Book Title: Abhakshya Anantkay Vichar
Author(s): Pranlal Mangalji
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीअभक्ष्य-अनन्तकाय-विचार (हिन्दी भाषामें) प्रकाशक: श्री जैन श्रेयस्कर मंडळ महेसाणा. ( उ. गूजरात) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A RTHAIRE TR HIAHIM Anistlink RArun amisama ke turn tuml-AIRIDAINIKI amalAIMER । श्री अभक्ष्य अनन्तकाय विचार [हिन्दी भाषामें ] रसनेन्द्रिय की आसक्ति में वश होकर जानपनसे या अजानपनसे होता हुवा दोषो से साधार्मिक बंधुओ और बहिनों को बचाने का वात्सल्य भावसें Premipan ranigalur misnianmus sunelu INtors: SAndean amrpana ranimlsawmantra aniamrn ament simporam varieans amidney awnidih immikant मूळ लेखकःशा. प्राणलाल मंगळजी-जुनागढनिवासी गुजराती आवृत्ति पर से अनुवादक तथा प्रकाशकसद्गत सेठ वेणीचंद सुरचंद संस्थापितश्री जैन श्रेयस्कर मंडळ-म्हेसाणा Malamaula mein Hai Anish anisunaminema raipur samanan AITR HIMAMMmniglism awaigaws Lumipauwanipom misanman NHAIHA NIKARI प्रथमावृति संवत् १९९८ चीर संवत् २४६८ सने १९४२ मुद्रक : केशवलाल सांकळचंद शाह मुद्रणस्थान : वीरविजय प्रिन्टींग-प्रेस सलापोस क्रोस रोड-अमदावाद मूल्य ०-६-० Lamm, sans: amiti l dTHU aning IRIT GIRI CHHATNP Tamily AIRS-NEAR TRIPA TIME TARIKAARATHI ___ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जगत् में जैनधर्म का दया, संयम और तप रूप सर्व प्रकार का आचार सब आचार में श्रेष्ठ है । व्रतधारि श्रावक बंधुओ बाइस अभक्ष्य और बत्तीश अनंतकाय का त्याग रखते है । उनको और जो व्रतधारी नहीं भी होगा उन सब को जैन दृष्टि से भक्ष्याभक्ष्य की माहिती के लिये लेखकने यह सुंदर पुस्तक लिखा है । प्राणलालभाई पीच्छे से आईती दीक्षा लेकर, पुण्यविजयजी नामसें अपना जन्म सफळ कर आज वर्षोंसे स्वर्गवासी हुए है । किंतु उनका यह पुस्तक खूब उपकारक हो रहा है । यह पुस्तक गुजराती भाषा में लिखा गया है । जिसकी आजतक छ आवृत्ति हमारी संस्था तर्फ से छप चुकी है । इस पुस्तक की उपयोगीता जगजाहिर है । क्या खाना ? क्या न खाना ? इत्यादि बातों की आवश्यकता सबको ही रहती है, और क्या खाने में क्या दोष है ? यह भी जानना आवश्यक होता है । इससे यह पुस्तक की आवश्यकता प्रत्येक जैन गृहमें रहती है । इस अत्यन्त उपयोगी ग्रंथ की आवश्यकता सब जैन भाइयों और बहिनों के लिये एक सरखी होने से गुजराती भाषा और लिपि को न समजने वाले साधार्मिक भाइयों के लाभ के लिये हमने हिंदी भाषान्तर करवा कर यह पुस्तक छिपवाया है। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ Į इस पुस्तक में जैन दृष्टिसे भक्ष्याभक्ष्यका विवेक अच्छी तरहसें समजाया है । जैन दृष्टिका भक्ष्याभक्ष्य विवेकका मुख्य तत्त्व - अहिसा, संयम और तपः यह तिन है । इस हेतुसे - कोइ चीजका अभक्ष्य प अहिंसा दृष्टि है । यह दृष्टि मुख्य है । तथा कई वस्तुओं का अभक्ष्यना संयम और तप त्यागकी दृष्टिसं भी है। गर्भितमें मार्गानुसारी दृष्टिमें आरोग्य, तथा मानसिक और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि भी आ जाती है । हमको दुःखसे कबुल करना पडता है कि इस ग्रन्थ का भाषान्तर की भाषा संतोषकारक नहीं है । हिंदी भाषा सौन्दर्य की दृष्टि से हमारा भाषान्तर संपूर्ण रीतिसँ अपूर्ण और असंतोषकारक है । यह त्रुटि हमारा ख्यालमें बराबर है । तथाप्रकार के भाषान्तरकार के अभाव में जो साधन मिला, उनका उपयोग कर के हमने यह पुस्तक छिपवाया है । आशा है किइससें कुच्छ लाभ तो अवश्य होगा । भाषा कैसी भी हो, तथापि मतलब समजकर इस माफिक जो कोइ वर्तन करेगा सो अवश्य कुच्छ ने कुच्छ आत्मिक और पारमार्थिक लाभ पावेगा । तथापि बाळजीवो का आकर्षण के लिये भाषा सौन्दर्य अवश्य होना ही चाहिये, और ज्ञानाचार की दृष्टिसें भाषा शुद्धि भी अवश्य होनी चाहिये । परंतु भाषा शुद्धि और सौन्दर्य की राह देखकर कार्य मुल्तवी रखने से आत्मार्थी जीवों को लाभ से वंचित रहने देना उत्तम न समजकर हमने यथाशक्ति भाषा शुद्धि और भाषा सौन्दर्य में संतोष मानकर इस Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक प्रसिद्ध कर दीया है । कोइ सुज्ञ विद्वान् महाशय इस ग्रंथ की भाषा में यथायोग्य सुधार कर हमको भेजेंगे, तो तदनुसार आगामी आवृत्ति में सुधार कर छपवायेंगे । आशा है कि कोइ तथाप्रकारका विद्वान् भावनाशील महाशय अवश्य पुण्यका भागी होगा। कागज और हिंदी छाप काममें अधिक किंमत लगने से हमको किंमत ०-६-० रखनी पड़ी है। और गुजराती आवृत्तिमें रखा हुवा आहार मीमांसा का विस्तृत और अभ्यास योग्य निबंध पुस्तक का कद बढ जानेका भय से इस हींदी आवृत्ति में रखा नहीं है, तथापि जिज्ञासुओ गुजराती आवृत्ति से पढ सकेंगे। अन्तमें शास्त्र आदि से विरुद्धकी केइ बात का उल्लेख हुआ हो, तो उनके लिये मिच्छा मि दुक्कडं देते है। --प्रकाशक प Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय मंगलाचरणादि उद्देश ग्रन्थ बावीस अभक्ष्यो बारह प्रकरण सारांश प्रकरण १ ला बावीस अभक्ष्यों पर टुंक विवेचन पंचोदुम्बर ५ पञ्चोदुम्बर ४ महा विगइओ उपसंहार १० बरफ ११ विष १२ करा १३ भूमिकाय सचित्त कच्चा लोण १४ रात्रिभोजन १५ बहु बीज १६ संधाण ( आचार) १७ घोलवडें (द्विदळ ) १८ वैगण १९ अनजाने फळ २० तुच्छ फळ २१ चलित रस विषयानुक्रमणिका पना १ १५ १९ २४ २५ B ३४ ४४ ४५ ४९ ५६ ५८ ५९ प्रकरण २ रा चलित रसका स्पष्टोकरण ६१ ६२ ६८ ६८ १ आटा २ जलेबी ३ हलवा ४ अम्रती ५ मावा ६ मुरब्बा ७ संभारा ८ ९ केरी १० पापड ११ चटनो १२ संभार्या १३ पकूवान्न दूधपाक (मीठाइनो कान्ट) १४ चवांणा १५ चूरमाका लड्डु १६ रसोइ १७ बीरंज ओदन १८ दहीं १९ दूध २० घी २९ बळी ७० ६० ७२ ७४ ७५ ७६ १७.