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[लाट वासुदेवपुर खण्ड करने का अभिप्राय शान्ति का नहीं वरण युद्धकाल का सापक है। अतः यह निश्चित है कि जयसिंह या तो उस समय किसी बुद्ध के लिए जा रहा था अपना किसी युद्ध में विजय प्राप्त कर लौट रहा था। अब विचारना है कि विवेचनीय युद्ध किस और किसके साथ युद्धका संकेत करता है। जयसिंहने स्वतंत्र रूपसे किसीके साथ युध नहीं किया था क्योंकि प्रशस्तिमे . उसके लिये “ अननसिगम " अर्थात अपने बड़े भाईका सिंह लिखा गया है। इस विरूदका भावार्थ यह है कि जयसिंह अपने बड़े भाई सोभेश्वरका सिंह अर्थात सिंह समान प्राक्रमी अद्वितीय वीर था । अतः स्पष्ट है कि जयसिंह सोमेश्वर पर आक्रमण करनेवालों का पराभव करके अथवा उसकी माझासे उसके शत्रुओंके देशको विजय कर कथित गोन्दावाडी शिवीर के बाहर निवास कर रहा था और अपनी विजय के उपलक्षमे अपने आराध्य देव भगवान शंकर के रामेश्वर नामक मन्दिरको उक्त दान दिया था।
शक EEE में सोमेश्वर के राज्यरोहन पश्चात चौलुक्य राज्यका अपहरण करने के विचारसे बीर चोल ने आक्रमण किया था और उसे सोमेश्वर विक्रम और जयसिह के सामने लेनेके देने पडे थे। उक्त युध्ध वर्तमान प्रशस्तिकी तिथि से लगभग दो वर्ष पूर्व हुआ था। अतः उस विजय के उपलक्षमें यह दान नही हो सकता। अब विचारना है कि इस प्रशस्तिमे सांकेतिक कौनसा युग्ध है।
___ कांचीपति वीर राजेन्द्र चोल के राज वर्ष सातवें के सदर्न इन्डीया इस्लीशन जिस्व ३ पृष्ठ २६३ में प्रकाशित-लेखसे प्रकट होता है कि उसके और सोमेश्वर भुवनमल्ल के बीच एक युध्ध हुआ था । उक्त लेखसे यह भी प्रकट होता है कि कथित युग्धमें सोमेश्वर का मसला भाई विक्रम राजेन्द्र चोलसे मिल गया था और सोमेश्वरको हारना पड़ा था। एवं राजेन्द्र चोलने सोमेश्वर से कन्नड और रट्टवाडी प्रदेश छीन लिया था तथा रट्टवाडी विक्रमको उसके देशद्रोहके पुरस्कारमें दिया था। अब यदि हम इस युध्धको प्रस्तुत प्रशस्तिमें सांकेतिक युग्ध मान लेवें तो वैसी दशा में दो विपत्तियां विकराल रूप धारण कर सामने आती हैं। प्रथम विपत्ति यह है कि वीर राजेन्द्र चोल के कथित लेखमें शक आदि संवत का उल्लेख नहीं है और दुसरी विपत्ति यह है कि विक्रमादेव चरित्र के कर्ता बिल्हण के अनुसार विक्रम सोमेश्वर का साथ छोड़कर कल्याण से माते समय जयसिंहको अपने साथ लेता आया था।
प्रथम विपत्ति के संबंध में यह कह सकते है कि वीर राजेन्द्र चौल का राज्यारोहन अन्यान्य ऐतिहासिक लेखों के आधार पर शक ६८६ का प्रारंभ माना जाता है। अतः उसका सात वां राज्य वर्षे शक ६६३ का प्रारंभ अर्थात कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा हुआ । अतः उसके सातवें वर्ष वाला युध्ध शक १६३ के कार्तिक मासके वाद होना चाहिए । संभव है कि कथित युग्ध कार्तिक और फालगुण के मध्य किसी समयमें हुआ हो। हम उक्त गुग्धको ही प्रस्तुत प्रशस्ति सांकेतिक युग्ध मानते है।
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