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चौलुक्य चन्द्रिका ]
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पछाड़ी बांधने की रशी से बंधी हुई स्ववंशकी राज्यलक्ष्मी को मुक्त कर अंकशायनी बना बसन्त पुर में विराजमान हुआ । इस कथन के दो अर्थ हो सकते है । १ - रामदेव के हाथ से राज्य छीन गया जिसका उद्धार वीरसिंह ने किया । २ - रामसिंह के बाद वीरसिंह ने राज्य पाने पर पाटण की श्रधिनता प को फेंक अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी। हमारी समज में प्रथम अर्थही उत्तम प्रतीत होता है । क्योकि 'पाटण पट बंधन' का अर्थ केवल एही हो सकता है कि मंगलपुर का राज्यलक्ष्मी का अपहरण पाटणवालो ने किया था जिसका उद्वार वीरसिंह ने किया । अब बिचारना यह है कि मंगलपुरी के चौलुक्य राज्यवंश के स्वातंत्र्य राज्यलक्ष्मी का अपहरण किसने किया । मंगलपुरी के चौलुक्य बंश की संस्थापना १९४६ विक्रम में हुई थी । उस समय से लेकर प्रस्तुत शासन पत्र लिखे जाने अर्थात १२४५ पर्यन्त ८६ वर्ष होते है । इस अवधि में मंगलपुरी के सिंहासन पर प्रस्तुत शासन कर्ता बीरसिंह को छोडकर चार राजा बैठे थे । उक्त ८६ वर्ष को ४ में बाटने से २२ वर्षका श्रौसत प्राप्त होता है। इन चार राजा ओ में से दो राजाओं के विरूद स्वतंत्र नरेशों के है । अतः मंगलपुरी के स्वातंत्र्यका अपहरण ११४६+४४ =११६३ के लगभग हुआ प्रतीत होता है। संभव है कि इस समयके कुछ और भी बाद मंगलपुरी के स्वातंत्र्य का अपहरण हुआ हो ।
मंगलपुरी की संस्थापना समय दक्षिण में वातापि कल्याण का चौलुक्य राज्य, उत्तर में पाटन का चौलुक्य राज्य और पूर्वमें धार का परमार राज्य प्रबल था । एवं निकटतम उत्तर में लाट नंदपुर के चौलुक्य और दक्षिण में स्थानक के शिल्हरा थे। इनमें पाटन के चौलुक्य और धार के परमारों का वंश परंपरागत विरोध था । सिद्धराज ने धार के २/३ भाग को अपने स्वाधीन कर लिया था । एवं मालवा की पुरातन राज्यधानी अवन्ती पर अपने वृषध्वज को आरोपित कर अतिकानाथ की उपाधि धारण किया था । अतः मालवा के परमारों की शक्ति क्षीण हो रही थी इन्हें अपने जीवन के लाले पड़ रहे थे । वे दूसरे पर आक्रम ! क्या करते । लाट नंदिपुर के चौलुक्यों का अन्तप्राय हो रहा था सिद्धराज के कोकरण अथवा सह्याद्रि के उपत्यका भू पर आक्रमण करनेका परिचय नहीं मिलता। अब रहे स्थानक के शिल्हरा । और वातापि कल्याणके चौलुक् । इनमें स्थानक, कोल्हापुर और कहटके शिल्हरा और अन्यान्य छोटे मोटे राजा वातापि कल्याण के चौलुक्यों के प्राधीन चिरकाल से चले आ रहे थे । परन्तु विक्रमादित्य के पश्चात् वातापि कल्याण के चौलुक्यों की शक्ति क्षीण होने लगी थी । सामन्त प्रबल और उदण्ड बनने लगे थे । विक्रमादित्यका समय शक ६६८ - १०४८ तदनुसार विक्रम १९६५ में प्रारंभ होता है। इसके गद्दी पर बैठने बाद सामन्त गण अति बलवान होगए । इसके बाद इसका छोटा भाई १०७२ तदनुसार विक्रम १२०७ में गद्दी पर बैठा । सामंतों ने षडयन्त्र रचकर इसको एक प्रकार से बंदी बनाया था परन्तु यह इनके चंगुल से निकल भागा और वनवासी प्रदेशसे चला गया । अतः स्थान के शिल्हरोंने उसी समय यह वातापि कल्याण राज्य की दुर्बलता से लाभ उठाकर स्वतंत्र बन गये । उन्होंने न केवल स्वतंत्रता ही लाभ किया वरन अपने पड़ोसियों को भी सताना शुरु किया था ।
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