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[ प्राक्कथन
था,
वालों के संबधका सूत्रपात संभवतः शक १७७ से होता है । परन्तु इनका यह आधिपत्य क्षणिक क्योंकि गोर्गीराजने शीघ्रही इन्हें मार भगाया था । इस समय के पश्चात इन्होंने अनेकबार वसुन्धराको पददलित कर आधिपत्य स्थापित किया, परन्तु प्रत्येक बार इन्हें हटना पडा । परन्तु सिद्धराज जयसिंह के समय शक १०२० के आसपासमें लाटके उत्तराचल अर्थात् नर्मदा और मही मध्यवर्ती भूभागपर इनका स्थायी आधिपत्य हो गया था । और सिद्धराजके उ-राधिका कुमारपाल के समयतो इनका अधिकार साथी दक्षिणवर्ती भूभागपरभी था । किन्तु इनका यह आधिपत्यभी क्षणिक था । परन्तु लाटके उत्तरीय विभागपर तो पाटणवालोंका अधिकार अन्त पर्यन्त स्थायी रहा । इतनाही नहीं पाटन राज्य वंशका उत्पादन करने वाले धोलका के वघेलों के अधिकारमें भी लटका उत्तरीय प्रदेश था ।
जिस प्रकार चौलुक्योंका अप्रत्यक्ष सम्बन्ध तीन भागोमें बटा है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष संबंधी तीन भागो में बटा है। प्रथम भागमें नवसारिका - द्वितीय भागमें नंदिपुर और तृतीय भागमें बासुदेवपुरवालोंका समावेश है। नवसारिकावालोका अभ्युदय शक ५८७-८ और पतन शक ६६१ के पश्चात हुआ । नंदिपुरवालोंका अभ्युदय शक ६०० और पतन शक १०८० के लगभग हुआ। बासुदेवपुरवालोंका अभ्युदय शक १०२० के आसपास हुआ था इनम अस्तित्वज्ञापक प्रमाण शक १३१४ पर्यन्त मिलता है ।
इन्हीं तीन राजवंशो के ऐतिहासिक लेखोंका संग्रह और विवेचन प्रस्तुत ग्रंथका विषय है । यद्यपि हम यथा स्थान लेखों का विवेचन करते समय इनके इतिहासका विचार आगे चलकर करेंगे तथापि यहांपर कुछ सारांश देना असंगत न होगा। अतः निम्न भागमें यथाक्रम अति सूक्ष्म रूपमें इनके इतिहासका सारांश देनेका प्रयत्न करते हैं ।
लाट नवसारिका के चालुक्य ।
हम ऊपर बता चुके है कि इस बंशका संस्थापक वातापि प्रति चौलुक्वराज विक्रमादित्य प्रथमका छोटाभाई धराश्रय जयसिंह वर्मा था। परन्तु लाट प्रदेशमें संस्थापित वातापिकी कथित शाखा अथवा उसके संस्थापक जयसिंहका परिचय वातापिके किसी भी लेखमें नहीं मिलता है। यदि लाट प्रदेशके विभन्न स्थानोंसे जयसिंहके पुत्रों का शासन पत्र न मिले.
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