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चौलुक्य चंद्रिका ]
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हमारी समझमें वातापि वालों के मालवावालों से पराभव समय उनकी निर्बलताका लाभ उठा कर अपने निकट संबंधियों चांदोदके यादवों और स्थानक के शिल्हरोंकी सहायता से कीर्तिराज स्वतंत्र बन गया । अतः हम प्रशति कथित उक्त संकेतको वातापिवालोंका द्योतक नहीं मान सकते ।
प्रशस्ति सांकेतिक शत्रु जब वातापिवाले नहीं हैं तो वैसी दशामें कथित शत्रु कौन हो सकता है । पाटण के चौलुक्योंके इतिहाससे प्रकट होता है कि पाटणपति चौलुक्यराज दुर्लभराजने लाट देशपर विजय पाया था । दुर्लभराज के इस लाट देशके विजयका उल्लेख कुमारपाल भूपाल चरित्र में है और उससे प्रकट होता है कि दुर्लभराजने लाट नाथको मार कर उसके राज्य चिन्हको धारण किया था ! इसका समर्थन कुमारपाल के बड़नगर की प्रशस्तिके वाक्य:
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यस्य क्रोध पराङ्गवस्य किमपि भूवल्लरी भंगुरा । सौ दर्शयतिस्मलाट वसुधा भंग स्वरूपं फलं ॥
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से समर्थन होता है । अतः हम कह सकते हैं कि संभवतः इस युधका प्रशस्तिमें संकेत किया गया हो, किन्तु हम ऐसाभी नहीं मान सकते, क्योंकि संकेतमें कीर्तिराजका बिजयी होना प्रकट किया गया है। यदि इसका संकेत प्रशस्तिकार करता तो अपने स्वभाव वशात वह लाट देशपर आपत्तिका आना वर्णन करता । ऐसी दशामें हम कह सकते हैं कि उक्त संकेत वातापीवालों पर विजय पानेका संकेत करता है। और प्रशस्तिकारने कीर्तिराज के पराभवको - जिसमें उसको अपने दादा वारपराज के समान - प्राण गमाने पड़े थे - को पूर्ण रूपेण उदरस्थ कर लिया है।
कीर्तिराजके उत्तराधिकारी और वत्सराज के संबंध में प्रशस्तिकार केवल इतनाही लिखता है कि उसने सोमनाथ महादेव के मन्दिरमें रत्नजड़ित सुवर्ण छत्र चढ़ाया था । और अनाथों के लिये अन्नसत्र बनवाया था। इसके अतिरिक्त उसके संबंध में प्रशस्तिसे कुछभी प्रकट नहीं होता । पुनश्च यहभी नहीं प्रगट होता कि सोमनाथ मन्दिर सौराष्ट्रका मन्दिर है अथवा कोई अन्य मन्दिर | और यदि उक्त मन्दिर सौराष्ट्रका मन्दिर सोमनाथ है तो क्या वत्सराज वहां स्वयं गया अथवा किसीके द्वारा उक्त रत्नजडित सुवर्ण छत्रको भिजवा दिया था । अथवा नर्मदा समुद्र संगम के समीपवर्ती अम्मलेठा ग्रामवाला सोमनाथ मन्दिर है । हमारी समझमें सौराष्ट्रका सोमनाथ मन्दिर न होकर नर्मदा समुद्र के निकटवर्ती अंम्मलेठा ग्रामकाही सोमनाथ मन्दिर है क्यों कि यह स्थान पवित्र माना जाता था और नंदिपुरके चौलुक्यों के राज्यमें था भी ।
अन्ततोगत्वा प्रशस्ति वत्सराज के पुत्र और उत्तराधिकारी शासन कर्ता त्रिलोचनपालका वर्णन करती है और उसे धर्मराज युधिष्ठिर के समान सत्यवादी और भगवान कृष्ण के समान शौर्यशाली और विजयी बताती है। एवं उसे अनेक प्रकारके दानादिका करनेवाला प्रकट करती है। प्रशस्तिसे प्रगट होता है कि त्रिचोचनपालने अगस्ततीर्थ
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