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[ प्राक्कथन
अधिकारका होना सूर्यवत् स्पष्ट है। इन त्रयकुटकों के अधिकारका स्पष्ट परिचय उनके शासन पत्रों तथा उनके संचालित श्रयकुटक संवत्के अपरान्त प्रदेश में सार्वभौम रूप से प्रचार होने से मिलता है। अतः हम कह सकते हैं कि निरहुलकके शासन पत्रने कथित शंकरगरण त्रयकुटवंशी और संभवत: त्रयकुटराज महाराजा व्याघ्रसेन के उत्तराधिकारीका पौत्र है। जिसका राज्यकाल त्रयकुटक संवत् २४१-४५ के मध्यकाल से प्रारंभ होता है । इस प्रकार मानने से कोई आपत्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि हम निःशंक होकर व्याघ्रसेन के और पौत्रको ५० वर्षका समय दे सकते है। और इस प्रकार २४२-४३ ५०=२६२-६३ में शंकरगरणका राज्यकाल प्रारंभ होता है। कथित समयके साथ नर्मदा उपत्यका में वसनेवाली नाग जातिके उत्पाटन - जिसका राजा निरहुलक था - कालका तारतम्य मिल जाता है। अतः हम निर्भय हों घोषित करते हैं कि दद प्रथमने इन्हीं नागोका उत्पादन कर नर्मदा - उपत्यकाको अधिकृत कर भीनमालके गुर्जर साम्राज्यमें मिलाया था। जिसके उपलक्षमें गुर्जर राजने उसे इस प्रदेशका सामन्त बनाया ।
पुत्र
ददके पश्चात् उसका पुत्र जयभट भरूच नंदिपुर के गुर्जर सामन्त राज्यपर बैठा । परन्तु इसके राज्यकालकी किसीभी घटना का परिचय हमे नही मिलता । जयभटका उत्तराधिकारी उसका पुत्र दद द्वितीय हुआ । दद द्वितीय के खेडावाले लेखका उल्लेख हम कर चुके है। उक्त दोनों लेखोंसे प्रगट होता है कि दद द्वितीयको “ पंच महाशब्द का अधिकार प्राप्त था । और उसके राज्यके अन्तर्गत नर्मदा के दक्षिणका भूभागमी थी। क्योंकि उक्त शासन पत्र द्वारा उसने अंकुरेश्वर (अंकलेश्वर ) विषयान्तर्गत श्रीशपदक ग्राममं मृगु केछ और जम्बूसर निवासी ब्राह्मणको भूमिदान दिया था।
म
दद द्वितीय के प्रपौत्र जयभट तृतीयके सं. ४५६ वाले शासन पत्र (ई.
१३५० के. होता है कि इसने कान्यकुब्ज पति हर्षवर्धनके आक्रमणसे वल्लभि नरेशकी चौलुक्य पुलकेशी द्वितीयके इतिहास- विवेचन | हमबता चुके हैं कि
की थी।
नन्दिपुरके गुर्जर उसके सामन्त थे और नर्मदा तटपर हर्षका मार्गावरोध उन्होंने उसकी आज्ञाते किया था । अंतमें युद्धस्थलमे स्वयं उपस्थित हो हर्षको पराभूत कर पृथ्वी वल्लभ की उपाधि असते, धारण को थी ।
पर्यालोचन
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