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चौलुक्य चंद्रिका] खेटकपुर आदि भूभागपर होनेका स्पष्ट परिचय मिलता है, तथापि उनके अधिकारमें नर्मदा उपत्यकाके होनेका परिचय उस समयमें नहीं मिलता । इसके अतिरिक्त दद प्रथमके पौत्र दद द्वितीयके पूर्व कथित खेडावाले दोनो शासन पत्रोंसे प्रगट होता है कि दद प्रथमने नागजातिका उत्पाटन किया था। एपिप्राफिका इण्डिका वोल्युम २ पृष्ठ २१ में प्रकाशित शासन पत्रसे प्रगट होता है कि नर्मदा उपत्यकाको जंगली जातियोंपर निहलक नामक राजा शासन करता था। कथित शासन पत्रमे निरहुलक शंकरगणका उल्लेख बडेही आदर और उच्च भावसे करता है। जिससे स्पष्ट रूपेण प्रगट होता है कि वह शंकरगण के आधीन था। अब यदि हम निरहुलकके समय प्राप्त कर सके तो संभवतः दद प्रथम द्वारा पराभूत नागजातिका परिचय मिल सकता है।
वातापि के इतिहास से प्रगट होता है कि मंगलीशने कलचुरीराज शंकरगण के पुत्र बुद्धवर्माको पराभूत किया था। मंगलीशका समय शक ४८८ से ५३२ पर्यन्त है। मंगलीश के राज वर्ष के ५ वें वर्ष के लेखमें बुद्धवाको पराभूत करनेका उल्लेख है। अतः शक वर्ष ४८८४५=४९३ में मंगलीशने बुद्धवाको जीता था। बुद्धवर्मा के पिताका नाम शंकरगण है। अब यदि हम शक ४६३ को बुद्धवर्माका अन्तिम समय मान लेंवे तो वैसी दशामें उसके पिताका समय अधिक से अधिक ५० वर्ष पूर्व जा सकता है। अर्थात् कलचुरी शंकरगणका समय शक ४४३ ठहरता है। उधर निरहुलकके स्वामी शंकरगणका समय, यदि हम उसे दद प्रथम द्वारा पराभूत मान लवे तो, किसीभी दशाम शक ४७५ के पूर्व नहीं जा सकता। अतः हम किसी भी दशामें उसे निरहुलक कथित शंकरगण · नहीं मान सकते। हां यदि बुद्धवांका समय शक ४६३ के आसपास प्रारंभीक मान लेंवें और निरहुलकका लेख इस समय से पूर्ववर्ती स्वीकार करें
और उक्त समयको निरहुलकका प्रारंभकाल माने तो संभवतः निरहुलक और दद प्रथमकी समकालीनता किसी प्रकार सिद्ध हो सकती है। परन्तु इस संभवना के प्रतिकूल मंगलीश के उक्त लेखका विवरण पड़ता है। क्योंकि उसमें स्पष्टतया उसके पूर्व दिशा विजय के अन्तर्गत बुद्धवर्मा के साथ संघर्षका वर्णन है। परन्तु निरहुलक कथित शंकरगणका उत्तर दिशामें नर्मदा के आसपास में होना संभव प्रतीत होता है।
हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि अपरान्त प्रदेश, वातापि से उत्तर दिशामें अवस्थित है, जहां पर त्रयकुटकोंका अधिकार था। और ताप्ति नदी के बामभाग वर्ती प्रदेशमें तो उनके
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