी मृत्यु होने के १६ दिवस पश्चात हुआ था । आहवमल्लने चैत्र कृष्ण अष्टमी रविवार शक ६६० तदनुसार रविवार २६ मार्च १०६८ को जल समाधि ली थी। और सोमेश्वरका राज्याभिषेक वैशाख शुक्ल सप्तमी शुकवार तदनुसार ११ एप्रील सन १०६८ को हुआ । इस हेतु प्रस्तुत प्रशस्ति सोमेश्वर के राज्य कालके पांचवे वर्षकी है। प्रशस्तिमें जयसिंहके बीरनोलम्ब आदि विरुदोके साथ "श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर वीर विदग्ध विलासिनी विलोचन चकोर चंद्रम् प्रत्यक्ष देवेन्द्र विक्रान्त कन्ठीरवं माण्डलीक भैरवं शरणागत वन पंजर चौलुक्य दिककुंजर साहसालंकार किर्तीवल्लरी वलापीत" प्रभृति दिये गये है। इन विरुदोंमें श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज “परमेश्वर" स्वातंत्र्य प्रदर्शक विरूद हैं । परन्तु हम जयसिंहको स्वतंत्र नही मान सकते क्योंकि प्रशस्ति के प्रारंभ में स्पष्ट रुपसे भुवनैकमल्ल सोमेष्वर का अधिपत्य स्वीकार किया गया है। किन्तु उत्तर भावी विरूदों "प्रत्यक्ष देवेन्द्र बिक्रान्त. कन्ठीरव माण्डलीक भैरव साहसालंकार चौलुक्य दिकक्कुंजर" को लक्षकर हम इतना अवश्य माननेको कटिबध्ध हैं, कि जयसिंह अद्वितीय वीर परम साहसी और चौलुक्य राज्यका संरक्षक था। अतः महाराजाधिराज आदि विरुद सर्वथा उसके उपयुक्त थे। संभव है, उसने सोमेश्वरकी आधीनता नाम मात्रके लिये स्वीकार किया हो पर वास्तवमें स्वतंत्र हो गया हो। इसके अतिरिक्त प्रशस्ति उसके विरुदों में महेश्वर और शरणागत वन पंजर बताती है । इन दोनोंमें महेश्वर विरुद उसका शैव होना और शरणागत वन पंजर-आश्रित जनोंकी रक्षा करनेवाला प्रकट करता है। हमारे पाठकों को स्मरण होगा कि जयसिंह के शक ६६६ वाली प्रशस्ति का वाक्य " अमोघ वाक्यं " और शक ९७६ वाली प्रशस्ति का वाक्य " एक वाक्य" को लेकर हमने बहुत जोर दिया है और जयसिंहको अपने वाक्य का धनी आदि लिखा है। और यह भी लिखा है कि एकवाक्यता मनुष्य के उत्कृष्ट और महत्वशाली जीवनका प्रथम सोपान है । एवं यहभी प्रकट किया है कि हमारी इस धारणाका समर्थन प्रस्तुत प्रशस्ति से होता है। अब हम अपने पाठकोंका ध्यान वर्तमान प्रशस्ति के वाक्य "शरणागत वन पंजर" प्रति आकृष्ट करते हैं। कथित वाक्य का भावार्थ है कि अपने आश्रित के प्रति किये गये घात के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड लिये ढाल । मनुष्यमें जब तक एकवाक्यता न होगी वह अपने शरणागतकी रक्षा कदापि नहीं कर सकता। उक्त गुणोंसे वञ्चित मनुष्यको शरणागत मनुष्यकी रक्षा करनेमें जहां कुछभी आपत्तिकी भनक मिली नहीं की उसने उसको उसके शत्रुओंके आधीन किया। यह मानी हुई बात है कि शरणगतकी रक्षा करने में अपने प्राणों बाजी लगानी पड़ती है। प्रशस्ति जयसिंहका वर्णन करने पश्चात् उसके सामन्त मंगीया इच्छाया कोदयुर निवासी का उल्लेख करती है। मंगीय इच्छाया सूलगल संप्तति का शासक और उसका महा सामन्त था । प्रशस्तिकारने मंगीय इच्छाया के विशेषणों के वर्णन करनेमें पाण्डित्यका प्रचूर रूपेण परिचय दिया है। उसके विरुद के संबंधमें लिखना अनावश्यक मान हम आगे बढ़ते हैं। प्रशस्ति का उद्देश्य मंगीय इच्छाया कृतदानका वर्णन है। मंगीयाने सूलगलके भीमेश्वर और हिडम्बेश्वर नामक मन्दि रोंके लिये जप नियम स्वध्याय निरत ज्ञानशिवको १०० मातरभूमि दिया है। प्रस्तुत भूमिकी सीमा प्रभृतिका वर्णन करने पश्चात प्रशस्ति भूमिदान के फल और अपहरण जन्य पापादि का वर्णन करती है । परन्तु अन्यान्य शासन पत्र और शिला लेखों समान प्रचलित फलाफल कथन करनेवाले व्यास के नामसे प्रचलित श्लोक के स्थान में नवीन श्लोकोंको प्रशस्ति ने अपने गोद में स्थान दिया है। यद्यपि ये श्लोक भिन्न हैं तथापि इनके भाव प्रचलित श्लोको के समानही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] आचपुर तीर्थ की शिला प्रशस्ति। नमस्तुङ्ग स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री पृथिवी वल्लभं महाराजाधिराज राज परमेश्वर परम भट्टारकं सत्याश्रय कुल तिलकं चौलुक्या भरणं श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल देवर विजय राज्य उत्तरोत्तराभि वृद्धि प्रवर्धमानं यावच्चन्द्रार्कतारा वरं मालुतं इरे कल्याण नेलेवी दिनोलु सुख सत्कथा विनोद दादि राज्य गेयुतं इरे तदनुजं स्वस्ति समस्त भुवन संस्तूयमानं लोक विख्यातं पल्लवान्वय श्री महि वल्लभं युवराज राजा परमेश्वरं वीर महेश्वरं विक्रमाभरणं जयलक्ष्मी रमणं चौलुक्य चूडामणि कडन त्रिनेत्रं क्षत्रिय पवित्रं मत्तगजाज्गारामं सहज मनोज रिपुराय कड़ने सुरकारं अननाकारं श्रीमत् त्रय लोक्य मल्ल वीर नोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह देवर वनवासे पनीस्वधारिरामुम् सन्तालिग सासीरामुम् एरदी एनुरुम् कदुर शाक्षिरामुम् नलड सुख स्तकथा बिनोददि राज्यं गेयुत् इरे तत् पाद पदोपजीवी समधिगत पंच महाशब्द महा सामन्ताधिपति महा प्रचण्ड दण्ड नायकं विबुध पर सुख दायकं गोत्र पवित्रं जगदेक मित्रं निज वंशाम्बुज दिवाकर सत्य रत्नाकरं विवेक बृहस्पति शौच महाव्रति परनारि सहोदरा विदग्ध विद्याधर्म सकल गुण निवासं उभय राज संतोषं श्रीमत त्रैलोक्यमल्ल वीरनालम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह देव पादाराध्यकं पर बलसाधकं नामादि समस्त प्रशस्ति सहितं श्रीमत् महा प्रधान दिरि सन्धि विग्रही दण्ड नायकं ताम्बरसार सन्तालिग ससी। मुम् नग्राहारङ्गलमस दुष्ट निग्रह शिष्ट प्रतिपाल नादिदं आलुमम् अानदिराज्या ध्यचाद वेसानं माची राजांगे दाये गेयदु दुदे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड ताले ददु सिन्धवादि सकलोर्वियोल उननतियं तदुर्वारा । तोल कादोल अग्रहार तिलक सागायि युद्ध कंचाया। बेल गली परीशोभे वर्शनं अदरोल द्विजभूषणं अत्रिगोबान । उज्वल कीर्नि वाजी तिलकं प्रभु माची सुध्धामरीचयोल ॥ मा महा पु ष सोवनाथायांगं अव्वाक वेगम युति ..मस्त गुण सम्पन्न गोत्र पवित्रं बुधजन मित्रं श्री मांची राज राजाध्यक्षाद वेभादोल नादे युत्तम इलद श्री राजधानी अदासुरद इषान तीर्वाद इषान्याद देसयालु श्री मचेश्वर देवारुमम आदित्यदेवारुमम विष्णुदेवरुमम प्रतिष्ठिते गेयदु श्रीमचालुक्य विक्रम वर्षाद ३ रेनेये सिध्धार्थी संवत्सराद उत्तरायण संक्रान्ति निमित्तादि म यम नियम स्वाध्याय ध्यान धारणा मौ नानुष्ठान जप समाधि सम्पन्न र अय्य श्रीमत अनन्तशिव पण्डिार कालं करच्छी धारा पू। ___ कालु कुतिय क्षेमोजना मग एवीज कन्दरी रुवा देगुलमम मदीद कामोज श्री। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालुक्य चंद्रिका पाचपुर प्रशस्ति का छायानुवाद। कल्याण हो । सकल संसार के आधार श्री पृथिवी पति महाराजाधिराज परमेश्वर परं भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलक चौलुक्य वंश भूषण श्रीमान त्रिभुवनमल्लदेव के राज्य काल में उसका छोटाभाई सकल संसार में संस्तुत - लोक विख्यात - पल्लवान्वय - पृथिवीपति युवराज राजा परमेश्वर वीर महेश्वर विक्रमाभरण जयलक्ष्मी वल्लभ चौलुक्य चूडामणि - युद्धमे त्रिनेत्र - पवित्र क्षत्रिय - मदमस्त हस्ती समान बलशाली - धर्म धूरीन - शत्रु सेनाका यम श्रीमान वैयलोक्यमल्ल वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि श्री जयसिंह देव सुख और शान्ति के साथ वनवासी द्वादश सहस्त्र प्रदेशका शासन करता था। और जयसिंहदेवका चरण सेवक पंच महाशब्द अधिकार प्राप्त - सामन्तोका स्वामी महाविकराल दण्ड नायक - विद्वानो का मित्र - स्ववंशउजागर - संसारका एकाधार - सत्य सन्ध - बृहस्पति समान विचक्षण - अन्य स्त्रियो को पुत्र समान - सदगुणागार दोनों राजाओंको आनन्द दायक - परन्तु त्रयलोक्यमल्ल वीरनोलम्ब जयसिंहका चरण किंकर • शत्रु मान मर्दकप्रभृति विरुदोपेत • महा प्रधान - प्रधान दण्ड नायक - सन्धि बिग्रही ताम्ब्ररस सन्तालिग सहस्त्र प्रदेश और अग्राहारों का शासन और दुष्टोंका निग्रह तथा शिष्ठोंका पालन करता था । उक्त नाडके राज प्रतिनिधि ने अपनी आज्ञा को माच्ची राजा पर प्रकट किया: संसारकी कली रूप सिन्दवाडी है। और उसके अग्रहारों में परम रमणीय तथा आकर्षक घेलगली है। इसका रत्न परम प्रख्यात अत्री गेत्र में माची उत्पन्न हुआ। उक्त महापुरुष सोमथाप और अरवीकाली का पुत्र सकल. सद्गुणों का आगार स्ववंश उजागर विद्वानोका आश्रय माची राजाके राज प्रतिनिधि की आज्ञा अनुसार राजधानी अदासुर के उत्तर दिशावर्ती तीर्थके पूर्वोत्तरमें भगवान महेश्वर, आदित्य और विष्णु मन्दिर चौलुक्य विक्रम वर्ष ३ सिध्धार्थी संवत्सरमें निर्माण कराया और उत्तरायण संक्रान्ति के समय यम नियम आदि साधन चतुष्ट्य संपन्न तथा स्वध्याय रत्त अनन्त शिब पण्डितको पाद द्रक्षालण पूर्बक कथित मन्दिरों के नित्य नैमित्तिक पुजा अर्चा आदि निबाहार्थ संकल्प करके दान दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड आचपुर प्रशस्ति विवेचन. प्रस्तुत प्रशस्ति मयसूर राज्य के सिमोगा जिला के सागर नामक तालुकाके अनन्तपुर नामक ग्राम के समीप लगभग तीन माईलकी दूरीपर अवस्थित आचपुर नामक तीर्थमें लगी है। अनन्तपुर ग्राम अनन्तपुर नामक होवलीका प्रधान नगर है। अनन्तपुर ग्राम सागरसे १५ मील की दूरी पर सिमोगा-गेरसोवा रोडपर है। अनन्तपुर का मध्यकालीन नाम आनन्दपुर और पुरकालीन अदासुर है। अदासुर नाम अदासुर नामक हुमचापति के नामानुसार पड़ा है। अदासुर जिनदत्तका विरोधी था। और उसका समय आठवी शताब्दीका मध्यकालीन है। अदासुर अपने प्रारम्भ से लेकर वर्तमान समय पर्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहांतक कि सन १८३० में भी हैदरअली और टिपू के समय अनेक युद्धका क्षेत्र बना है। अदासुर-अनन्तपुर का महत्व इससे भी प्रकट होता है कि अनन्तपुर और उसके आसपासमें चौलुक्यों के अनेक लेख पाये जाते हैं। उन्हीं अनेक लेखोंमें से एक प्रस्तुत प्रशस्ति है। यह कथित आचपुर तीर्थमें ३.१/२ X २.३/४ आकारके शिला खंड पर उत्कीर्ण है। इस लेख की पंक्तिओंकी संख्या ४० है। इसकी लिपि प्राचीन हाले कनाडी और भाषा संस्कृत और कनाडी मिश्रित है। __ प्रशस्ति में चौलुक्य राज विक्रमादित्यको अधिराजा और वीरनोलम्ब पल्लव परमानादि जयसिंह को युवराज तथा वनव सीका राजा रूपसे उल्लेख किया गया है। एवं युवराज जयसिंह देवके सामन्त और महा प्रधान दण्ड नायक सन्धि विग्रही माची राजा का उल्लेख सन्तालीग सहस्त्र प्रदेश के शासक रूपसे करके उसे आदासुर तीर्थ क्षेत्र में राज प्रतिनिधि अर्थात युवराज जयसिंह देवकी आज्ञासे भगवान महेश्वर, आदित्य और विष्णुके मन्दिरका निर्माण करने तथा उनके भोगरागादि के निर्वाहार्थ ग्राम दान करनेवाला वर्णन किया है। प्रशस्ति कथित अदासुर तीर्थ वर्तमान अनन्तुपुर ग्राम और आचपुर तीर्थ है। पुरातन अदासुर ग्राम और वर्तमान अनन्तपुर से पुरातन वनवासी द्वादस सहस्र उत्तर और सन्तलिग सहस्त्र दक्षिण था। वनवासी नगर आजमी वनवासी नामसे ख्यात है और अनन्तपुरके उत्तरमें कुछ पश्चिम भुका हुआ लगभग ५० मील पर अवस्थित है। प्रशस्ति की तिथि चौलुक्य विक्रम संवत् में दी गई है। चौलुक्य विक्रम संवत चलानेवाला विक्रमादित्य छठा अर्थात् विरनोलम्बका मझलाभाई और प्रशस्ति कथित त्रिभुननमल्ल है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ६२ पूर्व में हम जयसिंह की शक १९५ वालीहुलेगुन्डी सिध्धेश्वर प्रशस्ति उधृत कर चुके हैं । उक्त प्रशस्ति में जयसिंहने अपने सबसे बडे भाई सोमेश्वर भुवनमल्ल को अधिराजा स्वीकार किया हैं । अतः यह प्रशस्ति शक ६६५ के बादकी है । सोमेश्वर भुवनमल्ल का अन्तिम लेख शक ९६८ भाद्रपद का है। उधर विक्रमादित्य के लेखमें उसके राज्य वर्ष प्रथमका चौलुक्य विक्रम संवत्सर के नामसे उल्लेख किया गया है । साथहीं. उसके प्रथम वर्ष के लेख में बार्हस्पत्य नामक संवत्सरका वर्णन है। सोमेश्वर के अन्तिम लेख में संवत्सरका उल्लेख नहीं है तथापि वार्हस्पत्य संवतसरका अनयासही हम परिचय प्राप्त कर सकते हैं । जयसिंहकी शक ६६३ वाली प्रशस्ति में विरोधिकृत और शक ६६५ वाली प्रशस्ति में प्रमादि संवतरका उल्लेख है । संवतसरके ६० नामवाले चक्र पर दृष्टिपात करनेसे ज्ञात होता हैं कि विरोधी संवतसर से पांचवा और प्रमादि संवतरसे तीसरा स्थान निम्नभाग में वार्हस्पत्य संवतसरका है । एवं ६६३ से पचंवी और ६६५ से तीसरी संख्या ६६८ है । अतः सिद्ध हुआ कि विक्रमादित्य शक ६६८ के भाद्रपद के पश्चात किसी समय सोमेश्वरको हठाकर गद्दी पर बैठा था । इस लिये प्रस्तुत लेखकी तिथि शक ६६८+३=१००१ है । जयसिंह के शक ६६३ वाली प्रशस्ति से हमें ज्ञात है कि विक्रमादित्य के सोमेश्वर के शत्रु कांचीपति वीर राजेन्द्र चोल से मिलजाने परभी उसने युद्धक्षेत्र में अपने स्थानको नहीं छोड़ा था और सोमेश्वरकी रक्षा की थी । एवं शक ६६५ वाली प्रशस्ति से भी जयसिंहका सोमेश्वर पर अनन्य प्रेम प्रकट होता है । अतः विचारनीय है कि शक ६६५ और ६६८ के मध्य विक्रमादित्यने जयसिंह को किस प्रकार सोमेश्वर से विमुख कर अपना साथी बना लिया । बिल्हण के विक्रमाङ्क देव चरित्रकी पर्यालोचनसे हमें ज्ञात है कि विक्रमादित्य ने सर्व प्रथम सोमेश्वर के विश्वास पात्र सामन्त गोपपठन गोकर्णपति कदमवंशी जयकेशी प्रथमको अपना मित्र बनाया और वहांसे आगे बढ़ कर कुछदिनो वनवासी में रहा । बादको वह चोल देशके प्रति युध्ध करनेको चला तो चोल राज ने सुलह कर विक्रम के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया । परन्तु हमारी समझमें बिल्हणने यहांपर केवल डींग मारी है। राजेन्द्र चोलके लेखका अवतरण देकर जयसिंहकी शक ६६३ वाली प्रशस्ति में हम विक्रमादित्य का युद्धक्षेत्र में सोमेश्वर का साथ छोड राजेन्द्र चोल से मिल जाना दिखा चुके हैं। यहां पर हम बिल्हण कथित कोंकन पति जयकेशी के लेख का अवतरण देकर चोल नरेशकी मैत्री संबंधी बिल्हण के पोलका भण्डा फोड करते हैं । बोम्बे रायल एसिआटिक सोसाएटि के जर्नल जिल्द ६ पृष्ठ २४२ प्रकाशित जयकेशी के लेखके वाक्य " ततः प्रादुर्भूत श्रीमान जयकेशी महीपति चौलुक्य चौल भुपालौ कांच्यां मित्रे विधाययः" से प्रकट होता है कि जयकेशी ने वीर राजेन्द्र चोल और विक्रम के मध्य मैत्री कराया था । यद्यपि बिल्हणका भण्डा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ [ लाट नन्दिपुर खण्ड कोकरण पति जयकेशी फोड़ उधृत अवतरणसे पर्याप्त रूपेण हो जाता है, तथापि और विक्रमकी मैत्री पर प्रकाश नहीं पड़ता । अतः जयकेशी के बोम्बे व. रा. ए. जो. जि ६ पृष्ठ २४२ मे प्रकाशित लेखका अवतरण देते हैं । " वियदाप्राप्त कीर्तिः श्री जयकेशी नृपोऽभवत । भूभृत जाण परायणः पृथुयशा गंभीर्य रत्नाकरः श्री प्रेमार्ड नृपः पयोनिधिनिभः सोमानुजां कन्यकां । यस्मै विस्मयकारी भूरी विभवैः देवेन कोषादिभिः ख्यातः श्री पतये स मैमल महादेवीं कृतार्थोऽभवत ॥ "" उधृत अवतरणका अभिप्राय यह है कि विक्रमादित्यने अपनी मैंमल महादेबी नामक कन्याका जयकेशी प्रथम के साथ विवाह कर दहेज में प्रचूर धनराशी तथा हाथी घोडे आदि दिये । इस लेखका समर्थन जयकेशीके उत्तराधिकारी तथा पुत्र शिवचितिके उक्त जर्नल के पृष्ठ २६७ में प्रकाशित लेख से होता है । "6 स कोंकणक्ष्मातल रत्नदीप स्तस्मा दथासी ज्जयकेशि भूपः । साहित्य लीला ललिता भिलापः संभावितानेक सुधी कलापः ॥ चौलुक्य वंशेऽथ जगत्प्रकाश. प्रादुर्वभूवो र्जित कोणदेशः । दिशांपतीनामपि चित्तवर्ती पराक्रमी विक्रम चक्रवर्ती ॥ उपयेमे सुतां तस्य जयकेशी महीपतिः । " स मैमल महादेव जानकी मिव राघवः ॥ इससे स्पष्ट है कि विक्रम ने जयकेशीको अपनी कन्या और दहेज के बहाने प्रचूर धनराशी देकर अपना मित्र बनाया था। इनकी मैत्री ने विवाह संबंधसे परिमार्जित होकर दोनोंको एक उद्देश्य बना दिया था। दोनों एक मत होकर सोमेश्वर के विनाश साधन में संलग्न थे । अतः इन दोनोको अपना कार्य साधन करनेके लिये सोमेश्वर के शत्रु-नहीं चौलुक्योंके के वंशगत शत्रु, को मित्र बनाना लाभदायक प्रतीत हुआ । और जयकेशी ने मध्यस्थ बन मैत्री स्थापित कराया था । अतः यह निर्विवाद है कि जयकेशी ने कांची पति वीर राजेन्द्र और विक्रम के मध्य मैत्री करायी थी । और जब सोमेश्वर और वीर राजेन्द्र के मध्य युद्ध उपस्थित हुआ तो विक्रम पूर्व निश्चयके अनुसार वनवासीसे युद्धके लिये आया परन्तु युद्ध प्रारंभ होते ही युद्धक्षेत्र छोडकर वीर राजेन्द्र के पास चला गया। जिसने विक्रमका बहुतही आदर सत्कार किया और अपने युवराज के समान उसके गले में कन्ठी बांधी। एवं उसे अपना चिर सहचर बनाने तथा सोमेश्वर का नाश संपादन करने के विचार से अपनी कन्याका विवाह करके सोमेश्वरसे छीने हुए रट्टपाटी प्रदेश दहेज में दिया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] १४ विक्रम कोकण के सामन्त जयकेशी को मिला और वीर राजेन्द्र चोड से मैत्री तथा संबंध स्थापित कर चुप नहीं रहा। वरण उसने सेउन देशके यादव बंशी राजा से भी मैत्री स्थापित कर के सोमेश्वर को गद्दी से उतराने में उससे सहाय प्राप्त किया। इस मैत्री का उल्लेख हेमाद्री पण्डित ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ चतुर्बग चिंतामणि के ब्रत खण्ड में लगी हुई राज प्रशस्ति में किया है। समुद्धृतो येन महाभुजेन दिशां विमादी परमर्दि देव । संस्थापि चौलुक्य कुल प्रदीपः कल्याणराज्येपि स एव येन जिसका भाव यह है कि सेउन देश के राजा ने अपने बाहुबलसे चौलुक्य कुल प्रदीप परमर्दि देव अर्थात विक्रमादित्यको शत्रुरूपी समुद्रसे बचाकर कल्याणके राज्य सिंहसन पर बैठाया था इससे स्पष्ट है कि विक्रमादित्य क्रमशः मैत्री आदि द्वारा अपना बल बढ़ा रहा था। और सोमेश्वर के सामन्तो को अपना मित्र बनाता था एवं वह उसके शत्रुओं सेभी मैत्री स्थापित कर रहा था। परन्तु उसके मार्ग में जयसिंह, जो सोमेश्वर का परम भक्त एवं अद्वितीय वीर था दुर्गम तथा अल्लंध्य हिमालयवत् बाधा स्वरुप खड़ा हो रहा था। अतः विक्रमने किसी प्रकार जयसिंह रुपी बाधाको सोमेश्वर से लडने के पूर्व हटाना उचित माना । जयसिंह को हटाने का केवल दोही मार्ग युद्ध या मैत्री था। युध्धमें जयसिंहको पराभूत करना सहज नही वरण टेढ़ी खीर थी । इस लिये विक्रमने उससे नचलकर द्वितीय मार्गका अवलंबन किया क्योंकि जयसिंह से लड़ने जाते समय उसे सोमेश्वर और जयसिंह के समिलित सैनका सामना करना पडता । जिसमे पराजय अथवा शक्ति के हरास का भय था। इन्हीं सब बातोको लक्षकर विक्रमने बल के स्थान में कौशल से काम लेना उत्तम माना और अपने कपट रूप महा शस्त्रको काम में लाया। यह मानी हुई बात है कि साधारण अर्थ लोभ भी मनुष्यके मनको चलायमान करने में समर्थ होता है। फिर राज्य लोभकी क्या बात है। राज्य लोभ में पडकर पिता पुत्रभी एक दुसरे का घातक देखने में आये हैं । और बन्धु विरोध तो साधारणसी बात है। इस हेतु विक्रम ने जयसिंह पर चौलुक्य साम्राज्य के भावी साम्राट पद रूप अमोघ अस्त्रका प्रयोग किया । अपने बाद चौलुक्य साम्राज्यका जयसिंह को उत्तराधिकारी स्वीकार कर उसे अपना साथी बनाया। हमारी इस धारणा का समर्थन प्रस्तुत प्रशस्ति के वाक्य युवराज राजा महाराधिराजा परमेश्वर से होता है । युवराज का अर्थ वर्तमान राजा का उत्तराधिकारी है। यदि जयसिंहका विक्रम के बाद चौलुक्य सिंहासनको सुशोभित करना निश्चित न हुआ होता तो वह कदापि अपने लिये युवराज पद का प्रयोग न करता और न विक्रम ही उसे युवराज पद को धारण करने देता। अतः निश्चित है कि विक्रम ने जयसिंहको भावी राज्य पदका लोभ दिखा अपना साथी बनाया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. VIII. चौलुक्य चंद्रिका VAS వడి Pand వADA See P ON Adda ఉదయం రములు -వరుడు కలించడం కు చదువు మండల తుండు salధతులని గుమతులు లకు ప్రజలకు ఉసాదమునందు అపునండున్నరు వితం గడంపండి మరియు సవరతినం మనం ఆఅ నందు 30 అనాసపలయం Launa మనముండిన Blog Sterone గమదర్యలహం . వయమలం nagar మరం మన ముందు ముందుకు create तुम्बर होसरु रामेश्वर मन्दिर का शिलालेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हं५ [ लाट वासुदेवपुर खण्डे तुम्बर होसरू रामेश्वर मन्दिर शिला प्रशस्ति । ॐ नमः शिवाय । पान्तु वो जलद श्यामः सारङ्ग जयाघात् कर्कशः | त्रैलोक्य मण्डप स्तम्भः चत्वारो. हरि वाहवः ॥ गणपतये नमः स्वस्ति भुवनाश्र श्री पृथिवी वल्लभ महाराजा परमेश्वर परम भट्टारकं सत्याश्रय कुल तिलकं चौलुक्या भरणं श्रीमत् त्रिभुवनमल्ल देवर विजय राज्यं उत्तरोत्तराभि वृद्धि प्रवर्धमानं चन्द्रार्क तारकं सालतं हरे । युवराजं चालुक्य पल्लव परमनादि वीर नालम्ब जयसिंह देवार वनवासे पनि सहस्रेमुम् (वनी सिर मु) सन्तालिगे ससिरमुमन एरद असनुरूमम सुख कथा विनोदादि आलुत्तम हरे स्वस्ति चौलुक्य विक्रम कालाद ४ नेय सिद्धार्थी संवत्सरात् माघ शुद्ध १ आदित्य वार उत्तरायण संक्रान्ति व्यतिपात सूर्यग्रहण वन्दु स्वास्न यम नियम स्वाध्यायध्यान धारणा मौनानुष्ठान जप समाधि शील सम्पन्नार अय श्रीमद् अग्रहारं महा पोस्यवुश उद उद्देय पर सुख महाजनं ससिरवरा कायोलु स्वस्ति यम नियम स्वाध्यायध्यान धारणा मौनानुष्ठान जप समाधि शील सम्वन्नारु चतुर्वेद वेदान्त सिद्धान्त त तर्क सकल शास्त्र पारावार परायणार अथ श्रीपद् अग्रहार ईशा बुरदा परवारुवं भारद्वाज गोत्री मादद नानीमाय न पुत्रं दिवाकरं सर्वा तथ्थारु होसाबुरा भूमियं क्रय दानं गोण्ड धारा पूर्वकं मादि सत्र के वित्ता गलेय मत्तल एरादु मनर बयाल नदवे वीरनाड वायकोलिम वदगदल अलरीमिं ते न कलुं । मत्तं क्रय दानं गोण्डु पिरिषे केरेगे धारा मुखे चित्तकोपि पिरीवेकेर पिं सिन्दग के परीचरच्छल मोदललु गलेय मतल एरयु इन्त इ-धर्म मालय कालदल इशाबुरद शशिवगम भूतिलाद भुवान्ति रच्छाशिरमं अरिये मदिद धर्मम । मुदरावनाद परगये गोविन्द राज तम्मम कोमराजं वरेवर बदराय भारत करणपुर । शिल्पीक ललाट पदम सरस्वति गण्ड पाद पंकज भमरं जिन पादाराधकं पद्योगम शिल्पीकिंकर । इन्त इ शासन धर्मम चन्द्राख्य स्थापिय के मंगलमहा श्री । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] लुम्बर होसरू रामेश्वर प्रशस्ति का छायानुवाद। भगवान शिवको नमस्कार। भगवान घनश्याम जिनके हाथों में सारंग नाम धनुष की रोदाका आघात होता है और जिनके चारो हाथ संसार रूपी मण्डपको आश्रय देनेवाले विशाल स्तम्भ है, कल्याण करे। भगवान गणपतिको नमस्कार । कल्याण हो । जब के सकल संसारके आश्रय भूत पृथिवो पति महाराजाधि राज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलक चौलुक्य वंश भूषण श्रीमान त्रिभुवनमल्ल देव; का उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त करने वाला साम्नाज्य पौर्णीमाके समुद्र समान लहरा रहा था। और चौलुक्य युवराज पल्लव परमनादि वीर नोलम्ब श्री जयसिंह देव वनवासी द्वादश सहस्त्र, सन्तालिग सहस्त्र और षट सहस्त्र नामक दो प्रदेशों का शासन सुख और शान्तिके साथ करते थे। उस समय सिध्धार्थी नामक संवत्सर तदनुसार चौलुक्य विक्रम वर्ष के ४ वर्ष माघ शुक्ल प्रदिपदा रविवारको उत्तरायण संक्रान्ति ब्यतिपात सूर्यग्रहण महा पबके समय यम नियम स्वध्याय ध्यान धारणा समाधि युक्त १००० ब्राह्मणो के अग्रहार के अधिपति यम नियम स्वध्याय धान धारणा समाधि शील सम्पन्न चतुर्वेद ज्ञाता सकल शास्त्र विशारद भारद्वाज गोत्री भटार पोशावारकों ननीमाया का पुत्र दिवाकरने होशावुर ग्राम में भूमि क्रय करके सत्र निमित्त दान दिया । __इस धर्मादाका कोई अपहरण न करे। अपहरण करनेवालो को पंच महापातक होगा। इस शासन को मुन्द्रावन पूगदे गोविन्द राजा का छोटाभाई लेखकोंका अनुचर और सरस्वति का कर्णभूषण कामराज ने लिखा। शिल्पिोंका अप्रणी सरस्वति गणके पदपंकजका भ्रमर जनैन्द्रका अनन्य भक्त शिल्पकार पद्मजाने इस शासन को शिला खड पर उत्कीर्ण किया । यह धर्म शासन संसार में सूर्य चंद्र की स्थिति पर्यन्त कायम रहे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाद वासुवेद्रपुर न तुम्बर होसरू रामेश्वर प्रशस्ति - विवेचन: प्रस्तुत प्रशस्ति मयसूर राज्य के सिमोगा जिल्ला के शिकारपुर तालुका के होसह होबली के प्रधान ग्राम होसर के समीप तुम्बर नामक स्थान के रामेश्वर मन्दिर में लगी है। प्रशस्ति का शिला खंड ३. १/२४२. १/४ आकार का है। इसकी लिपि हाले कनाडा और भाषा संस्कृत तथा प्राचीन कनाडी मिश्रित है। इसकी लेख पंक्तियों की संख्या ४६ है। इसका उद्देश्य ननीमाया के पुत्र दिवाकर कृत भूमिदानका वर्णन है। प्रति प्रहिता चतुर्वेद, सकल शास्त्र वेत्ता, यम नियम साधन चतुष्ट संपन्न स्वध्यायरत्त भारद्वाज गोत्री पोशावर है। कथित दान उसे सत्र संचालनार्थ दिया गया है। इसका लेखक कामराज और उत्कीर्ण करने वाला शिल्पकार पद्मजा है। इसकी तिथि विक्रम चौलुन्य वर्ष का चतुर्थ वर्ष है। हम पूर्बोद्धृत प्रशस्ति के विवेचनमें विक्रम चौलुक्य वर्षका प्रारंभ शक BEE में बता चुके हैं । अतः इस प्रशस्तिका समय १००२ है। प्रदत्त भूमि वीरलोलम्ब जयसिंहदेवके राज्यान्तर्गतथी जयसिंहका विरुद युवराज महाराजा था। और उसका अधिराज उसका मजला बड़ा भाई विक्रमादित्य था। इस प्रशस्ति से जयसिंह के अधिकारमें वनवासी आदि प्रदेशों के अतिरिक्त षट सहस्त्र द्वय नामक प्रदेशका मी होना पाया जाता है । पुनश्च जयसिंह के चौलुक्य साम्राज्यका युवराज होनेका स्पष्ट रुपेण समर्थन होता है। इसके अतिरिक्त प्रशस्ति में जयसिंह संबंधी कोई अन्य नवीन बात नहीं प्रकट होती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] तुम्बरहोसरुग्राममें इमलीकेनीचेवाली शिला प्रशस्ति नमस्तुग स्वस्ति समस्त भुवनाश्रय श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भवारक सत्याश्रय कुल तिलकं चौलुक्याभरणं श्रीमत् त्रिभुनमल्ल देवर विजय राज्य उत्तरोत्तराभि वृद्धि प्रर्वद्धमान पाचन्द्रार्क तारावरं सातुत्तमिरे । तस्यानुज वृत्त ॥ विनायक पासपदं भादविकृमं नोलम्ब विकृमादित्य दे। बन चिसक्क अवलम्ब आव कालेयं चौलुक्य राम क्षिति। शान कोड एरिद कुरम्मे वेत अनुग दम्म राय कन्दर्प दे। वन सम्मोहन पूर्ववानं एनल इन्न एवनियं बनायं। यो युत इलदायुद इनं दहले हिम नगरारण्यमं लाहन इन्नम्। पुगती एन्द इल्दायं इन्नं नेलसादे तीवुलं लंकेया तेन्कल मोदल। पाजेयुरा इल्वायं इननं मुलीदायन एनुतुं कोन्कनं सन्केपी गुन। दुगोलुत्त इल्दायुद एवल्लीदनो चकित विद्वित कदम्पं नोलम्बं॥ वचन ॥ एनिसिदा समस्त भुवन संस्तूयमान लोक विख्यात पल्लवषय श्री मही वल्लभं युवराज राज परमेश्वरं वीर महेश्वरं विक्रमाभरणं जयलक्षमी रमण शरणागत रक्षामाणि चौलुक्यचूडामाणि करन त्रिनेत्रं चत्रिय पवित्रं मत्तगजाहाराज सहज मनोज रिपुराय कटक सरेकारण मन्नन प्रकार श्रीमरा त्रयलोक्यमल्ल वीरनोलम्ब पल्लव परमनापि जयसिंह देवर ॥ वृरा। पुलिगेरी के रेय्युमले कासवलं वनवासे नादुखेल । बलं मोलगागी दक्षिण पयोधि वरं नेलन भावुद एक्लमम । खलरण इदिरोय सन्तोषदिन भरद प्रधिकं युवराज लक्ष्मीयम् । सले नेले तालदि सन्तं इरे विरनोलम्ब महामही भुजम् ॥ का॥ तत्पदज योप सेवा। तस्परान् प्रकलङ्क चरितान् उद्धृतरीपु भु। भूतपति दण्डाधिप सम्। परावति पतिकार्य साधक बालदेवं॥ पुरा। जिननायं स्वामी देवं पति सकल मही वल्लभ सिङ्गीदेवं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Plate No. X. चौलुक्य चंद्रिका కోసం arease RARE Anasena Hero Hom Top2OChE are PRP లకు Pra అందంనింక GOLLAM YO ము PREPARE E vare అలవాటు 20ACES A తce సదడజను ఆడడana CAS a 500 Sen-05ARGVer - n .cr FACHARAM Comes జవAdda FASARI Tag NOT AN RSS dipallapogo enadinepam 2/ 20 అమvyapADS ఇంజక SOAPSOCIA TAGES A అ No तुम्बर होसरु ( इमली वृक्षवाला ) शिलालेख । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर ल विनुतं श्री माकनन्दी प्रतिपति गुरुताय शान्ति याकं सुती । ति निधनं लक्ष्मण आत्माङ्गये सले नेलद आमालिका कांनेय पन्दाद । अन्वाय्यं दण्डनाथाग्रणी गुणी वालदेवं स्वोल भावकृतार्थम् ॥ मरिदाग एम्बलीतां वल्लिगं असदलं इत्कार्य एम्बली गंसं । ग्राम अम्सुत एन्दद एम्बलिंगं एरदेगवरुं वीदिंग एम्बलिगं बेल । पर तडक ईवेन एम्बलिगं अतिशूचियं एम्बलिगं वालिंगं वाय । उरे पार्थेन्द्रेज्य भीमान्तक वली मनुतान् एन्दोद इम धान्यं अवं ॥ का || उदावुन्तिरखुदे करं भार । && पय उदावेलावुवु जैन धर्म भोदन आदिबुद भांलय । मदने सल वोकुद उन्त एन । देवोल कलतने गुणाऽगवं बातदेवं ॥ भारयवादे काली काल दोल । अरुम् वालदेवान् मरेगे वन्दयरे गुणे | दारतयोल अरिविनोलवाक् । सरितेयोल दान धर्मादोल परहित दोल || वा । एनीय महीमीन्नतयां नेगलए समधिगत पंच महा शब्द महा सामन्ता पति महा प्रचण्ड दण्ड नायकं शिष्टेश फलदायकं प्रतिपन्न मण्ड - विभव पुरन्दरं जिन चरण कमल भृङ्गं साहसोन्तुग सम्यक्त्वा रत्न (करं बुध कुमुद सुद्धाकरं पद्मवती लब्धवरं प्रसाद धर्म बिनोद सुजन जन नमस्सरो जनी-- हन्सं सरस्वतिकर्णावतंसं श्रीमत् त्रयलोक्य मल्ल वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहदेव पादाधिकं पति कार्या साधकं नामादि समस्त प्रशस्ति सहितं श्रीदोदण्ड नायक बालदेवेयं वनवासे पन्नीरे चछर सिरामुमं पडीनेत अग्राहारमुमं मदद सुन्कावुं दुष्ट निग्रह शिष्ट प्रतिपालनादि आलद अनुभुवी सुतं राजधानी वान हरे चौलुक्य विक्रमकालाइ ४ नेय सिद्धार्थ संवत्सरात् पुष्याद् अमावास्ये आदि--संक्रान्ति सूर्य ग्रहण वान्दु पन्ना लेय कोटेय नेलेविदि नोल- वोनापदी समस्त प्रधानास पेलिकेयीं चौधारे वादेपारं वासुदेवं - पन्नीरछासरिदा कम्पनं एवेवान्ते एक पातरा वलीय अग्रहारं तेम-कदिव घारम्मके वाहश बुलसुम परे गुन्कामुम एरवं-नलकु लकने अदकेगे पुशीदुद एलमन चन्द्रार्क-धर्ममन । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलुक्य चंद्रिका ] तुम्बर होसरू इमली प्रशस्ति छायानुवाद। भगवान शंकर कल्याण करें। कल्याण हो । जब सकल संसार के अधारभूत पृथ्वी पति . महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याश्रय कुल तिलक चौलुक्य वंश विभूषण श्रीमान श्रीभुवनमल्ल देवका उत्तरोत्तर वृद्धि प्राप्त करनेवाला साम्नाज्य पूर्णिमा के समुद्र समान लहरा रहा था और त्रिभवनमल्लका सद्गुणागार छोटा भाई, उसके हृदयको प्रफुल्ल करनेवाला, एवं परम प्रिय अनग-हृदयको जीतने वाला-अपने सदगुणों से विक्रमका स्नेह भाजन-काम समान और प्रेम पात्र था इससे अधिक और क्या गुण हो सकता है। जिसके [जयसिंहके] भुजबल प्रताप और शौर्य अग्नि से दग्ध दहल राज्य आज मी निर्भय नहीं हुआ है-लाटपति आज भी उसके शौर्यका स्मरण कर हिमालयके कन्दराओंका आश्रय लेनेके लिये गमनोन्मुख होता है। तेवलआश्रय प्राप्त करनेके लिये लंकासे मी दक्षिण पलायन करता है। कोंकणपति उसके क्रोधित होनेकी आशंका से चिंतित हो रहा है । वीरनोलम्बकीशक्ति कितनी बड़ी है, अहा! जिसके नाम श्रवण माणसे शत्रुओंका ह्रदय दहल जाता है। इस प्रकार आरति समुदायको चिन्तित करने वाला--समस्त संसारमेंस्तुति प्राप्तः और प्रख्यात-पल्लवान्वय-पृथिवी पति-युवराजा परमेश्वर वीर महेश्वर-विजयेन्द्र लक्ष्मी प्रिय-शरणागत वत्सल-चौलुक्य चूड़ामणि-युद्धमें त्रिनेत्र-क्षत्रियों में पवित्र-छात्र वंश उजागर -मंद मस्त कुन्जर-स्वभावतः कामदेव-शत्रु समूह कदली बन वीदारक-अपने बड़े भाईका परम प्रख्यात तथा प्रचण्ड दौर्दान्त अद्वितीय योद्धा-श्रीमान त्रयलोकमल्ल वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह देव दुष्ट निग्रह और शिष्ट पालन पूर्वक-सुख और शान्ति के साथ दक्षिण समुद्र से लेकर पुलगिरि-रेवु-भाले केरुवालं-बनवासी-नाड और वेल वालप्रदेशोंकी “ युवराज वीरनोलम्ब जयसिंह देव" लक्ष्मीको दृढ़तासे अंकशायिनी बना शासन करता था । जयसिंहके पादपद्मका भ्रमर सद्गुणागार शत्रु नाशक दण्डाधिप अपने स्वामीके कार्यशाधक बलदेव था। जिसका पारलौकिक स्वामी जिनेन्द्रनाथ था। और लौकिक स्वामी पृथ्वीपति सीगीदेव अर्थात जयसिंह एवं गुरुन्नत पति मार्कन्डेय मुनी-माता शान्तियाक पत्नी मल्लिका और पुत्र लक्ष्म था। दण्ड नायक बलदेव के समान संसारमें कौन भाग्यशाली है। इस प्रकार महिमा प्राप्त-पञ्च महा शब्दका अधिकारी-महा सामन्ताधिपति-महा प्रचना-दण्ड नायक-सरस्वति कर्ण भूषण-त्रिलोकमल्ल वीर नोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंह का चरण किंकर-स्वामी कार्य साधक महा सामन्त बलदेव वनवासी द्वादश सहस्र और अठारह अप्रहारोंका शासन करता था और उसके अधिकार में राज्यधानी वलिपुरका मार्ग शुल्क था। महासामन्त दण्ड नायक बलदेव-जब पानली काननमें निवास कर रहा था उससमय चौलुक्य विक्रम वर्ष के पुष्य, अमावास्या तिथिः उत्तरायण संक्रान्ति सूर्य ग्रहण के समय समस्त मंत्रियों के आग्रह से, तेवल्वे सहला के कम्पन्न सरवादि सप्तती अन्तपाती कठ अपहार का कर माफ किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड तुम्बर होसरू इमली शिला प्रशस्ति विवेचन : प्रस्तुत प्रशस्ति तुम्बर होसरु ग्राम की उत्तर दिशा में एक इमली के वृक्ष के नीचे उत्कीर्ण है । तुम्बर होसरु ग्राम के संबंध में हम पूर्बोद्धृत प्रशस्ति के विवेचन में विचार कर चुके है। प्रशस्ति का शिला खंड ७४२.१/२ है। और लेख पंक्तियों की संख्या ५१ है । इसकी लिपि हाले कानाडा और भाषा संस्कृत और कनाडी मिश्रित है। प्रशस्ति में पूर्ववत् विक्रमको अधिराज और वीरनोलम्ब जयसिंह को युवराज वर्णन किया गया है। इन दोनों के अतिरिक्त जयसिंह के सामन्त तथा दण्डाधिप बलदेव का उसके प्रतिनिधि रूपसे वनवासी प्रदेशका शासन राज्यधानी वलीपुर में रह कर करना लिखा गया है । प्रशस्ति का उद्देश्य अन्यान्य मंत्रियों और सामन्तों के आग्रहसे कर माफ करने का वर्णन है। प्रशस्ति के पर्यालोचनसे विक्रम और जयसिंह मे परम सौहार्य प्रकट होने के साथ ही जयसिंह के प्रचण्ड शौर्य का दिग्दर्शन होता है। प्रशस्ति से प्रकट होता है कि उसने दाहल; लाट और अन्यान्य नरेशोंको विजय किया था और उससे कोकण पति सशंकित था। प्रशस्ति में जयसिंह से पराभूत किसीभी राजा का नाम नहीं दिया गया है। अतः यह निश्चिय के साथ नहीं कहा जा सकता कि कथित देशों के किस राजा को उसने पराभूत किया था। जयसिंह के समय कोकण में अनेक छोटे मोटे राजबंश राज्य करते थे । गोवा के कदमवंशी, कोल्हापुर और करहाट के शिल्हरा एवं उत्तर कोकण ( स्थानक ) के शिल्हरा । इनके अतिरिक्त अन्यान्य बंश संभूत अनेक छोटे मोटे माण्डलीक 'सामन्तो का आधिपत्य था। तथापि हम कोकण पति से गोवा के कदमवंशी जयकेशी का उल्लेख मानते हैं। हमारे इस प्रकार माननेका कारण यह है कि विक्रमादित्य के साम्राज्य में उसका प्राबल्य था और वह अपना एकाधिपत्य स्थापित करने में प्रवृत्त था । अपने इस मनोरथको सफल करने के लिये आकाश पाताल के कुलावे मिला रहा था। उसके इस विचार का बाधक यदि कोई था तो वह जयसिंह था। पुनश्च इन दोनों में मनोमालिन्य पूर्व से चला आ रहा था। अतः जयसिंह की शक्ति वृद्धि और शौर्य का समुद्रवत प्रबल प्रचण्ड प्रवाह देख उसका सशक होना स्वभाविक है । भागे चल कर प्रशस्ति जयसिंह के कोपाग्नि में दाहल राज्य का भस्म होना प्रकट करती है। वाइल चेदी राज्य का नामान्तर है। चेदीकी राज्यधानी उस समय त्रिपुरी नामक नगरी थी। संप्रति त्रिपुरी को तेवर कहते हैं और यह मध्य प्रदेश के जबलपुर नामक जिला के अन्तर्गत है। सहल नरेशों के साथ चौलुक्यों के सन्धि विग्रह का परिचय हमें अनेक वार मिल चुका है । सर्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] १०२ प्रथम दाइल और वातापि अर्थात कलचुरियों और चौलुक्यों के दो दो हाथ होनेका परिचय हमे मंगली के राज्य समय में मिला था । पश्चात तैलप द्वितीय को भी कलचूरीओ के साथ मीडते देखते हैं। अनन्तर जयसिंह के पिता आहवमल्ल और दहल वेदी पति कणको रणाङ्गणमें हाथ मिलाते पाते हैं । जिसमें करण पराजित और माहवमल विजयी हुआ था । करणा और हमल के इस युद्ध का वर्णन कवि विल्हण ने बडे विस्तार के साथ किया है। बिल्हण के कथनमें यद्यपि अतिशयोक्ति आपादतः पाई जाती है तथापि एवुर की शिला प्रशस्ति से उसका अतः समर्थन होता है । पुनश्च सोमेवर द्वितीय के राज्यकालीन वेलगांव से प्राप्त लेख से मी हवमल के मध्य प्रदेश पर आक्रमण करनेका समर्थन होता है। इतनाही नहीं चेदि पति करणको आहे मल्ल के साथ मालवा के परमार राज पर आक्रमण करते पाते है । अतः हम कह सकते हैं कि श्राहवमल की मृत्यु पश्चात और सोमेश्वर द्वितीय तथा विक्रमादित्य के विग्रह समय चेदि पति करण के पुत्र और उत्तराधिकारी यशस्करण ने कुछ उत्पात मचाया हो जिसे जयसिंहने अपने शौर्य का परिचय दे पूर्ण रूपेण दाहल राज्यको अपने कोपानि काप्रा बनाया हो । जयसिंह और यशस्करण के युद्धका प्रस्तुत प्रशस्तिमें उल्लेख होने और आपपुर वाली में न होनेसे प्रकट होता है कि उक्त युद्ध शक १००१ और १००३ के मध्य हुआ था । पुनश्च प्रशस्ति हमें लाट पति को जयसिंह के शौर्यसे छिपनेके लिये पलायन करने को सदा कटिबद्ध रहना बताती है। कथित लापति कौन है। लाटपति की उपाधि बारपके वंशजों की थी। भयमीत होने वाला और अब विचारना है कि प्रशस्ति बनाया था । कीर्तिराज का बारप को लाट देशका सामन्तराज चौलुक्य राज्योद्वारक तैलप देव द्वितीय ने बारप के पौत्र कीर्तिराज वातापि की आधीनता यूपको फेंक स्वतंत्र बन गया था । शासन पत्र शक १४२ का हमे प्राप्त है। कीर्तिराज के बाद उसका पुत्र वत्सराज लाटकी गद्दी पर बैठा और उसके बाद त्रिलोचनपाल लाट देशका स्वामी बना । त्रिलोचनपाल का शासन पत्र शक ६७२ का हमें प्राप्त है । त्रिलोचनपाल के पश्चात हमें त्रिविक्रमपालका शासन पत्र शक ६६६ का उपलब्ध हैं । कवित तीनों लेख चालुक्य चंद्रिका लाट नन्दिपुर खण्ड में हम अविकल रूपसे उधृत कर चुके हैं। शक ६६६ के लेख से प्रकट होता है कि उक्त शक में त्रिविक्रमपाल लाटकी गद्दी पर पाटनवालोंको पराभूत कर बैठा था । उक्त शासन पत्र और प्रस्तुत प्रशस्ति के मध्य केवल तीन वर्षका अन्तर है । अतः प्रस्तुत प्रशस्ति कथित लाटपति बारपका वंशज त्रिविक्रमपाल है । संभव है, चेदिपति यशस्करणको शिक्षा देने के लिये जाते समय जयसिंह ने लाटपति त्रिविक्रमपालको मी कुछ अपने शौर्यका परिचय दिया हो और लाठ; उत्तर कोकण और मालवा की सीमा पर कुछ अपने सैनिकरत्व छोडा हो जिनकी उपस्थिति त्रिविक्रमपालको सदा सशंकित किये हो । बहुत संभव है कि प्रस्तुत प्रशस्ति कथित कोकण पति उत्तर कोकण का शिल्हरा राजा हो । यद्यपि हमने पूर्व में कोकण पति से गोवापति कदमवंशी जयकेशि का ग्रहण करनेका विचार प्रकट किया है परन्तु उत्तर कोकण के शिल्हरों का माण्डलिक होते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ [ लाट नन्दिपुर मन भरे विरुदों का अपने नाम के साथ लगाना और स्वातंत्र्य प्रदर्शक उपाधिका यदा कदा धारण करना देख उनकाही कल्याण के चौलुक्य वंश के गृह कलह से लाभ उठाने में प्रवृत होना अधिकतर संभव है। यदि जयसिंह ने लाट और दाहल वालों के समान उत्तर कोकण के शिल्हराओंको मी कुछ शिक्षा दी हो तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। यदि ऐसी बात हो तो विचारना होगा कि उत्तर कोकण का शिल्हरा राजा कौन हो सकता है। उत्तर कोकरण अर्थात स्थानक के शिल्हरोकी वंशावली पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि मुममुनिका राज्यकाल शक ९६२ से १००२ पर्यन्त है । मुममुनिके उत्तराधिकारी का राज्य शक १००२-१००३ से प्रारंभ होता है । मुममुनिका उत्तराधिकारी अनन्तदेव है। अतः प्रस्तुत प्रशस्ति कथित युद्धकी समकालीनता मुममुनी और अनन्तदेव के साथ निर्भ्रान्तरुपेण ठहरती है। इनमें से एक के राज्य के अन्त और दूसरे के प्रारंभ काल में हीं जयसिंह ने लाट और दाहल विजय किया था । अतः हम कह सकते हैं कि इनमें से किसी एक को जयसिंहके प्रचण्ड शौर्यका परिचय मिला होगा अब यहि हम इन दोनों के राज्यकालीन उत्तर कोकण के शिल्हरा राजवंशकी अवस्थ का कुछ परिचय पा जाय और उसमें कुछ अवकास हमारे अनुमानको स्थान पाने का मिले तो हम निश्चित सिद्धान्त पर पहुच सकते हैं। मुममुनि के अन्त और अनन्तदेव के राज्यरोहण का हमें कुडमी स्पष्ट परिचय नही मिलता। परन्तु १००३ के लेखसे उसका उत्तर कोकरणकी गद्दी पर उपस्थित होना पाया जाता है । पुनश्च अनन्तदेव के अपने शक १०१६ लेख से प्रकट होता है कि उसके हाथ से राज्य सत्ता छीन गई थी और उसके किसी संबंधी के हाथमे चली गई थी। जिसका उद्धार उसने उक्त शक १०१६ के लगभग किया था। इसके अतिरिक्त विक्रमादित्य के जामात्र जयकेशि के लेखों से प्रकट होता है कि उसने युद्ध में कोकरण पति कापर्दि द्वीपनाथ को मार गोप पटन तथा उसके चतुर्दिकवर्ति भूभाग जो कोकण नवशत के नाम से विख्यात था, मिला लिया था । अब यदि जयकेशि के इस विजयको और नवशत कोकणको अधिकृत करनेकी घटनाको जयसिंह बिजय के साथ मान लेवें तो मानना पडेगा कि उक्त विजय यात्रा में जयकेशि जयसिंह के साथ था । परन्तु इस प्रकार मानने में दो बाधाए सामने आती हैं। प्रथम बाधा यह है कि विक्रमादित्य के कल्याण राज प्राप्त करने के पूर्व हीं जयकेशि के अधिकार में गोप पटन था । और उस समय जयकेशि सोमेश्वर का परं स्नेहास्पद सामन्त था । जयसिंह और विक्रमका उस समय मेल नहीं था । पुनश्च १००० वाली प्रशस्ति में जयसिंह के दाहल लाट और कोकणपतिको भय मीत करनेका उल्लेख नहीं है। अतः जयसिंह के आक्रमण समय मुममुनि नहीं वरण अनन्तदेव था । जिसे राज्य च्युत कर जयसिंहने उसके किसी संबंधीको संभवतः स्थानक के शिल्हरा राज्य सिंहासन पर अपनी आधीनता स्वीकार करा बैठाया हो। जिसका समर्थन अनन्तदेवके उक्त शक १०१६ वाली प्रशस्ति से होता है। संभवतः अनन्तदेवको स्थानक का राज्यसिंहासन अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौखुक्य चंद्रिका] संबंधी के हाथसे पुनः प्राप्त करने में विक्रमादित्य और जयसिंह कि परस्पर विग्रह और जयसिंह के पराभव से सहायता मिली हो । चाहेजो हो परन्तु हमारी समझ में जयसिह ने लाट और दाहल विजय समय स्थानक के शिलहार अनन्तदेवको गद्दीसे उतारकर उसके किसी संबंधी को गद्दीपर बैठाया था। और इन दोनों राज्य तथा दाहल के मध्य कहीं न कहीं अपनी सेनाको रखा था जिसका आतंक इनकों भयभीत किये हुए था। प्रस्तुत प्रशस्ति से प्रकट होता है कि जयसिंह के अधिकार में - पुलगिरि - रेवु - माले केशुवलाल - वनवासी और वेल वाले आदि प्रदेश थे और उसकी राज्यधानी बलिपुर नामक स्थान में थी । बलिपुर का वर्तमान नाम बलेगम्बे है। और वनवासी से लगभग ३०-३५ मील दक्षिण पूर्व मयसूर राज्य के सीमोगा जिला में है। बलिपुर नगर बहुत प्राचीन स्थान है। स्थानीय कथानक के अनुसार तो वह सत्युग में होने वाले दैत्यराज बलि की राज्यधानी थी। और भगवान रामचंद्र और युधिष्ठिर आदि पाण्डवगण उक्त स्थान में आये थे । यदि कथानक को साशतः हम न भी स्वीकार करें तोभी हमे यह मानना पडेगा कि बलिपुर वनवासी प्रदेश और वनवासी नगर का समकालीन है। और वनवासी प्रदेश के मौर्यवंशोदभव अधिपतियों के समय राजनगरी होनेका सौभाग्य प्राप्त कर चुका है। हमारी समझ में तिथि के संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि प्रशस्ति शक संवत १००२ की है । क्योंकि इसकी तिथि चौलुक्य विक्रम संवत ४ है । एवं प्रस्तुत प्रशस्ति का विवेचन समाप्त करने पूर्व यदि हम वीर नोलम्ब जयसिंह के अधिकार गत प्रदेशों का विचार करें तो असंगत न होगा क्योंकि प्रस्तुत प्रशस्ति हमारी चौलुक्य चंद्रिका में जयसिहसे संबंध रखने बाली प्रशस्तियों में अन्तिम प्रशस्ति है। बीर नोलम्ब जयसिंह से संबंध रखने वाली प्रथम प्रशस्ति शक १६६ और अन्तिम शक १००२ वाली है। और इन प्रशस्तियों की संख्या ७ है। हम यहां पर निम्न भागमे क्रमशः प्रशस्तियों का नाम दे उनके समानन्तर में कथित प्रदेशों का नाम देते हैं। संख्या. प्रशस्ति. प्रदेश. १ - शक ६६९ अराकिरी प्रशस्ति कोगली २ - शक ६७६ नेरल गुन्डी प्रशस्ति ददिरवलिग सहस्र • बसकुन्डे प्रयशत और कुन्डेल्म ३ --शक L६३ जतिंग रामेश्वर प्रशस्ति गोन्देवाडी ४ - शक ६६५ हुलेगाल प्रशस्ति सुलगाल ५ - शक १००१ आचपुर प्रशस्ति वनवासी द्वादश सहस्त्र और • सन्तालिग सहस्त्र . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ [ लाट नन्दिपुर खण्ड ६ - शक १००२ तुम्बर होसरु प्रशस्ति वनवासी द्वादश सहस्त्र, सन्ता लिग और षटसहस्त्र द्वय ७ - शक १००२ तुम्बर होसरु द्वितीय प्रशस्ति - पुलगिरि - रेवु · भाले केशुवा ल वनवासी द्वादश सहस्त्र और वेलवाड प्रदेश इन प्रदेशोंके अतिरिक्त भुवनमल्ल सोमेश्वर के लेखोंसे प्रकट होता है कि उसने गद्दीपर बैठने पश्चात जयसिंह को पोरंबिन्दु और नोलम्ब वाडी नामक दो प्रदेश दिये थे। इनमे पोरंबिन्दु का नामान्तर गोन्दावाडी है । एवं गोन्दविन्द का उल्लेख शक ६६३ की प्रशस्ति में आगया है । अतः जयसिंह के अधिकार भुक्त प्रदेशों में केवल एक की वृद्धि होती है। अपरंच कर्नाट देश इन्स्कृप्सन नामक ग्रंथ के वोल्युम १ पृष्ठ २८४ और २८६ में प्रकाशित हलगुठ और वालवीड के शक EEE - १००२ - १००३ और १००४ के लेखों से जयसिंह के मुक्त प्रदेशोंका नाम वेलवेला, सन्तालिग, बासवली और पुलगिरि पाया जाता है। इनमें पुलगिरि और सन्तालिग का उल्लेख प्रशस्ति संख्या ६ और ७ में है । अतः केवल वेलवला और वासबली नामक दो प्रान्त ही नये रह जाते हैं। उधृत सूचि पर दृष्टिपात करनेसे ज्ञात होता है कि वनवासी द्वादश सहस्त्रका अन्तिम तीन प्रशस्तिओंमें और सन्तलिग का दो प्रशस्तिमें नाम आया है। अतः यदि हम इन पुनरुक्तियों का परित्याग करें तोभी विशुद्ध रूपसे जयसिंह के अधिकार में निम्नलिखित १८ प्रदेश पाये जाते हैं। १ - कोगली, २ - ददिरवलिग, ३ - वलकुण्डा अयशत, ४ - कुन्डेरु, ५ - गोन्दवाड़ी, ६. सुलगाल, ७ - वनवासी द्वादश सहस्त्रा, ८ - सन्तालिग सहस्त्रा, ६ - पुलगिरि, १० रेवु, ११ माले १२ - षट सहस्त्र द्वय, १३ - केशुवलाल, १४ - वेलवाडी, १५ - नोलम्ब वाडी, १६ - वासवली १७ - ताडदवाडी, और १८ - वेलवेला । जयसिंह के अधिकृत प्रदेशांका वर्तमान परिचय प्राप्त करना असंभव है तथापि यथासाध्य कुछ कर परिचय देते हैं। १ - कोगली. २ - ददिरवलिग ३ - वलकुन्डा त्रय शत ४ - कुन्दुर - का नामान्तर कुहुन्डी और कुन्डी है। यह कुन्डी त्रि सहस्त्र नामसे प्रख्यात था। इसके अन्तर्गत वेलगांव जिला का अधिकाश प्रदेश और कलादगी वीजापुर का दक्षिण पश्चिम भूभाग सामिल था। यह प्राचीन कुन्तल का एक विभाग है । ५ - गोन्दावाडी (पोरविन्द) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ चौलुक्य चंद्रिका ] शूलगाल वनवासी द्वादश सहस्त्र - इस प्रदेशमें मुम्बई प्रान्त के उत्तर कनाडा और मसूर राज्य के सिमोगा जिल्ला का अधिकांश भूभाग सामिल था । इसका एक भाग नागर खण्ड के नाम से प्रख्यात था । वनवासी की राजधानी बलिगावे, जिसका नामान्तर वलिगाव और वलिग्राम आदि है, थी । ८ ' सन्तालिग सहस्र - मयसूर राज्य का सिमोगा और कुदूर जिला का भूभाग । यह प्रदेश वनवासी प्रदेश से दक्षिण में अवस्थित था । ६ - पुलगिरि - धारवार जिला के अन्तर्गत है । इसका नामान्तर लक्ष्मेश्वर है । और यह पुलगिरि त के नाम से प्रसिद्ध था । १० - रेवु ११ १२ - ष. सहस्र द्वय १३ बलवीड माले - १५ १०६ १४ नोलम्ब वाडी - यह मसूर राज्य के सिमोगा जिलासे पूर्व में अवस्थित था । और इसमें दूर्ग जिला का प्रायः समस्त भूभाग था । यह त्रयशत सहस्र नामसे प्रसिद्ध था । १५ - केशुबाल १६ -- वासववली (सहस्र ) १७ ताडवाडी विजापुर जिला के अन्तर्गत और इसमे बादामी का अधिवंश भाग संमिलित था । वेलवोला • इसमे धारवार और बेलगांव जिलाओ का अधिकांश भूभाग संमिलित था । यह वेलवोला त्रशत नामसे प्रसिद्ध था । इससे प्रकट होता है कि जयसिंह के अधिकार में एक बहुत बडा प्रदेश था। जिसमें बम्बई प्रदेशके धारवार- विजापुर, बेलगांव और उत्तर कनाडा एवं मद्रास प्रान्तके बेलारी और मयसूर राज्य का उत्तर पूर्वीय समस्त प्रदेश था । हमारी समझमें प्रशस्ति का सांगोपांग विवेचन हो चुका और यदि कोई वात शेष है तो वह यह है कि जयसिह के अधिकृत कुछ प्रदेशों के वर्तमान नामादि और स्थान का परिचय नहीं प्राप्त कर सके । अन्यथा कोई विचारनीय बात शेष नहीं रही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट नन्दिपुर खण्ड मंगलपुर वसन्तपुर पति चौलुक्य राज केसरी विक्रम श्री जयसिंह शासन पत्र १ । ॐ स्वस्ति । ॐ नमो भगवते आदि वाराह देवाय श्रीमतां सकल भुवनेषु संस्तुयमानानां मानव्यस गोत्राणां हारीति पुत्राणां भगवन्नादि वाराह वर प्रसादा दवाप्त राज्यानां तत्प्रासाद रूमासादित वर वा ।ह ला छणे चणेन वशीकृतारात्य खिल मंडलानां अश्वमेधाव भृत्य स्नाननं पवित्री कृत गात्राणां चौलुक्य नामान्वये दक्षिण। पत्थे वातापिपुर मण्डले वातापिनाथो महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री जगह स्तपादानुध्धात त्पुत्रो महाराधिराज परमेश्वर परम भष्टारक श्री सोमेश्वरदेवश्चा हवमल्लः तत्पादानुध्यात् तत्पुत्री महाराजा श्री जयासिंहदे। 5 परनामाहणेति त्रिलोकमल वीरत्नोलम्प पल्लावादि तालदवाली यो तम्याविन्द लोलम्वाडी वेलम्बला पुलंगिार वासवली वानवाती युवराज २। सोअप चौलुक्य चन्द्रः देव दारेहया पाण्डवास्तमो च्छिन्नपद सत्सं कुल परिहारार्थ कानने जगाम। कति काले गते सति तत्पुत्र केसरी विक्रमश्वापर नामा विजयसिंहो बालार्क ययुतिसम व्याप्त तेऽपि चालुक्य वंशब्धि विवर्धेन्दुःपितृव्य राज्यमन्तरित्वा संह्याद्रि गिरि गहरे स्वभूजेापा पार्जित साम्राज्ये मंगलपूर्या स्वराज्यधानी कृत्वा राह ध्वजंचारोपितः ३। एकदा साम्राज्यस्य विमेयप्रान्तर्गत विजयपुरे प्रति वस्तम तपत्यां स्नात्वा लक्ष्म्यावातपा पीडित दिपशाखाव चांचल्यं विक्ष्य संस्मरस्यासारततामनु भूय जीवनस्य च क्षणभंगुरत्वं दृष्ट्वा धमस्ये वानुगामित्व मुपलक्ष्य स्व माता पित्रो रात्मनश्च पुण्य यशोभि वृधि कांक्षया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] १०८ ४। वनवासी प्रत्यागत स्व पुरोहित पुत्राय भारद्वाजस गोत्राय त्रिमवाय अध्वर्यु तैतरीय शाखाध्यायी सोमशर्मणे विजयपुर प्रान्त मण्डले प्राव विषयान्तपाति वामनबलग्राम तृण गोचर सवार्य पूर्व ब्राह्मण दाय वज्य जल पूर्वक स्मामः प्रदत्त सुविदित मस्तु समस्त राजपुरुषा पटकलादि कर्षकैश्च सर्वाय मभिरवि चेदेन दातव्यं । ५। अस्य ग्रामस्य सीमानः पूर्वतः सूर्यकन्या नदि । दक्षिणतोऽपि साएव पश्चिमतः स्वार व बनं । उत्तरतः श्यामावली मद्वंशजरल्यैरपि केनचिदपि वाधान कर्तव्यं । बाधाकृत सात पंच महा पाताकानि भवन्ति पाने महात्पुण्यमपि भवति उकांच ६। सामान्योऽयं धर्म सेतु नृपाणां काले पालनियो भवद्भिः स्ववशंजो वा पर वंशजो वा रामावत् प्रर्थयते महीशा : यानीह दत्तानि पुरा नरन्द्र धमार्थ कामानि यशस्कराणि । निर्माल्यवन्ति प्रतिमान ताभ को नाम साधु पुनरा ददति बहुभि वसुधा भुक्ता राजाभि सगरादिभि : यस्य यस्य यदा भूमिः तस्य तस्य तद फलं कायस्थ वालमान्वाय कृष्णदत्तस्य सुनुना। हरदतेन कृतं काव्यं लिखितमपि शासनम् । नव चत्वारिंश च्चाद्वे रुद्र संख्या शते गते । माघे कृष्णे च द्वादशां विक्रमार्क संवत्सरे। अंकतोऽपि ११४९ विक्रमार्क संवत्सरे माघ कृष्ण १२ दूतकोऽत्र महा सन्धि विग्रहीक नरदेव सुनु हरदेव इति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट बासुदेवपुर खण्ड मंगलपुर वसन्तपुर प्रशस्ति छायानुवाद. ....... .