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चौलुक्य चंद्रिका ]
दद द्वितीयके समय चीनी यात्री हुयानसांगने भृगुकच्छका अवलोकन किया था । और अपनी आंखों देखी अवस्थाका जो वर्णन किया था वह एक प्रकारसे आजभी भृगुकच्छके सम्बन्धमे लागू होता है । दद द्वितीयके उत्तराधिकारी जयभट द्वितोय का राज्यकाल पुनः घटना शून्य हुआ । तथापि दद द्वितीयके राज्यकालको दो महत्वपूर्ण घटना है। प्रथम घटना यह है कि लाट प्रदेशके नवसारीमें वातापिके चौलुक्य वंशको क शास्या स्थापित हुई और इस शाखाका संस्थापक विक्रमादित्य प्रथमका छोटाभाई धराश्रय जयसिंह था। द्वितीय घटना यह है कि उसने गुर्जर नामका परित्याग कर महाभारतीय वीर कर्ण से अपने वंशका सम्बन्ध स्थापित किया। एवं उसको वल्लभि और मालवावालोंसे संभवतः लडना पडा था । ____ जयभट द्वितोय अपने पिता दद तृतीयके पश्चान् गहीपर बैठा । यह महासमन्ताधिपति कहलाता था। इसकोभी पंच महाशब्दका अधिकार प्राप्त था। संभवतः इसने अपने ४८६ के लेखानुसार वल्लभिके मैत्रकोको पराभूत किया था। और इसके रायकालमें अरबोंने भरूचपर पाकमण कर संभवतः हस्तगत कर लूटपाट मचाया था। इसके अनन्ता वे आगे बढे, परन्तु धाराश्रय जयासिंहके पुत्र पुलकेशी द्वारा पीटकर स्वदेश को लौट गये । यह घटना सं. ४६१ की है। जयभट तृतीयके बाद इसबंशका कुछभी परिचय नहीं मिलता। संभवतः अरब युद्वमें राजवंशका नाश हो गया। लाट के चालुक्य ।
लाट प्रदेशके साथ चौलुक्योंका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दो प्रकार से सम्बन्ध पाया जाता है अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उनके केवल श्राधिपत्य और प्रत्यक्ष सम्बन्ध उनके निवास और आधिपत्य दोनों का क्षापक है। इनका अप्रत्यक्ष सम्बन्ध तीन भागोंमें बटा है । प्रथम भागमें वातापि-द्वितीय : भागमें वातापिकल्याण और तृतीय भागमें पाटणवालोंके आधिपत्य का समावेश है। वातापिवालोके सम्बन्धका प्रारम्भ चौलुक्य वंशके प्रथम भारत सम्राट और अश्वमेध कर्ता पुलकेशी प्रथमके राज्यकाल शक ४११ के लगभग और अन्त, द्वितीय भारत सम्राट पुलकेशी द्वितीयके तृतीय पुत्र विक्रमादित्य प्रथमके राज्य काल शक ५८७-८८ मे हुआ । वातापि-कल्याणवालोंके प्राधिपत्यका सूत्रपात-चौलुक्य राज्यलक्ष्मी का उद्वार कर अंकशायिनी बनानेवाले तैलप द्वितीयके राज्यकाल शक ९०० और अन्त लगभग शक १०१२ के लगभग होता है। पाटण
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