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[ चौलुक्य चंद्रिका राजपूताना, गुजरात और काठियावाड़ में अपना आधिपत्य स्थापित कर लियाथा परन्तु मरहठा साम्राज्यका दीप टिम टिमाता था। संभव था कि उसे पुनः शक्ति संत्र्य रूप तेल मिल जाय और वह पूर्ण शक्ति रूप ज्योति प्राप्त कर सके। यह आशंका होलकरके तरफसे थी। क्योंकि उसकी शक्ति अक्षुण्ण बनी थी । एवं वह कथित सिंधिया, .भोसले
और वएिक संघके युद्ध सयय चुप चाप बैठा था। यदि उसने अपने भाइयोंका साथ दिया होता तो कदाचित इस युध्दके परिणामका इतिहास भिन्न प्रकारसे लिखा गया होता। परन्तु खेदकी बात है कि उनका साथ देनेको कौन बतावे जब संघ सेना एक आध स्थानों पर विजयी हुई तो उसने संघके सेनापतिके पास सम्वाद भेजा कि वह सिंधियाके प्रतिकूल संघकी सहायता करेंगे यदि संघ उसे कुछ भूभाग देनेका वचन देवे। बलिहारी है स्वार्थान्धातकी ! परन्तु संघको उसकी सहायताकी आवश्यकता न थी। अत: उसने उसकी उपेक्षा की। अनन्तर जसवंतरावने राजपूतानाके राजाओंको-जो संघके आधीन हो चुके ये-सताने लगा। अन्तमें सन १८०४ में संघके साथ जसवंतका विग्रह प्रारंभ हुआ । प्रथम जसवंत विजयी हुआ। कर्नल सासूनको युद्ध क्षेत्रमें अपना सारा सामान छोड़ भागना पड़ा । जसवंतराव दिल्ही तक मारता कूटता चला गया परन्तु अन्तमें उसे हारना पड़ा। उसके परं मित्र भरतपुर वालोंको अंग्रेजोंने हराया। उसने अंग्रेजोंकी आधीनता स्वीकार कर ली । जसवंतकी कमर टूट गई । अन्तमें उसने अंग्रेजोंके हाथ आत्म समर्पण किया। उन्होंने उसको उसका सारा प्रदेश कुछ भूभागको छोड़ वापस किया। वहमी सन १८०५ में उसे मिल गया। १८११ में जसवंतरावकी मृत्यु हुई।
अन्ततोगत्वा होते हवाते सन १८१८ में अंग्रेजोंको पूर्ण विजय प्राप्त हुई । बाजीराव पेशवा पराभूत हुआ तथा पदभ्रष्ट कर उत्तर हिंदुस्तानमें विठूर नामक स्थानमें भेज दिया। सतारा पति अंग्रेजोंका करद बना । अंग्रेज गुजगत, लाट, महाराष्ट्र आदिके स्वामी बन गये। इतनाही नहीं काठियावाड़, राजपूताना, मालवा, बुदेलखण्ड, गंगा यमुना दोआब, बंगाल, बिहार, ओड़ीसा, नागपूर, छोटा नागपुर तथा दक्षिण भारत आदि भारतके विभिन्न प्रदेशोंमें संघका सार्वभौम एक छत्र प्रभाव स्थापित हो गया। संघ मनभाया करने लगा। किसी भारतीय नरेशमें इसके प्रतिकूल उंगली उठानेका साहस न रहा। हां १८५७-५८ के बलवाके समय
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