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चौलुक्य चंद्रिका] व्यापारिक रंग मश्चपर उपस्थित हो उनके हाथसे व्यापारके साथही उनके अधिकृत भूभागको हड़प गये।
तिथि क्रमके अनुसार यद्यपि अंग्रेज वणिक संघका स्थान प्रथम है और उनके संघ स्थापन तथा भारत आगमन पर विचार करना उचित प्रतीत होता है तथापि डच-डेन और फ्रेन्चोंका विचार क्रमशः प्रथम करते हैं। क्योंकि इनका संबंध क्षणिक और हमारे ऐतिहासिक कालके लिये कुछभी महत्व नहीं रखता।
अंग्रेजोंके अनुकरणमें डचोंने "संयुक्त डच वणिक संघ" स्थापित किया और भारतमें व्यापार करने के लिये चल पड़े। और अपने चिर शत्रु पोर्चुगीजोंके स्थानको हस्तगत करने लगे। एकके बाद दूसरा पोर्चुगल प्रदेश उनके अधिकारमें आने लगा। इन्होंने १६४१ में लटेवियाको केन्द्र बनाया और लंकाको विजय किया । और भारत वर्षके कालीकट नामक स्थानमें उतरे। वहांसे चलकर नेगापटन, चिनसुरा, सूरत, भरुच और कोचीनमें व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया। परन्तु अंग्रेजोंने इन्हेंभी अन्तमें मार भगाया ।
डेनोने सन १६१६ में वणिक संघ स्थापित किया और सिरामपूर आदि स्थानोंमें व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया । इनकोभी अंग्रेजोंने निकाल बाहर किया। सबके अन्तमें फ्रेन्च जाति व्यापारिक मञ्चपर उपस्थित हुई । यों तो फ्रेन्चोंका व्यापार ईसवी सनके सत्तरहवीं सदीके प्रारम्भसेही चल पड़ा था ! परन्तु ईसवी सन १६६४ में फ्रेन्च वणिक संघकी स्थापना हुई
और उसका प्रथम नायक कालवर्ट हुआ । फ्रेन्चोने भारत वसुन्धराके मुसलिपट्टम् नामक स्थानमें। अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया । किन्तु डचोंने वहांसे उन्हें निकाल बाहर किया । तब उन्होंने मार्टिनके नायकत्वमें सन १६७४ में पान्डिचेरी बसाया । बंगाल में जाकर चंद्रनगरमें डेरा जमाया । और बंगालकी खाड़ीसे निकल कर अरब समुद्रके पश्चिम तटवर्ती भूभाग पर दृष्टिपात किया । एवं लाटके परं प्रसिद्ध भरुच और सूरत नामक नगरोंमें अपना व्यापारिक केन्द्र स्थापित किया । वास्तवमें यदि देखा जायतो अंग्रेजोंका सच्चा प्रतिद्वन्द्वी कोई वसुन्धरा पर हुआ है तो वह फ्रेन्च जाति है।
इंगलेन्डकी गद्दी पर क्वीन एलिजाबेथ सन १५५८ में बैठी। और उसका राज्य सन १६०३ पर्यंत ४५ वष रहा। इसके इस लम्बे राज्यकालमें अंग्रेज जातिकी सर्व मुखीन उन्नति हु
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