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[लाट नन्दिपुर खण्ड प्रशस्तिमें वंशावली दी गई है। वंशावलीके साथही अन्यान्यवाते अर्थात् चौलुक्योंका अयोध्या में राज्य करना, पश्चात दक्षिणमें भाकर नवीनराज्य स्थापित करना-राज्यका छिन जाना-जयसिंहका पुनः उद्धार करना प्रभृति देनेके पश्चात् जयसिंहसे लेकर क्रमशः विक्रमादित्य पर्यन्त नाम दिये गये। इस प्रशस्तिको हमने चालुक्य चंद्रिका वातापि कल्याण खण्ड़ में अधिकल रुपसे उधृत कर पूर्ण विवेचन किया है।
विक्रमके बाद उसका छोटा भाई जयसिंह शक ६४० में गद्दीपर बैठा भार शक ९६३ पर्यन्त राज्य किया। जयसिंहकी उपाधि जगदैकमल थी इसनेमी अपने राज्यके छठे वर्षकी एक प्रशस्ति में चौलुक्य वंशकी वंशावलीका अभिगुन्ठन, जयसिंह प्रथमसे लेकर अपने समय पर्यन्त किया है। जयसिंहकी राणी संगलदेवी थी। जिसके गर्भसे आहवमल्ल पुत्र और अब्बलदेवी नामकी कन्या हुई ! अब्बलदेवीका दूसरा नाम हाम्मादेवी था। उसका विवाह सेवुण देशके राजा भिल्लम तीसरेके साथ हुआ था जयसिंहकी मृत्यु पश्चात आहवमल्ल गद्दी पर बैठा।
आहवमल के राज्यकालीन विविध प्रशस्तियों और शासन पत्रों के पर्यालोचनसे प्रगट होता है कि इसको होयसलदेवी • वाचलदेवी चंद्रकादेवी और कैटलदेवी नामक चार राणियां थी और इन के गर्भसे इसको सोमेश्वर - विक्रमादित्य और जयसिंह नामक तीन पुत्रोंका होना पाया जाता है। आहअमल्लने वयस्क होने पर अपने प्रत्येक पुत्रको कुछ प्रदेशकी जागीर दे कुछ अन्य प्रदेशोंका शासक नियुक्त किया था। पाहवमल्लने अपने ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर भुवनमल्लको वयस्क होने पर युवराज पट्टबंधकी जागीर केशुवलाल ( पटडकाल ) प्रदेश दिया था। उसके अतिरिक्त शक ६७१ मे वह वेलवोला त्रयशत और पुलगिरि त्रयशतका शासक नियुक्त हुआ था। एवं द्वितीय पुत्र वीक्रमादित्यको वनवासी द्वादश सहस्र नामक प्रदेश दिया था। एवं वह गंगवाडी शासक था
पुनश्च आहवमल्लके राज्यके छठे वर्ष शक ६६६ की प्रशस्तिसे प्रकट होता है कि उसने अपने कनिष्ठ पुत्र जयसिंहको कोगली आदि प्रदेशकी जागीर दी थी। एवं उसके राज्यके २३ वें वर्ष अर्थात् शक ६७६ के लेखसे प्रकट होता है कि जयसिंहके अधिकारमें उस वर्ष कतिपय अन्य प्रदेश थे इन दोनों प्रशस्तियोंके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि जयसिंह अपने प्रदेशों का पूर्ण शासनाधिकार का भोग करता था। और अपने पिता को अधिराजा मान स्वयं स्वतंत्र सामन्त राजाके शासन आदि प्रचलित करता था। पुनश्च इन शासन पत्रों से जयसिंहका विरुद वीरनोलम्ब पल्लव परम्नादि प्रयलोक्यमल्ल प्रकट होता है। पाहवमल्लका स्वर्गवास शक ९६० के चैत्र मास में कृष्ण रविवारको हुआ और उसका ज्येष्ठ पुत्र सोमेश्वर कल्याण की गद्दी पर बैठा।
उधृत अवतरणसे स्पष्ट रुपेण प्रस्तुत प्रशस्तिकी बातों का सामंजस्य मिलता है । अतः हम यदि निशंक हो प्रशस्ति कथित विजयसिंह के पिता वीरनोलबं पल्लव परम्नादि जयसिंह को
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