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[ चौलुक्य चंद्रिका
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शाहुकी मृत्यु विक्रम १८०५ में हुई और राजाराम गद्दी पर बैठा। उसके गद्दीपर बैठतेही बालाजीने सतार के स्थानमें पूनाको राज्यधानी बनाया और अपने मनके मुताबिक मरहठा राज्यका प्रबन्ध करने लगा । राजाराम पूर्ण रूपेण अयोग्य निकला । वह बालाजीके हाथका कठ पुतला बन गया । परन्तु उसकी दादी ताराबाईसे यह बरदास्त न हुआ । उसने एक दिवस राजारामको राज्य कारभारमें प्रवृत्त हो ब्राह्मणों के हाथमें मरहठा राज्यलक्ष्मीको जानेसे बचाने के लिये आदेश किया । परन्तु उसका आदेश निष्फल हुआ । अतः उसने विक्रम १८०७ में दामाजी गायकवाड़ को गुजरातसे शीघ्रही आकर ब्राह्मणों के ग्रास से मरहठा राज्य लक्ष्मीको बचाने के लिये मह किया । दामाजी बालाजीसे प्रश्रमसेही असंतुष्ट था क्योंकि इस घटना के कुछ महीना पूर्व बालाजीने गुजरातकी आयका आधा भाग मांगा था। इस हेतु वह गुजरात से सतारा के लिये चल पड़ा। उधर जब ताराबाईको दामाजी के आनेका संवाद मिला तो उसने राजारामको कैद कर बालाजीके अनुयाइयोंको खूबही ठोका पीटा। वे सतारा छोड़कर भाग खड़े हुए। दामाजी ताराबाईकी सेवामें उपस्थित हुआ । अनन्तर सतारा में भावी युद्धकी आशंका से अस्त्र शस्त्र और अन्नादि संग्रह किया गया। इस घटनाका संवाद पा बालाजी घटनास्थल पर उपस्थित हुआ और विश्वासघातसे दामाजी और उसके परिवार तथा दभाड़े परिवारको बन्दी बनाया । अनन्तर उसने ताराबाईसे आत्मसमर्पण करनेको कहा परन्तु उसने इन्कार किया । इसपर बालाजीने उससे लड़न युक्तिसंगत न मान पूना चला गया । अन्तमें जानोजी भोंसलेकी मध्यस्थता से ताराबाई और बालाजीके मध्य शान्ति स्थापित हुई । और ताराबाई सतारा से पूना आई । राजाराम बन्दी रखा गया । दामाजी गायकवाड़को ( दभाड़े के कर्ज रूप ) १५००००० देनेके साथही दभाड़ेके इलाके से ५०००००) प्रतिवर्ष देना स्वीकार करना पड़ा । एवं स्वभुजबल से अर्जित गुजरात प्रान्तकी आधी श्राय, चौथ और सरदेशमुखीका खर्च देनेके बाद, देना स्वीकार करना पड़ा । कथित
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के लिये मुल्क बाटा गया। बाँसदा राज्यसे गिरों लिए हुए विसुनपुर परगनाको दामाजी ने अपने हिस्से में रखा और उसकी चौथ ३०००) वार्षिक देना स्वीकार किया। इस प्रकार दामाजी अपनी स्वतंत्रता खरीद कर गुजरात लौटने लगा तो बालाजीने उसके साथ रघुनाथरावको लगा दिया। कि वह साथ रह कर दामाजीसे कथित सन्धिके नियमोंका पालन करावे । गुजरात लौटते समय दामाजी और रघुनाथरावने खूबही लूटपाट मचाया। गुजरात के विभाजित अंशको स्वाधीन करनेके पश्चात् भी दामाजी और रघुनाथरावने लूटपाटका बाजार गरम रखा। यहां तक कि वे अहमदाबाद पहुंच
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