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पौलुक्य चंद्रिका ] प्रयोग कविकी भावुकता मात्र है। परन्तु हमारी समझमें वह भावुकता नहीं वरण यथार्थ है, क्योंकि मानव स्वभाव जो बाल्यकाल में पडजाता है वह मरते दम तक नहीं छूटता चाहे वह असत्य भाषण आदि कुछभी क्यों न हो, मानव जीवनमें किसी प्रकार के वचनका पूरा करना महत्वका प्रदर्शक है जो मनुष्य अपने वाक्य का धनी होता है उसमें किसी प्रकार के दुर्गुणका समावेश नहीं होता।
हमारी इस धारणाका देदीप्यमान उज्वल प्रमाण जयसिंह के पूर्ण यौवनकालीन शक ६६६ के चितलदूर्ग जिला के हुलगुण्डी ग्राम वाली प्रशस्ति में पाया जाता है। उधृत प्रशस्ति कथित जयसिंह के गुणोंका आस्वादन हमारे पाठकों को विवेचन में अवश्य मिलेगा, इस हेतु यहां पर हम उसका उल्लेख नहीं करते हैं।
प्रस्तुत प्रशस्ति के विवेचन को समाप्त करनेके पूर्व हम इसकी तिथि सम्बन्धमें कुछ विचार प्रकट करते हैं । इसकी तिथि जय संवत्सर शक ६८६ है । परन्तु संवत्सर केसाठ नाम बाले चक्र पर दृष्टिपात करनेसे प्रकट होता है कि शक ६८६ में जय नहीं वरण क्रोध संवत्सर था एवं शक ६८६ से ठीक दश वर्ष पूर्व शक ६७६ में जय संवत्सर था। ऐसी दशामें हम कह सकते हैं कि शक ६७६ के स्थान में भूल से ६८६ उत्कीर्ण हो गया है । हमारी इस धारणा के प्रतिकुल कहा जा सकता है कि वर्ष लिखने में भूल नहीं वरण संवत्सर के नाम में भूल हुई है । विनम्र समाधान यह है कि प्रस्तुत प्रशस्तिके संवत्सरका निश्चय करने के लिये हमारे पास दो साधन हैं। प्रथम साधन तो यह है कि पूर्व भावी किसी भी विक्रम अथवा शक संबतों के संवत्सरों का यथार्थ नाम जानने की प्रक्रिया जो हमारे ज्योतिषशास्त्रके प्राचार्योंने निर्धारित किये हैं और दूसरा साधन यह है कि प्रस्तुत प्रशस्ति के पूर्वभावी निर्धान्त संवत्सर वाले लेखों और प्रशस्तियों के समय से संवत्सरोंके चक्रकी परिगणनाकी जाय । .
प्रथम साधन के संबंध में हमारा इतनाही कहना है कि उक्त गणना के अनुसार शक ६८६ में नही वरण शक ९७६ में जय संवत्सर पड़ता है । अब रहा द्वितीय साधन उसके संबंधमें मी हमारा निवेदन है कि इसके अनुसार मी जय संवत्सर शक १८६ में नही वरण ६७६ में पडता है हमारे पाठकों को ज्ञात है कि जयसिंह के पिता और पितामह प्रभृतिके अनेक लेख हम चौलुक्य चंद्रिका के वातापि खडमें पूर्व उधृत कर चुके हैं एवं जयसिंहका पाराकिरीवाला लेख पूर्व उद्धृत किया है उक्त अराकिरीवाले लेखका संवतसर्वजीत है एवं चौलुक्य राज्य उद्धारक तैलपदेव द्वितीय के निगुण्ख्वाले लेखका संवत्सर चित्रभानु और शक वर्ष १०४ है । इस लेखकी तिथि और संवत निप्रान्त है । अतः हम अपने दूसरे साधनका आधार स्तंभ उसीको बताते हैं।
- इमें यह ज्ञात हो गया कि शक १०४ चित्रभानु संवत्सर था, अतः संवत्सर चक्र पर दृष्टि पात कर ज्ञात करना होगा कि चित्रभानु संवत्सर ब्रह्मा, विष्णु, और रुद्र की वीसीओं में से किस पीसी में है और इसकी संख्या क्या है। चित्रमानु संवत्सर ब्रह्मा की वीसी में है और इसकी संख्या १६है। एवं वीसियोंकी सम्मिलिति संख्या बाले चक्रमें भी इसकी संख्या १६ पड़ती है।
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