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[ लाट नव सारिका खण्ड
ऐसी दशा में हम कह सकते हैं कि कवि ने अपने स्वामी के प्रति पूर्ण रूपेण चाटुकता धर्मका पालन किया हैं । हमारे पाठक जानते है कवि बड़ेही निरंकुश और कल्पना साम्राट होते हैं । वे तिल का ताड़ और ताड़ का तिल अनायासही बना सकते हैं। यहां भी कविने शिलादित्य को अपनी निरंकुश कल्पना द्वारा महत्व के शिखर पर चढ़ा दिया है । परन्तु वह वास्तव में इस महत्त्वका अधिकारी नहीं था ।
हमारी समझ में शासन पत्र के वाह्य विषयों का सांगोपांग विवेचन हो चुका । अत एव हम इसके अन्तर विवेचन में प्रवृत्त होते हैं । शासन पत्र से प्रगट होता है कि शासन पत्र लिखे जाने के समय शिलादित्य का निवास नवसारी में था । इसका वर्णन शासन पत्र के वाक्य "( नव सारिका मधि वसतः ” में किया गया है । अब विचार उत्पन्न होता है कि क्या इस वंशकी राज्यधानी नवसारी में थी । नवसारी के पास जयसिंह ने अपने नाम से धराश्रय नगरी नामक नगर बसाया था । उक्त नगर संप्रति धराम्री नामसे अभिहित होता है । और नवसारी से लगभग दो मील की दूरी पर है । धराम्री के ध्वंशावशेष से आज भी उसके पुरातन गौरव के द्योतन करने वाले अनेक अवशेष पाये जाते हैं । अतः संभावना होती है कि जयसिंह का निवास और उसकी राज्यधानी धराग्री में हो । परन्तु स्पष्ट प्रमाण के अभाव में हम निश्चय के साथ कुछभी नहीं कह सकते । पुनश्च उसके विरुद्ध शासन पत्र में शिलादित्यका निवास नवसारी में होना स्पष्ट रूपसे लिखा गया है। एवं नवसारी की प्राचीनता और राजनगर होनेका प्रमाण नवसारीकी भूमि में जहां भी खोदें प्राप्त होता है । एवं प्रस्तुत शासन पत्र भी नवसारी के खंडहरों में से मिला था । अतः नवसारी को ही चौलुक्य वंशकी राज्यधानी मानने में हमें कुछ भी आपत्ति नहीं ।
शासन पत्र कथित दान के प्रतिग्रहीता कश्यप गोत्री भागिक्कस्वामी अध्वर्युब्रह्मचारी । प्रतिग्रहीताकी वंशावली शासन पत्र में निम्न प्रकार से दी गई है ।
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