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[ लाट नवसारिका खण्ड
युवराज शिलादित्य के दान पत्र
का
छायानुवाद |
कल्याण हो । वाराह रूप धारी भगवान विष्णु, जिन्होंने समुद्रका मन्धन और अपने ऊपर उठे हुए दक्षिणदन्तके अग्रभाग पर पृथ्वीको विश्राम दिया, का जय हो । श्रीमान् मानव्य गोत्र सम्भूत हारिती पुत्र, जो सकल संसार में स्तुतिका पात्र है, और जिसको सप्त माने सप्त मातृकाओं के समान पालन किया तथा जिसकी रक्षा भगवान कार्तिकेयने की है, और जिसने परंपरागत वाराहध्वजको भगवान विष्णुकी कृपासे प्राप्त किया है, पुनश्च जिसने क्षण मात्रमें पृथिवीको शत्रु रहित किया उस चौलुक्य वंशमें राम और युधिष्ठरके समान सत्याश्रय श्री पुलकेशी वल्लभ हुआ जिसने अपने भुजबल से समस्त शत्रु राजाओं को वशीभूत किया। उसका पुत्र परम महेश्वर माता पिता और नागवर्धनका पादानुध्यात श्री विक्रमादित्य सत्याश्रय हुआ। उस परम भट्टारक महाराजाधिराज पृथ्वी वल्लभने पल्लवों के समस्त पौरुषको आक्रान्त किया । उसका छोटाभाई जयसिंह अपने भाई के द्वारा अभिवर्धित राज श्री जयसिंहवर्म्मा हुआ। जिसका पुत्र पूर्ण विकसित चंद्रमा समान कीर्तिमान, कामदेव के समान कान्तिमान- ब्राह्मणों के समान विनीत-सकल कलाओं का ज्ञाता - पौरुष तथा विद्वान चक्रवर्ती तुल्य श्री आश्रय युवराज शिलादित्यने नवसारिका बास करते हुए नवसारी के हने वाले काश्यप गोत्री गामी स्वामीके पुत्र स्वामन्त स्वामी - उसके पुत्र मातृस्थविर के छोटे भाई किक्कास्वामी के पुत्र भागिकस्वामी अध्वर्यु ब्रह्मचारीको ठाहरिका विषय के उप विषय कण्डवला - हार के आसठ्ठी नामक ग्रामको समस्त भोगभाग आदि दाय युक्त संकल्प पूर्वक माता पिता तथा अपने पुण्य और यशकी वृद्धि के लिए सांसारिक वैभव को वायु क्रान्त दीप शिखा समान चल विचार कर प्रदान किया । इस धर्मदायको समस्त आगामी नरेशोंको पालन करना चाहिए । क्योंकि इस वसुधा का पूर्ववर्ती सागर आदि अनेक राजाओं ने भोग किया परन्तु पृथ्वी का
जो होता है उसको ही उसके दान का फल मिलता है । माघ शुद्ध त्रयोदशी को इस शासन पत्र को सन्धि विग्रहिक श्री धनंजयने लिखा । संवत्सर सौ चार एक विंश । ४२१ । ओं ।
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