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प्राक्कथन ]
खोलनेवाली तथा गायकवाड़ आदिकी पराधीनताकी सूचिका थी । कथित सन्धिके अनुसार जब गायकवाड़ और रुचके मायके मध्य विग्रह उपस्थित हुआ तो अंग्रेजोंने आक्रमण कर भरुच - छीन गायकवाड़को दे दिया।
उधर पूनामें भी गृह कलहने प्रवेश किया। नारायणराव मारा गया। माधवराव पेशवा के रघुनाथरावने अपने दत्तक पुत्र अमृतरावको पुरंदरेके साथ सतारा पेशवा पद प्राप्त करनेके लिए भेजा। परंतु विक्रम १८६० में मृत पेशवा नारायणरावके नवजात पुत्रको; सखाराम बापू और नानाराव फडनवीसके प्रतिनिधित्व करने पर, राजारामने पेशवा पद प्रदान किया और उसका अभिभावक माधवराव नीलकंठ पुरंदरेको बनाया ।
गोविंदराव, नारायणराव पेशवाकी मृत्यु पश्चात जब पूनाके राजनैतिक दृष्टिकोणमें अन्तर पड़ा तो पुन: अपने उत्तराधिकारका प्रश्न उपस्थित किया । परंतु फतेहसिंह पेशवाकी अधीनता स्वीकार करने के साथ बाकी पड़ा हुआ चौथ आदि देकर अपनी राज्यलिप्साको संतुष्ट करनेमें समर्थ रहा। परन्तु कुछ दिनोंके बाद फतेहसिंहने ब्रिटिश वणिक संघके साथ दूसरी संधि की। इस सन्धिका उद्देश ब्राह्मण सत्ताका नाश करना था। इसके उपलक्षमें ब्रिटिश after संघ ने गायकवाड़को स्वतंत्र नरेश स्वीकार किया । " ब्रिटिश वणिक संघ " ने फतेसिंहको उस प्रकार स्वतंत्र अधिपति स्वीकार किया उसका कारण पेशवा के साथ वाला विग्रह था । कथित पेशवा ब्रिटिश विग्रह लगभग चार वर्ष चला १८६३ में एक प्रकार से स्थगित हुआ था। इसी विग्रहका फल था कि वणिक संघने फतेसिंहको स्वतंत्र अधिपति स्वीकार किया। क्योंकि वैसा करनेमें उनको अपना लाभ था । परन्तु दो वर्ष पश्चात १८३८० में जब ब्रिटिश वणिक संघकी सफलताका सूर्योदय हो रहा था तो पूर्व कथित संधिक शर्त बदल कर गवरनर जनरलने मुम्बईके गवरनरके मार्फत फतेहसिंहके पास भेजा। इसकी शर्ते उसके स्वार्थ प्रतिकूल थीं। और वह पूर्व वत पेशवाका माण्डलिक बना दिया गया । यदि कुछ उसे लाभ हुआ तो वह इतनाही था कि उसकी बाकी कर नहीं देना पड़ा। और पेशवाकी सत्ता गुजरातमें ज्यों की त्यों बनी रही ।
इस घटना सात वर्ष बाद विक्रम १८४५ में फतेहसिंहराव मरा और पेशवाने: भोसको साना अभिभावक स्वीकार किया। परन्तु माधवराव सिन्धिया जो इस
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