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चौलुक्य चंद्रिका ] है, और साथही लाट विजय के पश्चात् गुजरातपर आक्रमणका वर्णन दृष्टिगोचर होता है तो वैसी दशामें लाट नामसे अवश्य किसी अन्य वंशका संत किया गया है। हमारी इस धारणावा समर्थन इससेभी होता है कि इस घटना लगभग ५० वर्ष पश्चात् यादवराज महादेवके समयमेंभी कोकण लाट और गुजरातका भिन्न भिन्न राज्यवंशोंके नामसे उल्लेख किया गया है । अतः अब विचारना है कि लाट नामसे सि वंशका संकेत है।
हमारे पाठकोंको ज्ञात है कि उत्तर कोकण और दक्षिण लाट मध्य वातापि कल्याणके चौलुक्य राज्यवंशोद्भव वनवासी युवराज वीरनोलम्ब पल्लव परमनादि जयसिंहके पुत्र विजयसिंहने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया था। जिसकी प्रथम राजधानी मंगलपुरी दूसरी वासन्तपुर और तीसरी बासुदेवपुरमें थी। उसके तथा उसके वंशजोंके अधिकारमें लाटका दक्षिणांश एवं तापी और गोदावरीके मध्यवर्ती भूभागका होना निभ्रांत रूपेण पाया जाता है। अतः हम निश्चयके साथ कह सकते हैं कि कथित विवरणमें लाट नामसे विजयसिंहके वंशजोंका संकेत किया गया है। पुनश्च हमें यह भी निश्चित रूपसे ज्ञात है कि विजयसिंहके वंशजोंको पाटनवालों ने पराभूत कर स्वाधीन किया था । परन्तु वीरसिंह नामक राजाने पाटनवालोंसे अपनी साज्य लक्ष्मीका उद्धार कर अपनी स्वाधीनता की पुनः घोषणाकी थी। वीरसिंह । कथित स्वतंत्रता की तिथि प्रस्तुत युद्धके आसपासमें है। सम्भव है कि उसकी यह स्वतंत्रता सिंघनकी कृपाका फल हो अथवा सिंघन और पाटनवालोंके युद्ध पश्चात् इनकी अशक्तताका उपयुक्त लाभ उठा वह स्वतंत्र बन गया हो।
सिंघनके बाद उसका पुत्र जयतुंग द्वितीय गद्दी पर बैठा । उसके बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र कृष्ण गद्दी पर आया। कृष्णका उत्तराधिकारी उसका छोटाभाई महादेव हुआ। महादेवने शिल्हार वंशका उत्पाटन कर उत्तर कोकणको अपने राज्यमें मिला लिया । महादेवके राज्यकालमें ही दिल्ली सुलतान जलालुद्दीन खिलजीके भतीजोंने देवगिरी पर आक्रमण कर बहुतसा धन रत्न प्राप्त किया था । महादेवका उत्तराधिकारी रामचन्द्र हुआ । रामचन्द्र दिल्लीके गृह कलहसे लाभ उठा स्वतंत्र बन बैठा परन्तु अलाउद्दीनके सेनापति मालिक काफूरने रामचन्द्रका मद चूर्ण किया । रामचन्द्रका उत्तराधिकारी शंकर हुआ । शंकर के समय देवगिरीके यादव वंशका सदाके लिये संसारसे अस्तित्व उठ गया।
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