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चौलुक्य चंद्रिका ] मुसलमान साम्राज्य के विनाश में बटाया था। क्योंकि उनके सामने हिन्दू धर्म और साम्राज्य संस्थापना का सुखद चित्र अंकित हुआ था । वे समझते थे कि मरहठों का हाथ बंटानेसे, मुसलमानों की पारतन्त्र्य श्रृंखला से निकल, स्वातन्त्र्य सुख का उपभोग करेंगे, परन्तु उन्हें कड़ाही से कूद अग्निकुण्ड में गिरने का अनुभव होने लगा। वे पद पद पर लांछित और विताड़ित होने लगे। प्रतिदिन अपने राज्य और स्वातन्त्र्यका अपहरण देख हाथ मलने लगे। परन्तु अब पछताने से क्या होने वाला था । क्योंकि समय निकल चुका था। मरहठे प्रबल और अद्वितीय बन चुके थे। उनका सामना करना साक्षात यमराजको आमन्त्रण करना था। कितनोंने विवश हो गायकवाड़ आदिको अपनी कन्यायें दे, अपने राज्यकी ही रक्षा नहीं वरन उसकी वृद्धि की, पर जिन्हें राजपूत शान की आन थी, वे कोपभाजन बन विपत्ति के सागर में पड़े और डूब मरे जो बचे वे "नकटा जीवे बुरी हवाल" के समान धृक् जीवन हो गये । उनकी नींद हराम हो गई, और उनके राज्य का अपहरण नाना प्रकार से होने लगा।
लाटके बांसदा राज्यकोभी इनके चक्रमें पड़ना पड़ा। प्रवल प्राक्रान्त पेशवा और गायकवाड़, राहुके समान इसका ग्रास करनेके लिये अग्रसर हुए। राजवंशके गृह कलहको उद्दीप्त कर अपनी महत्वाकांक्षाको चरितार्थ करने लगे। कभी एकको तो कभी दूसरेको सहाय देने लगे। सहायताके उपलक्षमें शिबंदी खर्चके नामसे हजारोंकी थैली ऐठने लगे। इसके अतिरिक्त नज़रानेकी थैलीभी लेने लगे। आज इसको गद्दीपर बैठाया, और नज़रानेकी भारी रकम करार करवायी, तो कल उसे गद्दीसे उतार, दूसरेको बैठाया, और उससे भी नज़राना कबूल कराया। राज्यलोलुप स्वार्थान्ध जोरावरसिंह, पेशवा और गायकघाड़के हाथकी कठपुतली बना। उसने ईस्वी सन १७३६ से लेकर १७७६ पर्यन्त नाना प्रकारसे राज्यको हानि पहुंचायी। होते हवाते राज्यवंशके पूर्णविनाशकी समस्या उपस्थित हुई। परन्तु गुजरात ही नहीं वरन भारतके राजनैतिक मंचपर ब्रिटिश जातिकी उपस्थिति और पेशवा गायकवाड-संघर्षन राजपूत राजवंशोंके लिये त्राणका रूपधारण किया ।
तत्कालीन बांसदा नरेशने सन् १७८०-८२ वाले ब्रिटिश मरहठा युद्धमें अंग्रेजोंका साथ दिया और उनके साथ मैत्री स्थापित की। इतनाही नहीं वीरसिंहके वशजोंने सन १८२० पर्यंत अनेक बार ब्रिटिश जातिकी सहायता गाढ़े समयमें की है।
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