- कल्याण हो । भगवान श्रादि वाराह देव के लिये नमस्कार । सकल संसार के स्तुति पाव मानव्य गोत्री हारीति पुत्र, भगवान वाराह की कृपासे राज्य और वाराह लक्षण प्राप्त, एवं वाराह लक्षणकी छाया में शत्रु मण्डलको वशीभूत करने वाले, अश्वमेघ अश्वमृत्य स्नान द्वारा पवित्र शरीर, चौक्षुक्य वंश में दक्षिण पथ में वातापि नाथ महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री जयसिंह हुए। श्री जयसिंह देवका पादानुध्यात् उसका पुत्र महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक आहवमल्ल सोमेश्वर हुआ। श्री सोमेश्वर देवका पुत्र उसके पाद पद्मका भ्रमर वनवासी युवराज त्रयलोक्यमल्ल पल्लव परमानादि वीरलोम्ब श्री जयसिंह देव उपनाम सिंण देव हुआ। . . . २ - श्री चौलुक्य चंद्र जयसिंह देवको दैवकोप वसात् पाण्डवे के समान अपने अधिकार से वंचित होकर विपत्तकाल क्षेपनार्थ जंगल में जाना पडा । जयसिंह के वनवास काल में ही कुछ दिनो पश्चात उसका पुत्र केसरी विक्रम उपनाम विजयसिह मध्यकालीन सूर्य प्रभा ममान व्याप्त शौर्य एवं चौलुक्य वंश समुद्र को प्रफुल्लित करनेवाला पूर्ण चन्द्र अपने चचा के राज्य की सीमा पर अपने भुजबल से संह्याद्रि उपत्यका के भूभागको अधिकृत कर मंगलपुरी में वाराहध्वज को स्थापित कर उसे अपनी राज्यधानी बनायी। ३ - एकबार अपने राज्य के विजयपुर प्रान्त के विजयपुर नामक ग्रामे में निवास करते समय तापी नदी में स्नान करने पश्चात लक्ष्मीको वायु पिडीत दीप शिखा समान अस्थिर देख संसारकी असारता तथा मानव जीवनकी नश्वरता का अनुभव कर पुनश्च मनुष्य का परलोक में धर्म काही एक मात्र साथ देने वाला विचार अपनी माता और पिता तथा अपने पुण्य और यश वृद्धि की इच्छा से ४ - बनवासी से आये हुए अपने पुरोहित के पुत्र भारद्वाज गोत्री त्रिप्रवर तैतरीय शाखाध्यायी अध्वर्यु सोमशर्मा को विजयपुर प्रान्त नामक मण्डलके पार्बत्य विषयान्तपाती वामनवली नामक प्राम तृण गोचर आदी के साथ पूर्व दत्त ब्राह्मण दाय आदी को छोडकर जल द्वारा संकल्प पूर्बक दिया। समस्त राज पुरुषों, पटकिलों और कर्षकको इस प्रामकी श्राय ब्राह्मणकों विना किसी बाधा के देना चाहीए । ५ - इस ग्रामकी सीमा। पूर्व सूर्यकन्या नदी। दक्षिण" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ' पश्चिम खाण्डव बन । उत्तर श्यामावली ११० हमारे वंश के अथवा अन्य वंशके किसीको भी इसमें बाधा उपस्थित नहीं करना चाहिए बाधा करनेवाले को पांच प्रकारकी महा पातक होता है। उसी प्रकार पालन करने वाले के महा पुण्य ता है। कहा गया है। ६-- राजाओं का यह धर्म है कि चाहे अपने अथवा अन्य वंशजोंका यशवृद्धि करनेवाला धर्मकामना से दिया हुआ ही दान क्यों न हो। उसे नीर्माल्य मान उसकी रक्षा करे क्योंकि पूर्व इन्त दानका अपहरण साधु पुरुष नहीं करते - ऐसी याचना भावी नरेशों से हम करते हैं । इस संसार में वसुधाका भोग सगर आदी अनेक राजाओं ने किया है। परन्तु जिस समय वसुधा जिसके अधिकार मे रहती हैं उस समय पूर्वदत्त दानका पल रक्षा करनेके कारण सहीं होता हैं । - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat वालमानव्य कायस्थ कृष्णदत्त के पुत्र हरि दत्त ने इस शासन पत्रको कविता को किया और लिखा विक्रम संवत १९४६ माघ कृष्ण द्वादशी। इस शासनका दूतक नरदेवका पुत्र हरदेव महासन्धि विग्रहीं हैं । www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ लाट नन्दिपुर खण्डे मगलपुर वसन्तपुर प्रशस्ति छाया नुवाद। प्रस्तुत शासन पत्र संघाद्रि उपत्यकामें मंगलपुरी नामक नवीन चौलुक्यराज संस्थापक श्री वीजयसिंहदेव केसरी विक्रमका शासन पर है। यह छव भागोंमे बटा है। प्रथम अंशसे लेकर पांचवे अंश पन्त शासन पत्र गयो है । छठेका अंतिम भाग गद्य और शेष पद्य है । प्रथम अंशका प्रारंभ स्वस्ति से किया गया है। अनन्तर वाराहकी स्तुति आर चौलुक्यों की परंपरागत रूढी दी गई है। पश्चात् वैशावलीका प्रारंभ होता है । वंशावलीमें शासन कर्ता पर्वतकुल चार नाम हैं और उनका क्रम निम्न प्रकारसे है । जय सिंह सोमेश्वर जय सिंह वि ज य सिंह जयसिंह प्रथमका बिरुद बातापि नाथ और महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक है। उसी प्रकार सोमेश्वरका विरुद परम भट्टारक महाराजधिराज परमेश्वर और नामान्तर अहवमल है। परंतु शासन कर्ता के पिताके नामके साथ बहुत लम्बा चौडा विरुद दृष्टिगोचर होता है। एवं उसका नामान्तर सिंहणं प्रकट होता है। उक्त विरुद प्रलोक्यमल्ल विरनोलम्ब पल्लवमर्दी तालाब वाडी पोलबिन्दु शान्तलवाडी वेलवला पुलगिरि वासवली नाथ और वनवासी युवराज है। इस मिला हरिणत करनेसे प्रकट होता है कि विरुवावली तीन भागोंमें बटी है। प्रथम भागमें प्रोकमास वीरनोलम्ब पल्लवमी, द्वितीय भागमें तालदवाडी पोलविन्दु सान्तलवाडी वेलवेला पुलगिदि वासपकी नाथ और तृतीय भागमें केवल वनवासी युवराज है। इस सम्बे चौडे विहदका न तो अर्थ और न कारणही हमारी समझमें आता है। प्रथम भाग पिलदोंके सबको हम कह सकते हैं कि वे गुणवाचक है। परन्तु द्वितीय भागके विरुद प्रशीत होते हैं। और उन देशोंके साथ जयसिंहका संबंध प्रकट करते हैं। यदि वास्तवमें वे देशवाचक है तबतो कहना पडा कि जयसिंहके अधिकारमें एक बहुत बड़ा भूभाग था। परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ११२ उक्त प्रदेश जयसिंहको क्योंकर और कब मिले यह प्रशस्तिसे कुछभी ज्ञात नहीं होता है । तृतीय भाग के विरुद जयसिंहको वनवासी युवराज कहा गया है। यह और भी उलझी हुई गुथ्वीको पूर्णरूपेण उलझाकर मतिभ्रम करता है । जयसिंहके वनवासी युवराज पद प्राप्त करनेका कारण प्रशस्तिने कुछभी नही बतलाया है । परन्तु यह साधारण बात है कि युवराजपद उसीको प्राप्त होता है जो किसी राजाका भावी उत्तराधिकारी होता है । परंतु शासन पत्रके उत्तरकालीन अंशसे प्रकट होता है कि जयसिंहको एक भाई था जो कहींका राजा था। अतः जयसिंह न तो अपने पिताका युवराज हो सकता है और न अपने भाईका । इस कारण उक्त युवराज पद हमारी पूर्ब धारणाके अनुसार हमे चक्र में डालने वाला है । शासन पत्रके द्वितीय से प्रकट होता है कि जयसिंह पर देवकोप हुआ था । और उसको अपने अधिकारसे वंचित होना पडा था । अधिकार वंचित होने पश्चात वह कालक्षेपणार्थ पाण्डवोंके समान जंगलमें चला गया था। कुछ दिनों पश्चात उसके पुत्र विजयसिंह - केसरी विक्रम पितृव्ययके सिमान्तर प्रदेशके कुछ भूभागपर अधिकार जमा बैठा। और अपने बाहुबल से मंगलपुरी नामक नवीन चौलुक्य राज्यका संस्थापक हुआ । प्रशस्ति स्पष्ट रूपसे वर्णन करती है कि उसने मंगलपुरीमें चौलुक्योंके वाराहध्वजको स्थापित किया था । शासन पत्रके तृतीय अंशसे प्रकट होता है कि विजयसिंह अपने साम्राज्य के विजयपुर नामक नगर में एक वार निवास करते समये संसारकी असारता को देख लक्ष्मीकी अस्थीरताका अनुभव कर धर्मकोहीं केवल परलोकमें अनन्य सहायक मान अपने मातपिता तथा अपने पुण्यकी वृद्धि का .......... चौथे भागसे प्रकट होता है कि वनवासीसे आनेवाले अपने पुरोहितके पुत्र सोमशर्माको विजयपुर प्रान्त पार्बत्य विषयका वामनवली ग्राम दान दिया । एवं प्रजाको आदेश दिया कि वह उक्त सोमशर्माको ग्रामका दायभाग दिया करे । पांचवे भागमें प्रदत्त ग्राम बामनवली की चतुस्सीमा देनेके पश्चात स्ववंशज और पर वंशज भाओंसे आग्रह किया गया है कि वे उक्त धर्म दायका पालन करे । छठें भागमें धर्मदाय पालनका पुण्य और अपहरणका पाप आदि वर्णन करने हैं, पश्चात शासन पत्र बनाने वाले का नाम और शालन पत्रकी तिथि दी गई है। शासन पत्र की तिथि अक्षरों और को दोनोंमें दी गई है और सबसे अंत में शासन पत्रके दूतकका नाम लिखा गया है। हमारी समझमें शासन पत्रमें किसी बातकी त्रुटि नहीं है । सब बातें इसमें जो शासन पत्र में होनी चाहिये दी गई हैं। इसमे प्रथम शासन कर्ताकी वंशावली उसका विशेष वर्णन द्वितीय दानका कारण दान प्रतिगृहिताका परिचय प्रदत्त ग्रामकी सीमा लेखक और दूतक आदिका परिचय सभी बातें दृष्टिगोचर होती हैं । अतः यह शासन पत्र त्रुटि रहित हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड हम उपर प्रकट कर चुके हैं कि शासन पत्रकी वंशावली में केवल चार नाम हैं। उनमें शासन कर्ता के प्रपितामह जयसिंहको वातापि नाथ कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि वह वातपिका राजा था। परन्तु उसका पुत्र सोमेश्वर कहांका राजा था यह नहीं प्रकट होता। किन्तु उसकी विरुदावली अपने पिताके समानहीं होनेसे उसकामी स्वतंत्र राजा होना प्रकट होता है । जयसिंह द्वितीय अर्थात शासन कताके पिताकी विरुदावली के संबंधमे हम कुछ विचार उपर प्रकट कर चुके हैं। अतः यहां पर इतनाही कहना पर्याप्त होगा कि उसके अधिकारमें वनवासी और सान्तलवाडी आदि प्रदेश थे। वह सांतलवाडी आदि प्रदेशोंका स्वामी अर्थात राजा और वनवासीका युवराज था । जब जयसिंह अधिकार :चित हुआ तो काल क्षेपणार्थ जंगलमें चला गया। उसके वनवासके समयमें ही उसके पुत्र केसरी विक्रमने नवीन अधिकार प्राप्तकर मंगलपुरीको अपनी राज्यधानी बनायी। . अतः अब विचारणा है कि वातापि के चौलुक्य राज्यसिंहासनका भोक्ता जयसिंह नामक कोई राजा हुआ है या नहीं। यदि हुआ है तो उसका समय क्या था । उसके पुत्र और पौत्रका नाम अहवमल्ल और जयसिंह था या नहीं। यदि था तो अहवमल्लका समय क्या था और जयसिंहकी विरुदावली क्या थी । वह वनवासीका युवराज कहलाता था या नहीं। नोन्लमवाडी आदि प्रदेशोंके साथ उसका क्या संबंध था और अन्ततोगत्वा वनवासीका अधिकार उसके हाथसे कब और क्योंकर छिन गया। ___ इन प्रश्नोंका समाधान करनेके लिये हमे वातापि राज्यवंशके इतिहासका अवलोकन करना होगा । वातापि के चौलुक्य वंशकी राज्यधानी वातापि आने के पूर्व ऐजन्त नामक स्थान - जिसे संप्रति एजन्टा कहेते है में थी। ऐजन्तपुरी में चौलुक्य वंशकी संस्थापना करनेवाला जयसिंह हैं। उसके पूर्व चौलुक्योंकी राजधानी चुलुकगिरि नामक स्थानमें थी और चुलुकगिरि के संयोगसे गजवंशका पूर्व नाम सोम वंश बदल कर चौलुक्य प्रचलित हुआ। चौलुकगिरि राज्य प्राप्त करनेवाला विष्णुवर्धन विजयादित्य है। विजयादित्य के पश्चात् सोलह राजाओंने चौलुक्यगिरि राज्य सिंहासन का भोग किया । अनन्तर उनके हाथसे राज छिन गया। परन्तु अन्तिम राजा के पुत्र जयसिंहने पुनः अपने बाहुबलसे खोये हुए राज्यका उद्धार कर ऐजन्तपुरी को अपनी राज्यधानी बनायी। जयसिंहके बाद उसका पुत्र रणराग हुआ। उसने भी पैजन्तपुरीमें रहकर पैतृक राज्यका भोग किया। उसके पश्चात उसका पुत्र पुलकेशी हुआ । पुलकेशी वास्तवमें अपने वंशका परं प्रख्यात राजा हुआ । इसने सर्व प्रथम वातापि के कदम्बोंका उत्पाटन कर पातापि पुरीको अपनी राज्यधानी बनायी। पुलकेशीने प्रायः समस्त भारत वर्षको विजय कर एक छत्र बन अश्वमेध यज्ञ किया। पुलकेशीके पश्चात् उसके कीर्तिवर्मा और मंगलीश्वर नामक दोनों पुत्रोंने क्रमशः उसके राज्यका उपभोग किया । मंगलीशने बातापिपुरीके प्रसिद्ध गुफाका निर्माणकर उसमें अपने कुल देव बाराहकी प्रतिमा स्थापित कर अपना नाम अचल बनाया । मंगलीशके पश्चात् उसका भतीजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] ११४ पुलकेशी द्वितीय हुआ । पुलकेशी द्वितीय मी अपने पितामहके समान प्रचण्ड योद्धा और भारत वर्षका एकछत्र अधिपति हुश्रा । पुलकेशी द्वितीयकी राजसभामें ईरानके प्रसिद्ध राजा खुशरुका राजदूत रहता था। उक्त पारशियन राजदूत के आगमनका द्योतक करनेवाला एक चित्र ऐजन्तपुरीकी गुफा चित्रित किया गया है। पुलकेशीने अपने छोटे भाईनों, विष्णुवर्धन और जयसिंह एवं बुधवर्मको एक एक प्रान्त प्रदान किया था। विष्णुवर्धनको वेंगी मण्डल प्रान्त - कृष्णा और गोदावरी नामक नदिओंके मध्यवर्ती देश - दिया । जहां उसके वंशजोंने लगभग छव सौ वर्ष राज्यभोग किया। और पश्चात् समय पूर्वीय चौलुक्य नामसे प्रसिद्ध हुये । जयसिंहको पुलकेशीने वर्तमान नाशिकके चतुर्दिकवर्ती भूभाग दिया था। जहां उसके पुत्रादिने राज्य किया परन्तु उसका वंश अधिक दिनों नहीं चला। चौथे भाई बुधवम को वर्ततान कोलाबा जिल्ला के चतुर्दिकवर्ती प्रदेश दिया था । बुधवर्मका वंशभी लोप हो गया क्योंकि उसकामी कुछ परिचय नहीं मिलता । हां, बुधवर्मका एक शासन पत्र कोलाबा जिल्लाके पिनुक नामक स्थानसे मिला है जिससे प्रकट होता है कि वह अपने भतीजा वातापि पति विक्रमादित्यके समय तक जीवित था । पुलकेशीको आदित्यवमा-चन्द्रादित्य-विकमादित्य और जयसिंहवर्मा नामके चार पुत्रों का होना पाया जाता है। आदिल्यवर्मका परिचय उसके अपने ताम्रपत्रसे और चंद्रादित्यका परिचय उसकी महिषी महादेवी विजय भट्टारीका के शासन पत्रों से मिलता है। संभवतः आदित्यवर्माकी मृत्यु पिताके समयमेंही हो गई थी। और चंद्रादित्य मी कदाचित एक पुत्रको छोडकर कालगत हुआ था। चंद्रादित्यके शिशु पुत्रकी माता (चंद्रादित्यकी रानी) विजय भट्टारिकादेवी शासन करती थी। परन्तु शासन करते समयमी विजय भट्टारिकाने विक्रमादित्य के राज्यका उल्लेख किया है। अतः संभवना होती है कि सिंहासनपर वास्तवमें विक्रमादित्यही बैठा । विक्रमके समयसे वातापिके चौलुक्य पश्चिम चौलुक्यके नामसे प्रख्यात हुए। विक्रमने अपने छोटेभाई जयसिंहको लाट देशका राज्य दिया जहां उसने और उसके वंशजोने नवसारिका (नवसारी) को राज्यधानी बना लगभग १०० वर्ष पर्यन्त राज्य किया। विक्रमादित्यके पश्चात् क्रमशः वातापिके सिंहासन पर उसका पुत्र विनयादित्य, पौत्र विजयादित्य द्वितीय तथा प्रपौत्र किर्तीवर्मा द्वितीय बैठा। कीर्तिवर्मा के समय चौलुक्य राज्यलक्ष्मीका अपहरण हुश्रा और वातापि साम्राज्य राष्ट्रकूटोंके अधिकार में चला गया। लगभग दौसो वर्ष पर्यन्त वातापि राष्ट्रकूटोंके अधिकार में रहा । अन्तमें तैलप द्वितीयने अपने वंशकी राज्यलक्ष्मीका उद्धार कर वातापी को पुनः अपनी राज्यधानी बनायी। तैलपने शक ८९५ से ११६ पर्यन्त राज्य किया । . चौलुक्यराज्य उद्धारक तैलपके बाद उसका पुत्र सत्याश्रय ने शक १६ से १३० पर्यन्त राज्य किया । अनन्तर उसका भतीजा विक्रमादित्य पांचवा गद्दी पर बैठा। विक्रमादित्यकी कौथुम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ [लाट नन्दिपुर खण्ड प्रशस्तिमें वंशावली दी गई है। वंशावलीके साथही अन्यान्यवाते अर्थात् चौलुक्योंका अयोध्या में राज्य करना, पश्चात दक्षिणमें भाकर नवीनराज्य स्थापित करना-राज्यका छिन जाना-जयसिंहका पुनः उद्धार करना प्रभृति देनेके पश्चात् जयसिंहसे लेकर क्रमशः विक्रमादित्य पर्यन्त नाम दिये गये। इस प्रशस्तिको हमने चालुक्य चंद्रिका वातापि कल्याण खण्ड़ में अधिकल रुपसे उधृत कर पूर्ण विवेचन किया है। विक्रमके बाद उसका छोटा भाई जयसिंह शक ६४० में गद्दीपर बैठा भार शक ९६३ पर्यन्त राज्य किया। जयसिंहकी उपाधि जगदैकमल थी इसनेमी अपने राज्यके छठे वर्षकी एक प्रशस्ति में चौलुक्य वंशकी वंशावलीका अभिगुन्ठन, जयसिंह प्रथमसे लेकर अपने समय पर्यन्त किया है। जयसिंहकी राणी संगलदेवी थी। जिसके गर्भसे आहवमल्ल पुत्र और अब्बलदेवी नामकी कन्या हुई ! अब्बलदेवीका दूसरा नाम हाम्मादेवी था। उसका विवाह सेवुण देशके राजा भिल्लम तीसरेके साथ हुआ था जयसिंहकी मृत्यु पश्चात आहवमल्ल गद्दी पर बैठा। आहवमल के राज्यकालीन विविध प्रशस्तियों और शासन पत्रों के पर्यालोचनसे प्रगट होता है कि इसको होयसलदेवी • वाचलदेवी चंद्रकादेवी और कैटलदेवी नामक चार राणियां थी और इन के गर्भसे इसको सोमेश्वर - विक्रमादित्य और जयसिंह नामक तीन पुत्रोंका होना पाया जाता है। आहअमल्लने वयस्क होने पर अपने प्रत्येक पुत्रको कुछ प्रदेशकी जागीर दे कुछ अन्य प्रदेशोंका शासक नियुक्त किया था। पाहवमल्लने अपने ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर भुवनमल्लको वयस्क होने पर युवराज पट्टबंधकी जागीर केशुवलाल ( पटडकाल ) प्रदेश दिया था। उसके अतिरिक्त शक ६७१ मे वह वेलवोला त्रयशत और पुलगिरि त्रयशतका शासक नियुक्त हुआ था। एवं द्वितीय पुत्र वीक्रमादित्यको वनवासी द्वादश सहस्र नामक प्रदेश दिया था। एवं वह गंगवाडी शासक था पुनश्च आहवमल्लके राज्यके छठे वर्ष शक ६६६ की प्रशस्तिसे प्रकट होता है कि उसने अपने कनिष्ठ पुत्र जयसिंहको कोगली आदि प्रदेशकी जागीर दी थी। एवं उसके राज्यके २३ वें वर्ष अर्थात् शक ६७६ के लेखसे प्रकट होता है कि जयसिंहके अधिकारमें उस वर्ष कतिपय अन्य प्रदेश थे इन दोनों प्रशस्तियोंके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि जयसिंह अपने प्रदेशों का पूर्ण शासनाधिकार का भोग करता था। और अपने पिता को अधिराजा मान स्वयं स्वतंत्र सामन्त राजाके शासन आदि प्रचलित करता था। पुनश्च इन शासन पत्रों से जयसिंहका विरुद वीरनोलम्ब पल्लव परम्नादि प्रयलोक्यमल्ल प्रकट होता है। पाहवमल्लका स्वर्गवास शक ९६० के चैत्र मास में कृष्ण रविवारको हुआ और उसका ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर कल्याण की गद्दी पर बैठा। उधृत अवतरणसे स्पष्ट रुपेण प्रस्तुत प्रशस्तिकी बातों का सामंजस्य मिलता है । अतः हम यदि निशंक हो प्रशस्ति कथित विजयसिंह के पिता वीरनोलबं पल्लव परम्नादि जयसिंह को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] वातापि पति जयसिंह जगदकमल्लका पौत्र और आहवमल्ल त्रयलोक्यमल्लका कनिष्ठ पुत्र एवं सोमेश्वर भुवनमल और विक्रमादित्य त्रिभुवनमल्लका कनिष्ठ भ्राता घोषित करें तो असंगत न होगा क्योंकि विजयसिंहके पिताका पूर्ण परिचय प्राप्त करने के पश्चात् अधिकांशतः पूर्व अवतरित प्रश्नोंका एक प्रकार से समाधान हो चुका तथापि हम अभी ऐसा करनेमें असमर्थ है । हमारी इस असमर्थता का कारण यह है कि अनेक महत्व पूर्ण विषयोंका समाधान नहीं हुआ है । वनवासी युवराज विरुदका परिचय नहीं मिला । परिचय नहीं मीलने के साथ ही इस अवतरण से औरमी गुत्थी उलझी गई है क्योंकि वनवासी प्रदेशको जयसिंह के पिता आहवमल्लने प्रथम अपनी गंगवंशकी राणीको दिया था । जो अपने कदमवशी सामन्त द्वारा शासन करती थी । बादको उसके पुत्र विक्रमादित्यको दिया था। इस प्रश्न के समाधान के लिये हमें सोमेश्वर विक्रमादित्य और जयसिंह के इतिहास का पर्यालोचन करना होगा। और अपने इस प्रयत्नमें हम सर्व प्रथम वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि त्रयलोक्यमल्ल जयसिंह के पूर्व उधृत लेखों के प्रति अपने पाठकों का ध्यान आकर्षित करेंगे । जयसिंहके शक ६६६ से १००३ भावी ७ लेखोंका हम पूर्व में अवतरण कर चुके हैं। उक्त लेखों में दो लेख जयसिंह के पिता पाहवमल्लके राज्यकालीन है जिनका उल्लेख उपर कर चुके हैं । अन्य दो लेख (शक ६६३ और ६६५) में जयसिंहने अधिराज रूपसे अपने बड़े भाई सोमेश्वर भुवनमल्लको स्वीकार किया है पुनश्च उन लेखों से जयसिंह सोमेश्वरका अनन्य प्रकट होता है। परन्तु शक ००१ और १००३ वाले लेखा में जयसिंहको वनवासी प्रदेश का शासक और वनवासी युवराज के रुपमें पाते है। इतनाहीं नहीं जयसिंह अपने लेखों में विक्रमादित्य को अधिराज स्वीकार करता है। एवं उनमे जयसिह को विक्रमादित्यका रक्षक रुपमे पाते है। इन लेखा के विवेचन से सोमेश्वर को कल्याण राज्य सहासन से हठाये जाने और विक्रमादित्य के गदी पर बैठने तथा जयसिहके वनवासी प्रदेश तथा वनवासी युवराज विरुद प्राप्त करने पूर्ण रुपेण विवेचन कर चुके है । अतः यहां पर पुनः पीष्ट पेषण न कर पाठको से उक्त स्थान देखने की आग्रह कर आगे बढ़ते है। और जयसिह के हाथ से वनवासी आदि प्रदेशों के छिन जाने प्रभृतिका बिचार करते है। __हमारे पाठकों को भलिभांति ज्ञात है कि शक १००३ वाले तुम्बर होसरु के लेखसे प्रगट होता है कि जयसिंहने वनवासी और सन्तालिग आदि प्रदेशोकी राज्यलक्ष्मीको अङ्कशायनी बनाया हुया और उसका सौर्य सूर्य मध्य गगनमें प्रखर रुपेण बिकसित हो रहा था। और उसने चेदी स्थानक और लाटके राजाओं को पराभूत किया था। एवं प्रस्तुत प्रशस्ति से स्पष्ट है कि विक्रम संवत ११४६ तदनुसार शक '०१४ के पूर्व उसके हाथ से वनवासी राज्यका अपहरण हो चुका था। अतः अब विचारना है कि इस शक १०.३-१००४ और १०१४ के मध्य कब तक वह वन. वासी का भोग करता था। अब यदि वनवामी प्रदेशपर जयसिंहके बाद राज्य करने वालेका परिचय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ [ लाट नन्दिपुर खण्ड प्राप्त कर शके ती समस्त उलझी हुई गुत्थी अपने आप उलझ जायेगी । और हम अपने इस भयंकर सन्देह समुद्रसे त्राण पा सकेंगे जयसिंह बडे मझले भाई विक्रमादित्य के राज्य कवि काश्मीरी पण्डित विल्हण के नामसे हमारे पाठक परिचित है । कवि विल्हण अपनी पुस्तक विक्रमाकदेव चरित्र में लिखता है। "करहाटक के शिल्ल राजा की पुत्री चंद्रलेखा से विवाह कर विक्रमादित्य अपनी राज्यधानी में आकर सुखभोग में व्यक्त हुआ । इस प्रकार सुखभोगे करते उसको बहुत दिन बीत गये । एक दिवस उसके विश्वास पात्र गुप्तचरन आकर सुचना दी कि महाराज आपके छोटे भाई आपका राज्य छीनने के विचारसे प्रजा पीडन द्वारा वहुतसा धन एकत्रित कर द्रविड के राजा से मैत्री स्थापन करने के उद्योग में लगा है । एवं अपनी सेनाको विद्रोही बनाने का प्रयत्न कर रहा 'वहुत बडी सेना एकत्रित कर लिये है तथा जंगलो जातियों को अपना सहायक बना आप पर आक्रमण करने के उद्योग में लगा है। तथा इस सूचनाको प कर विक्रमादित्यने उसका तथ्या तथ्य जानने के विचार से अपने राजदूत को जयसिंहके पास भेजा। जिसने लौटकर कथित वातों को पूर्णतः सत्य प्रकट किया । I इतने परभी अपने छोटे भाई पर शस्त्र उठाना उचित न मान पुनश्च अपने दूतको जयसिंहको समझाने बुझाने के लिये भेजा । परन्तु जयसिंह ने किसीकी एक न सुनी और अपने सामन्तों और सेनापतियों के साथ बहुत बडी सेना लेकर विक्रमादित्यके राज्य पर आक्रमण किया आसपास के गामों को लुटने और जलाने लगा। विरोध करने वालों को बन्दी बनाया, कृष्णा नदि के प. स तक चला आया । परन्तु विक्रमादित्य इस आक्रमणका समाचार पाकर भी कुचा दिनो तक शान्त बैठा रहा : अन्तमे विक्रयादित्य अपनी सेना के साथ आगे बड़ा । दोनो सेनाओं में युद्ध हुआ जिसमे जहसिंहने अपनी हस्ति सेनाको आगे कर आक्रमण किया । और विक्रमादित्य के गजअश्व और पदाति सेनाकों पीछे हठाया । किन्तु विक्रमादित्य अपनी सेना को उत्साहित करता हुआ आगे बढा और जयसिंह की सेना को छिन्न भिन्न किया । जयसिंह पराभृत हो कर अपनी सेनाको छोड़ भाग गया । अन्तमें विक्रमादित्यको जयसिंह की सेना के असंख्य हाथी-घोडे और धन रत्न के साथ स्त्रियां हाथ लगी। विल्हण पण्डितके कथनपर "विक्रमादित्य अपने छोटे भाई पर अस्त्र उठाना नहीं चाहता था" हमे रोकने पर भी वरवश हंशी आ जाती है। क्योंकि बिल्हण अपने उक्त कथनसे विक्रमादित्य के चरित्र में भातृ वात्सल्यका चित्र चित्रण करना चाहता है । परन्तु हमारे पाठकों को विक्रमादित्य के भ्रातृवात्सल्य का ज्ञान भलि भांति प्राप्त हो चुका है। अतः हमे आशा है कि विक्रमादित्य के भातृवात्सल्य को वे अवश्य समझते होंगे। तथापि हम यहां पर उसकी नमूना पेश करते हैं । हमारे पाठकों को ज्ञात है कि बिल्हण ने सोमेश्वर और विक्रमके विग्रह में भी सोमेश्वरका चरित्र भी ठीक जयसिंह के चरित्र समान चित्रित किया है और वहां भी विक्रमको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] ११८ निर्मल चरित्र प्रकट करनेके उद्देश्य से लिखा है कि सोमेश्वरको गद्दी परसे उतारने बाद भी विक्रम उसे गद्दी पर बैठाना चाहता था । परन्तु भगवान शंकरने प्रकट होकर क्रोध के साथ प्रकट किया कि वह स्वयं राजा बने। इसके अतिरिक्त सोमेश्वरको प्रजा पीडक आदि बताया है। परन्तु जयसिंह के शक १००१ वाली प्रशस्ति के विवेचनमें तथा सोमेश्वर और विक्रम के संबंध को लेकर चौलुक्य चंद्रिका वातापि कल्याण खण्ड में विल्हणका भण्डा फोड़ करते हुए दिखा चुके हैं कि विक्रम अपने पिता की मृत्यु समय से ही सोमेश्वर को गद्दी परसे उतारनेकी धुन में लगा था और सर्व प्रथम उसने सोमेश्वर के प्रधान सेनापति कदमवंशी जयकेशी के साथ अपनी कन्याका विवाह कर उसे अपना मित्र बनाया । एवं उसके द्वारा राजेन्द्र चोड जो चौलुक्यों का वंश गत शत्रु था, के साथ षडयंत्र रच उसे चौलुक्य राज्य पर आक्रमण करने को उत्साहित किया । एवं जब सोमेश्वर राजेन्द्र चौल के साथ युद्ध करनेको आगे बढ़ा और जयकेशी विक्रमादित्य और जयसिंह तथा अन्यान्य सामन्त सेनापतियों को अपनी सेनाके साथ रणक्षेत्रमें आनेको आवाहन किया तो जयकेशी अपनी राज्यधानी गोश्रासे, विक्रमादित्य अपनी राज्यधानी वनवासी से और जयसिंह अपनी राज्यधानी से तथा अन्यान्य सामन्त और सेनापति अपनी सेना के साथ चोलदेश के प्रति अग्रसर हुए। परन्तु दोनों सेनाओं के रणक्षेत्र में आतेहीं जयकेशी और विक्रमादित्य सोमेश्वरका साथ छोडकर राजेन्द्र चौलसे मिल गये जिसका परिणाम यह हुआ कि सोमेश्वरको भागना पडा और रटबाड़ी प्रदेश राजेन्द्र चौलने अपने राजमे मिला लिया किन्तु विक्रम के साथ अपनी कन्याका विवाह कर दहेजमें रटवाडी प्रदेश उसे दिया । यदि जयसिंह उस समय सोमेश्वरकी रक्षा न करता तो कदाचित उसे उसी समय चौलुक्य राज और अपने प्राणसे हाथ धोना पडता । पुनश्च हम यहभी दिखा चुके हैं कि विक्रमादित्य ने सेवरण देशके यादव राजा से भी मैत्री स्थापित कर लिया था । एवं जयसिंहको वनबासी का युवराज और चौलुक्य राज का लोभ दिखा अपना साथी बनाया । भला जो मनुष्य अपने बंशशत्रु से मिल सकता है, अपने भाईको घोर युद्ध संकटमें छोड सकता है । उसके सेनापतिको बेटी दे कर मिला सकता है। सामन्तों को बडे बडे प्रान्त देकर बडे भाई के विरुद्ध खडा कर सकता है, बड़े भाईका राजच्युत कर उसका नामो निशान मिटा सकता है और लोभमें पड धर्माधर्म का विचार छोड सकता है, वह विल्हण पंण्डित जैसे कविओं कि दृष्टिमें अवश्य भातृ वात्सल्य हो सकता है । परन्तु हमारे ऐसे तुच्छ बुद्धियोंकी दृष्टिमें उसका भातृ वात्सल्य संसारमें अद्वितीय है । उसकी भ्रातृ वत्सलता पौराणिक युग भगवान राम के अनुज भरत और लक्ष्मण तथा ऐतिहासिक युगवाले शिशोदिया बंशी मोकल और भीमकी भातृ वत्सलताको पटतर करती है। यदि उसका देदीप्यमान उज्वल उपमान संसारके इतिहास में कहीं उपलब्ध है, तो वह मुगल साम्राट शाहजहांके पुत्र औरंगजेब का भ्रातृ प्रेम है । पुनश्च यदि हम यह कहें कि विक्रमादित्य अपने से वर्ष ५८२ वर्ष पश्चात होनेवाले मुगल सम्राट शाहजहां के बन्धुघाती पुत्र औरंगजेबकी आत्मा था तो अत्युक्ति न होगी। क्योंकि दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ [ लाट नन्दिपुर खण्ड के चरित्र और नीति में अधिकांशतः समानता पाई जाती है। जिस प्रकार औरंगजेब अपने बडे और छोटे भाईओं का नाश कर अपने रक्त रंजित हाथों से दीन इस्लामकी रक्षा के लिये दिल्ली के सिंहासन पर बैठा था और पचास वर्ष राज्य किया था । और उसने अन्तिम समय अपने साम्राज्य को छिन्न भिन्न होता हुआ देख रक्त की आंशू बहाता अपने इहलीलाका संस्मरण किया था । उसी प्रकार विक्रमादित्य अपने बडे भाई सोमेश्वरको राज्यसे वंचित कर उसके रक्तसे अपने हाथोंको रंजित कर चौलुक्य सामाज्य के सिंहासन पर बैठा और ५० वर्ष राज्य कर अन्त में साम्राज्य भवनको शत्रुओंके आघात से भीरता हुआ देख अपनी आखों से रक्त की आंशू बहाता मरा था। एवं जिस प्रकार औरंगजेबने बन्धु नाशजन्य पापाग्नि से मुगल साम्राज्यको भस्मात कर उसके मूल को नष्ट कर दिया था, और उसकी मृत्यु पश्चात मुगल साम्राज्य का एक प्रकार से अन्त हो कर नाम मात्र के सम्राट उसके वंशज रह गये थे । एवं कुछ दिनों अर्थात ५०- ६० वर्ष के बाद नाम मात्रका मुगल साम्राज्य भी नष्ट हुआ । अन्त में अन्तिम बादशाह शाहआलमको अपने मकान में बन्दी होना पडा था। उसी प्रकार विक्रमादित्य की मुत्यु पश्चात ५- ६० के भीतर ही बन्धु नाश जन्य पापानि से दग्ध चौलुक्य साम्राज्य नष्टप्राय हुआ और उसके बृद्ध प्रपौत्र सोमेश्वरको अपने सामन्त का बन्दी हो कर अन्त में इधर उधर भटकते हुए चौलुक्य साम्राज्य सूर्य के साथ सदा के लिये भरत होना पडा । अन्ततोगत्वा जिस प्रकार दारा को राजच्युत करने के लिये औरंगजेबने सापरा (उजैन) युद्ध के पूर्व मुरादको शाहशाह दिल्ली बनानेका का प्रलोभन दे अपना साथी बनाया और दारा के परास्त होने पश्चात मुरादको बन्दी बना ग्वालियर के दूर्गमें स्थान दिया था, उसी प्रकार विक्रमादित्य जथसिंहको चौलुक्य साम्राज्य भावी युवराज मान अपना साथी बनाया। और जब सोमेश्वरको राज्यच्युत कर स्वयं गद्दीपर बैठा तो कुछ दिनोके पश्चात जयसिंहको चौलुक्यराज देने के स्थान में वनवासी प्रदेशके साथ ही उसके पिता और भ्राता सोमेश्वर के समय प्राप्त अन्यान्य प्रान्तों से भी वंचित किया । मुराद और जयसिंह के चरित्र में इतनाही अन्तर है कि मुरादको मद्यप होने के कारण यासही बन्दी बनना पड़ा परन्तु जयसिंह वीर प्रकृति होने के कारण विक्रमके उदेश्यको जानते आगे बढ उसके छक्के छुडा अन्तमें राज्यच्युत हुआ । जयसिंहका विक्रमसे छक्के छुडानेका परिचय बिल्हण लेखमेही मिलता है । जयसिंहके सहन्न गुण शौर्य आदिको बिल्हणने अति ge बनाकर लिखा होगा । किन्तु सत्य छिपानेसे नहीं छिपता । विल्हरणके लेखका पर्यालोचन जयसिंहके शौर्यका दिग्दर्शन कराहीं देता है । विल्हरणके उधृत अवतरणसे प्रकट होता हैकि विरनोलव जयसिंहका अपने भ्राता विक्रम द्वारा पराभूत होकर बनवासी राज्यसे हाथ धोना पडा था। परन्तु यह ज्ञात नहीं हुआ कि विक्रमादित्य और विजयसिंह के पिता वीरनोलंब त्र्यलोक्यमल्ल जयसिंहके मध्य कब युद्ध हुआ। परंतु इतना तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका ] १२० अवश्य प्रकट होता कि विक्रमादित्यके करहाट पति शिल्हार राजाकी कन्या चंद्रलेखाके साथ विवाहके बहुत दिनों पश्चात उक्त युद्ध हुआ था। पुनश्च हमे ज्ञात है कि शक १००३ - ४ में विक्रम और जयसिंहके मध्य सौहार्य था । अतः १००३ - ४ शके पश्चात कुछ वर्ष बाद युद्ध यह हुआ होगा। और वहभी शक १०१३ - १४ के पूर्वही हुआ होगा क्योंकि प्रस्तुत प्रशस्ति से उक्त युद्ध का इस समयसे पूर्व होना स्पष्ट रुपेण पाया जाता है। वनवासी के इतिहासके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि शक १०१० में वनवासी प्रदेश पर कदम्ब बंशी महा सामन्त शान्तिवर्मा विक्रमादित्य के माण्डलिक रुपमें शासन करता था। शक १००३ - ४ और १००१ के मध्यकालीन समयसे वनवासी पर इसका अधिकार था। इसका कुछ भी परिचय नहीं मिलता। अब यदि हम विल्हणके कथनकि विक्रम करहाट पतिकी कन्या से विवाह करने बाद बहुत दिनों सुखमें लिप्त था । अनन्तर जयसिंह के विप्लवका संवाद उसे मिला और दोनों भाईओंमें युद्ध हुआ प्रभृतिमें से उसके विवाहकी तिथि का नाम भी नहीं मिलता है । अतः हमे यहा परभी अनुमान और अप्रत्यक्ष प्रमाण से काम लेना पडेगा। करहाटके शिल्हरा वंशके इतिहास पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि भारसिंह नामक राजाको गुलवालादि पांच पुत्र और चन्दला नामक कन्या थी। उक्त भारसिंहका राज्यारोहण शक ९८० में हुआ था । और उसने २७ वर्ष राज कर शक १००७ में इह लीला समाप्त किया था । भारसिंहकी उक्त चंदला नामक कन्याका विवाह कल्याणके चौलुक्य प्रेमार्डिसे होनेका परिचय मिलता है । हमारी समझमें भारसिंहकी चन्दला देवी ही विल्हणकी चंद्रलेखा है। क्योंकि चंदला नाम लौकिक और चंद्रलेखा संस्कृत है। हमारी धारणाका कारण यह है कि उक्त चंदला का विवाह कल्याणके चौलुक्य मार्डि अर्थात विक्रमादियके साथ हुआ था। हमारे पाठकोंको भलि भांति ज्ञात है कि विकमादित्यके विविध विरुदोंमेंसे प्रेमार्डि एक है। चदलाको चंद्रलेखा भाननेमें कणिका माअभी संदेहका अवकाश नहीं है। अब केवल मात्र विचारना यह है कि चन्द्रकला विवाह भारसिंहने विक्रमादित्यके साथ कब किया था। विल्हणके कथनसे पाया जाता है कि उसका विवाह करहाट पतिकी कन्याके साथ तब हुआ जब वह पूर्ण रुपेण वातापि कल्याणके चौलुक्य सिंहासन पर अधिष्ठित हो चुका था। एवं विक्रमके चन्दलाके साथ विवाहके बहुत दिनों पश्चात उसका विरोध जयसिंह के साथ हुआ। अतः हम सकते हैं कि विक्रमका विवाह चन्दलके साथ शक १००३ - ४ के पश्चात भारसिंहके अन्तिम समय लगभग शक १००७ के पूर्व हुआ था और उसके दो तीन वर्ष पश्चात अर्थात १००८ - 8 में किसी समय विक्रम और जयसिंहकी विरोध का सूत्रपात हुआ। हमारी इस धारणाका प्रवल कारण यह है कि जयसिंहके हाथसे बनवासी आदि प्रदेश निश्चित रुपसे शक १०१० में निकल गया था। विक्रम और जयसिंहके युद्धका समय अवान्तर प्रमाण तथा आनुमानिक रित्या प्राप्त करने पश्चात इन दोनों के विग्रह का कारण का विचारना पडेगा। जयसिंह और विक्रमके अधिकृत प्रदेशों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड पर दृष्टिपत करते ही प्रकट होता है कि जयसिं के अधिकारमें चौलुक्य राज्यका अध.