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चौलुक्य चंद्रिका]
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हुले गुन्डी प्रशस्ति
विवेचन.
प्रस्तुत प्रशस्ति मयसूर राज्य के चितलदूर्ग जिलाके चितलदूर्ग होवेली के ग्राम हुले गुण्डी के सिध्धेश्वर मन्दिर में लगी है। प्रशस्ति लिखे जाने के समय चौलुक्य राज भुवनमल्लका शासन था। भुवनैकमल्ल विरुद जयसिंह के ज्येष्ठ भ्राता सोमेश्वरका था । सोमेश्वरका राज्यारोहण अपने पिता आहवमल्ल - त्रयलोक्यमल्लकी मृत्यु होने के १६ दिवस पश्चात हुआ था । आहवमल्लने चैत्र कृष्ण अष्टमी रविवार शक ६६० तदनुसार रविवार २६ मार्च १०६८ को जल समाधि ली थी। और सोमेश्वरका राज्याभिषेक वैशाख शुक्ल सप्तमी शुकवार तदनुसार ११ एप्रील सन १०६८ को हुआ । इस हेतु प्रस्तुत प्रशस्ति सोमेश्वर के राज्य कालके पांचवे वर्षकी है।
प्रशस्तिमें जयसिंहके बीरनोलम्ब आदि विरुदोके साथ "श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज परमेश्वर वीर विदग्ध विलासिनी विलोचन चकोर चंद्रम् प्रत्यक्ष देवेन्द्र विक्रान्त कन्ठीरवं माण्डलीक भैरवं शरणागत वन पंजर चौलुक्य दिककुंजर साहसालंकार किर्तीवल्लरी वलापीत" प्रभृति दिये गये है। इन विरुदोंमें श्री पृथिवी वल्लभ महाराजाधिराज “परमेश्वर" स्वातंत्र्य प्रदर्शक विरूद हैं । परन्तु हम जयसिंहको स्वतंत्र नही मान सकते क्योंकि प्रशस्ति के प्रारंभ में स्पष्ट रुपसे भुवनैकमल्ल सोमेष्वर का अधिपत्य स्वीकार किया गया है। किन्तु उत्तर भावी विरूदों "प्रत्यक्ष देवेन्द्र बिक्रान्त. कन्ठीरव माण्डलीक भैरव साहसालंकार चौलुक्य दिकक्कुंजर" को लक्षकर हम इतना अवश्य माननेको कटिबध्ध हैं, कि जयसिंह अद्वितीय वीर परम साहसी और चौलुक्य राज्यका संरक्षक था। अतः महाराजाधिराज आदि विरुद सर्वथा उसके उपयुक्त थे। संभव है, उसने सोमेश्वरकी आधीनता नाम मात्रके लिये स्वीकार किया हो पर वास्तवमें स्वतंत्र हो गया हो।
इसके अतिरिक्त प्रशस्ति उसके विरुदों में महेश्वर और शरणागत वन पंजर बताती है । इन दोनोंमें महेश्वर विरुद उसका शैव होना और शरणागत वन पंजर-आश्रित जनोंकी रक्षा करनेवाला प्रकट करता है। हमारे पाठकों को स्मरण होगा कि जयसिंह के शक ६६६ वाली प्रशस्ति का वाक्य " अमोघ वाक्यं " और शक ९७६ वाली प्रशस्ति का वाक्य " एक वाक्य" को लेकर हमने बहुत जोर दिया है और जयसिंहको अपने वाक्य का धनी आदि लिखा है। और यह भी लिखा है कि एकवाक्यता मनुष्य के उत्कृष्ट और महत्वशाली जीवनका प्रथम सोपान है । एवं यहभी प्रकट किया है कि हमारी इस धारणाका समर्थन प्रस्तुत प्रशस्ति से होता है। अब हम अपने पाठकोंका ध्यान वर्तमान प्रशस्ति के वाक्य "शरणागत वन पंजर" प्रति आकृष्ट करते हैं। कथित वाक्य का भावार्थ है कि अपने आश्रित के प्रति किये गये घात के
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