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चौलुक्य चंद्रिका ],
वंशावली पर दृष्टिपात करने से प्रकट होता है कि शक,६४२ और ६७२ वाले पूर्व उधृत वंशावली के नामों से इसके नामों में कुछ अन्तर. पडता है। क्यों कि पूर्व वाले दो लेखों में लाट प्रदेश प्राप्त करनेवाले का नाम वारपराज और इसमें वारपदेव है । इसी प्रकार उनमें तीसरा नाम कीर्तिराज और पांचवा नाम त्रिलोचनापाल है। परन्तु इसमे कीर्तिचंद्र और त्रिभुनपाल है। इस अन्तर के संबंधमें हमारा निवेदन है कि जिस प्रकार पाटन के चौलुक्य ऐतिहासिकोंने लाटके वारपका नामोल्लेख द्वारप नमासे-वारप शब्दको संस्कृतका आवर्ण देकर-किया है उसी प्रकार प्रस्तुत शासनमें वारपको वारपदेव बताया गया है। एवं कीर्तिराज और कीर्तिचंद्र तथा त्रिलोचनपाल और त्रिभुवनपाल के संबंधमें हमारा निवेदन है कि इनका अन्तरमी नामान्तर जन्य है।
नन्दिपुर के चौलुक्यों के पूर्व उधृत दोनो लेखोंमें वारपराजके संबंध वुछभी स्पष्ट रुपसे नहीं लिखा गया है। परन्तु पाटणके इतिहाससे हमें ज्ञात है कि वारपका परिचयू लाइ देशके सेनापति नामसे: दिया गया. है। किन्तु प्रस्तुत शासन पत्र के, ".श्रीमन्निम्वार्क कुल कमल दिवाकर देव सेनानी समतोपलब्ध अनीपति श्री वारपदेव." वाक्य में वारपको केवल सेनापति कहा गया है। इससे प्रकट होता हैं कि, प्रस्तुत शासन पत्र, के लेखकने निर्भय होकर ऐतिहासिक सत्यको प्रकट किया है.। इतनाही: नही आगे चल कर, वारप के पुत्र गोगिराजका वणन करते समय, लिखता है. “ सारस्वतीय पाटन महोदधि मन्थन मन्दर मेरु कर कृपाण बलाप्त वसुधाधिपत्यम्" कि वारप देवके पुत्र गोर्गिराजने सारस्वतीय पाटन रुप महोदधिको मन्थन करनेवाला मन्दराचल पर्वत था. जिसने अपनी तलवारके, बलसे बसुधाधिपत्य पदको प्राप्त किया था । हमारे पाठकोको ज्ञात है कि चौलुक्य चन्द्रिका पाटण खण्डमें उधृत मूलराजके लेखमे, उसके राजका नामोल्लेख सारस्वत मण्डलके लामसे किया गया है। अतः इस लेखमें सारस्वतीस पदसे पाटणका ग्राहण है। अतः हम कह सकते हैं. किं त्रिलोचनपालके लेखमें.. वारपकी मृत्यु पश्चात गोगिराजका दानवोसे लाटदेशके उद्धारका उल्लेख करते समय कथित दानवोका नामोल्लेख नहीं किया गया है। जो शासन पत्र को त्रुठी पूर्ण तथा संदिग्ध बनाता है परन्तु उसकी पूर्ति प्रस्तुत शासन पत्र करता है।
इतना होते हुए भी प्रस्तुत शासन पत्र में कीतिराजके संबंध में कुछ भी नही लिखा गया है। परन्तु अन्यान्य ऐतिहासिक सुत्रसे हमें ज्ञात है कि उसकोमी संभवतः अपने दादाके समान पाटणके दुर्लभराजके हाथसे प्राण गवाना पडा था। पुनश्च कीर्तिराजके उत्तराधिकारीका नाम मात्र परिचय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लिया गया है तथापि प्रस्तुत शासन पत्रके वाक्य शुक्लतीर्थे स्वपितामहेन संस्थापित सत्रे" में उसकी कीर्तिको स्वीकार किया गया है।
अनन्तर शासन पत्र त्रिलोचनपाल के पुत्र और शासन कर्ताका वर्णन निम्न वाक्य "कर्ण कुमुदाड़कुर, तुषारोऽपि चौलुक्याब्धि विवर्धनेन्दु” में करता है और बताता है
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