श था। बसी दशा में यदि जयसिंहको संतोष न हआ और विक्रमके राज्य को हस्तगत करनेके ष: यंत्रमें प्रवृत हुआ था तो कहन. पड़ेगा कि जयसिंह वास्तवमें कृतघ्नी और दोषभागी था। एवं विल्हणने उसका जो चरित्र चित्रण किया है वह उससे भी अधिक कृतघ्नी और दोषभागी तथा निन्दनीय था। परन्तु विक्रमकी सोमेश्वरके राज्य अपहरण करनेवाली नीतिपर दृष्टिप.त करतेही वरवस मनोवृत्तिक प्रवाह श्रोत विपरीत दिश के प्रति गमनोन्मुख होती है और सहसा मुखसे निकल पड़ता है कि विक्रम जयसिंहके विप्रहका कारण जयसिंहके मत्थे नहीं वरण विक्रम के मत्थे पडता है। हमारी यह धारणा केवल अनुमानकी भीति पा ही अवलम्बित नहीं धरण इसको प्रबल और प्रत्यक्ष प्राधार है। . हमारे पाठकों को ज्ञात है कि चौलुक्य साम्राज्यका किशुवलाल प्रदेश जयसिंहके अधिकारमें था । और उसकी उपाधि युवराज थी । यद्यपि बाह्य दृष्टया जयसिंह और विक्रमके विग्रह पर इन दोनोंसे कुछमी प्रकाश नहीं पड़ता परन्तु अन्तरदृष्टिपात करते ही इनके विग्रह के गुप्त रहस्यका उद्घाटन हो जाता है । जयसिंहके युवराज उपाधिले उसका चौलुक्य साम्राज्यका भावी उत्तराधिकारी होना प्रकट होता है । और उपाधि उसे विक्रमके राज्यारोहन समय प्राप्त हुई थी। अतः अनयासहीं कह सकते हैं कि शक ६६८ में विक्रमने जब जयसिंहको भावी उत्तराधिकारी स्वीकार कर उमे चौलुक्य साम्राज्यके अन्य बहुत से प्रदेश दिया जो प्रायः समस्त राज्यका अधीश था । यहां तक कि विक्रमने वनवासी प्रदेशमी जयसिंहकों दे दिया जो उसके अधिकार में शक ६६२ अर्थात ३४ वर्ष से था। इतनाहों नहीं केशुवलाल प्रान्त जिसके अन्त गत चौलुक्य साम्राजका प्राणभूत स्थान पट्टडकाल था उसने जयसिंहको दिया। हमने पट्टडकालर स्थानको चौलुक्य साम्राज्य रूप शरीरका प्राण कहा है । अतः आशंका होती है कि हमारे पाठक आश्चर्य चकित हुए होंगे। इस लिये उनके आश्चर्यको शान्त करने के लिये निम्न भाग में पट्टडकालका महत्व प्रदर्शक विवरण देते हैं। आशा है उसके अबलोकन पश्चात वे हमसे अवश्य सहमत होगें। - पट्टडकाल नामक स्थान चौलुक्य राजधानी वातापिपुर (बादामी) से लगभग ८.१० मील की दूरी पर पूर्वोत्तरमें माल प्रभा नामक नदीके उत्तर तट पर अवस्थित है। पट्टडकालका नामान्तर किशुवलाल है । वास्तवमें ग्राम का नाम किशुवलालही था और पट्टडकल उसमें एक स्थान विशेष था। परन्तु पट्टकालके महत्वने किशुवलालका नामान्तर रूप धारण किया और क्रमशः अन्तम प्रधानता प्राप्त किया । विशुवलालके नामानुसार प्रदेशका नाम विशुर लाल पड़ा है। किशुवलालका शाब्दिक अथ "रतनोका नगर' और पट्टडकालका "राजाभिषेष."का स्थान है। ...... प्रारंभ से लेकर विवेचनीय समय पर्यन्त चौलुक्य इतिहासमा पालोचन प्रकट करता है कि किशुवलाल नामक र नके पट्टडकालमें प्रत्येक गजा और युवराजाका पटबंध गय निषेक हुधा एवं है । किशुबलाल प्रदेशको सदा युवराजके रहनेका गौरव प्राफ थाना नहीं विशुपसला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य केंद्रिका) विषय के अन्तर्गत स्वयं राज्यधानी यातापिपुरी थी। हाँ पट्टडकाल किशुवलाल प्रदर में १२ से १२ पर्यन्त प्रामोंका होना पाया जाता है । और प्रायः सभी ग्राम पट्टडकालके मन्दिर आदि में लगे हुए होतेथे अतः आर्थिक दृष्टि से किशुवलाल विषय कुछमी महत्व नहीं रखता था। परन्तु राजनैतिक रष्टि से इसके अधिकारीके लिये समस्त चौलुक्य साम्राज्यके समान महत्व था। कि गुव ताल पट्टडकाल विषय और युवराज यह दोनों को एकत्रित करतेही युवराज पदक अा दर्पणा स्पष्ट हो जाता है एवं इन दोनों का विक्रमका राज्यरोहन समय जयसिंह को देना सर रुपेण प्रकट करता है कि उसने जयसिंह को अपने बाद चौलुक्य समाजका स्वामो मोकार किया था। अब यदि कि गुगल.ल विषयको जयसिंहके अधिकारसे हठानेका पगल किया जाय तो वह पान उभात्री अधिकारले वंचित करने समान है। जयसिंहका किशुवलाल प्रोससे वंचित होने की आशंकासे विक्षुब्ध होना अथवा हठाये जाने पर मरने मारनेको खड़ा हो जाना स्वभाविक है। जयसिंह प्रचण्ड योद्धा था। उसने अपने शरीरका रक्त वहा विक्रमको गती और बैठा के शुबलाल प्रदेशके साथ युवराज पदको प्राप्त किया था एवं चौंलुक्य राष्ट्र के वाह बांछण को अपने पूर्वजों के समान रामेश्वरले .कर मध्य प्रदेशके जबलपुर पर्यन्त और परिमा झुजराथ के लाट प्रदेश पर्यन्त फहराया था। यदि कहा जाय कि जयसिंहने नर्मदाके दक्षिण तसे रामेश्वर पर्यन्त भूभागको पुनः चौलुक्य साम्राज्यके अधिकार लाकरे पुलकेशी प्रथम और द्वितीय के समान उसे गौरवपर पहुचाया था तो अत्युक्ति न होगी। । पुनश्च जयसिंहके हाथ सेना रहित नहीं हुए थे । उसकी नसोंके एक ठंडे नाही पोसे जो वह कायरोंके समान अधिकार पर हस्ताक्षेप होते देख.हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता। हम कह सकते हैं कि किक्रमादित्यने जर्यासहके साथ प्रथम छेडलाइ प्रारंभ किया था। और छेडछाडका श्री गणेश उसके संकेतसे उसके पुत्र जयकर्णने किया। एवं अनात छेडकार केशवराणा प्रदेश पर हस्ताक्षेप था । अथवा संभव है कि जयकर्णने अपने अधिकारकी परिधिका स्पष्ट परिया नहीं होनेसे केशुवल.ल प्रदेशको अपने अधिकार भुक्त मान हस्ताक्षेप किया हो । अथवा यासी संभव है कि उसने जयसिहका भावी युवराज स्वीकृत होना अपने न्यायोचित (विक्रमका जेष्ठ पुत्र होनेके कारण) अधिकार (भावी युवराज पद) का अपहरण मान लिया ही और अपने सिना रजा होने तथा अपने नये उमंगके बल छेडछाड किया हो। अब यदि हम अयासह अधिकारों (केशवलाल अथवा किसी अन्य विषय और युवराज पद) पर विक्रम के हस्ताक्षर परिजन. पा जायतो क्किम और जयसिंह के विप्रहका यथार्य कारण ही सात होने के साथ बिल्हणका भंडा फोर होते हुए युद्धका दायित्व विक्रमके गले चला जायेगा। विक्रमादित्यको जयकर्ण और सोमेश्वर नामक दो पुत्र थे। इनमें जयकर्णका उल्लेख रु.१००६ के लेखमें है। कथित शक १००६ प्रभव संवत्सरका लेख कौनुर नामक स्थानसे प्राप्त हुना है। कोनुर आमका प्राचीन नाम कोन्डनुरु है। इसका उल्लेख तात्र शासनों और शिक्षा प्रशस्तियों में कोटवार और कुन्डी नामसे किया गया है। कौमुर मालपमा नाम HAN Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर स्व नवी तड़पन का है। यह गोकाक नामक नगरसे ५ मील पश्चिमो र तथा वेलगांव से गमग ३० मील उत्तर में है । यह लेख कोम्बे रायल एसियाटिक सोसायटी के जर्नल बोल्युम १० पृष्ट २८० में पाली संस्कृत और पुरातन कनाडी लेख संख्या ६३ के नामसे छपा है। इस लेख से प्रकट होता है क्रि रहबशी महा मण्डलेश्वर कान्ह द्वितीय उक्त वर्षमें विक्रमादित्य के पुत्र जय वर्ण के सामन्त रूपसे इन्ही प्रदेशका शासन करता था । हमारे पाठकों को ज्ञात है की कुन्डी प्रदेश वीरनोलम्ब जयसिंहको अपने पिता ध्याहूवल्ल सोमेश्वर से शक ६७६ में मिला था । अतः अब विचारना है कि जब उक्त प्रदेश जयसिंह को अपने पिता से मिला था तो वह विक्रमादित्य के पुत्र जय कर्णके अधिकारमें क्योंकर चला गया। क्या विक्रमने कुन्डी प्रदेश शक १००६ के पूर्व हीं छीन लिया था। हमारी समझमें इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व हमें कुन्डी के रट्ठों के जिनकी राज्यधानी सुगन्धावती (सादन्ती) थी इतिहासका पर्यालोचन करना होगा । सुगन्धों के इतिहास पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि इन्होंने लगभग ३५० वर्ष यहाँपर शासन किया है। इनके शासनकी कथित ववधि तीन भागों में बटी है। प्रथम शक ७६६ से ८६५ पर्यन्त लगभग एक सौ व द्वितीय शक ८६५ से १०६२ पर्यन्त लगभग १६ व तृतीयक २०६२ से १९४७ पर्यन्त लगभग ५ वर्ष है। प्रथम अवधि पुगन्धवती के रठ्ठे मान्य के राष्ट्रकूटों के सामन्त और द्वितीय अवधि में चं. लुक्योंका राज्य छिन जाने बाद यंत्र हो गये थे। इन्होंने लगभग ५५ वर्ष स्वातंत्र्य सुखका भोग किया अनन्त र देवगिरी के यादवों ने इनकी राज्यलक्ष्मी के अपहरण के साथही संसारसे इनका अस्तित्व मिटा दिया । . No हमारा संबंध सुगन्धावतीके द्वितीय अवधि से है। अतः अत्र विवारना है कि चौलुक्यों के साथ इनका किस प्रकारका सम्बन्ध रहा है। विवे वनीय काल शक १००६ पर्यन्त चौलुक्य के किस राजा के समय कौन रठ्ठे सामन्त था । लुक्य अ र रट्ठ वंशके इतिहासके पर्यालोचन से प्रकट होता है कि शक संवत ६०२ में चौलुक्य राज्यके उद्धारक तैलप द्वितीयका सामन्त रवंशी शान्त और उसका वंशज कंठन सामन्त था एवं इस समय के ६८ वर्ष पश्च त शक ६७० सर्वाधिकारी नामक संवत्सरमें रहवंशी पूर्व कथित शान्त के बंश अनकको च लुक्य राजे आहवमलले सोमेश्वर प्रथमक सामन्त पाते है। इस समय से केवल ६ वर्ष बाद शक ६७६ जयनामक सर्वोसर में बीरनोलम्ब जयसिंहको कुन्डीकी जागीर अपने पितासे मिलती हैं और रहवंशी मानकको मोह मल और जयसिंह पिता पुत्र दोनों का सामन्त पाते हैं । सुगंधावतीके प्रायः विना तिथि के लेल से जयसिंहके ज्येष्ठ भ्राता सोमेश्वर भुवनका सामन्त आनको पाते हैं। सोमेश्वर भुवनका राज्यकाल शक० से ६६८ पर्यन्त है । पुनञ्च शक १००८ में आनकके वंशज कान द्वितीय को विक्रमादित्यका सामन्त पाते हैं और अन्ततोगत्वा शक १००६ में रहवंशी कान द्वितीयके भाई कठ द्वितीयको चालुक्य विक्रम के पुत्र जयकर्णका सामन्त पाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चंद्रिका] , अब विचारना है कि जब शक ६७६ में जयसिंहको अपने पितासे कुन्डी प्रदेशकी जागीर' मिली थी तो उक्त प्रदेशको सोमेश्वर द्वितीयने शक ६६० में गर्द.पर वठने पश्चात उससे (जयसिंहसे) कुन्डी प्रदेश छीन लिया था। यदि उसने कुन्डी प्रदेश छीना नहीं थातो कुन्डी के स्तु क्यों कर उसके सामन्त हुए। इस प्रश्नका उत्तर सोमेश्वर और जयसिंहके परस्पर संबंध दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है । हमारे पाठकों को ज्ञात है कि सोमेश्वर गद्दीपर बैठतेही जयसिंहको कुछ प्रदेश शक ६६० में तथा अब उसने उसका साथ - बिक्रमके विश्वासघात करने पर भी - नहीं छोडा और शत्रुओके हाथसे उसकी रक्षाकी थी तो कुछ और प्रदेश दिया था। अन्ततोगत्वा शक ६६२ में पुनः उसने युद्धमें विजयी होनेपर अन्य प्रदेश दिया था। जयसिंहके लेखोंसे सोमेश्वरका व्यवहार अत्यन्त सौहार्य पूर्ण प्रकट होता है। जयसिंह सदा सोमेश्वरका दाहिना हाथ था । ऐसी दशामें सोमेश्वर जयसिंहकी जागीर छीन लेवे यह समझमें नहीं आता । यदि सोमेश्वर जयसिंहकी जागीर छोन लेता तो उन दोनोमें सौहार्य नहीं रहता शत्रुता हो जाती। जयसिंहसे शत्रुता करना सोमेश्वरके बुतेकी बा नहीं थी। क्योंकि वह उसका' रक्षा कवच था। अतः कथित लेखमें जो सुगंधावतीके रछों को सोमेश्वरका सामन्त कहा है उसका केवल मात्र तात्पर्य यह है कि उसे चौलुक्य राज सिंहासनका भोक्ता होने के कारण अधिपति . रूपसे स्वीकार किया है। क्योंकि जयसिंह यद्यपि महाराजाधिराज पदवी प्राप्त किये था तथापि स्वतंत्र नहीं वरण अपने ज्येष्ट बन्धु सोमेश्वरके आधीन था। क्योंकि उसने अपने शक ६६३ और ६६५ के लेखों में सोमेश्वरको अधिराजा और चौलुक्य साम्राज्यका भोक्ता स्वीकार किया है। उधृत विवरण से स्पट है कि सोमेश्वर द्वितीय के राज्य काल में जयसिंहके अविकार , से कुन्डी प्रदेश नहीं निकला था। अब विचारना है कि शक १००४ में कुन्डी के रट्रों को जो विक्रमका सामन्त कहा है तो क्या विक्रमने उस समय जयसिंहसे कुन्डी प्रदेश छोन लिया था। हमारे पाठको को ज्ञात है कि जब विक्रम अपने बडेभाई सोमे वरको गद्दी से उतार शक ९६८ में स्वयं गद्दीपर बैठा तो उनने जयसिंहको अनेक प्रान्त दिया ! यहां तक कि उसे साम्राज्यका भावी युवाज स्वीकार कर युवराज प.बंधकी जागीर पट्टरकाल भी दिया और साथहीं चौलुक्य साम्रज्यका हृदय स्थान वनबापी प्रदेश जो स्वयं उसे अपने पितासे जागीरमें मिली थी और जिसे सोमेश्वर गदीपर बैठाते समय स्वीकार किया था। उस प्रदेशको भी जयसिंहको दिया इतनाह। नहीं हम देखते हैं कि जयसिंह के शक १००३-१००४ के लेखों में उसे "विक्रमाभग्ण" विक्रनका रक्षक और 'अन्नन अङ्कार' अपने भाईका सिंह तथा 'चौलुक्य भरण' और 'चुडामणी' . विरुद धारण कर विक्रमके शत्रों का नाश करने वाला लिखा है । ऐसी दशामें विक्रम क्यों कर उससे उसकी जागीर छीन असंतुष्ट कर सकता है अतः कुन्डोके रट्रो को अपने लिये विक्रम . का सामन्त कहनेका केवत मात्र अभिप्राय यह है कि उसे अधिराजा रूपमें स्वीकार किया है। जयसिंहने मी विक्रमको प्राता अधिराज अपने कथित लेवों में रोकार किया है। __ अन्ततोगत् । हम शक १००६ में रठों को विक्रम के पुत्र जयकर्ण का सामन्त रुपमें पाते हैं। इससे स्पष्ट है कि इस समय जयसिंहका अधिकार कुन्डी प्रदेशसे जाता रहा है क्यों - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ [ लाट वासुदेवपुर स्वयं कि एकही समय कुन्टी प्रदेश जयसिंह और जयकर्ण दोनोंकी जागीरमें नहीं हो सकता । अब विचार है कि विक्रमने क्यों कुन्डी प्रदेश जयसिहसे लेकर अपने पुत्र जयकर्षको दिया। इस समय के बादही शक १०१० में विक्रमके सामन्त कदमबंशी शान्तिवर्मा को जयसिंहके वनवासी प्रदेश पर सामन्त रुपसे शासन करते पाते है। निश्चित है कि शक १०१४ के पूर्वहीं विक्रम और जयसिंहका मन भोटाव हो गया था । एवं वे दोनो लड गये थे। जयसिंह पराभूत होकर जंगलो में भागा था । विना पराभव उसके अधिकारका मुख्य प्रदेश वनवासी जिसमें उसकी राज्यधानी वलीपुरथी क्योंकर विक्रमके सामन्त कदमवंशी शान्तके अधिकारमें जाता । अतः हमे विक्रम और जयसिंहके मन मोटाव - विग्रह आदिको शक १००४ और १००६ के मध्य अनुसंधान करना पड़ेगा। हमारी समझमें शक १००४ में विक्रमका साम्राज्य जब जयसिंहके भुजबल प्रताप शौर्य से प्रदिप्त होकर कन्या कुमारी से लेकर चेदी देश और पश्चिममें लाट पर्यन्त शत्रुहीन हो चुका तो उसने अपते संबंधी गोवा के कदमबंशी सामन्त जयकेशी के मतले जयसिंहको नष्ट करनेमें प्रवृत्त हुआ और सर्व प्रथम उसने अपने पुत्र जयकणको कुन्डी विषपका जागीर दिया। कुन्डी विषप पट्टडकाल विषपके समीप था। अब हमे केशुवलाल - पट्टडकाल और कुन्ढी आदि प्रदेशों . का भौगोलिक अवस्थानका परिचय प्राप्त करना होगा । वनवासीके उत्तरमें पट्टडकाल है। पट्टडकाल और वनवासी के मध्यमें उन्ढी प्रदेश है । कुन्डी प्रदेश जयकर्णको देकर विक्रमने बेड छाड किया । जयसिंहका कुन्डी जाने नहीं नहीं वरण उससे और उत्तरवर्ती पट्टडकाल तथा अपने भावी युवराज पदकी रक्षाकी चिन्ता पड़ी होगी। अतः वह, लडने मरनेको तैयार हो गया होगा । जयसिंह और विक्रमकी विग्रहके वास्तविक तिथि प्राप्त करने के लिये हमे विशेष रुपसे प्रयत्न करना होगा । अतः निम्नभागमें विचार करते हैं। . शक १००६ के बाद ही शक १०१० में जयसिंहके अधिकृत वनवासी प्रदेश पर विक्रम के सामन्त कदमयशो शान्तिवर्माको पाते है। अतः हम कह सकते हैं कि विक्रमादित्यने जयसिंह के साथ प्रथम छेडछाड प्रारंभ किया था । और छेडछाड का श्री गणेश उसके संकेतसे जयपण ने किया । एवं उक्त छेडछाड केशुवल.ल प्रदेश पर हस्ताक्षेप किया था अथवा संभव है कि परिधिका स्पष्ट परिचय नहीं होनेले केशुकल.ल प्रदेशको अपने अधिकार मुक्त मान उसने हस्ताक्षेप किया हो । अथवा यह भी संभव है कि उसने जयसिंहका भावी युषराज स्वीकृत होना अपने न्यायोचित (विक्रमका ज्येष्ठ पुत्र होनेका कारण) अधिकार (भावी युवराज पद) का अपहरण मान लिया और अपने पिता के राजा होने तथा अपने नये उमंगके बल पर जयसिंहके साथ छेडछाड किया हो। चाहे जो को विक्रम और जयसिंहाके विग्रह का कारण जयकर्ण को कुन्डी आदि जागीर दिया जाना है । अतः इस विग्रह का दोष जयसिंह पर नहीं वरण विक्रम पर है। विल्दण ने लिखा है कि जयसिंह वनवासी से चलकर कृष्णा नदी पर्यन्त आकर विक्रम के राज्य के गमों को लुटने लगा । परन्तु यह नहीं बताया है कि जयसिंह वनवासी से । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F . . 21८1-2 2 . - पलकर सर्व प्रथम कृष्णातटवर्ती स्थानो पर क्यों रुक गया । और वहां ही विहमके राज्यके गामको, लुदने लगा । हमारे पाठकोको मालूम होगा कि हुम उपर प्रकट कर चुके हैं कि चौलुक्य साम्राज्यका पाय अप्रेश जयसिंहके अधिकारमें था। दो और उसके समीपुत्राला किशुवलाल पट्टडकाल प्रदेशमी उसके अधिकार में था । एवं विशुवलाल का प्रधान स्थान पट्टड्काल था। पुनश्च पटूहकार मालिप्रभा नदी के उत्तर तट पर अवस्थित था। अब यदि पट्टडकल विशवलाल प्रदेश और कृष्णा नदीके भौगोलिक अवस्थान का परिचय प्राप्त कर सके तो हमे विक्रम और जयसिंह के राज्यकी सीमाका परिचय प्राप्त होने और कृष्णा तट पर उसके आनेका कारण प्रकट हो जावेगा। हम बता चुके हैं कि पट्टडकाल वादामि से ८-१० मील पूर्वोत्तरमें है और बाकामी वर्तमान वीजापुर नामक जिलामें है । कृष्णा नदी विजापुर जिला में पूर्वसे पश्चिम प्रवाहित हैं और बिजापुर जिलाके प्रसिद्ध स्थान गलगलीसे लगभग पांच मील उत्तर गेहनुर नामक स्थान के पास जिजामे प्रवेश करती है। ए मालामा संगम स्थान के संगमेश्वर से दक्षिण धानुर नामक स्थानसे लगभग आठ मील पूर्व पर्यन्त ५४ मील वह कर पश्चात निजाम राज्यमें प्रवेश करती है । अतः पट्टडकाल से कृष्णा अधिक से अधिक १७-१८ मीलकी दूरी पर है । अब हमारे पाठक समझ चुके होगैकि जयसिंह वननासी से चल कृष्णा तट पर क्यों उपस्थित हुआ। इसका अर्थ स्पष्ट है । जयसिंह वनवासी से चलकर बादामि अथवा पटड़काल में ड्ट गया होगा। और पठ्ठड्काल पर अपने अधिकारको सुरक्षित रखने के लिए मरने मारने के लिए कटिवष्य हो गया होगा। एवं वहां पर अपनी सेनाको एकत्रित किए होगा। उधर जयकर्ण पट्टडकाल को अपने अधिकार में करने के लिए तुला बैठा होगा। बिल्हण ने जो लिखा है कि जयसिंह के सेना संग्रह का सम्बाद पाकर विक्रमने दो बार अपने राज्यदूनको उसके पास भेजा । इसका अर्थ है कि वह जयसिंहकों पटसकाल प्रदेश जयकणे को देने के लिए समझाना चाहता था परन्तु जयसिंह अपने भावी अधिकार के विचारसे पट्टडकाल किसीमी अवस्था में देनेको तैयार न हुआ होगा। उधर जयकर्ण बलपूर्वक पट्टडकाल पर अधिकार करना चाहता होगा। अतः दोनोंकी सेनामें पड्कालकी सीमापर बहुने वाली कृष्णा के तट पर छेडछाड हुआ होगा। जिसमें कदाचित जुयकर्षको अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा होगा क्योंकि शक १००६ के पश्चात जयकर्णका कहीं भी उल्लेख नहीं पाया जाता । और जयसिंह सेनासहित कृष्णा पारकर उसके तटवर्ती प्रदेशोंपुर अधिकार जमा बैश होगा पुनश्च सदा के लिये इस विग्रहको शान्त करने के विवार से विक्रमादित्यको मी गद्दी पर से उतारने के लिये कल्याण के प्रति अग्रसर हमा होगा। विक्रमको अन्तमें जयसिंह के साथ अपने राज्य और प्राण दोनोंकी रक्षा के लिये स्वयं आगे बहकर लड़ना पड़ा होगा । या युद्धमें मी प्रथम जयसिंह विजयी हुआ था। परन्तु दुर्भाग्यसे अन्त में उसे हारना पड़ा। . वधुत विवरणसे निकम और जयसिंहले विप्रहका कारण युद्धका स्थान और तिथि एवं परिणाममा हो गया। प्रबुवा म विचारता हु गया है कि युद्ध पक्षात जयसिंह बा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बाँट मासुमपुर संग जिसक सम्बन्ध में प्रस्तुत सहमत ह ... क जय सह अपने परि A जगलम शाश्रय लिया संकेत करता वारके साथ सम्भवतः उत्तर कोकणे और लाट देश के प्रति गैमनीन्मुख हुआ था । एवं उसके इन प्रदेशों के प्रति गमनोन्मुख होनेकी संभावना विशेष है। इस संभावना का समर्थन जयसिंह के सक १००३-४ वाले द्वितीय लेखके पर्यालोचनसे सतया हो जाता है । तथापि इस प्रश्नका समाभात करने के लिये हमे दक्षिण भारतके तत्कालीन परिवर्तन और विशेष करके इतिहास और एतिहासिक स्थानों तथा भौगोलिक अग्थानका आश्रय लेना होगा । अतः हम सर्व प्रथम भौगोलिक अवस्थानका विचार करते हैं। क्योंकि इसके ज्ञान प्राप्त करने पश्चात प्रथम तथा उत्तर भावी प्रम के विवेचनको समझने में सहायता मिलेगी। जयसिंहकी राज्यधानी, वनवासी वाशश सहलके पानसर्गत क्लीपुर नामक नगरमें थी और बनवासीमें भी उसके रहने का परिचय मिलता है। वनवासीका भौगोलिक अवस्थान इम्पीरियल ग्रेजेटीअर के मान चित्रमें १४-२५ और ७५६७६ के मध्य में है, गोकर्णका अवस्थान १५-१६ और ७४-७५ के मध्य वनवासी से पश्चिनोत्तर में लगभग १५० मील है। वादामी और केशुक्ल नाम पहलकाल का अवस्थान १६-१७ और ५६-६६ के मध्य वनवासी से कुछ पूर्वोत्तर में एटा इमा लगभग २०० मील और ठीक पूर्वोत्तर कोने में ३३५-४० मील है। कोल्हापुर'१६-२७ और ७३-७४ के मध्य और गोआ.लगभग २०० मील वनवासी पश्चिमसे कुछ इंटा हुआ उतरने लगभग ३७५-८० मील तथा वातापि से पूर्व उतर कोने मे लगभग २५० मील है । करहाट १७-१८ और ७३-८४ के मध्य बादामी से लगभग ३५० मील उत्तर कुछ पूर्वको हटा हुआ है। ... .. उधृत भौगोलिक अवस्थान से वनवासी आदि प्रदेशों का भव स्थान हमें विदित हो गया। अब यदि हम विक्रम और जयसिंह के शत्रुनों का ज्ञान प्राप्त कर सके तो जयसिंह के पराभव का और वनवासी से भाकर जंगलो में भागने का कारण जान सकते हैं। हमारे पाठकों को शांत है कि गोकर्ण का कदम वेशी जयकर्ण विक्रमादित्य का जामात्र और परम मित्र था। एवं करी का शिलाहार राजवंश की कन्या का विवाह विक्रमके साथ हुआ था। पुनश्च कोल्हापूर और कर दोनों राजवंश अभिन्न थे। दूसरे तरफ जयसिंहका पर शत्रु और प्रतिद्वंदी 'जयकेशी थी। और जवसिंह ने अपने लाट पाहल और कोकण विजय के समय कोपर्दि दीप ( थाना के शिल्हार राजा को गर्दैदी से उतार शिव्दारों को अपना शत्रु बना चुका था। विहण के कथनानुसार विक्रम जयसिंह के कृष्णा तटपर भाकर आक्रमण करने परमी सुपचाप बैठी। जब वह कृष्णा के पगे बढ़ो तो वह अपनी सेना के साथ प्राकर युद्धमें स्ट से या किसीको य दाव पचका कुछमा ज्ञान होगा तो वे तुरतही रहने का कारण यह है कि वह जयसिहको अपने PMONTHSHAR रूपसभपने सम्बन्धिीका पावसभाकर उसका S मत जावग। उस देना चाहता था। अ जापभोग बढ़ानना चाहता था। सम्बन्धअपनारायवाना बनधासाविच्छ करा सपा समाआमन्य नहानहापार सनाचा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पौलुक्य चंद्रिका ] घेरना चाहता था। क्योंकि वातापि से आगे बढ़तेहीं जया सिंहके पृष्ट प्रदेश पर गोकर्णपति जयकेशी वामभागपर कोल्हापुर और कराड के शिल्हार और सामने विक्रमकी सेना एवं दक्षिण भागपर संभवतः विक्रम के किसी अन्य सामन्तकी सेना अपडी होगी । पुनश्च हमारे पाठकों को ज्ञात है कि शक १०१० में वनवासी कमवंशी शान्तिवर्मा के अधिकार में था । यदे कदम बैश के विशेषका परिचय पा जाय तो अनयासही उसके वनवासी पर अधिकार करनेका रहस्य प्रकट हो जावेगा । हमारे पाठकों को ज्ञात है कि कदमवंशका वनबासो के साथ बहुत पुराना सम्बन्ध है। यहां तक की इनका विरुद वे जहां कहीं भी भाग्य विडंबन | बस गये वहां पर " वनवासी पुराधीश्वर" रहा । गोकर्ग पति जयकेशी और धारवार जिला के पुनुगाल ( होगले ) के कदम्बों का विरुद भी " वनवासी पुराधीश्वर" था । पुनुगा रुके कदमवंश के इतिहासपर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि पुनुगालके कदम्बों के अधिकार में वनवासी का शासन जयसिंह द्वितीय के समय से चला आता था । जयसिंहका सामान्त मयूरवर्मा द्वितीय और चामुण्डराय थे । सोमेश्वर प्रथम के समय उसकी रानी मयलाल देवी के सामान्त रुपले हरिकेशरी वर्मा वनवासीका शासन करता था। सोमेश्वर द्वितीय के समर्थ कीर्तिर्मा द्वितीय सःमान्त रूपने बनवासीका शासक था । परन्तु विक्रमके समय जयसिंहको वनवालीका राज्य मिला तो उसने कदन्त्रों के हाथसे सामान्त अधिकार छीनकर बलदेव को दिया । श्रतः पुमंगाल के कदम्बों का जयसिंहका विरोधी होना सस्वभावतः है । 1 जयसिंह के बाद शान्तित्रर्मा को पुनः हम शक १०१० में वनवासी का सामान्त पाते हैं । शान्तिवर्मा के अपने लेखों से प्रकट है कि वह पुनुगाल के कदम्ब वंशका था । और कीर्तिवर्माका सगा चाचा था। एवं उसके सन्तान हीन मरने पर पुनुगाल के कदम्व सिंहासन पर बैठा । शान्ति वर्मा विक्रमका सामन्त था । एवं उसका राज्य वनवासी के समीप था । और एक प्रकारसे बन वास और वातापि के मध्य पड़ता था। अब पाठक समझ सकते हैं कि जयसिंह के वनवासी छोड़ कर वापि आने और युद्धमें पराजय होने अथवा पूर्वही शान्तित्रर्मा कितनी आसानी के साथ वासीको विकृत करसकता है। क्योंकि वनवासी छीन जाने का पुनुगाल के कदम्बों को हृदयमें दुःख होगा इसका अनुमान करना कोई कठिन बात नहीं है । वे सदा वनवासी पर अधि-: कार करने के लिये अवतरकी अपेक्षा में बैठे होंगे। विक्रम और जया के विग्रह समान सु वसर उन्हें फिर कहां प्राप्त हो सकता था। अतः इस अवसर से लाभ उठाकर उन्होंने वनवासी पर अधिकार कर लिया होगा । उधृत विवरण से है कि युद्धमें पराभूत होने पश्चात जयसिंह को अपने राजय वनबाली में आनेका मार्ग का प्रतिरोध हो चुका था । इतनाही नहीं उधर जाना क्या जाने के लिये प्रयत्न करनाभी शत्रुरुपी कालके गाल में पडना था । अतः जयसिंहके लिए पराजयके पश्चात जंगलमें या विक्रम के शत्रुओं अथवा अपने किसी मित्रके आश्रम में जाने के अतिरिक्त कोई अन्य . म न था । अब विचारना है कि संभवतः उसे किस दिशा से सहाय प्राप्त करनेकी सम्भावना थी. