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चौलुक्य चंद्रिका] दक्षिणके प्रति दृष्टिपात किया तो तैलपने अपने सेनापति वारपको लाटका सामन्तराज बनाकर भेज दिया। जिसने मूलराजको अन्त तक लाट वसुन्धरा पर पैर नहीं रखने दिया। इतनाही नहीं, वरण वारपके सहायकोमें द्वीप नरेशका नाम पाते हैं। हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि शिल्हाराओं के अधिकारका ( उत्तर कोकण) नामांतर कापदि द्वीप है। अतः हमारी समझमें द्वीप नरेशसे शिल्हराओंका संकेत है। चौलुक्यराज तैलपदेवकी राष्ट्रकूट विजयकी तिथि ८९४ और प्रस्तुत शासनकी तिथिमें २३ वर्षका अन्तर है। पुनश्च वारपराजके लाटका सामन्त बनाये जानेकी तिथि शक ६०० और प्रस्तुत शासन पत्रकी तिथिमें १६ वर्षका अन्तर है। एवं प्रस्तुत शासन पत्र तैलपदेवकी मृत्युवाले वर्षका है। अतः हम कह सकते हैं कि संभवतः तैलपकी मृत्यु पश्चात् और सत्याश्रयके वारण (वर्तमान मैसूर) वाले चौलुक्योंके साथ उलझे होनेके कारण अपराजितने अपनी स्वतंत्रताकी घोषणा की हो। यदि हम इस संभावनाको थोड़ी देरके लिये मानभी लेवें, तोभी यह कहना पड़ेगा की अपराजितकी यह स्वतंत्रता क्षणिक थी। क्योंकि वारपकी मृत्यु शक ६२२ के आसपास हुई थी। और उक्त समय कापदि द्वीपवाले उसके सहायकोंमेंसे थे। पुनश्च हमारी इस संभावनाका समर्थन इस बातसेभी होता है कि अपराजितके वंशजोंको महामण्डलेश्वर और सामन्ताधिपतिका विरूद धारण करते पाते हैं।
अपराजितके कथित शासन पत्रसे उसके अधिकारका परिचय नहीं मिलता परन्तु कथित शासन पत्रको उसने श्रीस्थानकमें निवास करते समय शासित किया था। अतः निश्चित है कि इसके पैतृक अधिकारमें राज्य परिवर्तन होनेपरभी किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं हुआ। अपराजितके पश्चात् उसका बड़ा पुत्र वाजडदेव गद्दीपर बैठा परन्तु वह नाममात्रका राजा हुआ। बाद उसका अनुज अरीकेशरी गद्दीपर आया । अरीकेशरीका शासन पत्र थानासे प्राप्त हुआ है। उक्त शासन पत्रकी तिथि शक ९३६ है । इसके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि अरीकेशरीका विरुद "महा मण्डलेश्वर" था और वह संपूर्ण कोकणका शासक था। साथही शासन पत्र महभी प्रकट करता है कि वह १४०० ग्रामोंका स्वामी था। उसकी राजधानी पूरीमें थी। शासन पत्रके शासित करने का ज्ञापन स्थानक और हमयमन निवासिओंको किया है। अब यदि शासन पत्रके कान "अरीकेशरी संपूर्ण कोकणका शासक था" माने तो मानना पड़ेगा कि उसके अधिकारमें गोकासे लेकर वर्तमान सुरत जिलाके वलसाड और चिखली पर्यंत भूभाग था । परन्तु यह हम
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