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[प्राक्कथन कदापि नहीं मान सकते। क्योंकि दक्षिण कोंकणमें इस समय दो भिन्न भिन्न शिल्हार राज्यवंश करहाट और कोल्हापूरमें शासन करता था । यदि संपूर्ण कोकणका भाग केवल उत्तर कोकण माना जाय तो वैसी दशामें हमें कोईभी आपत्ति नहीं है। पुनश्च शासन पत्र कथित १४०० प्रामोंके शासन का कुछभी भाव हमारी समझमें नहीं आता। परन्तु देखते हैं कि अरीकेशरीके पश्चात् वाले अनेक राजाओं के लिये भी •१४०० ग्रामोंका शासक कहा गया है। अतः हम कह सकते हैं कि किसी कारणवसात यह इनका वंश गत विरुद हो गया था। अरिकेशरीको क्षितिराज, नागार्जुन और मुममुनि नामक तीन पुत्र थे । जिनमें से क्षितिराज उसका उत्तराधिकारी हुआ।
क्षितिराजका शासन पत्र थाना जिलाके भाण्डप नामक स्थान से मिला है। इसकी तिथि शक ६४८ है। इससे क्षितिराजका विरुद महासामन्त और महामण्डलेश्वर प्रगट होता है। जिस प्रकार क्षितिराजके पिता अरिकेशरीका शासनपत्र उसे १४०० ग्रामोंका स्वामी और कोकण पति कहता है उसी प्रकार इसका शासन इसको वर्णन करता है। यहां तक समता पायी जाती है कि अरिकेशरीके शासन समानही इसके शासनको हमयमन ग्राम वासिओंको संबोधन किया गया है। क्षितिराजका उत्तराधिकारी उसका छोटा भाई नागार्जुन हुआ । परन्तु यह ज्ञात नहीं कि क्षितिराजकी मृत्यु कब हुई और नागराज गद्दी पर कब बैठा । किन्तु मुममुनि का शिलालेख शक ६८२ का हमें प्राप्त है अतः हम निश्चयके साथ कह सकते हैं कि नागराजके शासनकालका समावेश ९४८ और ९८२ के मध्य है। नागराजके बाद उसका छोटा भाई मुममुनिराज हुआ । इसका एक शिला लेख कल्याणके समीप अम्भेडनाथ नामक शिव मन्दिरमें लगा है । उसके मननसे ज्ञात होता है कि उसने अपने ज्येष्ठ भ्राता क्षितिराज कृत एक राज्यभवन का जीर्णोद्धार किया था। इसके अतिरिक्त शिल्हराओंके लेखोंसे इसके सम्बन्धमें कुछ पता नहीं मिलता। हां, वातापि कल्याणके चौलुक्योंके इतिहाससे प्रकट होता है कि विक्रमादित्य छठेके सेनापतिने उसके छोटेभाई युवराज जयसिंहके लाट और दाहल विजयके समय कादि द्वीपके राजाको रणमें मारा था । और संभवतः जयसिंहने राजयवंशकी किसी अन्य व्यक्तिको अपने प्रतिनिधि रूपसे गद्दी पर बैठाया था। इस विषयका विशेष विवेचन जयसिंहके शक १००३ वाले लेखके विवेचनमें-चौलुक्य चंद्रिका लाट वासुदेवपुर खण्डमें दृष्टिगोचर होगा। इस घटनाका उल्लेख यद्यपि शिल्हाराओंके अपने लेखमें नहीं मिलता तथापि उसका संकेत
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