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड हमारे पाठकों को ज्ञात है कि विक्रमादित्यको बेंगी मंण्डलके (पूर्वीय) चौलुक्यों के साथ वैमनस्य था। सोमेश्वर द्वितीयने मी बेंगी के चौलुक्य राज राजेन्द्र (बिल्हण के राजी) के साथ मैत्री सम्बंध स्थापित किया था । एवं जब विक्रम राजेन्द्र पर आक्रमण करने गया तो सोमेश्वरने विक्रम की सेना पर पृष्ट प्रदेशसे आक्रमण किया था । विक्रम और राजेन्द्रके इस विग्रहका कारण राजेन्द्रका काज्जीवर के चौल राजकुमार अपने ममेरे भाई और विक्रम के साले को राजगद्दी से उतार चौल देशके राज्यको अपने राज्य में मिलाना था। विक्रम प्रथम राजेन्द्रको कांची से हटाने में समर्थ हुआ था। किन्तु राजेन्द्रने अन्त में चौल राज्यको अपने अधिकार में लाने में समर्थ हुा । अतः बिक्रम और राजेन्द्र में बैमनस्य अग्नि के अस्तित्वका होना स्वभाविक है । अव यदि हम यह ज्ञान प्राप्त कर सके कि विक्रम और जयसिंहके युद्ध समय बेंगी चौल साम्रज्यपर कौन अवस्थित था । और यदि हम जान सके कि उस समय बेंगी चौलका राजा राजेन्द्र था। तो जयसिंहका उसके पास आश्रय प्राप्त करने के लिये जाना संभव हो सकता हैं। बेंगी चौल की राजगदी पर राजेन्द्रका राज्याभिषेक शक संवत ६८५ में हुआ था । और उसका राज्य काल शक १०५४ पर्यन्त ५० वर्ष है । अतः विक्रम और जयसिंहके युद्धकाल शक १००८ में राजेन्द्र बेंगी चौल संयुक्त राज्यका भोक्ता और विक्रमका महा कट्टर श, था। हमारी धारणा केवल अनुमानकी पोच भीति पर ही अवलम्बित नहीं है। वरण इसके आधारका आभास बिल्हणके कथन "द्रविडके राजाके साथ मैत्री स्थापित करनेका विचार होरहाहै" में मिलता है। यद्यपि बिल्हणने द्रविडके राजाका नाम नहीं बताया है तथापि विल्हण कथित द्रविड राजा राजेन्द्र के होनेमें कणिका मात्रभी संदेह नहीं क्योंकि राजेन्द्रका अधिकार द्रविड देशके पांचों भागों पर शक संवत ६६४ -६५ में हो गया था। अतः हम कह सकते हैं कि जयसिंह युद्धमें पराजित होने पश्चात संभवतः राजेन्द्र की राज्यधानी कांचीपुरी के तरफ जंगली मार्ग से अग्रसर हुआ। विक्रम और जयसिंहके युद्धस्थलसे समीपमें ही राजेन्द्र के वेंगी चौल राजकी सीमा लगी थी। जहां पर कृष्णा उपत्यका होकर जाना अत्यंत सुगम था । पुनश्च राजेन्द्र के राज्य में जाने के अतिरिक्त जयसिंह के लिये दूसरा मार्ग भी नहीं था। जहां पहुंचते ही विक्रम के आक्रमण की कुछ भी संभावना न थी। हां इस संभावना के प्रतिकूल जयसिंह के पुत्र विजय का प्रस्तुत लेख किसी अंशमें पडता है। क्योंकि इस लेखसे जयसिंह के बेंगी चौल साम्राज्य में श्राश्रय प्राप्त करने का कुछ भी आभास नहीं मिलता। इस लेखमें स्पष्ट रूपेण लिखा है कि " जयसिंह जब जंगलों में पाण्डवों के समान कालक्षेप कर रहा था तो, उसके पुत्र विजयसिंह ने अपने पैतृव्य के राज का अतिक्रमण कर अपने बाहुबलसे नवीन भूभाग अधिकृत कर मंगलपुरी में बाराह लाक्षण को स्थापित किया" । हां ठीक है ? परन्तु इस उक्ति से यह भी सिद्ध नहीं होता कि जयसिंह ने पराजित होने पश्चात् बेंगी साम्राज्य में आश्रय नहीं लिया था। हमारी समझमें युद्धमें पराजित मनुष्य को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ चौलुक्य चन्द्रिका सबसे प्रथम सुरक्षित आश्रय प्राप्त करने की इच्छा होती हैं। और वह अपने उस निश्चित सुरक्षित अवस्थान में जानेका प्रयत्न करता है। प्रस्तुत लेखसे यह सिद्ध है कि मंगलपुरी ताप्ती नदीके समीपमें थी । युद्ध स्थल से मंगलपुरी सीधे उत्तर पश्चिम दिशा में अवस्थित है। और लगभग २५० मील है। यदि युद्धस्थलसे सीधे मंगलपुरी के तरफ देखा जाय तो लगभग आधा मार्ग विक्रम के अपने राज्य होकर और चतुर्थांश भाग उसके श्वसुर करहाटके शिल्हारोंके राज्य होकर पडता था और शेष मार्ग जयसिंह के मित्र थाणा के शिल्हाराके राज्यान्तर्गत था। अतः लगभग १६० मील मार्ग जयसिंहके शत्रुओं से भरा हुआ था । हमारी समझमें नहीं आता कि भागनेवाला व्यक्ति अथवा उसका कोई संबंधी इस प्रकार शत्रु परिपूर्ण मार्ग से आश्रय पाने के लिये जा सकता है । भागनेवालो को चाहे कुछ चक्कर लगाकर जाना पडे परन्तु वह सीधे मार्गसे कमी न जायगा। हम ऊपर बता चुके हैं कि बेंगीका साम्राज्य युद्धस्थल से समीप था . वहां जाते. जयसिंह शत्रके आतंगसे विमुक्त हो सकता था। और वह अथवा उसका पुत्र बेंगी राज्य होकर विक्रमके राज्यके उत्तरीय सीमाका अतिक्रयण करते हुए उक्त मंगलपुरी पहुंच सकते थे । अतः हमारी समझ में जयसिंहका पुत्र विजयसिह बेंगी साम्राज्य होकर मंगलपुरी के प्रति अग्रसर हुआ होगा। संभवतः युद्ध से भागते हुए पिता पुत्रका साथ छुट गया होगा। और जयसिंह बैंगी साम्राज्यमें आश्रय पाशान्तिलाम करता होगा उस समय उसका नवयुवक पुत्र विक्रमके राज्यकी सीमाका अतिक्रमण करते हुए मंगलपुरी प्रदेशमें पहुंच गया होगा । क्योंकि उक्त जयसिंहके लाट उत्तर कोकण और दाइल विजयके पश्चात एक प्रकारसे उसके अधिकार मुक्त और चौलुक्य साम्राज्यके अन्तर्गत था। यही कारण है कि विजयसिंह अनायासही उक्त प्रदेश पर अधिकार कर सका था। हमारी समझमें प्रस्तुत प्रशस्तिका सांगोपांग विवेचन हो चुका । अब यदि कुछ शेष रह गया है तो वह प्रशस्ति कथित प्रदत्तग्राम आदिका अवस्थान विचार करना मात्र है । अतः कथित ग्राम आदिका विचार करते हैं । विजयसिंहने विजयपुर में रहते समय शासन पत्र जारी किया था। दान देते समय उसने ताप्ती स्नान किया था। प्रदत्तग्राम वामनवलीकी पूर्व और दक्षिण सीमा पर ताप्ती नदी है। अतः विजयसिंहके सह्याद्रि मण्डलवर्ती अधिकृत प्रदेशके श्रवस्थानका निर्णयका विजयपुर मण्डल और वामनवली ग्राम है । जिसके समीपमें ताप्ती वहती है । सह्याद्रि पर्वतमालाके उत्तरमें ताप्ती बहती है। और खंभात की खाड़ी में जाकर गिरती है। एवं सह्याद्रि से पूर्णा नामक नदी निकलती है और वह भी तापती से लगभग २५ मील दक्षिण खाडीसे मिलती है । पूर्णा और तापी के मध्य बरोदा राज्य के नवसारी प्रान्त के व्यारा नामक तालुका में पूर्णा तटपर मंगलीआ नामक एक ग्राम है। एवं इसी प्रान्त के सोनगढ़ तालुका में मंगलदेव नामक पुराना दुर्ग हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ला. वासुदेवपुर खण्ड हमारी समझमें शासन पत्र कथित मंगलपुरी सोनगढ़ तालुका वाला मंगलदेव है पुनश्च मंगलदेव से ठीक नाक के सीधे उत्तरमें तापी तटपर बाजर नामक ग्राम सोनगढ़ तालुक । में है । यह प्रदेश घोर जंगल में है। यहांपर भी एक पुराणा दूर्ग है। अनेक मंदिर आदि के अवशेष यहांपर पाये जाते हैं। दूर्ग के पास नदी तटपर एक राजा की मूर्ति घोडे पर बनाई गई है । राजा के पीछे रानी बैठी हैं। एवं अन्य कई पुरानी मूर्तिओं के अवशेष पाये जाते हैं। हमारी समझमें शासन पत्र कथित विजयपुरी यहीं है। क्योंकि प्रथम तटस्थान तापी तटपर है। द्वितीय इस से कुछ दूरीपर परघट नामक दुर्ग हैं। जो पार्वत्यका अपभ्रंश है । पुनश्च यहां से लगभग दक्षिण में १० मील की दूरीपर वावली नामक ग्राम है जो हमारी समझमें शासन पत्र कथित वामरणवलीका रुपान्तर है क्योंकि इस बावली के दक्षिण और पूर्व में ताप्ती बहती है । एवं इसके पश्चिम खांडवन नामक ग्राम है। जो शासन पत्र कथित खांडव वनकी झलक दिखाता है | अतः हम निःशंक होकर वह सकते है कि विजयसिंहने अपने पित्रव्य के राज्यका अतिक्रमण कर संह्याद्रि पर्वत के इसी अंचलको अधिकृत किया था । १३१ इससे निर्भ्रान्त रूपेण सिद्ध हुआ कि वातापि कल्याण राज्यके वादी संह्याद्रि मण्डलका प्रदेश विजयसिंहने अधिकृत किया था । अतः शासन पत्रका यह कथन पूर्ण रूपेण स्वयं सिद्ध हुआ। परंतु प्रश्न उपस्थित होता है कि लाटवालों ने क्योंकर अधिकृत करने दिया । हम उपर बता चुके हैं कि लाट और पाटनका वंशगत विग्रह था । और कर्णदेव ने विक्रम ११३१ के अासपास लाट प्रदेशका नवसागरी विभाग अपने अधिकारमें कर लिया था। इसे प्रकट होता है। लावालों की शक्ति इस समय बहुत क्षीण होगई थी और उससे लाभ उठाकर विजयने दुर्गम पार्वत्य प्रदेशको अनायास ही अधिकार कर बैठा । हमारी समझ से शासनपत्र कथित बातों का पूर्ण विवेचन हो चुका और उनकी प्रमाणिकता निर्भ्रान्त रूपेण सिद्ध हो चुकी । एवं विजयका संबन्ध वातापि के चौलुक्य वंश के साथ है। उसका पिता वातापि पति विक्रमादित्यका छोटा भाई था । उसको उससे वनवासीका राज्य मिला था । परन्तु विग्रह करने के कारण छिन गया था । इन्हीं सब घटनाओं और विजय के राज्य प्राप्त करनेका वर्णन संक्षेप रुपसे शासन पत्र में किया गया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका ] १३२ मंगलपुर वासन्तपुरपति चौलुक्यराज श्री बीरसिंहदेव का शासन पत्र। ॐ स्वस्ति । नमो भगवते आदि दे वाय वाराह विग्रह रूपिण श्रीमतां सोम प्रसूतानां जगद्विश्रुतानां मानव्य सगोत्राणां हारिति। पुत्राणां चौलुक्यानां सप्त मातृका परिवर्धितानां कार्तिकेय परिरक्षितान चौलुक्याना मान्वये स्व-जबलोपार्जित सम्राट पदानां महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सत्याद्रिनाथ केसरी विक्रम श्री विजयसिंह देव स्तपादानुध्रात् तत्पुत्रो महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री धवल देव स्तत्पादानुध्यात् तत्पुत्रो महा सामन्त महाराजा श्री वासन्तदेव स्तत्पादानुध्यात् तत्पुत्रो सामन्तराज श्री र मदेव सत्पादा नुध्यात् तत्भात पुत्रो महाराजाधिराज परमेश्वर परम भहारक श्री बीरसिंहदेव पाटन पट सन्दाम वद्धा स्ववंशराज्य लक्ष्मी निर्मुच्य स्वाङ्गाके संस्थाप्य वासन्तेषधेराजः । तज्जन्य हर्षातिरेकोपलक्ष्ये भगवान भूत भावन भवानिपति कर्दमेश्वर सेवार तेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो गौतमस गोत्रेभ्यो पंच प्रवरेभ्यो भाश्वलायन शाखाध्यायिभ्यो हरदत्त सोमदत्त हरिदत्त रुद्रदत्त विष्णुदत्तेभ्यो बालखिल्य पुराख्याग्रामः वृक्षाराम तृण गोचर हिरण्य भोगभाग सर्वाय सहितः कुशजल सुवर्ण पूर्वकं कर्दमेश्वर हदे स्नात्वा जद्गुरुं भवानि पतिं समभ्यर्च्य मातापित्रोरात्मनश्च पुण्य यशोऽभि वृद्धिकांक्षयास्माभिः प्रदत्त स्सुविदित मस्तु वः एषा ग्रामस्य सीमानः । पूर्वतोऽमिवका ग्रामः । दक्षिणतः पूर्णा नवी पश्चिमतः खट्वाङ्गेय ग्रामः । उत्तरतः करंजवली प्रामः । अस्य ग्रामस्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड प्रतिवासिभ्यः सदा सर्वदा एभ्यो ब्राह्मणेभ्यो सर्वाय व्यवछेदरहित देयं । न केनापि वाधा कर्तव्या! न चेत् अस्मद्वंशजै रन्यवंशजै रागामी भूपालैः पालनीयं धर्मदायोऽयं । स्वदतां पर दत्ता वा वसुंधरा योव्यवच्छोरी स महापातकी भवति । योऽनुपालयति पुगपभाक् भवति । उक्तं च। षष्टि वर्ष सहस्राणी स्वर्गे तिष्ठति भूमिदः हर्ता चैवानु मन्ता च तान्येव नरके व्रजेत् बहुभिर्वसुधा भुक्ता राजभि स्सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य नदा फलम् । बाणे त्रये पक्षे चैव भानो संख्या समन्विते । मार्गशीर्ष सिते षष्टयां शकारी नृप वत्सर । अनन्दपुर बास्तव्य भूदेव द्विज सूनुना। कृतंच्चैवात्म रामेण शासनं नृप चोदितः । त्रिवेदी सोमदत्तश्च पुरोहितः द्विजाग्रणी। रुद्रसिंहोंऽपि सामन्त शासनस्य दूत का ।। भूधरेणेव चोत्कीर्ण शासनं पढके द्वये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका]. १३४ वीरसिंह के शासन पत्र का छायानुवाद कल्याण हो । भगवान आदि देव वाराह विग्रह रूप को नमस्कार हो । सोमवंशोदभूत् जगत्प्रसिद्ध मानव्य गोत्र हारिती पुत्र सप्त मात्रिका परिवर्धित कार्तिकेय रक्षित चौलुक्य वंशी अपने भुजबलसे साम्राटपद प्राप्त करने वाले महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक सह्माद्रिनाथ केसरी विक्रम वियजसिंह । श्री विजयसिंह देव के पादपद्मका अनुरागी उसका पुत्र महाराजाधिराज़ परमेश्वर परम भट्ट रक श्री धवलदेव के पादपद्मका अनुरागी पुत्रमहासामन्त महाराज श्री बसन्तदेव श्री वसन्तदेवका पादपद्मानुरागी पुत्र सामन्तराज श्रीरामदेव । श्री रामदेवके पादपद्माकमल का अनुरागी उनका भ्रातृ पुत्र महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री वीरसिंह देवने पाटन के पटसंदाममें बंधी हुए अपने वंशकी राजलक्ष्मीको मुक्त कर अपनी अकशायनी बना वसन्तपुरमें विराजमान हुए। अपनी इस विजय केहर्ष उपलक्ष्य में भगवान भूत भावानि पति कर्दमेश्वर की सेवारत गौतम गोत्र पंच परवार आश्वलाइन शाख्याध्या यज्ञदत्त - सोमदत्त - हरिदत्त रुद्रदत्त और विष्णु दत्त प्रभृति पांच ब्राह्मणको वालखिल्यपूर नामक ग्राम वृक्षाराय तृणगोचर भोगभाग हिरण्यादि सर्व प्रकारके आय कर्दमेश्वर हदमें स्नान और जगगुरु भवानी पतिकी आराधना करके अपनी माता और पिता तथा अपने पुण्य और यश वृद्धिके कांक्षासे हाथमें कुछ जल और सुवर्ण लेकर कथित ग्राम दान दिया इस ग्राम सीमायें पूर्व दिशा-अम्बिका ग्राम दक्षिण दिशा-पूर्णा नदी पश्चिम दिशा-खटवांगीय उत्तर दिशा-करंजावली इस प्रामके प्रतिवासिओं को उचित है कि ग्राम के कर को इन ब्राह्मणों को विना किसी व्यवधान के दिया करें। इसमें किसीको बाधा उपस्थित न करना चाहिए। हमारे वंश अथवा अन्य भावी राज्यवंश के नरेशोंको उचित है कि हमारे इस धर्मदायकी रक्षा करें । अपनी दी हुई अथवा दूसरेकी दी हुई वसुधाका जो अपहरण करता है वह महापातकी होता है । जो पालन करता है वह पुण्यभागी होता है। ___ कहामी गया है:- भूभिदान देने वाला व्यक्ति साठ सहस्त्र वर्ष स्वर्गमें वास करता है। और इतनी ही अवधि पर्यन्त भूमिदानका अपहरण के अनुमति देनेवाला नमें निवास करता है । बहुत से सगरादि राजाओंने पृथिवीकाभोग किया है परन्तु प्रदत्त भूमि जिसके राज्य में होती है उसको ही उसके दानका फल प्राप्त होता है। बाण नाम पांच-त्रय तीन - पक्षदो और भानु नाम एक अर्थात १२३५ संख्यावाले विक्रम संवत के माथ शुक्ला षष्ठिको आनन्दपुरके रहनेवाले भूदेव ब्राह्मणके बेटा आत्मारामने राजाकी आज्ञा से इस शासन पत्रो लिखा । ब्राह्मणों के अग्रणी पुरोहित सोमदत्त त्रिवेदी और रुद्रसिंह इस शासन पत्रके दूतक हैं। भूधरने इसको दो ताम्र पटकों पर उत्कीन किया । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३५ वीरसिंह के शासन पत्र का विवेचन 1 प्रस्तुत शासन पत्र मंगलपुरी के चौलुक्य राज वीरसिंह कृत दान का प्रमाण पत्र है "इस दान पत्र द्वारा वीरसिंह ने कर्दमेवर महादेव के सेवक गौतम गोत्र पंच परवर ऋग्वेद आश्वा लयन शाखाध्यायी यज्ञदत्त-सोमदत्त - हरिदत्त-रुद्रदत्त और विष्णुदत्त नामक पांच ब्राह्मणोंको कर्दमेश्वर हद में स्नान कर स्ववंश की राज्यलक्ष्मी को पाटन के बंधन से मुक्त कर वसंतपुर नामक ग्राम को अपनी राजधानी बनाने के प्रभृति यानन्दोत्सव उपलक्ष में बालखिल्यपुर नामक ग्राम दान दिया है। बीरसिंह की वंशावली का प्रारंभ मंगलपुरी में चौलुक्य राजवंश की संस्थापना करने वाले विजयसिंहसे किया गया है। और विजयसिंह से लेकर वीरसिंह पर्यन्त निम्न पांच नाम है। विजयसिंह [ लाट बासुदेवपुर खण्ड 1 धवलदेव I वासंतदेव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat 1 रामदेव 1 सिंह इनमें विजयसिंह- धवलदेव और वीरसिंहके विरूद महाराजाधिराज परमेश्वर पर भट्ट रक और वसन्तदेवका महा सामन्त महाराज तथा रामदेव का विरूद केवल सामन्तराज है। इससे प्रकट होता है कि विजयसिंह के पश्चात् केवल धवलदेव ही स्वतंत्र था। उसके बाद वसन्तदेव को किसी ने पराभूत कर स्वाधीन किया था । अतः उसका विरूद महा सामन्त महाराज हुआ । इतने ही से अलं नहीं हुआ है। रामदेव के हाथसे और भी राज्य सत्ता का अपहरण होना प्रतीत होता है। क्योंकि हम उसका विरूद केवल सामन्तराज पाते हैं । परन्तु रामदेव के उत्तराधिकारी बीरसिंह के विरूद "महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टा रक दृष्टिगोचर होता है । इससे प्रफट होता है कि वीर सिंह ने पुनः स्वातंत्र्य लाभ किया था । शासन पत्र में स्पष्ट तया दृष्टिगोचर होता हैं कि वह पाटण के रेशमी संदाम अर्थात अगाडी www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका ] १३६ पछाड़ी बांधने की रशी से बंधी हुई स्ववंशकी राज्यलक्ष्मी को मुक्त कर अंकशायनी बना बसन्त पुर में विराजमान हुआ । इस कथन के दो अर्थ हो सकते है । १ - रामदेव के हाथ से राज्य छीन गया जिसका उद्धार वीरसिंह ने किया । २ - रामसिंह के बाद वीरसिंह ने राज्य पाने पर पाटण की श्रधिनता प को फेंक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी। हमारी समज में प्रथम अर्थही उत्तम प्रतीत होता है । क्योकि 'पाटण पट बंधन' का अर्थ केवल एही हो सकता है कि मंगलपुर का राज्यलक्ष्मी का अपहरण पाटणवालो ने किया था जिसका उद्वार वीरसिंह ने किया । अब बिचारना यह है कि मंगलपुरी के चौलुक्य राज्यवंश के स्वातंत्र्य राज्यलक्ष्मी का अपहरण किसने किया । मंगलपुरी के चौलुक्य बंश की संस्थापना १९४६ विक्रम में हुई थी । उस समय से लेकर प्रस्तुत शासन पत्र लिखे जाने अर्थात १२४५ पर्यन्त ८६ वर्ष होते है । इस अवधि में मंगलपुरी के सिंहासन पर प्रस्तुत शासन कर्ता बीरसिंह को छोडकर चार राजा बैठे थे । उक्त ८६ वर्ष को ४ में बाटने से २२ वर्षका श्रौसत प्राप्त होता है। इन चार राजा ओ में से दो राजाओं के विरूद स्वतंत्र नरेशों के है । अतः मंगलपुरी के स्वातंत्र्यका अपहरण ११४६+४४ =११६३ के लगभग हुआ प्रतीत होता है। संभव है कि इस समयके कुछ और भी बाद मंगलपुरी के स्वातंत्र्य का अपहरण हुआ हो । मंगलपुरी की संस्थापना समय दक्षिण में वातापि कल्याण का चौलुक्य राज्य, उत्तर में पाटन का चौलुक्य राज्य और पूर्वमें धार का परमार राज्य प्रबल था । एवं निकटतम उत्तर में लाट नंदपुर के चौलुक्य और दक्षिण में स्थानक के शिल्हरा थे। इनमें पाटन के चौलुक्य और धार के परमारों का वंश परंपरागत विरोध था । सिद्धराज ने धार के २/३ भाग को अपने स्वाधीन कर लिया था । एवं मालवा की पुरातन राज्यधानी अवन्ती पर अपने वृषध्वज को आरोपित कर अतिकानाथ की उपाधि धारण किया था । अतः मालवा के परमारों की शक्ति क्षीण हो रही थी इन्हें अपने जीवन के लाले पड़ रहे थे । वे दूसरे पर आक्रम ! क्या करते । लाट नंदिपुर के चौलुक्यों का अन्तप्राय हो रहा था सिद्धराज के कोकरण अथवा सह्याद्रि के उपत्यका भू पर आक्रमण करनेका परिचय नहीं मिलता। अब रहे स्थानक के शिल्हरा । और वातापि कल्याणके चौलुक् । इनमें स्थानक, कोल्हापुर और कहटके शिल्हरा और अन्यान्य छोटे मोटे राजा वातापि कल्याण के चौलुक्यों के प्राधीन चिरकाल से चले आ रहे थे । परन्तु विक्रमादित्य के पश्चात् वातापि कल्याण के चौलुक्यों की शक्ति क्षीण होने लगी थी । सामन्त प्रबल और उदण्ड बनने लगे थे । विक्रमादित्यका समय शक ६६८ - १०४८ तदनुसार विक्रम १९६५ में प्रारंभ होता है। इसके गद्दी पर बैठने बाद सामन्त गण अति बलवान होगए । इसके बाद इसका छोटा भाई १०७२ तदनुसार विक्रम १२०७ में गद्दी पर बैठा । सामंतों ने षडयन्त्र रचकर इसको एक प्रकार से बंदी बनाया था परन्तु यह इनके चंगुल से निकल भागा और वनवासी प्रदेशसे चला गया । अतः स्थान के शिल्हरोंने उसी समय यह वातापि कल्याण राज्य की दुर्बलता से लाभ उठाकर स्वतंत्र बन गये । उन्होंने न केवल स्वतंत्रता ही लाभ किया वरन अपने पड़ोसियों को भी सताना शुरु किया था । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट वासुदेव खण्डं सिद्धराज के पश्चात पाटकी गदी पर कुमारपाल बैठा । इसका स्थानक के शिहरा मल्लिकार्जुन के साथ युद्ध हुआ था । युद्ध में प्रथम मल्लिकार्जुन ने पाटनकी सेना को पराभूत किया परन्तु ऋत में उसे हारना पडा । यह युद्ध विक्रम संवत १२१७ में हुआ था ! संभवतः मंगलपुरी वाले मल्लिकार्जुन के साथ मिल कर पाटण वालों से लडे और उसके पराजय के साथही उन्हें अपने राज्य से हाथ धोना पडा था । वसन्तदेवका राज्यारोहन समय हम विक्रम संवत ११६३ में बता चुके है । अतः औसत के अनुसार इसका अन्तकाल इस युद्ध के दो वर्ष पूर्व ठहरता है । संभवतः उसके मरने पश्चात उसके सार्वभौम राजा पाटण वालो ने उसके पुत्र को महा सामन्त की उपाधि के स्थान में केवल सामन्तकी उपाधि धारण करने के लिए बाध्य किया हो। हमारी समजमें कुमारपाल ने मंगलपुरीकी राज्य लक्ष्मीका अपहरण किया था। उसकी मृत्यु पश्चात जब पाटण की शक्ति क्षीण हुई तो वीरसिंह ने विक्रम १२३५ में पुनः अपने वंशके राज्यका उद्धार कर बसन्तपुरको अपनी राज्यधानी बनाया। कुमारपालकी मृत्यु १२२६ में हुई। उसके बाद उसका भतीजा अजयपाल गद्दी पर बैठा । इसने केवल तीन वर्ष राज्य किया । पश्चात वल मूलराज पांचवर्षकी अवस्था मे संवत १२३२ मे गढ़ी पर बैठा । २ वर्ष राज करने के पश्चा उसकी मृत्यु हुई और १२३५ में भीम द्वितीय गद्दी पर बैठा । उसकी अल्पवयस्कतासे लाभ उठानेके लिये कोकरण वालों आक्रमण किया जिसको लवणप्रसाद ने अपनी बुद्धि बल से शान्त किया था । अतः हमारी उस अवसर से लाभ उठाकर वीरसिंग ने अपने राज्यका उद्धार किया होगा । १३७ समझ हमारी समझ में शासन पत्र कथित घटनाओं के ऐतिहासिक तथ्यका पूर्ण रूपेण विवेचन हो चुका | केवल मा प्रदत्त ग्राम वालखिल्यपुर और उसकी सीमा पर अवस्थित ग्रामोंका वर्तमान समय में अस्तित्व है अथवा नहीं विचार करना है। शासन पत्र कथित वालखिल्य पुर के दक्षिण मे पूर्णा नदी है । गायकबाडी राज्य के व्यारा तालुका मे पूर्णा के उत्तरमे वालपुर नामक ग्राम है । यह ग्राम अति पुरातन है। इसके चारों तरफ मिलों मकानों और मनदरों के ध्वंश पाये जाते है । इस गाम में एक पुराने शिव मन्दिरका ध्वंस है जिसके समीप एक शीतल जल का कुण्ड हैं। इस मन्दिर और कुण्ड को मंप्रति वालपुर का कुण्ड और वालकेश्वर महादेव कहते हैं । परन्तु वर्तमान मन्दिर में तीन भिन्न लेखों के पत्थर एक साथ लगाए हुए हैं। इससे प्रगट होता है, कि विक्रम १६३७ में व्यारा ग्राम के देशाई कामेश्वर मन्दिरका जिर्णोद्धार किया था अथवा बनवाया था । परन्तु वह मन्दिर संप्रति टूट गया है । और उसका पत्थर वर्तमान मन्दिर में लगाया गया है। अतः सिद्ध होता कि कुण्डके पास कदमेश्वर का मन्दिर था। इस हेतु हम कह सकते है कि शासन पत्र कथित कदमेश्वर महादेव और हृदतथा वालखिल्यपुर यही स्थान है । वालपुर से पश्चिम खुटरिया नामक ग्राम है । जो संभवतः शासन पत्र कथित खटवागका परिवर्तित रूप है । एवं बलपुर के उत्तर करजा नामक ग्राम है जो शासन पत्र का करंजावली प्रतीत होता है । अन्तोगत्वा पूर्व में विका नामक ग्राम है। जो अम्बिका का रूपान्तर ज्ञात होता है। शासन पत्र के लेखक और दूतक श्रादिका नाम दिया गया हैं और संभवत: सभी बा दीगई हैं किन्तु वालखिल्यपुर किस विषयका ग्राम था इसका उल्लेख न होना इसकी भारी त्रुटि हैं! दानफल और अपहरणादिका दोष साधारण बातें हैं इनके लिये कुछ कहना अनुपयुक्त हैं 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका १३८ मंगलपुर-वासंतपुर पति चौलुक्यराज श्री कर्णदेव का 77MAG. COTA विक्रम संवत १२७७ का शासन पत्र । ॐ नमो भगवते श्रादि वाराह देवाय । श्रीमतां हिमांशु वंशोभूतानां मानध्यस गोत्राणां हारिति पुत्राणां सप्त मातृका परिवर्धिताना कार्तिकेय परिरक्षितानां विष्णु प्रसाद समासावित् वार ह लांच्छनेक्षन वशीकृत राति मण्डला चालुक्याना मान्वये स्वभूजोपार्जित साम्राट पदवी सह्याद्रिनाथ केलरी विक्रम महाराजाधिराज परमेश्वर परम महारक श्री विजयसिंहदेव तत्पादानुध्यात् तत्पुत्रो महाराजाधिराज परमेश्वर परम श्री धवलदेव तत्पादानुयात् तत्पुत्रोमहा सामन्त महाराजा श्री वासन्तदेव तत्पादानुध्यात् तत्पुत्रो सामन्तराज श्रीरामदेव स्तस्पानुध्यात् महाराजाधिरज परमेश्वर परम भट्टारक श्री वीरसिंहदेव रतत्पादानुध्यात् तत्पौत्री महाराजाधिराज श्री कर्णदेवः । । स्वपितामही पाण्माषिक श्राद्ध काले स्वपिता पार्वण श्राद्धकाले स्वजननी श्राद्ध काले जगद्गुरु भवानी पर्ति समभ्यर्च्य कुश जल हिरएय पूर्वकं परलोके तेषा मनर शान्ति कामनायाः जामदग्नेय सगोत्रे भ्यो पंच परवरेभ्यो वेद वेदाङ्ग पारंगतेभ्यो हरिकृष्ण-रामकृष्ण-सोमदन तेभ्यो बहुधान प्रतिवासिभ्यो ब्राह्मणेभ्य श्ववसिष्टस गोत्रेभ्यो यज्ञवक्त घेवदत्त कृष्णदत्तेभ्यो स कल शाम निष्णातेभ्यो देवसारिका प्रतिवासि भ्यो गौतम गोत्र त्रिपरवर शुक्लशाखाध्यायी कच्छावली प्रतिवासिभ्य एकादश ब्राह्मणेभ्यो विहारिका विषयान्तति कापूर ग्रामा सवृचारमः तृण गोचर हिरण्य भोग भाग सर्वदाय सहितं समान भागे नेभिप्राय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ [ लाट वासुदेवपुर खल्ड णेभ्यस्माभि प्रदत्तः । सुविदित मस्तुवः । सर्वदाय तद्राम प्रतिवासिाभ सर्वदा देयं । न केनापि बाधा कतव्या । एषः ग्रामस्य सीमानः । पूर्वतः सिमल वा ग्रामः । दक्षिणतः शाकम्बरी नदी । पश्चिमतः बालार्धन ग्रामः । अस्मद्वंशजरै न्यैरपि भाषि भूपालैरमदूधर्मदायोऽयं पालनीयः । पालने महत्पुण्यं व्यवच्छेदे पंच पातकानि भवन्ति । वहुभि वसुधा भुक्ता राजभि सगरादिभिः यस्य यस्य यदा भूमिस्तस्य तस्य तदा फलम् ॥ षष्ठि वर्ष सहस्राणि स्वर्गे तिष्ठति भूमिदः । अच्छेत्ता चानु मन्ता च तान्यव नका वसेत् ।। जांबुकेश्वर वास्तव्य सोमदेव सूनुना हर्षेण नागरेण लिखित मिदं शासने नृप कृष्णदेव चादनात् दृत कोऽत्र महा सन्धि विग्रहिक वीरदेवः । आश्विन कृष्ण चतुशि संवत् विक्रम १९७७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका कर्णदेव के शासन पत्र का छायानुवाद भगवान आदि वराह देवको नमस्कार । हिमांशु वंशोभूत मानव्य गोत्र हारिती पुत्र सप्त मातृका परिबर्धित कार्तिकेय संरक्षित-भगवान विष्णुकी कृपा से प्राप्त वाराह लक्षण द्वारा शत्रु बिजेता चौलुक्य वंश विभूषण सह्याद्रि नाथ केसरी विक्रम महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री विजयसिंह देव । श्री विजयसिंहका पादानुध्यात् पुत्र महामहाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री धवलदेव । श्रीधवलदेवका पादानुष्यात पुत्र महासामन्त महाराजा श्रीवासन्तदेव। श्रीवासंतदेवका पादानुध्यात पुत्र सामन्तराज श्रीरामदेव । श्रीरामदेवका पादानुध्यात महाराजाधिराज परमेश्वर परम भट्टारक श्री वीरसिंह देव और श्री वीरसिंहका पादानुध्यात पौत्र महाराजाधिराज श्री कर्णदेव । ____ अपनी पितामहींके पाण्मासिक श्राद्ध, अपने पिताके पार्वण श्राद्ध और अपनी माताके श्राद्ध समय जगद्गुरु भवानी' पतिकी पूजा अर्चना के अनन्तर हाथमे कुश जल और हिरण्यलेकर उनकी अर्थात दादी, पिता और माताके अक्षय शान्ति कामनासे जामदानेय गोत्र पंच परवर वेद वेदाङ्गग पारंगत बहुधान निवासी हरिकृष्ण रामकृष्ण और सोमदत्त, देवसारिका निवासी वसिष्ट गोत्री सकल शास्त्र निष्णात यज्ञदत्त और कृष्णदत्त वाधेवली निवासी भारद्वाज गोत्री विज्ञानदत्त हरिदत्त और रेवादत्त और कच्छावली निवासी गौतम गौत्री त्रिप्रवर शुक्ल शाखाध्यायी एकादश ब्राह्मणों को वैहारिका विषयांतपाति कार्पर ग्राम सवृक्षाराम तृण गोचर हिरण्य भोगाभादि समस्त माय के साथ समान भागसे दान दिया। यह बात सबको विदित हो उक्त ग्राम के निवासीओं को उचित है कि समस्त आय ब्राह्मणों को दिया करें। इसमें किसी को बाधा न करना चाहिए। इस ग्रामकी चारों सीमाए निम्न प्रकार से हैं । सीमाएँपूर्व दिशा सिमलता पश्चिम बालाधन दक्षिण शाकंभरी उत्तर बिशालपुर हमारे अथवा अन्य वंशोद्भव भावी भूपालोंको उचित है कि हमारे इस धर्मदाय का पालन करें । धर्मदाय के पालने से पुण्य और अपहरण से महापातक होता है । सगरादि बहुतों ने वसुधा का भोग किया हैं। किन्तु जिसके अधिकार में पृथिवी जिस समय होती है उसके दानका उसको ही फल होता है । भूमिदान देनेवाला साठ हजार वर्ष स्वर्गमें वास करता है । और भूमिदानका अपहरण करने तथा अपहरणकी अनुमति देनेवाला इतनी ही अवधि पर्यन्त नरकमें निवास करता है ।