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[लाट नन्दिपुर खण्ड प्रथम किया था क्यों कि वाराह लांछन वातापिवालोंका था । पुनश्च इससे यह भी प्रकट होता हैं कि गोरगिराज वारपके मारे जाने के समय लाट देशमें उपस्थित नहीं था। परन्तु उसकी मृत्युका संवाद पाकर वातपिकी वाराह ध्वजकी छत्रछाया में सेना लेकर युद्धमें प्रवृत्त हो लाट देशकी अपहृत भूमि का उद्धार किया था। गोरगिराजसे संबंध रखनेवाले प्रशस्तिके कथनका पूर्ण रूपेण विवेचन हो चुका। अतः गोरगिराज के पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिराजसे संबंध रखनेवाले कथनका विचार करें तो असंगत न होगा । परन्तु ऐसा न कर गोरगिराजसे संबंध रखनेवाली अन्यान्य बातोंका विचार करते हैं। चांदोदमें द्वारावतिसे आकर शक संवत ७७२ में यादवों ने एक छोटेराज्यकी स्थापना की थी। इस वंशके सेवुनचंद्र द्वितीयका शासन पत्र शक ६६१ का हमें प्राप्त है । उक्त शासन पाके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि सेवुनचंद्र द्वितीयके पूर्वज तेसुकने गोरगिराजकी कन्या नयीयालासे विवाह किया था। हमारी समझमें यह विवाह राजनैतिक दृष्टिसे हुआ था । क्यों कि इस विवाह द्वारा गोरगिराज तथा उसके वंशजों को अपना बल बढानेका अवसर प्राप्त हुआ। क्योंकि आगे चलकर देखनेमें आता है कि गोरगिराजका दौहित्र भिल्लम वातापि पति चौलुक्यराज
आहवमल से लड़ा था। किन्तु बड़े शोककी बात है कि प्रशस्ति कारने काल्पनिक उपमाओं के अभिगुण्ठन करने में तो कविताओंकी भरमार किया है परन्तु इस महत्व पूर्ण घटना । वर्णन अनावश्यकमान छोड़ दिया है।
आगे चलकर प्रशस्ति गोरगिराजके पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिराजके संबंधों चाटुकताका अंत कर देती है। प्रशस्ति इसे रूपमें कामदेव-चौलुक्यवंशी राजारूप मालामें सुमेरु मणि-जितेन्द्रिय-परंधार्मिक वेदज्ञ-उदार-वीरशिरोमणि-विजेता और अपनी उज्जवल कीर्ति से सूर्य समान दिशाओंको प्रकाशित करनेवाला बताती है । परन्तु कीर्तिराजके सबसे उत्तम महत्व को उदरस्थ कर जाती है। हमारे पाठकों को मालूम है कि कीर्तिराज नंदिपुरके चौलुक्यों में प्रथम था जिसने वातापिके आधीनता थूपको फेंककर राजापदको धारण किया था। और इसके इस कार्य में उसका फुफेराभाई चांदोदका यादव राजा भिल्लम सहायक हुआ था।
पुनश्च प्रशस्ति कीर्तिराजका शत्रुओं पर विजय पाना वर्णन करती है, परन्तु उक्त शत्रु कौन था इत्यादि के संबंध में मौनालंबन करती है। क्या प्रशस्ति अपने इस संकेत द्वारा वातापिवालों का उल्लेख नहीं करती है। संभव है कि वातापि वालेही हों क्यों कि जब कीर्तिराजने उनकी आधीनताका परित्याग कर स्वतंत्रताकी घोषणा किया होगा तो वे अवश्य उसे स्वाधीन करने के लिये प्रयत्नशील हुए होंगे। परन्तु वातापिका इतिहास इस संबंधमें चुप है। किन्तु मालवा धर के परमारों के इतिहास से हमें ज्ञात है कि उन्होंने चिरकालके विग्रह के पश्चात वातापि वाले जयसिंह का रणक्षेत्रमें वध कर विजय पाया था। जिसके प्रतिहारके लिये आहवमलने मालवा पर आक्रमण किया था।
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