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[ लाट नन्दिपुर
मन भरे विरुदों का अपने नाम के साथ लगाना और स्वातंत्र्य प्रदर्शक उपाधिका यदा कदा धारण करना देख उनकाही कल्याण के चौलुक्य वंश के गृह कलह से लाभ उठाने में प्रवृत होना अधिकतर संभव है। यदि जयसिंह ने लाट और दाहल वालों के समान उत्तर कोकण के शिल्हराओंको मी कुछ शिक्षा दी हो तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं। यदि ऐसी बात हो तो विचारना होगा कि उत्तर कोकण का शिल्हरा राजा कौन हो सकता है।
उत्तर कोकरण अर्थात स्थानक के शिल्हरोकी वंशावली पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि मुममुनिका राज्यकाल शक ९६२ से १००२ पर्यन्त है । मुममुनिके उत्तराधिकारी का राज्य शक १००२-१००३ से प्रारंभ होता है । मुममुनिका उत्तराधिकारी अनन्तदेव है। अतः प्रस्तुत प्रशस्ति कथित युद्धकी समकालीनता मुममुनी और अनन्तदेव के साथ निर्भ्रान्तरुपेण ठहरती है। इनमें से एक के राज्य के अन्त और दूसरे के प्रारंभ काल में हीं जयसिंह ने लाट और दाहल विजय किया था । अतः हम कह सकते हैं कि इनमें से किसी एक को जयसिंहके प्रचण्ड शौर्यका परिचय मिला होगा
अब यहि हम इन दोनों के राज्यकालीन उत्तर कोकण के शिल्हरा राजवंशकी अवस्थ का कुछ परिचय पा जाय और उसमें कुछ अवकास हमारे अनुमानको स्थान पाने का मिले तो हम निश्चित सिद्धान्त पर पहुच सकते हैं। मुममुनि के अन्त और अनन्तदेव के राज्यरोहण का हमें कुडमी स्पष्ट परिचय नही मिलता। परन्तु १००३ के लेखसे उसका उत्तर कोकरणकी गद्दी पर उपस्थित होना पाया जाता है । पुनश्च अनन्तदेव के अपने शक १०१६ लेख से प्रकट होता है कि उसके हाथ से राज्य सत्ता छीन गई थी और उसके किसी संबंधी के हाथमे चली गई थी। जिसका उद्धार उसने उक्त शक १०१६ के लगभग किया था। इसके अतिरिक्त विक्रमादित्य के जामात्र जयकेशि के लेखों से प्रकट होता है कि उसने युद्ध में कोकरण पति कापर्दि द्वीपनाथ को मार गोप पटन तथा उसके चतुर्दिकवर्ति भूभाग जो कोकण नवशत के नाम से विख्यात था, मिला लिया था ।
अब यदि जयकेशि के इस विजयको और नवशत कोकणको अधिकृत करनेकी घटनाको जयसिंह बिजय के साथ मान लेवें तो मानना पडेगा कि उक्त विजय यात्रा में जयकेशि जयसिंह के साथ था । परन्तु इस प्रकार मानने में दो बाधाए सामने आती हैं। प्रथम बाधा यह है कि विक्रमादित्य के कल्याण राज प्राप्त करने के पूर्व हीं जयकेशि के अधिकार में गोप पटन था । और उस समय जयकेशि सोमेश्वर का परं स्नेहास्पद सामन्त था । जयसिंह और विक्रमका उस समय मेल नहीं था । पुनश्च १००० वाली प्रशस्ति में जयसिंह के दाहल लाट और कोकणपतिको भय मीत करनेका उल्लेख नहीं है। अतः जयसिंह के आक्रमण समय मुममुनि नहीं वरण अनन्तदेव था । जिसे राज्य च्युत कर जयसिंहने उसके किसी संबंधीको संभवतः स्थानक के शिल्हरा राज्य सिंहासन पर अपनी आधीनता स्वीकार करा बैठाया हो। जिसका समर्थन अनन्तदेवके उक्त शक १०१६ वाली प्रशस्ति से होता है। संभवतः अनन्तदेवको स्थानक का राज्यसिंहासन अपने
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