जम्बुकेश्वर निवासी नागर सोमदत्त के पुत्र हर्ष ने इस शासन पत्रको कर्णदेव की आशा से लिखा । इस शासन पत्र का दूतक महासन्धि विग्रही वीरदेव है। इस शासन पत्रकी तिथि आश्विन कृष्ण चतुर्दशि संवत १२७७ विक्रम । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट वासुदेवपुर खण्ड - कर्ण देव के शासन पत्र -:विवेचनः प्रस्तुत शासन प, मंगलपुर बासन्तपुर के चौलुक्य कर्णदेव के अपनी दादी के अर्ध वार्षिक और माता के श्राद्ध तथा पिता के पार्बण श्राद्ध कालमें उनकी आत्माकी शान्ति के उद्देश्य से ब्राह्मणों को दान में दिये हुए ग्रामका प्रमाण पत्र है । इसका लेखक जंबुकेश्वर का रहने वाला नार सोमदेव का पुत्र हर्ष और दूतक वीरदेव तथा लेखकी तिथि आश्विन कृष्णा १४ संवत १२७७ है। चौलुक्योंकी वंशपरंपरा देने पश्चात दाता कणदेव की वंशावली निम्न प्रकार से दी वंशावली ... (१.) विजयसिंह (४) रामदेव (२) धवलदेव (५) वीरदेव . . (३) . वासन्तदेव (६) कर्णदेव शासन पत्र से प्रकट होता है कि कर्णदेवको अपने दादा से गदी मिली थी। परन्तु उसकी मृत्यु कब हुई शासन पत्र से प्रकटं नहीं होता। परन्तु शासन पत्र कर्ण के पिता के पार्वण श्राद्ध काल में लिखा गया है । पार्वण श्राद्ध प्रथम वार्षिक तिथि पर होता है । अतः कर्णदेवके पिताकी मृत्यु काल आश्विन कृष्ण। १४ संवत १२७६ ठहरता है । इससे प्रकट होता है कि कर्णदेवको उसके दादाने उसके पिताकी मुत्यु पश्चात शोक से समप्त हो अपने जीते जी गदी पर बैठा दिया था और शासन पत्र लिखे जाने के समय वह जीवित था। यदि एसी बात न होती और कर्णका दादा पहले मरा होता तो उसे राज्य अपने पितासे उत्तराधिकारमें मिला होता । वीरदेवका शासन पत्र विक्रम संवत १२३५ का हमे प्राप्त है । अतः उसका राज्यकाल १२३५ से १२७६ पर्यन्त ४२ वर्ष है। दान प्रहिता ब्राह्मणों का विवण निम्न प्रकार से दिया गया है । बहूधान निवासी हरिकृष्ण - रामकृष्ण सोमदत्त प्रभृति तीन ब्रामण देवसारिका निवासी वासिष्ट गोत्री यज्ञदत वेदत्त - कृष्णदत्त प्रभृति तीन ब्राह्मण, बांधवली प्रतिवासी भारद्वाज गोत्री विज्ञान दत्त हरिदल रेवापत्त तीन ब्राह्मण और कच्छावली प्रतिवासी गौतम गोत्री विश्वनाथ आदि एकादश ब्राह्मण । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका इनको विहारिक विषयका कर्पूराग्राम समान भाग रुपसे दिया गया है। प्रदत्त ग्राम और प्रतिग्राहिता ब्राह्मणों के निवास का वर्तमान समय में परिचय मिलता है अथवा नहीं | हमारी समझमें शासन पत्र कथित विहारीका वर्तमान व्यारा है। क्योंकि बिहारी at far और farारा का व्यारा बन सकता है । विहारिका को व्यारा मान लेने के बाद हमें उसके आसपास में ही प्रदन्त कर्पर ग्रामका परिचय प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करना होगा । वर्तमान व्यारा नगर से लगभग सात आठ मील की दूरी पर दक्षिण दिशा में कपुरा मरा है । शासन पत्र कथित कपुरा के पूर्व में सिमलद, दक्षिण में शाकंभरी नदी, पश्चित में वालार्धन और उत्तर में विशालपुर है । वर्तमान कपुरा के पूर्व में चिखलद, दक्षिण में झाखरी, पश्चिम में वालोड, और उत्तर में खुशालपुर है । हमारी समझमें शासन पत्र कथित शाकंबरी नदी वर्तमान झाखरी है। क्योंकि शाकंभरीसे अनायास ही शाखभरी और शाखरी से भाखरी बन सकता है । शासन पत्र के बालाधनका अनायास ही बालोढन और बालोदन का वालोड हो सकता है। अतः वर्तमान वालोड़ही बालाधन का रुपान्तर है। उसी प्रकार विशालपुर का खुशालपुर भी बन सकता है। हां शासन पत्र कथित सिमलद का वर्तमान परिचय प्राप्त करने का हमारे पास कुछभी साधन नहीं है । 1 १४२ ब्राह्मणों के निवास वाले प्रामों के सम्बन्ध में हमारा विचार है कि शासन पत्र का बहुधान लाप्ती तट का वोढाण है। देवसारिका सम्भवतः बिल्लीमोरा के पास वाले देवसर या देसरा में से कोई एक ग्राम हो सकता है । परंतु हमारी प्रवृत्ति शासन पत्र के देवसारिका को वर्तमान देवसर ही मानने को अधिक होती है । अन्ततोगत्वा शासन पत्र कथित कच्छावली ग्राम गणदेवी और अमलसाड के मध्यवर्ती छोली नामक ग्राम है । इस ग्राम का उल्लेख पाटन पति कर्णदेव के विक्रम संवत ११२१ वाले लेख में है। उक्त लेख का विवेचन चौलुक्य चन्द्रिका पाटन खण्ड में हम विशेष रूपसे कह चुके हैं 1 शासन पत्र के बारम्बार पर्यालोचन से भी वीर सिंह के पुत्र और शासन कर्ता करदेव के पिता का नाम ज्ञात नहीं हुआ। संभव है कि लेखक के हस्त दोष से उक्त नाम छूट गया हो । यदि वास्तव में उसका नाम जान बूझकर छोड़ दिया गया है तो हम कह सकते हैं कि वंशावली में केवल राज्य करने वालों के ही नाम दिये गये हैं । अन्यान्य शासन पत्रों के अध्ययन से भी यह सिद्ध होता है कि शासन पत्रोंकी वंशावली में केवल शासन करने वालों ही का नाम दिया जाता है । अतः कर्णदेव के पिता, शासन पत्र कथित वंशावली में, के नामका अभाव शासन पत्र का दोष नहीं है । इस लेख से प्रगट होता है कि कर्ण के पिता के पार्वण श्राद्ध समय शासन पत्र लिखा गया था | अतः कर्ण के पिता की मृत्यु इस लेख की तिथि से एक वर्ष पूर्व होनी चाहिये। क्यों कि पार्वण श्राद्ध मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् किया जाता है। अतः कर्ण के राज्यरोहण का समय मी इस प्रकार हमें विक्रम संवत् १२७६ प्राप्त हो जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. लाट वासुदेवपुर खण्ड वारोलिया का प्रथम लेख । (१) स व त श्री १ ३ ७ ३ का ति क कृष्ण (२) ७ श्री श्रा दि दे व य न मः । श्री (३) राज कृ ष्ण दे व त स्य--- श्री (४) मे म देव र ज स्या- स ज श्री रु ग्म (५) दे व रा ज --- श्री कृष्ण दें । (६) ब रा ज स्य क ला ण वि ज राजे परिष्कृत प्रतिलिपि संवत श्री १६७३ कार्तिक कृष्ण ७ श्री आदि देवाय नमः । श्री राजा कृष्ण देवतस्य (। त्मजो ) श्री मे म ( गेम वा भौम ) देव राजस्या (न्) मजः श्री रुग्मदेव स्तस्या (त्मजः) श्रीकृष्ण देव रजस्य कला (ल्या ) ण विज ( य ) राजे (ज्ये ) ॥ वारोलिया का द्वितीय लख (१) संवत १ ३ - ३ वर्ष का ति क कृ (२) ण ७ सी में श्री कृष्ण रा य देव स श्री (३) श्री उ द य रा ज पौत्र -- श्री कृष्ण (४) दे व रा जे न प्रतिष्ट तो यं श्री आद (५) देव स कृ त य.........च्च द्र के. (६) व तु श्री कृष्ण रा ज सू श मि ति. परिष्कृति लेख संवत १३-(७) ३ वर्षे कार्तिक कृष्ण ७ सोमे श्री कृष्ण रायदेव स (स्य ) श्री अयराज पौत्र ()-(ण) श्रीकृष्ण नेवराजे न प्रति (ठि) तोयं श्री भाव (दि) देवस ( सु) कृत(तो) --( याव) चंद्राक-- -(सेब स्थिति भ) बसु श्रीकृष्ण राजस्य शमिति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका 1 ५४४ श्री चौलुक्यराज कुम्भदेव का शासन पत्र स्वस्ति श्री मदादि देवाय नमः । अस्ति भूवन विदिता पुराण प्रख्याता चौलुक्थ नगरी मंगलपुरी नामा । तस्या भधि राजा परम माट्टरक परमेश्वर महाराजा श्री कृष्णराज स्तत्पादानुथ्यात परम भट्टारक परमेश्वर महाराजा श्री उदयराज तत्पादानुध्यात् महाराजा श्री रुग्मदेव तत्पानुध्यात् राजा श्री क्षेमराज स्तत्पादानुभ्यात् राजा श्री कृष्णराज स्तस्यानुजन्मा तद्विजय राज्ये श्री कुन्भदेवेन भूपतिना धवल नगर्या मादिदेवोऽयं प्रतिष्ठितः ॥ शमिति सुकुतोऽयं श्री कृष्णराजस्य । सम्बत १३७३ विक्रमा तीत १२३८ शाली वाहन शाके । कृष्ण सप्तमी कार्तिक मासे श्री कुम्भदेव के शासन पत्र छायानुवाद कल्याण हो । श्री आदि देवको नमस्कार । भूवन विदित पुराण प्रख्यात चौलुक्यों की मंगलपुरी नामक नगरी है। मंगलपुरी का अधिराजा परम भट्टारक परमेश्वर महाराजा श्री कृष्ण देव हुआ । श्री कृष्णदेवका पादानुध्यात् परं भट्टारक श्री महाराज. उदयराज । श्री उदयराज का पादानुध्यात् महाराज श्री रुग्मदेव । श्री रुग्देव काम पादानुथ्यात् श्री क्षेमराज और श्री शेमराज का पादानुध्यात् श्री कृष्णराज । श्री कृष्णराज का छोटाभाई कुम्भ देवने उसके विजय राज्य काल मे धघल नगरी के अन्तर्गत श्री आदि देवकी स्थापनाकी। कल्याण हो। इस देव स्थापना की सुकृति श्री कृष्णराज को प्राप्त हो । कार्तिक कृष्ण सप्तमी सनस् १३७३ विक्रम तदनुसार १२३८ शक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड विवेचन स है . लेलागलपुरीके बौलुक्याराजा कृष्णराम के भाई कुम्भदेव का है। यह लेख के पितली नामक तालुका के अन्तर्गत यारोलिया नामक ग्राम के पास बहने वाली मालपत्थरपरखुदाहुया है। पत्थर के आकार से प्रतीत होता है कि उक्त -पत्थर का शिवाल का पत्पर है। हमारी इस धारणा का समर्थन इस बात से होता है कि सलमानादिदेव की स्थापना का उल्लेख है । पुनश्च जहां पर यह पत्थर पड़ा है वहां से कुछ धिमाकर दो मूर्तियां जमीन में गड़ी हुई थीं। उक्त मूर्तियों का अधिकांश पृथिवी के गर्भ में बार उनसखोदकर निकालते ही पर प्रत्येक पर खुदे हुए लेख मिले। इन मूर्तियोंका-पत्थर-एक माटा,लिगभगादो फिट चौड़ा और पांच फिट लम्बा है। इनके नीचे के भाग में लेख सुदा लाका अक्षर प्रायः नष्ट गया है। परन्तु "कृष्णराज विजयराज्ये" बहुत ही स्पष्ट है । कहीं मूर्तियों के समान गणदेवानामक ग्राम के एक शिव मन्दिर में दो मूर्तियां दिवाल में चुनी न भूतियों के भी मिग्न भागमें लेख है । बारोलिया और गणदेवा दोनों स्थानों की ओका नवप्रायः एकही है। यदि कुछ इनमें अन्तर है तो वह केवल सिधि संबंधी है। बारों मतियों टूट कूटे अक्षरोकोल्युतम्लेख के साथ मिला कर पड़ने से इन लेख का यथार्थ परिचय मिल जाता है। योकि प्रस्तुत लेख के साक्षर ईश्वरुपा से स्पष्ट और सुरक्षित मसलेल से मूर्तियों के लेख के टूटे हुये अंश को पूरा करने में प्रचुर सहायता मिलती है। या काभूतियों के लेखों को इस लेपकी सहायता से रूपान्तर कर हम इस लेख के मादक है | गणदेवकी मूर्तियों के लेख का अवतरण अनावश्यक मान हम नहीं है। प्रस्तुत लेख में कुम्भदेव और उसके भाई कृष्णराज की वंशावली निम्म प्रकार "कृष्णदेव . उदयराज सहदेव क्षेमराज कृष्णाराज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुन्य चन्द्रिका १४६ परन्तु लेखकी तिथि के अतिरिक्त किसी भी राजा के राज्यारोहण आदि की तिथि नहीं दीगई है। प्रस्तुत लेख की तिथि विक्रम संवत १३७३ है परन्तु गणदेवा के मूर्तियों के लेख की १३६२ और १३६३ है । और बारोलिया की मूर्तियों के लेख का संवत १३७१-१३७३ । अतः दोनों स्थानोंकी मूर्तियों और प्रस्तुत लेखकी तिथि में १० वर्षका अन्तर है । संभव है कि कुम्भदेव ने प्रथम गणदेवा में मूर्तियों को स्थापना की हो और बाद को धवलधोरा-बारोलिया में इनके लेखों के अन्तर मे को महत्व पूर्ण परिवर्तन नहीं होता। कृष्णराज और कुम्भदेवकत्र समय १० वर्ष पूर्व और चला जाता है । अब यदि हम कुम्भदेव और कृष्ण का प्रारंभिक समय १३६१ ही मान लेवे और प्रत्येक के लिए २२ वर्ष और ५ महीना का औसत मान लेवं जैसा कि तत्कालीन राजवंशों का औसत है तो उसके पूर्वज वंश संस्थापक कृष्णराज का समय विक्रम १२७१ प्राप्त होगा । अव विचार उपस्थित होता है कि कृष्णराज किस मंगलपुरी का राजा था । क्या यह वही मंगलपुरी है जिसको वसन्तपुरी के चौलुक्यों के पूर्वज विजयसिंह ने अपनी राजधानी बनाई थी। जहां से हटकर वासन्तपुरको वीरसिंह ने अपनी राज्यधानी बनाई थी। क्या वीरसिंहके पूर्वजोंके हाथ से मंगलपुरी छीननेवाला प्रस्तुत लेख का कृष्णराज ही हैं। मंगलपुरी के इन चौलुक्यों का संबंध किन चौलुक्योंके साथ था। इन प्रश्नों का उत्तर देनेका साधन पर्याप्त उपलब्ध नहीं है तथापि अनुमान के बल से कुछ प्रश्नों का समाधान करने का प्रयास करते हैं। अनुमान द्वारा प्रस्तुत लेखके वंश संस्थापक कृष्णराज का समय विक्रम १२७१ के लगभग प्राप्त हुआ है । अब देखना है वसन्तपुरीके चौलुक्योंकी राज्यधानी मंगलपुरी में कबतक रही। वीर को विक्रम संवत १२३५ के लेख में स्पष्ट रूपेण लिखा है कि उसने बासन्तपुर अपनी राजधानी बनाया। इससे स्पष्ट है कि वसन्तपुर वालों के हाथ से मंगलपुरी विक्रम १२३५ के पूर्व दिन गई थी । अथवा उसकी राज्य लक्ष्मीका अपहरण पाटन वाले कर चुके थे। इधर कृष्णराजका समय १२७१ है। इससे आगे इसका समय नहीं मान सकते । अतः यह मंगलपुरी का छीनने वाला नहीं हो सकता। पुनश्च मंगलपुरी की राजलक्ष्मी का पाटन वालों के हाथ मे उद्धार करने वाला वीरसिंह प्रकृत वीरसिंह था। जब उसने पाटन वालों के हाथ से अपने वंश की लक्ष्मी का उद्धार किया था तो ऐसी दशा में मंगलपुरी को भी अवश्य स्वाधीन किया होगा। वीरसिंह के बाद उसका पौत्र कर्णदेव गद्दी पर बैठा । उसके १२७७ के लेख के विवेचन में उसका राज्याराहण और वीर का अन्तकाल १२७६ दिया है। इधर कृष्णराज का अनुमानिक समय १२७१ है। जब तक वह वीरसिंहका संबन्धी भाई भतीजा चचा प्रभृति न हो तबतक उसका मंगलपुरी प्राप्त करना असंभव है । परन्तु इसके और न वीरसिंह के सम्बन्ध का परिचायक सूत्र न तो इसके अपने लेख में है और वीरसिंह अथवा उसके पौत्र के लेख में मिलता है। संभव है कि वीरदेवका कोई संबन्धी हो और उसने इसको मंगलपुरी का शासक नियुक्त किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट वासुदेवपुरखण्ड __ मंगलपुरी का परिचय पाना असम्भव है। अतएव इस प्रयास का छोड़ लेख कथित धवल नगरी विचार करते हैं । लेखले प्रगट होता है कि कुम्भदेव ने धक्ल नगरी में आदि देव की प्रतिमा स्थापित की थी । परन्तु प्रस्तुत लेख और उक्त दोनों मूर्तियां जिस स्थान में पाई गई हैं उसका नाम बारोलिया है। हां उसके समीप बहने वाली नदी को धवलधरा कहते हैं धवलधरा का शाब्दिक अर्थ होता है धवल के पास। अतः इस स्थान के सभीप धवलनगरी का होना प्रगट होता है। चारोलिया ग्राम के चारों तरफ मिलों आप चाहे जिस खेत अथवा टीले को खादें मापको सवत्र पुरातन जनपद का अवशेष मिलेगा। यहां पर वर्षाऋतु में पुरातन सिक्के मिलते हैं। खादने पर बड़ी २ ईटें और मिट्टी के वर्तन दृष्टिगोचर होते हैं । यहां की जनता में प्रसिद्ध है कि यहां पर धवल नामक बहुत बड़ा नगर था जो किसी राजा की राज्यधानी थी । हमारी समझ धवल नगर का अवशेष यही स्थान है। . धवलनगरी के अवस्थान का विचार करने के बाद अब हम मादि देव के सम्बन्ध विचार करते हैं । प्रस्तुत लेख के आदि देव से अभिप्राय चौलुक्यों के कुलदेव वाराह या आदि वाराह से है। एवं आदिदेव विष्णु का भी नाम है । किन्तु मूर्ति के आकार प्रकार से वह विष्णुकी मूर्ति नहीं कही जा सकती । हां इस प्रकार की वाराहकी मूर्ति सह्याद्रि प्रदेश में अनेक स्थानों में हमें देखने को मिली है। एवं नासिकसे मूलगंगा जाते समय अमृतकुण्ड के समीप एक मूर्ति ठीक वारोलिया के मर्ति के समान है। अतः हम निःशंक हो कह सकते हैं कि लेख का भादि देव वाराह का द्योतक है। . . वंशसंस्थापक कृष्ण के बाद उसके वंशजों के विरुद घटते गये हैं। वंश स्थापक कृष्णराजके विरुद "रम भट्टारक परमेश्वर महाराजाधिराज' हैं । उसके पुत्र उदयराज के भी उसके समान ही है। परन्तु पौत्र रुद्रदेव महाराजा तथा प्रपौत्र क्षेमदेवका तथा उसके पुत्र कृष्णराज के केवल राजा रह गये हैं । इससे प्रगट होता है कि कृष्णराज के बंशजोंन स्वातन्त्र्य सुख का भोग नहीं किया था। कृष्णराज के वंशजों का क्या हुआ इसका कुछ भी परिचय नहीं मिलता। संभव है कि वे मुसलमानों के झपट में आ गए हों । क्योंकि वह समय अलाउद्दीन खिलजी के गुजरात और दक्षिण तथा मालवा और राजपुताना क विलोडन करने का है। धवलधरा (वारोलिया ) के मन्दिरों का अवशेष प्रगट करता है । कि उनका विनाश मुशलमानों के धार्मिक उन्मादका देदीप्यमान चिन्ह है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका ] . . १४८ লাল ( লে) জন্য की . शिला प्रशस्ति. स्वस्ति श्री । श्रीगणेशाय नमः । श्री साम्ब शिवाय नमः । श्री गुरु चरणाविन्दाभ्यां नमः। आसत्पु!। परा काश्यां क्षेत्रे तपत्य. सन्निधौ ॥ महात्मा योगयुक्तात्मा, वेद वेदान्त पारगः ॥१॥ उपदेष्टा ज्ञान मार्गम्य लोकानां हितः कालया। सक्षाच्छंकर रूपस्तु: श्रीः मकर भारती ॥२॥ तकियोह मतियारः कृष्णा नादः भिमो मुनिरः । वासन्तपुरे निवमन वर्षायां यति धर्मना॥३॥ चौलुक्य राज माहिषी मुपदिष्य शिवाज्ञया । सम्प्राप्य बहुलवार्थ कृतोऽयं शिव मंदिरं ॥४॥ व स्वग्नि चेति वेदा विक्रमाती त वत्सरे ॥ मधुमाले सिते पक्ष द्वादश्यां भैम, आसरे ॥५॥ मातोपि.१४३८ चैत्र सुदी १२ भौमवारे समाप्तोऽयं शिव.मन्दिर, मिति । सुकृतोऽयं, फलमा भूयात.। कल्याणमस्तु । शमितिः॥ . छायानुवाद ___ कल्याण हो । श्री गणेश को नमस्कार । श्री साम्ब शिवको नमस्कार! श्री गुल चरणविन्दों को नमस्कार ! पूर्व समय तापी तटवर्ती अपराकाशी (परा काशी) नामक क्षेत्र में स HERA शकर स्वरूप योंगयुक्त वेदवेदंग पारगामी संसार के कल्यावज्ञानाउपडेटाश्रीः शरभारी नामक महात्मा निवास करते थे। उक्त महात्मा शंकरानन्दके शिष्य कृष्णानन्द ने संप्रति वर्षा ऋतु में पाया नियमानुसार वासन्तपुर में निवास करते समय चौलुक्य राज्य महिषी को भगवान शंकर की आज्ञा से उपदेश देकर बहुत सा धन प्राप्त कर इस शिव मन्दिर का निर्माण किया है। ३-४॥ वसु = आठ, अग्नि = ती वे कार और = एक अर्थात १४३८ विक्रम चैत्र शुक्ल द्वादशी भौमबार । अक से मी १४३८ चैत्र सुदी १२ भौम वार । यह सुन्दर कृत फलदायक हो । कल्याण हो । इति । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ [लाट वासुदेवपुर का प्रस्तुत प्रशस्ति शंकरानन्द स्वामी के शिष्य कृष्णानन्द कृत किसी शिव मन्दिर की प्रशस्ति है। यह वर्तमान समय अजरामील-नापक तापी तटपर एक पीपल के नीचे पड़ी है। मील लोग इसको देवता मात. पूजा करते हैं। प्रशस्ति की.. शिला ६॥ हाथ लंबी १॥ हाथ चौडी और १॥ वालिस्त के करीब मोटी है । चौड़ाई बाले अंश में सात पंक्तियां खुदी हैं । लेख की लिपि देवनागरी और भाषा संकत है। प्रथम और सातवीं पंक्तियां गद्यमय और शेष पांच पंक्तियां मनुष्टुप छंदमयाँ है ।। श्लोकों की संख्या पांचा है। प्रारंभिक गद्य में गणेश शिव और गुरु को नमस्कार प्रथम-श्लोक के ग्राम भार में साती के समीप पराकाशी नामक क्षेत्रमा वर्णन है। प्रथम-दो कोक के द्वितीय भा और द्वितीय दो श्लोक में शंकरानंद स्वामी की प्रशंशा है। तीसरे श्लोक में लिखा गया है कि शंकरानन्द के शिष्य कृष्णानन्द ने वर्षांऋतु में वासन्तपुर निवास किया था। चौथे श्लोकमें वर्णन किया है कि कृष्णानंदने चौलुक्य राज्य की पटतणीको उपदेश कर धन प्राप्त किया और उक्त धनसे शिव मन्दिर बनाया। पांचवें श्लोक में लेखक तिथि है। अन्तिम गद्य में तिथि अंक देने पश्चात शुभ कमना के वाक्य हैं । लेग में राना का नाम नहीं दिया गया है। परन्तु लेखकी तिथि विक्रम संवत १४३८ दी गई है। अतः इससे सिद्ध होता है कि कासन्तपुर का चौलुक्य वंश १४३८ पर्यन्त शासन करता था। वासन्तपुर के राजा कर्णदेव का लेख हम पूर्व में उधृत कर चुके हैं। उसकी तिथि १२७७ है। उक्त लेख के समय से १४३८ पर्यन्त १६१ वर्ष का अन्तर पड़ता है। अतः इस अवधि में वसन्तपुर बह गादी पर कमसेकम ६ राजा होना चाहिए । प्रशस्ति कथित अपरा काशी तामिया है। प्रकाश क्षेत्र का तापी पुरा में बहुत महात्म्य लिखा है । इसकी तुलना बरानसी से की गई है। प्रकाशा तामा के उत्तर तह पर है। प्रकाश में पुरातन नगर का अवशेष है । एवं आजभी सैंकड़ों की संख्या में मन्दिर हैं । प्रकाश। ग्राम से एक मील की दूरी पर प्रकाश क्षेत्र है। जहां पर विश्वनाथ, केदार और पुष्प दन्तेश्वरके गगनस्पर्शी मन्दिर बने हैं। और तापीका घाटा है। वाराणसी की छटा दीलली है। केदार मन्दिरसे कुछ उत्तर हट कर सहिमालिस हैं। इनमें १७ बडे छोटे और शेष प्रोटले हैं। यहांपर भारती बाबा की बहुत ख्याति है। इनमें का विशाल मन्दिर भारतीबाबा की सम्पधि बताई जाती है। इन समाधि मन्दिरीमदशा बिगड़ रही है। इन मन्दिरों के अवशेषों में ईट पत्थर हटाने पर हमें तीन महियामिली जिनएर लेख खुले हैं।" प्रयम लेखू बैशान तृतीया, विक्रम संवत १४२६ का है। इससे प्रगट होता है कि तापी तटवर्ती पराकाशा के केदार मन्दिर में शंकरानंद का स्वर्गवास हुआ था दूसरा लेख माघ शुक्लाम स प्रगट हरि पराकाशी केदार मन्दिर में कृष्णानंदकी मृत्यु हुई थी। तीसरा लेख वैशाख कृष्ण षष्ठी विक्रम १५०१, अथवा १५११ का है। इससे प्रगट होता है कि कृष्णानंद कशष्य आत्मानद की मृत्यु हुई थी। इन लेखों से कृष्णानंदापी प्रासयताराना निवासमा समर्थन होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका वासंतपुर की राज प्रशस्ति प्रासीत् दण्डका रण्ये सुरम्या नगरी पुरा ॥ . - वेष्टिता दुर्ग चक्रेण देवद्वार समाकुला ॥१।... मंगलादी पुरी चान्ते विश्रुत.या भुषि नाम्ना ॥ . शक्रपुरी समालोके विभाति दक्षिणा पथे ॥२॥ श्री जयसिंह देवस्य धात्मजो विजयामिधः॥ चौलुक्य वंय तिलको वभूष भूभुवश्चावी ॥३॥ . योधिष्ठितस्सु नगरं स्वप्रान्ते विजयापुरं॥ . ततो वभूषो तद्वंशो धवलदेवो भूपतिः ॥४॥ जाता स्तस्मा ल्लीलादेव्यां सुनुवः पाण्डवाः समाः।। ज्येष्ठो वासन्त देवश्च कृष्णदेवी तथा पररा ॥॥ . तृतीयरतु महादेव चतुर्थ श्चाधिक स्मृतः ॥ भामस्तत्र कानिष्ठोऽभूहि तृपदे परायणः॥३॥ धवलस्य पंचत्वेतु वासन्तो राजा बभूव ॥ जातो तस्मा द्वाग्देव्यां तनुजौ राम लक्ष्मणौ ॥७॥ .. निर्मिता रामदेवे। पुरीबैका मनोहरा ॥ ___ वासन्तपुर नाम्नासा रूयाता जगती नले ॥८॥ तद्भात पुत्रोऽसौ वीरः वीर नां मुकुट माणः ॥ पराभूयं श्चारी सर्वा न्वासन्ते विर राज सः॥९॥ तद्राशी विमलादेवी प्रसूता यमलो सुती । मूलवेवस्तु कृष्णाख्यौ योपि भूरि विक्रमी १० । वसि संगते कृष्णा राज लिप्सा भिकांच्या धार्तराष्ट्रा समान्धस्तु दुरात्मा ज्ञान वर्जितः ११, प्रौदण्ड्य उचापलत्वेन बन्धु घातेन कण्टको पिनव बेवक श्लोके संघभूष स एकता १२ .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ [ लाट बासुदेवपुर ख दुःखार्त श्शोक संतप्तः वीरसिंह भूभुजः तं स्वराज्य वहिस्कृत्य वार्य्यमानो (पि) मंत्रिणा १३ निधाय स्वपौत्रं स्वराज्ये कर्ण मूलस्य चात्मजं विलपन्तीं प्रजां त्यक्त्वा वाणप्रस्थे जगामह १४ महिषी वकुलादेवी माधवी नाम्ना विश्रुता ॥ अजीजनत्पुत्रलोके रामार्जुन भीमोपम न् १५ संगतं विष्णु सायुज्यं पंचत्ये करणे विषि । क्रमेण चक्रुः वासन्ते शासनं बान्धवास्त्रयः १६ ज्येष्ठ सिद्धेश्वरो नाम विशालस्तु द्वितीयकः जातवान्ते धवलस्तु वीरनामा परोऽपि यः १७ बासुदेव स्ततो राजा धार्मिको घबलात्मजः ततो बभूवो नृपति भीमो भीम पराक्रमः ॥ १८ अम्बिका कुल सन्यो स्वेणु कुंज समन्विते । वासुदेवं पुरं भव्यं विष्णु विग्रह संयुतम् ॥१९ तत्पुत्रो बीरदेवस्तु रामनामा परोऽपेियः ॥ जातो हेमवती देव्यां चंन्द्र चौलुक्य वारिधेः २० शौर्ये राम समो वस्तु धर्मे धर्मसुतोऽपरः ॥ stararaan श्लोके चाश्रितेषु च शंकरः ॥२१ तन्महिषी सीतादेवी प्रेयसी पद संगता ॥ शची शिवा रमाभिश्च यालभत्समता भुवि ॥ २२ सीता प्रसूता रामाय सुतान् चत्वारि संख्यकान ॥ वासी देवोभवेषु ज्येष्ठ राम समो भुवि ॥ २३ सौमित्रेयोपमालोके महादेवः द्वितीयकः भरतेव कृष्णस्तत्र कीर्तिदेवोऽपि तद्रतः ॥ २४ एभिः पुत्रै स्समावृत्तः प्रजाभि चाभि पूजितः ॥ आहतस्तु द्विजैः रामोऽलभनाक सुखं भुविः ॥ २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतुम्याचन्द्रिका स्गज रासो राजधान्यां यथा स्वर्गे शचीपतिः पूज्य-सरिजनोव -मोदतः स्वजनं आया ।२६ सहसा. संप्लवे-जाते निहतो बसन्ताहवे । अराति बुंदिता-सर्वा तिमिरा छन्नमोदिनी २७ रामाभिषेक बार्तायाः सातिकाः होम्मताः । - 'बसवास हुस्वातस्तुः जाता मुमूर्षतां यथा २८ चौलुक्य चन्द्र समाहे मासन्तिका -सर्वे तथा - विगतः संकुले रामो वासुदेवे समागतः २९ तदा सान्तमाम पुत्रान् परिजनां साया . कार्ममयं कृष्णाय महादेवाय मधुपुरं ३० कीर्तिरानाम ‘पाल क्रमेण विक्षया वत्वा स्वराज्यं पौत्राय रामो विष्णु गृहं गतः ३१ वीरोऽपि राज्यं संमप्य प्रवृत्तः प्रजासंजने .... तमनु रंजमामास प्रशस्ति मालाःगुण्ठिता ३२ शंकरानंद शिष्या कृष्णानदेन धीमता : - चतुश्चत्वारिंश चैव चतुश शतो परि ३३ श्रावणे व सितेसवेडादसा रवि निर्गते . ... विक्रमादित्य कालस्या ततिषु तिथि वासरे ३४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसन्तपुर राज प्रशस्ति छायानुवाद पूर्व समय दण्डक भरण्य नामक भूभामके अन्तर्गत दुर्ग कोट और चकों से वेहिल तथा । देव मन्दिरो से परिपूर्ण एक अति मनोहर नगरी थी। १ ॥. ..... .. ....उक्त नगरी का नाम-जिसके प्रथम मंगल और अन्त में पुरी ऐसे दो शब्द है प्रांत मालपुरी था । उक्त मंगलपुरी दक्षिणा पथमें देवेन्द्र इन्द्रकी अमरावती के समान शोभायमान थी-२-॥ .......... . .. . . । कथित मंगलपुरी का चौलुक्य वंशोभूत चौलुक्य कुल तिलक श्री जयसिंह का पुत्र श्री विजयसिंह प्रथम राजा हुआ । ३ ।। विजयसिंह ने, मसने यज्य के मनायत बिजयपुर नामक बगर बसाया । विजयसिंह के पश्चात धवल देव राजा हुना। ४॥ धवल को अपनी महिषी लीलादेवी के गर्भ से पाणयों के समान पुन हुए । इनमें बसन्त देव ज्येष्ठ, कृष्णदेव द्वितीय, । ५॥ __महादेव तृतीय, चाचिक देव चौथा और पांचवां मीम जो अपने पिताका परम भान जब धवलदेव काल कवलित हुआ तो उसका उत्तराधिकारी वासन्तदेव मामासन्त देव को अपनी राणी वाग्देवीके गर्भ से राम और लक्ष्मण नामक दो पुत्र हुए। ७ ॥ रामदेवने अपने पिता के नामानुसार वासन्तपुर नामक एक पति मनोहर बार बसाया । ८॥ रामका भात पुत्र वीरों का मुकुटमणि बीरदेव ने रामों का पूर्ण रूपसे नारा कर -- न्तपुर में निवास किया ।।।। वीरदेव की विमला देवी नामक राणी ने मूलदेव और कृष्ण देव नामक दो पानी पुत्र प्रसब किया । १० ॥ हस्य देव जप यौवन अवस्था को मान या तो लोम में रात दुर्योधनादि के समान मदान्ध बुद्धि और दुसमा हुनमः। १.१.. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का कृष्णदेव भग संसार में कष्ट देने वाला तथा दुष्कृत हुआ । १२ ॥ कारण अपने पिता को वीरसिंह ने अपने ज्येष्ट पुत्र' मूलदेव की मृत्यसे दुःखी और शोक संतप्त हो मंत्रियो के मना करने पर भी छोटे पुत्र कृष्खदेव को राज्य से वहिस्कृत किया । १३ ॥ और मूलदेष के पुत्र कर्णदेव को राज्यों सिंहासन पर बैठा प्रजा को विलपती हुइ छोड़ कर जंगल में जाकर वानप्रस्थ आश्रम को ग्रहण किया । १४ ॥ कर्णदेव की महिणी चकुला देवी उपनाम "माधवी ने राम अर्जुन और भीच के समान पक्रम पुत्रों को प्रसव किया । १५ ॥ अब कवि ने अपनी इह लीला को समाप्त किया और विष्णु लोक में जाकर विष्णु सायुज्यता प्राप्त की तो सानो भाईश्री ने क्रमशः वसन्तपुर का राज्य शासन किया । ६० ।। इन तीनों भाइयों में व्येष्ठ सिद्धेश्वर, मध्यम त्रिशालदेव और कनिष्ठ धवलदेव उपनाम मीरदेव । १७ ॥ And a घबलदेव उपनाम वीरदेव के पश्चात उसका परम धार्मिक पुत्र वासुदेव पर बैठी । पश्चात उसका पुत्र मीम समान पराक्रमी 'मीमदेव राजा हुआ। १८ ।। भीम ने अपने पिता के नामानुसार अम्बिका और कुलसैनी नामक नदियों के ब माणु वन के बीच विष्णु विप्रयुक्त सुन्दर और भव्य वासुदेव पुर नामक नगर बसाया । ११ ॥ भीम को अपनी हेमवती नामक राणी के गर्भ से चौलुक्य वंश रूपी धाराधि का अल्हा उपनाम रामदेव नामक पुत्र हुआ ॥ २० ॥ वीरदेव शौर्य में राम, धर्म में युधिष्ठिर, शत्रु नाश में कालान्तक यम और भातों में देने में भगवान शंकर के समान था २१ ॥ 672 arrant राणी सीता देवी पर पतिव्रता और संसार में इन्द्रकी ही रांची, विष्णुकी त्रमा और शंकर को स्त्री पार्वती की समता को प्राप्त करने वाली थी । २२ ॥ वीरदेव उपनाम रामदेवको अपनी राणी सीतादेवी के गर्भ से चार पुत्र हुए। उनमें विष्ठ वसन्त देव रामके समान ३३ लक्ष्मण के समान दूसरा महादेव, भरत के समान तीसरा कृष्णदेव और शत्रुन्न के समाने चाँया कीर्ति देव हुआ । २४ ॥ अपने इन चार पुत्रों से घिरा हुआ - प्रजा से पूजा और ब्रह्मर्णो से आदर प्राप्त कर राम इस संसार में जी स्वर्ग का सु-जालका २५॥ राम अपनी राज्धानी में प्रजाध्वरिजन और 2 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान निवास करता था । २६ ॥ .:चानक सप्लव उपस्थित हुआ चासन्तदेव बुद्ध में मारा गया । भरातियो ने सर्वच सिसार वासही मैक। २७ - - * मेक अभिषेक का संवाद पाकर जिस प्रकार सात अर्थात यो निवासी अनिन्दित भोर राम के बर्मवास की बातें सुनकर मूर्षित ही पैका २६॥ * . उसी प्रकार चौलुक्य चन्द्र के खास उपस्थित होने पर वसन्तपुर निवासीयीकी दशा हुई थी। जब संकुल का समाधान हुआ तो रामदेव वासुदेवपुर में चले आ PET का बासुदेवपुर में आने के पश्चात् रामदेव उपनाम वीरदेव ने अपनी प्रजा पुरजन तथा पुत्रों और परिजनों को बुलाकर-कृष्णदेव को कार्मण्य और महादेव को मधुपुर ।। ३०॥ . और कीर्तिदेवको पार्वत्य यमक विषय दिया । एवं पौत्रको राज्य, सिंहपमत पर मि. कोक को प्रयास किया ॥ ३१॥ ... ........ .....* . वीरदेव अपने सदा से सायः प्राप्त कर प्रजा पालन में हुमागीय के बोल नाई यह प्रशस्ति माला का निर्माण ॥ ३२ ॥...... .... . शंकरानन्द के शिष्य बुद्धिमान कृष्णानंद ने किया। चार-चारमंस चार सौ से अप " "श्रावण शुक्ल द्वादशी के दिन साय काल में कथित विक्रम संवत की शुभ तिथि में पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ विवेचन प्रस्तुत प्रशस्ति वसन्तामृत नामक ग्रंथ में लगी हैं। वसन्तामृत ग्रन्थ के कर्ता सकरा 'नंद भारती स्वामी के शिष्य कृष्णाना स्वामी हैं। वसंतामृत ग्रंथ श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद है । इस प्रथ के लिखे जाने की तिथि वैशाख कृष्ण शिवरात्री विक्रम संवत् १४४४ है। और स्थान तापी नदी का वालाक क्षेत्रवर्ती शंकर महादेव मंदिर है । एवं प्रशस्ति की तिथि श्रावण शुक्ल द्वादशी संवत् १४४४ है ।. I बसन्तामृत ग्रंथ के उपलब्ध प्रति की तिथि मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी संवत १७६३ विक्रम है। इसका आकार लगभग एक बालिश्त चौड़ा और डेढ़ बालिस्त लम्बा हैं । इसकी पृष्ठ संख्या ३११ है । प्रत्येक पृष्ठ में चारों तरफ दो अंगुल के करीब हांसिया छोड़ कर तीन लाईन बनाई गयी हैं। इन तीनों लाइनों में से एक पीली, दूसरी लाल और तीसरी नीली है। प्रथम २१ पृष्ठ तापी नदी के महात्म्य और प्रकाशा क्षेत्र की स्तुति में लगे हैं। दूसरे सात पृष्ठ गुरु की महिमा वर्णन करते हैं। पचात् तीन पृष्ठ शंकरानंद भारती के गुणगान और अलौकिक योग सिद्धियों के चित्रण में लगे हैं। इसी प्रकार अन्त के तीन प्रष्ठों में वासन्तपुर प्रशस्ति दो पृष्ठ में बिजयदेव का शासन, दो प्रष्ठ में वीरदेव का शासन, और दो प्रष्ठ में कर्णदेव के शासन को अभिगु ठन में लगे हैं। इस प्रकार पुस्तक के ४० प्रष्ठ प्रस्तावना और प्रशस्ति, आदि में लगे हैं। पुस्तक की लिपि देवनागरी है। तापी, प्रकाशा, गुरुमहिमा और शंकरानंद भारती के चरित्र की भाषा संस्कृत है। उसी प्रकार राज प्रशस्ति की भाषा संस्कृत है। पुस्तक की भाषा यद्यपि हिन्दी है परन्तु उसमें गुजराती और यत्रतत्र मराठी भाषा के शब्द पाये जाते हैं। पुस्तक के आदि और अन्त में लकड़ी की पट्टियां लगाई गई हैं। जो चंदन आदि से परिपूर्ण हैं। पुस्तक स्वरवा के वेस्टन में बंधी हैं। वेस्टन की दशा भी पट्टिये के समान है। इससे प्रगट होता है कि पुस्तक की पूजा वंश परम्परा से होती था रही है। पुस्तक से हमारा अधिक सम्बन्ध न होने से हम अब निम्न भाग में प्रशस्ति के विवेचन में प्रवृत्त होते हैं । प्रस्तुत प्रशस्ति के श्लोकों की संख्या ३४ है। प्रथम हो श्लोकों में मंगलपुरी का वर्णन है । तीसरे श्लोक में जयसिंह केपुत्र विजयसिंह का मंगलपुरी का पथम राजा होना और ategoोक के प्रथम चरण में उसका अपने राज्य में विजयपुर नामक ग्राम बसाने का उल्लेख है। चौथे श्लोक के दूसरे चरण में विजयसिंह के बाद धवल का राजा होना वर्णन किया गया है। पांचवें और छठे लोकों से धवल को अपनी रानी लीलादेवी के गर्भ से पांडों के समान बसन्त, कृष्ण, महादेव वाचिक और भीम नामक पांच पुत्रोंका होना प्रगट होता है । एवं इससे यह मी. प्रगट होता है कि मीस परम पितृ भक्त था सातवां लोक बताता है कि भगल के पचास वसंत राजा हुआ और उसको अपनी रानी वाग्देवी के गर्भसे राम और लक्ष्मण नामक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लाट वासुदेवपुर संस्ड रों पुत्र हुए । आठवें श्लोक से-प्रगट होता है कि रामदेव ने राजा होने के पश्चात् वसन्तपुर नामक नगर बसाया। नवर्षा श्लोक हात करता है कि रामदेव के बाद उसके भाई लक्ष्मणः का, पुत्र बड़ा ही प्रचंड योद्धा था। उसने शत्रुओं का नाश कर वसन्तपुर में निवास किया। दशवें श्लोक में अमिगुण्ठन किया गया है कि वीरदेव को अपनी रानी विमला देवी के गर्भ से मूलदेव और कृष्णदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए । श्लोक ११ और १२ कृष्णदेव की दुष्टता प्रभृत्ति और राज्यलिप्सा आदि का वर्णन करने पश्चात् उसे बन्धुघात द्वारा अपने पिता को दुःख देने वाला बताते हैं । १३ और १४ श्लोकों से प्रगट होता है कि पुत्र शोकसे संतप्त वीरदेव ने मंत्रियों के मना करने मर मी कृष्णदेव को राज्य से मिकाल बाहर किया और मूलदे के पुत्र कर्णदेव को गद्दी पर बैठा अपने आप विरक्त हो जंगल में चला गया। लोक १५.१६ और १७ से ज्ञात होता है कि कर्णदेव को अपनी राणी बकुलादेवी के गर्भ से सिझे. श्वर, विशालदेव और धवलदेव नामक तीन पुत्र हुए । जो क्रमशः उसके बाद वसन्तपुर की गद्दी पर बैठे । श्लोक १८ का प्रथमार्ध द्योतन करता है कि धवन के बाद उसका पुत्र बासुदेव राजा हुआ और उत्तरार्ध बताता है कि बासुदेव का पुत्र मीम था । १६ में श्लोक से प्रगट होता है कि भीम ने कुलसनी और अम्बिका नदियों के मध्य वेणुतन्ज में विष्णु विप्रहमय वासुदेवपुर नामक नगर वसाया । २० वां श्लोक, बताता है कि मीम का पुत्र वीर उपनाम राम हुमा। जो चौलुक्य वंश का चन्द्र था। ३१ वां श्लोक ज्ञापन करता है कि वीरदेव बलमें रामके धर्म में युधिष्ठिर के समान, शत्रुओं के लिए यमराज के और आश्रितों के लिए शंकर के समान था । २२ वा श्लोक उसकी राणी सीता को इन्द्र की पत्नी शची, शिवकी पार्वती और विष्णु की रमा के समान और परंमपतिव्रता बताता है । २३-२४ श्लोक बताते हैं कि वीरदेव. को सीता के गर्भ से बसन्तदेव, महादेव, कृष्णदेव और कीर्तिराज नामक चार पुत्र हुए। २५-२६ से प्रगट होता है कि रामदेव इन पुत्रों को पा, प्रजा से पूजित और ब्राह्मणों से आद्रित हो संसार में ही स्वर्ग सुख का अनुभव करता था । २७ से ज्ञात होता है कि अचानक संपलव उपस्थित हुआ जिसमें वसन्तदेव मारा गया, वसन्तपुर लुटा गया और समस्त राज्य में अंधकार छा गया । २८-२९ से प्रगट होता है कि वसन्तदेव के मारे जाने और चौलुक्य राज्य के लूटे जाने से वसन्तपुर की प्रजा अत्यन्त दुखी हुई थी । एवं जब शत्रु का आतंक मिट गया तो वीरदेव वासुदेव पुर में चला गया। श्लोक ३०-३१ से प्रगट होता है कि वीरदेव वासुदेवपुर में पाने पश्चात् स्वर्गीव ज्येष्ट पुत्र बसन्तदेवके पुत्र वीरदेव को गद्दी पर बैठा, अन्य पुत्रों को एक २ विषय देकर स्वर्गवासी हुआ था । अतः वीरदेव के पुत्र कृष्ण को कार्मणेय, महादेव को मधुपुर और कीर्तिराज को पावत्य नामक विषय का मिलना प्रगट होता है । ३२ वां श्लोक प्रगट करता है कि वीरदेवको वारा वीरदेव से सम्म प्राप्त करने परचात मनापालन में सी समय उसके मनोरंजनार्य प्रशस्ति का निर्माण किया गया। श्लोक ३३ और ३४. प्राप्तिकार का नाम कृष्णानन्द और इसकी तिथि श्रावण शुक्ल द्वादशी विक्रम संवत १४४ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति के पर्याय से प्रारंभ से लेस के समर्थ पर्यन्ता दिया गया है। कीम्न प्रकार से होपी L यमदेव (श्रम) मूलदेक सिद्धेश्वर कृष्णादेश होता है कि इसमें वसन्तपुर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat जयसिंह k विजयसिंह महादेव चाचिक ! लक्ष्मणव विशालदेव ( प्रथम ) 1 मीत १५८ बसकएर 1. धवलदेव द्वितीय (वीस्य द्वितीय 1147 वासुदेव बीरदेव (तृतीय) Tense www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परकरने से प्रयट । पर बैठने वाले की संख्या १३ है जयसिंह का राजा के पिता देव और वो श्री शावली के पलोचन से ट सनापुर राज्य से मी. वे राजा वीरदेव के इसके भाई के हाथ से हुई थी। अतः संस्था १३. है । इसका कारण यह है कि छठे पुत्रों ने राज्य किया और छोटे पुत्र धत्रलदेव से द्वितीय यहूदी पर वहीं बैठे। योंकि राहिलीय की युद्ध में किसी राजाओं की संख्या १४ होनी चाहिए उसके तीनों जरा संतु का आगे विस्तार हुआ ।, मृत्यु पश्चात् उ px धन प्रशस्ति लिखे जाने की तिथि विक्रम सम्बत् १४४४ है । इधर कृष्णानंद की शिल पुस्तिका समय विक्रम संवत् १४३८ है । उक्त प्रशस्ति में भी बसन्तपुर की रानी शक्कर मन्दिर बनाने का स्पष्ट उल्लेख है। प्रस्तुत प्रशस्ति में अंतिम राजा वीरदब के दादा "और दादी महाराज रामदेव और महारानी सीतादेव की भूरि २ प्रशंसा दृष्टिगोचर होती है। इससे प्रगट होता है कि प्रशस्तिकार को मन्दिर बनाने के लिये महाराज रामदेव की रानी सीतादेवी से था और ये दोनों मंदिर की प्रोक्ति किसे जाते समय खपुर सिंहासन पर तीमध्ये !इवर सस्ति में संमदेव को अपनी मृत्यु के पूर्व ही पुषों को जागीर देने और को मद्दी पर बैठाने का उल्लेख है । एवं वीरवेश को गद्दी पर बैठाने के मृत्यु का होगा गट होता है। अतः इससे गट होता है किया तो रामध के पूर्व होने वाले युद्ध में मह लड़ता हुआ घोर रूप से काला था। सबको लक्षर हम कह सकते हैं कि शक्ति जाने और मीरदेव का राज्यासमय दोनों एक हैं। और वह विक्रम संवत् १४४४ है । मसति में बाति की तिथि के अतिरिक्त किसी भी सजा के राजादन नहीं दिया गया है। परन्तु राज्य संस्थापक विजय का शासन पत्र में वि १९४६- आत है। सः राज्य संस्थापना और प्रशस्ति की तिथि में ३०५ वर्षका यदि हम कान्तिम राजा बीरदेव को छोड़ देवें, क्योंकि धर्मान्ति उसके राज्यारोहण राजाओं की संख्या केवल १२ ही रह जाती है। अतः इसे इनका ३०५ वर्षको १२ में परन्तु १२ राजाओं में उनका महिम-बराबर जसत मानते पर में विभक करने से प्रत्येक शासन करने वाले राजा के लिए है । इस राजा चीरदेव राजा कलव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बवंश संस्थापक विजय और चौथे राजा रामदेव के पर्यत चार राजाओं का सामूहिक समय २६ वर्ष है। और प्रत्येक के लिए औसत. २२ वर्ष कहता है। छठे राजा कर्णदेव और राजा वीरदेव'तृतीय के पर्यन्त सात राजामों का सामुहिक समय १३ है। इसको सात राजामों में बांटने से प्रत्येक का औसत राज्य काल २४ वर्ष प्राप्त होता है। हम अपर बता चुके हैं कि पांचवें राजा वीरसिंह का राज्य काल १२३४. से १२७६ प र्व है। अतः सम्मब है कि किसी अन्य राजा ने मी कुछ अधिक लम्वे काल पर्यंत राज किया हो। इस कारण प्राप्त औसत काल में किसी प्रकार की आपत्ति का समावेश नहीं। - प्रशस्ति कथित वंशावली और तद्भावी राजाओं के समयादि का विवेचम करने पश्चात हम.अन्य बातों के विवेचन में प्रवृत्त होते हैं । प्रशस्ति कथित स्थानों का वर्तमान समय में कुछ परिचय मिलता है या नहीं, वीरदेव के पुत्र कृष्णराज का क्या हुआ और अन्तोगत्वा वसन्त पुर राज्य पर आक्रमण कर उसे लूटने वाला कौन था प्रभृति तीन विषय का विचार करना अत्यन्त आवश्यक हैं। अतएव हम निम्न भाग में इस विषय में यथा साध्य विचार करने का प्रयत्न करते हैं। ..., प्रशस्ति कषित स्थानों का प्रस्थान ग्रादि-विवार करने के पूर्व कथित अमरों की सल्या प्राधिका शान प्राप्त करना असंगत न होगा। प्रशस्ति में सर्व प्रथम मंगलापुरी का सोल है। मंगलपुरी के वर्णन में प्रशस्ति के दो श्लोक लगे हैं। उनसे प्रगट होता है कि दण्डकारण्य में. दूर्ग और कों से वेष्ठित तथा अनेक देवमन्दिरों से युक्त इन्द्रपुरी के समान मादी नामक नगरी थी । अनन्तर तीसरे श्लोक से बात होता है कि विजयसिंह उप चौलुक्य श का प्रथम राजा हुआ! इलके अतिरिक्त मंगलपुरी के सम्बन्ध में यही ज्ञात होता है कि वह दक्षिणा पथ में थी। हमारी समझ में कथित विवर्ण से वास्तव मंगलपुही के अवस्थामा और उसके वर्तमान अस्तित्व का परिचय पाने का प्रयास पंगुके हिमालय अतिक्रमणके समान निरर्थक है। भारतीय पुराणादि के अध्यपन से ज्ञात होता है कि मनु के पुत्र बाड के नाचमुसार निवाचता पर्वत के दक्षिण माग का नाम दण्डकारण्य पड़ा। पुनश्च पुराणों से प्रगट होता है कि मर्मक नदी के दक्षिण का प्रदेश दक्षिणापथ कहलाता था। वाल्मीक रामायण में नर्मदा के दक्षिण वाले भूभाग का अर्थात नासिक के चतुर्दिक बर्ती प्रदेशका नाम गण्डकारण विदित होता है।परन्तु महामात्तसे दण्डकारण्यके बाद बोल-पांच मदि भूभागके अनन्तर दक्षिणपआरंच फाट होता है। ऐसी बसा में प्रशस्ति कथित दक्षिणापय दमरण्य में अवस्थित भगतपुरीका भवस्थान निश्चित करना अत्यन्त दुसाध्य है। परन्तु हमारे सौभाग्य से मंगलपुरी सज्ज के संतापक केसरी विक्रम विजयसिंह देवका शासन पत्र संपत ११४६ विक्रमका मिळगकी। इस में मंगली के स्थान का परिमापक आकाव्य सूत्र उपलब्ध है। अत शासन पत्रा में विणक पुर नामक स्थान का अवस्थान सपद्रिगिरि के उपत्यका में वर्णन किया गया है। संपादित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ लाट वासुदेवपुरखय विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिण भाग का नाम दण्डकारण्य पड़ा । पुनश्च पुराणों से प्रगट होता है कि नर्मदा नदी के दक्षिण का प्रदेश दक्षिणापद कहलाता था । वाल्मीकी रामायणसे भी नर्मदा के दक्षिण वाले भूभाग का . अर्थात नासिक के चतुर्दिक वार्ती प्रदेश का नाम दण्डकारण्य विदित होता है । परन्तु महाभारत से दण्डकारण्य के बाद चौलपांड आदि भूभाग के अनन्तर दक्षिणापथ का प्रारंभ प्रगट होता है ! ऐसी दशा में प्रशस्ति 'कथित दक्षिणापथ दण्डकारण्य में अवस्थित मंगलपुरी का अवस्थान निश्चित करना अत्यन्त दुसाध्य है । परन्तु हमारे सौभाग्य से मंगलपुरी राज्य संस्थापक केशरी विक्रम विजयसिंह देव का शासन पत्र संवत १९४१ विक्रम का मिल गया हैं,। इस में मंगलपुरी के अवस्थान का परिज्ञापक आकट्य सूत्र उपलब्ध हैं। में विजयपुर नामक स्थान का अवस्थान संह्याद्रिगिरी के उपत्यका में वर्णन किया गया है। संह्याद्रि पर्वत श्रेणी का प्रारंभ तापी नदी के दक्षिण से लेकर मैसूर राज्य पर्यन्त चला गया है। यदि विजयपुर का विशेष परिजय तापी नदी के तट पर न बताया गया होता तो इस शासन पत्र से भी मंगलपुरी के अवस्थान संबंध में कुछ भी सहायता न मिलती । मंगलपुरी का अवस्थान उक्त शासन पत्र के अनुसार. उसके विवेचन में पूर्ण रूपेण विचार करने के पश्चात बडोदा राज्य के सोनगढ़ · तालुक में तापी नदी से लगभग २५-३० मील दक्षिण और पूरणा नदी के उदगम स्थान से लगभग १४-१५ मील उत्तर में निश्चित कर चुके हैं और प्रशस्ति तथा शासन पत्र कथित मंगलपुरी को वर्तमान मंगलदेव नामक स्थान सिद्ध कर चुके हैं। अतः यहां पर पुनः विवेचन क्षेत्र में प्रवृत्त होना एवं युक्तिओं तथा प्रमाणों का अवतरण देना अनावश्यक मान अपने पाठकों का ध्यान उक्त शासन पत्र के विवेचन प्रति अकृष्ट करते हैं । मंगलपुरीके अनन्तर प्रशस्ति मे दूसरे स्थान का नाम विजयपुर है । विजयपुर के संबंध प्रगट होता है कि विजयसिंह ने में बुछ भी विवर्ण नहीं पाया जाता । श्लोक चार के पूर्वार्थ से अपने राज्य में विजयपुर नामक नगर बसाया था । हम पूर्व में विजयसिंह के शासन पत्र का उल्लेख करके बता चुके हैं कि मंगलपुरी का अस्थान निर्णायक विजयपुर है । अतः विजय पुर का अवस्थान ज्ञापक अन्य प्रमाण प्राप्त करने के स्थान में उक्त शासन पत्र के विवेचन प्रति पाठको का ध्यान आकृष्ट करते हैं । प्रशस्ति में तीसरे स्थान का नाम वसन्तपुर है। इसका परिचय हमें प्रशस्ति के श्लोक ६ से मिलता है । उक्त श्लोक से प्रगट होता है कि रामदेव ने वसन्तपुर नामक सुन्दर नगर बसाया था ! पुनः प्रशस्ति के श्लोक ६ के उत्तारार्थ से प्रगट होता है कि वीरसिंह ने शत्रुओं का नाश कर बसन्तपुर को अपनी राज्यधानी बनाया। इसके अतिरिक्त प्रशस्ति में वसन्तपुर का कुछ भी परि चय नहीं । मिलता हां वीरसिंह के बिक्रम संवत १२३५ के शासन पत्र में बसंतपुर का ज्ञापक चिन्ह है । उक्त शासन पत्र के विवेचन में हम सिद्ध कर चुके हैं कि वसन्तपुर पूर्ण नदी के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका 1 १६२ समीप बसा था और संप्रति वसन्तपुर का अवशेष अन्तापुर के रूपमें पाया जाता है । पाठकों से आग्रह है कि विशेष विवरणके लिए बीरसिंह के कथित शासन पत्र का विवेचन अवलोकन करे। प्रशस्ति में चौथे स्थान बासुदेवपुर का उल्लेख है । श्लोक २० से प्रगट होता है कि भीम ने अम्बीका और कुलसनी नदियों के मध्य बेणुवन के बीच बिष्णु मन्दिर से युक्त बासु देवपुर नामक भव्य नगर बसाया था। श्लोक ३० के उत्तराध से प्रगट होता है कि रामदेव ने बासुदेवपुर को अपनी राज्यधानी बनाया। इसके अतिरिक्त बासुदेवपुर के संबंध में कुछ भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता । अतः हमें बिचारना है कि प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर कहां पर अवस्थित था और संप्रति उसका अस्तित्व है या नहीं। प्रशस्ति के अतिरिक्त दुर्भाग्य से हमारे पास बासुदेवपुर का ज्ञापक अन्य साधन नहीं है। अतः हमें बासुदेवपुर के अवस्थान और वर्तमान अस्तित्व निर्णय करने मे केवल अनुमान और बामप्रमाणों से काम लेना होगा । अम्बीका नदी संह्याद्रि पर्वत के मूल से पस्चिम उत्तर भावी डांग नामक भूभाग के पहाड़ों से प्रारंभ होती और प्रथम कुछ दूर लगभग १५-२० मील तक सीधे पश्चिम बह कर कुछ दूर उत्तराभिमुख बहती हैं । अनन्तर पश्चिमाभिमुख मार्ग का अवलम्बन कर बडोदा राज्य के व्यारा नामक तालुका में प्रवेश करती और पश्चिमोत्तर गामी होती है। एवं व्यारा तालुका का अतिक्रमण कर ब्रिटीश इलाके के सूरत जिला के चिखली तालु का में प्रवेश कर उसका अतिक्रमण करती हैं। बाद को बडोदा के गणदेवी तालुका में घुसती और कावेरी का जल लेकर खडी मे गिरती है । अम्बीका डांगसे निकने पश्चात् और व्यारा तालुका मे प्रवेश करने के पूर्व बांसदा राज्य में बहती है। अम्बीका और कुलसनी के उदगम स्थान से लेकर समुद्र समागम पर्यन्त दोनों कुलों पर कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जिसे हम प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर का अवशेष कह सके । हां अम्बीका जल प्लावित कुछ भूभाग पर बांसदा नामक चौलुक्योंका राज्य है । बांसदा की राज्यधानी का नाम भी बांसदा है । बांसदा और वासुदेवमें नाम साम्य पाया जाता है। वासुदेवका रूपान्तर वांसदा हो सकता है । यदि हम यहांपर वासुदेवके रुपान्तर बांसदाके परिवर्तन पर कुछ प्रकाश डाले तो असंगत न होगा क्योंकि पूर्व में प्राक्कथन पृष्ठ ४६ में बांसदा राज्यवंश के परम्परानुसार उनके वासुदेवपुर वालों का वंशधर होनेकी संभावना प्रगट कर चुके हैं। एवं अपनी पुस्तक "लाटचे मराठी ऐतिहासिक लेख" के प्रस्तावना पृष्ट में अपनी पूर्व कथित संभावना को स्थान दे चुके हैं। कथित परिवर्तन नीति के अनुसार वासुदेव का बांसदा निम्न प्रकार से हो सकता है। वासुदेव से वासदेव । वासदेव से वासदे । वासदे से वासदो। और वासदो से वासदा । वासदो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड १६३ २०० और वासदाका उर्दू लिपि में लिखने पर इतनाकम अन्तर होगा कि विना सुक्ष्म विचारके उक्त अन्तर परखा नहीं जा सकता । पुनश्च बासदाका वासद नामसे अभिहित होने का हमारे पास लगभग वर्ष का प्रमाण । सन १६७० के मराठी पत्र में वासदा का उल्लेख वासदे नाम से किया गया है । परंतु वर्तमान बांसदा नगर को प्रशस्ति कथित वासुदेवपुर का अवशेष होने के संबंध में अनेक बाधाए विकराल रूप धारण कर सामने खड़ी है। प्रथम वाधा वांसदा का अवस्थान है क्योंकि बांसदा कावेरी नामक नदी के कुलमें बसा है। दूसरी बाधा बांसदा की नवीनता । वर्तमान बांदा नगर के निर्माण का सूत्रपात सन् १७७५-७६ के मध्य महारावल वीरसिंह ने किया था । इसके विपरित प्रशस्ति कथित वासुदेवपुर का निर्माण आज से लगभग ५६६-६७ वर्ष पूर्व होना चाहिए क्यों कि इसके निर्माता भीमदेव का राज्यारोहण लगभग संवत १३६४ विक्रम में हुआ था । वर्तमान वांसदा नगर को प्रशस्ति कथित वासुदेवपुर का अवशेष या रूपान्तर होने के प्रतिकुल उद्भावित शंकाद्वय के प्रतिहार में हम प्रवृत्त होते हैं और प्रथम शंका अर्थात् सदा चीता संबधी आपत्ति का समाधान करते हैं । यह बात ठीक है कि - मान बांसाका निर्माण बांसदा की परंपरा के अनुसार लगभग १५६ वर्ष पूर्व हुआ था । इसका समर्थन मराठी एतिहासिक लेखोंसे भी होता है । परन्तु साथही बांसदाकी परंपरा से यह भी प्रगट होता है कि वासदाका निर्माण वर्तमान वासदा नरेश श्रीमान् महाराजा श्रीइन्द्र सिंहजी से २७ वीं पुस्तपूर्व होने वाले वसन्त देव के पुत्र वीरमदेव ने किया था । एवं बांसदा वालों को दिल्ही के सुल्तान अलाउदीन खिलजी से मान प्राप्त हुआ था । पुनश्च बांसदा की परम्परा से प्रगट होता है। कि वर्तमान बांसदा बसाये जाने के पूर्व बांसदा की राज्यधानी नवा नगर में थी । उक्त स्थान बांदा से दो मील की दूरी पर है। जहां पर पुरातन नगरका अवशेष आज भी पुरातन बांसदाका गौरव द्योतन करना है । एवं मराठी लेखों से बांसदा की राजधानी में गोमुख और कर्दमेश्वर का होना सिद्ध है । ये दोनों स्थान वर्तमान वासदा में नहीं नवानगर में आज भी टूटी फूटी अवस्था में दृष्टिगोचर होते हैं । अब यदि बांसदा नगर बसाने वाले, २७ वीं पुस्त में होने वाले, बीरमदेव का समय निकाला जाय तो वह कम से कम आज से ५२० वर्ष पूर्व होगा । वर्तमान महाराज इन्द्रसिंहजी का राज्यरोहण सन् १९११ में हुआ था । अतः हमें सन १६११ में से ५२० को घटाना न पडेगा । इस प्रकार बांसदा का अस्तित्व ई. स. १३६१ तदनुसार संवत १४४८ विक्रम में चला जाता है । इसके अतिरिक्त पारसियों के इतिहास से बांसदा या वांसदो नामक राज्यका अस्तित्व - ४०० वर्षके पुराणे लिखित ग्रंथ के आधर पर विक्रम संवत १४८४ तदानुसार इस्वी १४२७ के पूर्व चला जाता है। इससे भी सिद्ध होता है कि वर्तमान बांसदा नगर कथित बांसदा राज्य की राज्यधानी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका] १६४ न था। यद्यपि बांसदा की परंपरा और पारसिओं के इतिहास कथित बांसदा की प्राचीनता के मध्य ३६ वर्ष का अन्तर है तथापि हम बांसदा की परंपरा को प्रमाणिक मानते हैं क्योंकि पारशिओं के इतिहास में वांसदा नगर के निर्माण का समय नहीं वरण अस्तित्व के समय का उल्लेख हैं। क्योंकि हम देखते हैं कि पारसिओं के इतिहास में उनको बांसदा के राजा से आश्रय मिलने का उल्लेख है। बांसदा राज्य की परंपरा और पारसिओं के इतिहास के आधार पर बांसदा राज्य और बांसदा नगर का अस्तित्व को संवत १४४८ के लगभग सिद्ध करने के पश्चात हम प्रशस्ति कथित बांसुदेवपुर और बांसदा के अस्तित्व के अन्तर का विचार करते है । प्रशस्ति के बांसुदेवपुर का निर्माण काल लगभग सबत १३६४ विक्रम है। इस प्रकार दोनों में ५४ वर्ष का अन्तर पड़ता है । यहां पर हम वासदा के परंपरा कथित बंशावली के २० वर्ष औसत के अनुसार प्राप्त बांसदा के अस्तित्व काल १४४८ को पटतर करते हैं। इसको पटतर करने का कारण यह है कि वसन्तपुर-बांसदेवपुर के राजाओं का औसत काल २२ वर्ष ५ महिना है । यही औसत तत्कालीन बातापि कल्यण के चौलुक्य, दक्षिण कोकण (काँट और कोल्हापुर) उत्तर कोकण ( स्थानक ) के शिल्हरा, लाट नंदिपुर के चौलुक्य और पाटण के नोलंकी आदि सभी राजवंशो का पाया जाता है। अतः वंशावली कथित २६ राजाओं के लिए यदि हम केवल २२ वर्ष का ही औसत देवे तो ५७२ वर्ष सामुहिक समय प्राप्त होगा। इस ५७२ वर्ष को बर्तमान बांसदा नरेश के राज्यारोहण समय १६११ में से धटाने पर इ. स. १३३६ तदनुसार संवत १३६६ विक्रम हैं। यह समय प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर के निर्माण कालसे पूर्णरूपेण मेल खाता है। अतः हम निःशंक हो कर कह सकते है कि बांसदा की अर्वाचीनता सबंधी आशंका का पूण रुपेण समाधान हो चुका। यद्यपि बांसदा की अर्वाचीनता संबधी आशंका का समाधान हो चुका तथापि वर्तमान बांसदा नगर में जब पुरातन बांसदा के गौरव का घोतन प्राचीन नगर के ध्वंशावशेषका पूर्ण अभाव होने के कारण बांसदा की अर्वाचीनतात्मक आशंका का परिहार का होना या न होना दोनों बराबर है। हमारे पाठकों को अवगत है कि हम पूर्व में बता चुके है कि वर्तमान बांसदा से लगभग दो मील की दूरी पर नवानगर स्थान में पुरातन नगर का अवशेष है । वहां पर पुरातन नगर के गौरव को द्योतन करने वाले अनेक मन्दिरों और प्रासादो का ध्वंश पाया जाता है। मन्दिरकी निर्माणकी कला और उसमें लगी हुई इंटोंसे स्पष्टतथा प्रकट होता है कि उक्त नगर छ सात सौ वर्ष पूर्व अपने भव्य राज्य महलों और मन्दिरोसे आगन्तुको को चकित करता होगा। नवानगर के चारो तरफ नगर का अवशेष पाया जाता है । इतनाही नहीं नदी को बन्ध द्वारा रोक कर नगर को जल देने के लिये किये गये प्रबन्ध का आज भी नदी में अवशेष पाया जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड अतः उक्त नगर को पुरातन बांसदा नगर मान लेनेसे सारी आपत्तियां अपने आप टल जाती है। परन्तु उक्त स्थान के साथ नवानगर विशेषण और विष्णु मन्दिर का प्रभाव प्रकट करता है कि उक्त स्थान प्रशस्ति कथित वासुदेवका रूपान्तर नहीं हो सकता। क्योंकि नवानगर विशेषण किसी दूसरे पुराणे नगर का अस्तित्व द्योतन करता है । और साथ ही उक्त स्थानमें विष्णु मन्दिर न हो कर शिवमन्दिर आज भी उपस्थित पाया जाता है । किन्तु प्रशस्तिके बांसुदेवपुरमें विष्णु मन्दिर का होना अत्यन्त आवश्यक है । इसका सामाधान यह है कि बासुदेव के समीप में किसी राजा ने उपनगर वसाया होगा जो नवानगर के नाम से विख्यात हुआ होगा । संभवतः उपनगर वसाने वाले राजा ने अपना निवास वहां पर बनाया हो। और उसके निवास के कारण नवानगर अधिक प्रसिद्धि प्राप्त किया हो । पेसी दशा में नवा नगर के समीप ही किसी पुरातन नगर का अवशेष हना चाहिए | नवा नगर से कुछ दूरी पर कावेरी नदी के दुसरे तट पर आज भी मन्दिर और मकानो का अवशेष पाया जाता है । उक्त स्थान को १०० राणी की देहरी कहेते हैं । उसके अतिरिक्त नवा नगर और वर्तमान बांसदा के मध्य में वासीयातलाव नामक गांव है । इन सब बातो को लक्ष कर नवा नगर बांसदा को ही प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर का अवशेष मानते हैं। इतना होते हुए भी हम न तो नवा नगर बांसदा अथवा उसके समीप वर्ती वासीयातलाव को प्रशस्ति कथित बांसदा मान सकते हैं । क्यों कि जिस प्रकार वर्तमान बांसदा कावेरी नदी के तटपर बसा है उसी प्रकार नवा नगर बांसदा भी है। प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर का परिचायक अम्बीका नदी वेणुकुन्ज है । जिसका बांसदा के साथ शशाशृंगवत् है । प्रशस्ति के श्लोक संख्या २० काऔर पूर्वार्ध"अम्बीका कुलसन्योरसुवेणुकुन्जसमन्विते" है।