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चौलुक्य चंद्रिका ]
१२० अवश्य प्रकट होता कि विक्रमादित्यके करहाट पति शिल्हार राजाकी कन्या चंद्रलेखाके साथ विवाहके बहुत दिनों पश्चात उक्त युद्ध हुआ था। पुनश्च हमे ज्ञात है कि शक १००३ - ४ में विक्रम और जयसिंहके मध्य सौहार्य था । अतः १००३ - ४ शके पश्चात कुछ वर्ष बाद युद्ध यह हुआ होगा।
और वहभी शक १०१३ - १४ के पूर्वही हुआ होगा क्योंकि प्रस्तुत प्रशस्ति से उक्त युद्ध का इस समयसे पूर्व होना स्पष्ट रुपेण पाया जाता है।
वनवासी के इतिहासके पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि शक १०१० में वनवासी प्रदेश पर कदम्ब बंशी महा सामन्त शान्तिवर्मा विक्रमादित्य के माण्डलिक रुपमें शासन करता था। शक १००३ - ४ और १००१ के मध्यकालीन समयसे वनवासी पर इसका अधिकार था। इसका कुछ भी परिचय नहीं मिलता। अब यदि हम विल्हणके कथनकि विक्रम करहाट पतिकी कन्या से विवाह करने बाद बहुत दिनों सुखमें लिप्त था । अनन्तर जयसिंह के विप्लवका संवाद उसे मिला और दोनों भाईओंमें युद्ध हुआ प्रभृतिमें से उसके विवाहकी तिथि का नाम भी नहीं मिलता है । अतः हमे यहा परभी अनुमान और अप्रत्यक्ष प्रमाण से काम लेना पडेगा।
करहाटके शिल्हरा वंशके इतिहास पर्यालोचनसे प्रकट होता है कि भारसिंह नामक राजाको गुलवालादि पांच पुत्र और चन्दला नामक कन्या थी। उक्त भारसिंहका राज्यारोहण शक ९८० में हुआ था । और उसने २७ वर्ष राज कर शक १००७ में इह लीला समाप्त किया था । भारसिंहकी उक्त चंदला नामक कन्याका विवाह कल्याणके चौलुक्य प्रेमार्डिसे होनेका परिचय मिलता है । हमारी समझमें भारसिंहकी चन्दला देवी ही विल्हणकी चंद्रलेखा है। क्योंकि चंदला नाम लौकिक और चंद्रलेखा संस्कृत है। हमारी धारणाका कारण यह है कि उक्त चंदला का विवाह कल्याणके चौलुक्य मार्डि अर्थात विक्रमादियके साथ हुआ था। हमारे पाठकोंको भलि भांति ज्ञात है कि विकमादित्यके विविध विरुदोंमेंसे प्रेमार्डि एक है। चदलाको चंद्रलेखा भाननेमें कणिका माअभी संदेहका अवकाश नहीं है।
अब केवल मात्र विचारना यह है कि चन्द्रकला विवाह भारसिंहने विक्रमादित्यके साथ कब किया था। विल्हणके कथनसे पाया जाता है कि उसका विवाह करहाट पतिकी कन्याके साथ तब हुआ जब वह पूर्ण रुपेण वातापि कल्याणके चौलुक्य सिंहासन पर अधिष्ठित हो चुका था। एवं विक्रमके चन्दलाके साथ विवाहके बहुत दिनों पश्चात उसका विरोध जयसिंह के साथ हुआ। अतः हम सकते हैं कि विक्रमका विवाह चन्दलके साथ शक १००३ - ४ के पश्चात भारसिंहके अन्तिम समय लगभग शक १००७ के पूर्व हुआ था और उसके दो तीन वर्ष पश्चात अर्थात १००८ - 8 में किसी समय विक्रम और जयसिंहकी विरोध का सूत्रपात हुआ। हमारी इस धारणाका प्रवल कारण यह है कि जयसिंहके हाथसे बनवासी आदि प्रदेश निश्चित रुपसे शक १०१० में निकल गया था।
विक्रम और जयसिंहके युद्धका समय अवान्तर प्रमाण तथा आनुमानिक रित्या प्राप्त करने पश्चात इन दोनों के विग्रह का कारण का विचारना पडेगा। जयसिंह और विक्रमके अधिकृत प्रदेशों
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