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चौलुक्य चंद्रिका]
१४ विक्रम कोकण के सामन्त जयकेशी को मिला और वीर राजेन्द्र चोड से मैत्री तथा संबंध स्थापित कर चुप नहीं रहा। वरण उसने सेउन देशके यादव बंशी राजा से भी मैत्री स्थापित कर के सोमेश्वर को गद्दी से उतराने में उससे सहाय प्राप्त किया। इस मैत्री का उल्लेख हेमाद्री पण्डित ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ चतुर्बग चिंतामणि के ब्रत खण्ड में लगी हुई राज प्रशस्ति में किया है।
समुद्धृतो येन महाभुजेन दिशां विमादी परमर्दि देव ।
संस्थापि चौलुक्य कुल प्रदीपः कल्याणराज्येपि स एव येन
जिसका भाव यह है कि सेउन देश के राजा ने अपने बाहुबलसे चौलुक्य कुल प्रदीप परमर्दि देव अर्थात विक्रमादित्यको शत्रुरूपी समुद्रसे बचाकर कल्याणके राज्य सिंहसन पर बैठाया था
इससे स्पष्ट है कि विक्रमादित्य क्रमशः मैत्री आदि द्वारा अपना बल बढ़ा रहा था। और सोमेश्वर के सामन्तो को अपना मित्र बनाता था एवं वह उसके शत्रुओं सेभी मैत्री स्थापित कर रहा था। परन्तु उसके मार्ग में जयसिंह, जो सोमेश्वर का परम भक्त एवं अद्वितीय वीर था दुर्गम तथा अल्लंध्य हिमालयवत् बाधा स्वरुप खड़ा हो रहा था। अतः विक्रमने किसी प्रकार जयसिंह रुपी बाधाको सोमेश्वर से लडने के पूर्व हटाना उचित माना । जयसिंह को हटाने का केवल दोही मार्ग युद्ध या मैत्री था। युध्धमें जयसिंहको पराभूत करना सहज नही वरण टेढ़ी खीर थी । इस लिये विक्रमने उससे नचलकर द्वितीय मार्गका अवलंबन किया क्योंकि जयसिंह से लड़ने जाते समय उसे सोमेश्वर और जयसिंह के समिलित सैनका सामना करना पडता । जिसमे पराजय अथवा शक्ति के हरास का भय था। इन्हीं सब बातोको लक्षकर विक्रमने बल के स्थान में कौशल से काम लेना उत्तम माना और अपने कपट रूप महा शस्त्रको काम में लाया। यह मानी हुई बात है कि साधारण अर्थ लोभ भी मनुष्यके मनको चलायमान करने में समर्थ होता है। फिर राज्य लोभकी क्या बात है। राज्य लोभ में पडकर पिता पुत्रभी एक दुसरे का घातक देखने में आये हैं । और बन्धु विरोध तो साधारणसी बात है। इस हेतु विक्रम ने जयसिंह पर चौलुक्य साम्राज्य के भावी साम्राट पद रूप अमोघ अस्त्रका प्रयोग किया । अपने बाद चौलुक्य साम्राज्यका जयसिंह को उत्तराधिकारी स्वीकार कर उसे अपना साथी बनाया।
हमारी इस धारणा का समर्थन प्रस्तुत प्रशस्ति के वाक्य युवराज राजा महाराधिराजा परमेश्वर से होता है । युवराज का अर्थ वर्तमान राजा का उत्तराधिकारी है। यदि जयसिंहका विक्रम के बाद चौलुक्य सिंहासनको सुशोभित करना निश्चित न हुआ होता तो वह कदापि अपने लिये युवराज पद का प्रयोग न करता और न विक्रम ही उसे युवराज पद को धारण करने देता। अतः निश्चित है कि विक्रम ने जयसिंहको भावी राज्य पदका लोभ दिखा अपना साथी बनाया था।
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