इसवाक्याके उत्तरार्ध "सुवेणु कुन्ज समन्विते 'के संबन्ध में कोई मतभेद नहीं है। परन्तु पूर्वार्थ 'अम्बीका कुल सन्यो' के संबन्ध में कुछ संदेह को स्थान मिलता है। क्योंकि उसमें से जबतक "अम्बीका कुल" और 'सन्यों': दोनों को भिन्न पद नहीं मानते तबतक 'अम्बीका नदीके तटपर' ऐसा अर्थ नहीं हो सकता। और ऐसा अर्थ करनेके लिये 'अम्बीकाकुल'को 'सन्यों से विभाजित करते ही 'सन्योः ' निर्थक होजाता है। अतः हमें 'अम्वीकाकुलसन्यों' को समासांत द्विवचन पद मानना होगा । इसे द्विवचनान्त पद माननेसे इसका अर्थ "अम्बीका कुलसनी' और इसको 'सुवेण कुन्ज समान्विते,"के साथ मिलानेसे अर्थ होगा 'अम्बीका कुलसनी के सुन्दर वेणु कुन्ज में' जिसका भावार्थ होगा कि अम्बीका और कुलसेनी नदियों के मध्य सुन्दर वेणु कुन्ज में । अतः प्रशस्ति कथिझ बासुदेवपुर अम्बीका के तटदर नहीं वरण अम्बीका और कुलसणी के मध्य वेणु कुन्ज में बसा था । अतः हमें प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर का यथार्थ परिचय पाने के लिये 'कुलसनी नदी का परिचय प्राप्त करना होगा । अम्बीकाके दोनों पाश्र्वो पर बहने वाली नदियां मासरी कोस और औलाणा है इनमें झासरी और कोस अन्बीका के वाम पार्श्व और ओलाण दक्षिम पाव में बहती है। इन तीनों नदियों में से कोई भी ऐसी नहीं जिसे हम' कुलसनी' का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका] का नाम वाचक कह सके" इन नदियों के बाद अम्बीका के दक्षिण पार्श्वमें पूर्णा और वाम पार्श्व में कावेरी हैं । न तो पूर्णा ही और न कावेरी ही 'कुलसनी'का रूपान्तर प्राप्त कर सकती है । ऐसी दशामें हमें कहना पड़ेगाकि 'कुलसेनी' इन नदियों मेंसे किसीका भी नामांतर नहीं है। अतः हमें भौगोलिक अन्वेषण को छोड़ साहित्य समुद्र का द्वार खटखटाना होगा। ___पाटण के चौलुक्यों के ऐतिहासिक जैनाचार्य मेरुतुंग अपनी पुस्तक प्रबंध चिंतामणि में लिखते हैं । कुमारपाल अपनी राज सभा में बैठा था। इतने में बहुतसे भिक्षुक उपस्थित हुए और कोकणपति मल्लिकार्जुनका उल्लेख 'राज पितामह' के 'नामसे करके उसका गुणगान प्रारंभ किया । मल्लिकार्जुन का विरुद्ध 'राज पितामह' सुनकर कुमारपाल की भृकुटी तन गई और उसने अपने सैनिकों के प्रति दृष्टिपात किया । उदयन मन्त्रीका पुत्र आम्रभट्टने कुमारपालका अभिप्रायः जान हाथ जोड़ सामने आकर मल्किार्जुन का मान मर्दन करने की आज्ञा मागी । कुमारपाल ने आम्रभट्ट को एक बड़ी सेना के साथ मल्लिकार्जुन पर आक्रमण करने लिये भेजा । वह सेना के साथ पाटण से चलकर कलाबीणी नदी के पास उपस्थित हुआ और बड़े कष्ट के साथ उसे पारकर दूसरे तट पर छावनी डाला । परन्तु मल्लिकार्जुन ने उसे मार भगाया । आम्रभट्ट पुनः सेना लेकर कोकण पर चढ़ा । इसबार उसने कलावेणी नदी में सेतु बनाकर समस्त सेना दूसरे तटपर उतारा और रणक्षेत्र में मल्लिकार्जुन को पराभूत किया । उधृत अवतरण से प्रगट होता हैं कि मेरुतुगास्वार्य की 'कलावीणी' कोकण और लाट की सीमा पर बहने वाली नदी थी । मेरुतुगाचार्य के इस कथानक को बंबई गझेटियर वोल्युम १-पार्व १ के पृष्ट १८५ में निम्न प्रकार से दिया गया है। Another of Kumarpal's recorded victories is over Mallikarjun said to be the king of Kokan, who, we know from published list of the North Konkan Silharas, flourished about A. p. 1160. The author of Prabandhchintamani says this war arose from the Bard of the king Mallikarjun speaking of him before king Kumarpal as Rajpitamah or Grand-father of Kings. Kumarpal annoyed at so arrogant a title looked around. Ambada, one of the sons of Udayan, divining the king's meaning, raised his folded hands to his forehead and expresed his readiness to fight Mallikarjun. The king sent with him an army which marched to the Konkan without haulting. At the crossing of the Kalvini * it was met and defeated by Mallikarjan, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड मेस्तुगाचार्य के कथन का भावार्थ देने पश्चात गझेटीभर कार इस पृष्ट के पाद टीपनी में कालवेणी के संबंध में निम्न प्रकार से लिखते हैं। Foot Note: This is the Kaveri River which flows through Chikhali and Bulgar. The name in the text is very like Karbena the name of the same river in Nasik cave inscriptions (Bom. Gaz. XVI. 671). Kalveni and Karbena being Sanskritised forms of the original Kaveri. प्रस्तुत पाद टीपनी में कलवेणी का अभिन्नत्व सिद्ध करने के साथ ही एक तीसरा नाम करवेणा नासिक के लेखानुसार प्रगट करते हैं । यदि हम यहां पर नासिक शिला लेखका अवतरण देवे तो असंगत न होगा । अतः उक्त लेख के उपयुक्त अंश का अवतरण देते हैं। १-"सिद्ध राज्ञः क्षहरातस्य क्षत्रपस्य नहपानस्य जामाना दीनीक्पुत्रेण उषवदत्तेन त्रीगो शत सहस्रदेन नद्या वर्णासायां सुवर्ण दान तीर्थकरेण देवताभ्य ब्राह्मणेभ्यश्व षोडशग्रामदेन अनुवर्षमू ब्राह्मण शत सह भोजायित्रा" २-"प्रभासे पुण्यतीर्थे ब्राह्मणेभ्य अष्टभार्या प्रदेन भरुकच्छे दशपुरे गोवर्धने सोपारगे च चतुशाला वसध प्रतिश्रये प्रदेन आरामताडाग उद्पान करेण इवा पारदा दमण तापी करवेण हहनुका नावापुन्य तरकरेण एतायां च नदिनाम् उभय तो तीरं सभा ३–प्रपाकरेण पिडित कावडे गोबर्धने सुवणं मुखे शोपारगे च रामतीर्थ चरक पर्शभ्य ग्रामे नान गोले द्वात्रीशत नालीगेर मुल सहस्त्र प्रदेन गोवर्धने श्रीरश्मिषु पर्वतेषु धमात्मना इदं लेनं कारितं इद इमा च पोढिो । . इस लेख के पर्यालोचन से प्रकट होता है कि इहरातवंशी क्षत्रप नहपान के जामात्रा दिनिक पुत्र धर्मात्मा उषवदत्तने-जिसने वर्णासादी म घाट बनाकर सुवर्णान दिया था-प्रत्येक वर्ष एक लक्ष ब्राह्मणों को भोजन कराता था-प्रभास क्षेत्र में आठ ब्राह्मणों का विवाह कराया थाभृगुकच्छ में धर्मशाला बनवाया-दशपुर में बगीचा-गोवर्धन में तलाव-सुपार्ग में कुवा-इवपारदा-दमण-तापी-करवेणा और दाहनुका नामक नदिओं के ऊपर नावका पुल बना यात्रिओं को निःशुल्क नदी उतरने का मार्ग प्रशस्त किया । एवं इन नदिओं के दोनों तटों पर धर्मशाला और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका ] १६८ परब बनवाया और नानंगोला गांव में ३२००० नारियल के वृक्ष दान में दिये तथा गोबर्धन के रश्मी पर्वत में गुफा और पोढिया बनवाया । उपवदन्त की प्रस्तुत प्रशस्ति से स्पष्ट प्रकट होता है कि कोंकरण से लेकर सीधे उत्तर में मालवा के दशपुर अर्थात वर्तमान मन्दसौर और मन्दसोर से सीधे पश्चिम में आबू पर्वतमाला के नीचे दक्षिण में बहने वाली वर्णासा (वर्तमान बनास ) नदी तथा आबुसे पश्चिमोत्तर में अवस्थित सौराष्ट्र देशके प्रभास क्षेत्र पर्यन्त प्रसिद्ध २ स्थानों और नदियों का इसमें उल्लेख किया गया है । प्रशस्ति में सर्व प्रथम वर्षासा नदी का उल्लेख है इसके बाद वर्गासा से दक्षिण पश्चिम अवस्थित प्रभास क्षेत्र - प्रभास के बाद उसके समय में खाडी के द्वितीय तट पर पूर्व दिशा में अवस्थित नर्मदा के प्रसिद्ध नगर भृगुकच्छ (बर्तमान भरोच) का उल्लेख है। भरोचके बाद इबा - पारदातापी - दमरण - करवेणा - दहनुका का वर्णन है । इनमें तापी नदी का परिचय सूर्यप्रकाशवत सर्वविदित है । पारदा — दमरण और दहनु का वर्तमान थाणा जिला में बहने वाली नदियां हैं। वे वर्तमान समय पार - दमणगंगा और ढाहगु नामसे प्रसिद्ध है । इनका थाणा जिल। में निम्न प्रकार से अबस्थान है। ढाहणु सफसे उत्तर में दमणन्गूगा और दमणगंगा से उत्तर में पार नदी है। प्रशस्ति कथित पारदा नदी पारडी नामके पहाड़ के सभीप बहती है । बी. बी. एन्ड सी, आइ. रेलवे के पारडी नामक स्टेशन से उत्तर में बलसाड है । बलसाड और बीलीमोरा के बीच कावेरी नदी रेलवे लाइन को पार कर कुछ दूर समुद्रभिमुख गमन करने के पश्चात अम्बीका नदी से मिलती है । अम्बीका को पार करने के पश्चात और उत्तर में जाने पर सूरत के पास तापी बहती है । दाणु के दक्षिण में प्रशस्ति का सुरपारंग वर्तमान सुपारा है । अतः हम निःशंक हो कर कह सकते हैं कि प्रशस्ति में सुपारा और भरुच के मध्यवर्ती नदियों का उल्लेख है । कथित नदियों में दमण और तापी का नाम आज भी ज्यों का त्यों है । दाहणुका और पारदाके नाम में परिवर्तन हुआ है। संप्रति दाहक का ढाक और पारदा का पार बन गया है। यदि देखा जाय तो प्रशस्ति कथित इन दोनों नदिओं के नाम का अताक्षर मात्र छुटकर वर्तमान नाम बना है। वरना उनमें कुछ भी अन्तर नहीं है । कुछ पार और तापी नदी के मध्य में बहने वाली कावेरी — अम्वीका – पूर्णा और भीडोल नामक चार नदियां हैं । इनमें से कावेरी को मेरुतुन्ग ने कलवेणा के नाम से उल्लेख किया है । प्रशस्ति कथित कुलसेनी और मेरुन्तुग के कलवेणी नाम में अधिक साम्यता पाई जाती है। बास्तब में कलवेणा ओर करवेणी में कुछ भी अन्तर नहीं है। क्योंकि संस्कृत साहित्य में रकार के स्थान में लकार और लकार के स्थान मे रकार का प्रयोग किया जाता है । उसी प्रकार वेण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड और वेणी में कुछ भी अन्तर नहीं है। क्योंकि दोनों प्रयाय वाचक है। पारदा और मन्त्रीका के मध्य में बहने वाली वर्तमान कावेरी नदी है प्रशस्ति कथित करवेणा का अवस्थान निश्चित करने के पश्चात केवल प्रशस्ति कथित इवा नदी का अवस्थान निर्धारित करना शेष रह जाता है । बम्बई गझेटिअर वोल्युम १६ पृष्ट १८० के पाद टीपनी में इन नदियों का परिचय निम्न प्रकार से दिया गया है। "And made Boat-Bridges accross the Eva (Ambica) Parda (Par) Daman (The Daman River ) Tapi (Tapti ) Karvena ( Perhaps the Kaveri) a tributary of the Ambika, apparently the same as the Kalvoni accross which the Anhilwada General Ambad had to make a bridge or causeway in leading his army against Mallikarjun the Shilhara King of Kokan" उधृत वाक्यक अवतरमसे स्पष्टतया हमारे पूर्व कथित सिद्धान्त का समर्थन होता है। अन्तर केवल इतना ही है कि हम प्रशस्तिकथित इवा नदी का अवस्थान निश्चित करनेमें असमर्थ है कि कावेरी और तापी के मध्य में बहनेवाली अम्बीका-पूर्णा और मीढोला नदियों में से किसी के साथ इवाकी नाम साम्यताका लवलेश मात्र भी नही पायाजाता ! और न उनका परिवर्तित रुपही सुगमता के साथ इत्रा बन सकता है। हां यदि भम्बीका के स्थान में हम पूर्णाको थोड़ी देर के लिये इवा मान लेबे तो इसके इवा बनाने की कुछ संभावना है । परन्तु पूर्णाका रुपान्तर इवा खिचखाच तोड़ मरोड तथा परिवर्तन नीति की सर्वथा उपेक्षा करने के बाद ही सकता है। - - - इवा चाहे हमारी यह कल्पना मानी जाय या न मानी जाय परन्तु हम प्रशस्ति कवित इवा को कदापि अविका नहीं मान सकते । क्योंकि अम्बिका का इवा कदापि नहीं बन सकता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चालुक्य चन्द्रिका १७० खैर चाहे जो हों इवा कावेरी और ताप्ती के मध्य में बहने वाली कोई नदी होनी चाहिए । सूरत गरि के पर्यालोचन से प्रगट होता है कि तापी से दक्षिण में बहने वाली एक शिवा नामक नदी है। शिवा का रूपान्तर इवा अनायासही हो सकता है । इस रूपान्तर के लिए न तो परिवर्तन नीतिका आश्रय लेना पड़ता है और न खींच खाच तोड़ मरोड़ करना पडता है। संभव है कि प्रशस्ति लेखक के हस्त दोष से शिवा का सरकार छुट गया हो और उसके स्थान में इवा बन गया । इस कारण हम निःशंक हो कह सकते हैं कि कर्तमान शिवा ही प्रशस्ति कथित इवा है । अब चाहे हम शिवा को इवा माने या पूर्णा को इवा माने या गझेटिअर के कथनानुसार अम्बिका को इवा माने हमारी न तो कोई हानी है और न हमें कुछ लाभ है । क्योकि हमारा संबन्ध संप्रति शिवा और इवा से नहीं है। हमें तो करवेणी और कलवेणी - कलवेनी और करवेनी से अधिक प्रेम है और हम अपनी कलवेणी के मुस्ताक होने के कारण सारे शटोंको छोड कर आगे बढ़ते हैं । 1 प्रशस्ति की करवेण, मेरुतुगकी कलवेणी या करवेणी और गमेटिश्वर की कालवेणी का नामान्तर हमें कावेरी मानने में करिणका मात्र भी संदेह नहीं है । क्योंकि उत्तर कोकण और विभाजित करने वाली वर्तमान कावेरी पुरातन करवेणी या कलवेणी से अभिन्न है । वसन्तपुर राज प्रशस्ति कथित कुलसेनी या कलसेनी और नाशिक गुफा प्रशस्ति कथित करत्रेणी और मेरुतुन्ग तथा गेझेटिअर ऋथित कलवेणी में बहुत ही नाम साम्यता है । संभव है कि मेरुतुग की प्रषन्ध चिंतामणि की प्रतिलिपि करने वालों के हस्त दोष से कुलसेनी वा कलसेनी का कलवेणी अथवा कलवीणी बन गया हो । या राज प्रशस्ति की लिपि करने वाले के हस्त दोष से कलवेणी का कुलसनी बन गया हो। चाहे जो हो प्रशस्ति की कुलसनी और मेरुतुन्ग की कलवीणी और गझेटिअर की कलवेणी अभिन्न है । प्रशस्ति कथित कलसेनी को वर्तमान कावेरी का नामान्तर सिद्ध करनेके साथही प्रशस्ति कथित वासुदेवपुर का अवस्थान कावेरी और अम्बीका के मध्य बेणुकुन्ज के बीच अपने आप सिद्ध हो जाता है । वर्तमान वांसदा और नवानगर वांसदा से अम्बीका की दूरी लगभग ५ मील है । अब यदि नवानगर वांसदा से पुरातन वांसदा को लगभग मील देढ़ मील की दूरी पर मान लेवे और ऐसा मानना नदी के दोनों कुलों पर भग्न अवशेषों को दृष्टिकोण में रख का असंगत भी नहीं है तो कहना पडेगा कि नगर के अन्तिमछोर से कुलसनी और अम्बक दोनों की दूरी समान होगी । अतः प्रशस्ति कार का वासुदेवपुर को कथित दोनों नदियों के मध्य में अवस्थित लिखना पूर्ण रुपेण युक्तिजुवत और तथ्यात्मक है । कथित वित्र कोलती - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ [लाट बासुदेवपुरखण्ड कृत कर हम प्रशस्ति कथित वासुदेवबुर का रुपान्तर निःशंक हो कर नवानगर-वांसदा को घोषित करते हैं। वांसदा को प्रशस्ति कथित बासुदेवपुर का रुपान्तर होने के संबन्ध में पूर्व उद्भावित आशांकाओं का आपादतः मूलोच्छेद करने और वासुदेवपुर का अवस्थान वर्तमान वांसदा नगर से दो मील पर अवस्थित नवानगर वांसदा के समीप पुरातन नगर का अवस्थान सिद्ध करने के पश्चात प्रशस्ति कथित अन्यान्य स्थानों के अवस्थान आदि का विचार करते है । प्रशस्ति के श्लोक ३१ और ३२ के पूर्वार्ध में कर्मणेय मधुपुर और पार्वत्य नामक स्थानों का उल्लेख है। प्रशस्ति से प्रगट होता है कि कथित तीनों स्थान विषय अर्थात प्रगणा थे । उनमें से रामदेव ने अपने दूसरे पुत्र महादेव को मधुपुर तीसरे पुत्र कृष्ण का कार्मणेय और चौथे पुत्र कीर्तिराज को पार्बत्य दिया था । एवं ज्येष्ठ पुत्र वसन्तपुत्र के पुत्र वीरपुत्र को राज्य दिया था। इस प्रकार अपने राज्य का प्रबन्ध करने पश्चात वह स्वर्गवासी हुमा। एवं उसका स्वर्गवास वासुदेवपुर में हुआ था। कथित तीनों विषयों में से कार्मणेय को हम तापी तटवर्ती वर्तमान कामरेज जो बड़ोद राज्यके नवसारी मण्डलका एक तालुका और सुरतसे ११ मीलकी दूरी पर है मानते हैं । इस काम रेज का कार्मणेय नाम से वर्तमान प्रशस्ति से लगभग सातसौ वर्ष पूर्व भाबी लाट नवसारिका के चौलुक्य राज जयसिंह धाराश्रय के पुत्र शिलादित्य के शासन पत्र में किया है। एवं पार्बत्य विषय का विचार हम पूर्वोधृत विजयसिंह के शासन पत्र के विवेचन में कर चुके है । और पार्वत्य को वरोदा राज्य के सोननगढ़ तालुका के पारघट नामक स्थान सिद्ध कर चुके हैं । अव रहा मधुपुर इसके बारे में हम कह सकते हैं कि यह वर्तमान महुआ नामक नगर का नामान्तर है। वर्तमान महुआ नगर के वीच जैनिओं का विघ्नेश्वर नामक मन्दिर है । उक्त मन्दिर में चार प्रशस्तिया मन्दिर के वासर की लकड़िओं में खुदी हैं । इन लेखों में महुआ का नाम मधुकरपुर लिखा गया हैं । मधुकरपुर का प्रयाग वाचक मधुपुर है। संस्कृत साहित्य के महारथी कविता में स्थान के अनुसार मधुकरपुर या मधुपुर का प्रयोग करते हुए पाये जाते हैं। पुनश्व मधुकपुर और मधुपुर दोनों का अर्थ एक है । इनका प्रयोग भी साधारणतया एकके स्थान में दूसरे का अर्थ अववोधनार्थ किया जाता है। प्रशस्ति कथित समस्त स्थान और नगरों का अबस्थानादि विवेचन करने के पश्चात हम वीरदेव के पुत्र कृष्ण देव कादेश निकाला पश्चात क्या हुआ और वसन्तपुर अपहरण करने वाला कौन था इन दो शेषभूत विषयों के विवेचन मे प्रवृत्त होते है। और इनमें से कृष्ण देवका क्या हुआ के विवेचन को सर्व प्रथम हस्तगत करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका] १७२ प्रशस्ति के श्लोक १२-१३ मे कृष्णदेव के दुर्गुणों का विस्तार क साथ वर्णन है । एवं श्लोक १४ क पूर्वाध मे उसके बसन्तपुर से निकाले जाने का वर्णन किया गया है । पूर्व कथित १२-१३ मे यद्यपि उसके दूर्गुणों का वर्णन विस्तार के साथ किया गया है परन्तु वसन्तपुर से निकाले जाने बाद वह कहां गया और उसका क्या हुआ कुछ भी नहीं प्रकट होता। हां सुरत जिला के चिखली तालुका की धोलधारा नदी के तट पर वारोलिया नामक ग्राम मे पुराणी शिला मतियां है। उनके लेखों से प्रकट होता है कि मंगलपुरी के चौलुक्य वंश में कृश्णराज नामक ई राजा हुआ था ! उसके वंशज कृष्णराज द्वितीय संवत १३६१ और १३७३ विक्रम के मध्य गलपुरी में राज्य करता था । और उसका छोटाभाई धवलनगरी का शासक था। इन लेखों में कृष्णराज प्रथम से लेकर कृष्णराज द्वितीय पर्यम्त पांच नाम पाये जाते हैं । इन लेखों को हम पूर्व में उधृत कर चुके हैं । और उनके विवेचन में कृष्णराज प्रथम के समय तथा वसन्तपुर के साथ उसका कुछ सम्बन्ध था या नहीं इस प्रश्नका भी उत्थान करके समाधान किये हैं। परन्तु वसन्तपुर के साथ उसके सम्बन्धका व्यापक प्रमाणाभावके कारण इस प्रश्नको ज्योंका त्यों छोड़ केवल समय निर्धारण करके ही संतोष करना पड़ा था । परन्तु प्रस्तुत प्रशस्ति में वीरदेव के पुत्रों की संख्या दो बताई गई है। जिनमें प्रथम का नाम मूलदेव और दूसरे का नाम कृष्णदेव बताया गया है। कृष्ण अपनी उदण्डता और बंधु द्रोह के कारण पिताका अप्रिय भाजन बन वसन्तपुर से निकाला गया था । मंगलपुरी वाले कृष्ण प्रथम का समय कुम्भदेव के लेखों के विवेचन में संवन १२७१ सिद्ध कर चुके हैं । यह समय हमने अनुमान के सहारे किया था इधर प्रशस्ति कथित कृष्ण के पिता वीरदेव का समय किक्रम १२७६ सिद्ध होता है । ऐसी दशा म मंगलपुरी वाले कृष्ण को वसन्तपुर के वीरदेव का पुत्र कृष्ण हम नहीं मान सकते। ऐसा यदि हम कहे तो असंगत न होगा । परन्तु ऐसा हम नहीं कह सकते। क्योंकि वीरदेव का समय १२३५ से १२७६ है । अतः संभव है कि वीरदेव ने अपने द्वितीय पुत्र कृष्ण को मंगलपुरी का शासक बनाया हो । और जब उसे बंधु द्रोह के कारण वीरदेव ने देशनिकाला का दण्ड दिया हो तो वह स्वयं अथवा उसका पुत्र मंगलपुरी को अधिकृत कर स्वतंत्र बन गये हो । अब यदि कुष्ण के वंशज और उसके सामयिक मूलदेवके वंशजों की वंशश्रेणी में कुछ समता पाई जाय तो हमारी यह संभावना सिद्ध हो सकती है। अतः हम दोनो वंशावली को निम्न भाग में समानान्तर पर उधृत करते हैं। वासन्त पुर वंशावली मंगलपुर वंशावली मूल देव कृष्ण राज कर्ण देव उदय राज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ [ लाट वासुदेवपुर खण्ड सिद्धे श्वर विशाल धवल क्षेम राज वा सु देव - - भीम देव कृष्ण रा ज कुम्भ दे व वंशावली पर दृष्टिपात करने से साम्यता अपमे आम प्रकट होती है। किन्तु समय में कुछ अन्तर पड़ता है । हमारी समज में समय का अन्तर का परिहार अनयास ही हो सकता है। क्योंकि वसन्तपुरीकी गदी पर मूलदेव नही बैठा था। अतः उसके पुत्र कर्ण और उसके भाई कृष्ण देवकी समकालीनता ठहरती है। एवं कर्ण के तीनों पुत्रों ने राज्य किया था । मतः उनको मी वश श्रेणी में मानना होगा इस प्रकार मंगलपुर और वसन्तपुर के दोनों राजवंशों के राजाओ की समकालिनता निम्न प्रकार से होगी : सम का लिन ता वा सन्त पुर मंगलरी कण दे व १२७६-१२६८ कृष्ण रा ज १२७१-१२६३ सि द्वेश्वर १२६८-१३२१ उद य रा ज १२६३-१३१६ वि श ल १३२१-१३४३ रुद्र दे व १३१६-१३३८ धवल १३४३-१३६६ क्षे मग ज १३३८-१३६० वासुदेव १३६७ कृष्ण रा ज १३६० हमारी इस प्रशस्ति की समकालीनता में किसी को शंका नहीं हो सकती क्योंकि इसमें बहुत ही थोड़ा समय का अन्तर पड़ता है। अब यदि उक्त अन्तर को दूर करने के लिये हम कृष्णराज का ७ वर्ष समय पूर्व से हठाकर और पीछे ले जावे और दोनों अर्थात कृष्णदेव और कर्णदेव दोनों को एक समय १२७६ में मान लेवे तो वह अन्तर अनायास ही मिट जाता है। इन बातों को लक्ष कर मंगलपुरीके कृष्णराज प्रथम को वसन्तपुर के वीरदेव का द्वितीय पुत्र और कर्णदेव का चाचा घोषित करते हैं । परन्तु इसके-कुम्भदेव के लेख में कृष्णराजकी वंशावली का प्रारंभ आड़े पड़ता है। इसका समाधान यह है कि अन्यान्य राज्यवंशों का इतिहास ऊचे स्वरमें घोषित करता है कि भाई और पिता से विद्रोह करने वाले के वंशज पूर्व की वंशावली का उल्लेख नहीं करते । इसका प्रमाण आबू के परमारों के इतिहास में विशेष रूपसे पाया शाता है। और इसकी मलक अजमेर के चौहानों के इतिहास में मी पाई जाती हैं । मंगलपुरी के कृष्णराज को बसन्तपुर के वीरदेव का द्वितीय पुरा सिद्ध करने पश्चात मंगलपुर-बसन्तपुरकी वंशावली निम्न प्रकार से होगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य चन्द्रिका ] . १७४ -वंशावली:-- जय सिंह (१) विजय सिंह (२) ध व ल देव (३) व स तदेव कृष्ण देव महादेव चा चि क मी म देव (४) रामदेव लक्षमण देव (५) वी र देव मूलदेव (१ कृष्ण दे व (६ ) के देव (२) ड द य राज (३)रु द्र देव (७) सि दुषे श्व र (८) वि श ल (९) ध वल (४) क्षे म राज (१०) वा सु दे व (११) मी म दे व कृष्ण कुम्भ (१२) बी र देव बसन्त देव महादेव कणे देव की र्ति राज (१३)बी र देव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ [लाट बासुदेवपुर एक हमारी समझ में प्रशस्ति का सांगोपांग विवेचन हो चुका । एवं इसमे कथित समी घटना पर पूर्ण रूपेण प्रकाश डाला जा चुका । हां यदि कोई बात रह गई है तो वह यह है कि वसन्तपुर का स्वातंत्र्य अपहरण के साथ ही वसन्तदेव को मारने तथा वसन्त र को लूटने वाला कौन था । इस विषय पर प्रकाश डालने वाला कोई भी साधन हमारे पास उपलब्ध नहीं है। संभव है तत्कालिन सुसलमान इतिहास के विडोलन से कुछ प्रकाश पड़े। समाती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्धस्य चन्द्रिका / 176 चौलमय चंद्रिका के अन्यान्य खण्डों में क्या है ऐजन्त बातापि:- इस खण्डमें चौलुक्य चक्रवर्ती पुलकेशी तथा उसके पूर्वज एवं वंशजों के विक्रम संवत 16 से लेकर 735 पर्यन्त शासनपत्रों का संग्रह है। इन शासनपत्रोका अनुवाद और वैज्ञानिक विवेचन किण गया है। विवेचन में तत्कालीन अमान्य राज्यवंशों के सामयिक लेखोंका सब से मस्येक बेस की बधार्थता प्रभृति सिद्ध की गई है। प्रसंगवाश पाश्चात्य विद्वानों और उनके अनुयायी भारतीयोंकी समीक्षा पूर्णरूपेवकी वातापी-कल्यायः- इस खण्ड में ऐजन्त वातापीके अन्तिम राजा कीर्तिवमाके हाथसे राज्य उम्मीका अपहरण राष्ट्रकूटों द्वारा होने के पश्चात उसके भ्रतृपुत्रके वंशजोंने किस प्रकार लगभग 150 वर्ष पर्यन्त चौलु य राज्यचिन्ह की रक्षा करते हुए युद्ध किया था और अन्त में विजयी हो वातापीको हस्तगत कर राज्यलक्ष्मीका उद्धार किया था / एवं वातापी छोर कल्याण को राजधानी बना पातापी कल्यायके चौक्य कहलाने वाले चौलुक्यों के वंशमें विक्रम 735 पश्चात 1200 पर्यात होनेवाले राजाओंके शासनपत्रोंका संग्रह, अनुवाद तथा विवेचन किया गया है। बेंगी-चोल:- इस खण्ड में पंवन्त बातापीके भारत चक्रवर्ती चौलुक्य राज पुलकेशीके बातृवंसज बगभग 30 पीढ़ी विक्रम 5 से 14 पर्यन्त राज्य करनेवाले राजानों के, शासमपत्रों का संग्रह, अनुवाद तथा विवेचन है / ये सब चोख को अधिकृत कर अपने राज्यमें मिला लिए सबसे बगीचोखो चौलुक्य नामसे प्रख्यात हुए / एवं पंच द्राविड इनके अधिकार में होने के कारण इनका चौलुभवसे सोलुक पड़ा और संभवतः इनके वंशज जब गुजरात में गए तो अपने साप चौलुक्यके स्थान में सोलुकको नेते गये, जो कलान्तर में सोलंकी बन गया। भानत पाटण-धोलका चौलुक्या- मानत (गुजरात) पाटनके चापोरकट राजवंशका उत्पाटन कर मूबराजने चौलुक्य वंशके राज्यका सूत्रपात किया था। इस वंशने विक्रम संवत 1018 से 1218 पर्यन्त गुजरात वसुन्धराका भोग किया। इस अवधिमें इस वंशके दस राजामोंने शासन किया था। इस वंशमें सिद्धराज जवसिंह नामक राजा बबाही प्रसिदमा है। उसका नाम गुजरात के आवास वृद्ध की जिहा पर अंकित है उसका नाम प्रत्येक गुजराती साभिमान लेता है / इस वंश का अन्तिम राजा भीम द्वीतीय था / इसके हाथ से धोलकाके बलों ने राज्यवक्ष्मी का अपहरण किया / बोडों का मूल पुरुष बराज का पाटय के चौबुझ्यों के साथ वीपक्षीय कुछ सम्बगया। बारजम्यान पाती नामक स्थान में रहता था। क्रमशः इसके वंशज पाटण के चौतुल्यों के राज्य में सर्वोसी बम गए थे। इस वंश का शासनकाल 126 से 1350 पर्यन्त साब है। इसी वंश के चार राजाओं ने इस अवधि में शासन किया था। प्रथम राजा वीरधवल और अन्तिम कर्षनेता हैं। इन्हीं दोनों वंश के विक्रम संवत् 1017 से लकर 1360 पर्यन्त 310 वर्ष काबीन प्रायः प्रत्येक रामानों के शासन पत्रों और प्रशस्तियों का संग्रह और विवेचन है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com