७ ७७ ७८ ७८ ८० ८१ ८२ ८२ ८४ ८६ ८८ ९२ ૪ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ खट्टे ढोकले २३ घोलवडां २४ खाँ करें २५ पापडके लोए २६ जुगली राब २७ रायता २८ शेका हुआ धान्य २९ खिचडाका ढुंढणीया प्रकरण ३ रा २२-३२ अनन्तकाय १८ किसलय - पत्र १९ खिरसुआनंद २५ मूळा २६ भूमिफोडा २७ वत्थुलाकी भाजी २८ विरूढान २९ पालके की भाजी ३० सुअरवल्ली ३१ कोमळ इंमली ३२ आलुकंद अनन्तकाय की ओळख कीतनी एक सूचनाएं १ दूध २ नीला अद्रक १३ बटेटां-डुंगळी ४ मेथी w ९५ ५ बाईश अभक्ष्य का त्याग ९६ विषे उपसंहार ९६ ९७ ९७ ९७ ९८ ९८ ९९ १०० १०१ १०१ १०२ १०२ १०२ १०२ १०२ १०२ १०३ १०२ १०४ १०४ १०४ १०४ १०५ प्रकरण ४ था, ५ वा, ६ ट्ठा. बाईस अभक्ष्य सिवाय की अभक्ष्य वस्तुएं १ फागण शु. १५ सें कार ११० तक शु. १५ तक अभक्ष्य गणाती चीजें. १ से ४८ १०६ ३ अशाड २. आर्द्रा नक्षत्र से त्याग केरी रायण १११ योग्य ११२ शु. १५ सें कारतक शुद्ध १५ तक १ से १६ ४ हम्मेश त्याग करने अभक्ष्य ११२ योग्य ११२ १ से ५८ ५ बहु आरंभसें न वापरने योग्य १ से १६ ६ लोक विरुद्ध तथा जैन दर्शन विरुद्ध अभक्ष्य वस्तुएं ११२ ११४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ १ से १२ ८ स जीवकी बहुत हिंसा होने से छोडने योग्य ११५ १२९ १३० १३० दरेककी विगत ११५ १ खजुर ११५ २ खारीक ११५ ३ सें १० काजुसें जरदाळु ११६ १३ से १७ तल तेल विगेरे ११६ १८ से ४० भाजी-पत्र शाक ११७ ३१ नागरवेलका पान ११७ ३५ मीठा नींब ११८ पक्की करो और रायण ११८ १ सुकवनी ११९ २ खोपर १२१ ३ से १२ पोंक विगेरे १२१ ४ हम्मेश त्यागयोग्य वस्तु१ भडथा १२२ २ उंधिया ३ परदेशो मेंदा ४ गळ्यां काजु ५ विलायती डिब्बेमें पेक १२४ ६ ६ से २१ सोडा विगेरे १२५ २२ से ३५ बीडी विगेरे १२६ ३६ स्तंभक दवाएं विगेरे १२७ ३७ विलायती दवाएं ४० गुड १२८ ४१ परदेशी खांड ४२ केसर १२९ ४३ अखी कठोळ ४४ सें ४९ बिस्कुट ५० टुथ पाउडर १३१ ५४ होटेलो १३४ ५५-५६ विविध पार्टीयां १३६ ५८ पाणी १३८ १ इस १४२ २ से २० सीताफळ विगेरे १४२ शींगोडा १४२ वालोळ १३२ पंडोरा फणस भूरा कोळां १४४ कोळां १४४ कडवा तूंबडा १४४ पक्कां कंटोलें १४४ कारेलां टींडोरा टभेटां कंकोडा १-२ बीलां-बीली १४४ ३ सरगवेकी शोग ४ कोबीज १२२ १२३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ थी ४ भोंडा, कटोला, तुरीयां, कारेलां १४५ प्रकरण ७ वां वापरने योग्य शाक फळ विषे १४६ प्रकरण ८ वां सचित्त त्यागी, द्वादश व्रतधारी, चौद नियम धारनार माटे सचित्त अचित्तकी समज १५१ प्रकरण ९ वां श्रावकना घरमां पाळया योग्य नियमो १ दश चंदरवा २ सात गळणा ३ वा सुण केसे वापरना? १६३। प्रकरण १० व श्राविका व्हेनोको सूचनाएं १६९ प्रकरण ११ वां समुच्छिम पञ्चेन्द्रिय जीवोकी दया विषे १८३ प्रकरण १२ वां परमाहत श्री कुमारपाळ महाराजाका बारह ब्रतोकी संक्षिप्त नोंध १९४ श्री लाभसूरिकृत अभक्ष्य अनंतकायकी सज्झाय २०४ श्री सचित्त अचित्त विचार सज्झाय श्रीमद् उपाध्यायजी महाराज श्री यशोविजयजी महाराज विरचित चार-आहार-अणाहारकी सज्झाय समाप्त Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री-वीतराग-परमात्माने नमः ॥... अभक्ष्य-अनन्तकाय-विचार मङ्गलाचरणः विषयः संबंधः अधिकारीः प्रयोजनः इ. अति दुष्कर तपः और रागद्वेष को क्षयः कर मोक्ष की विशाल समृद्धि प्राप्त करने में निकटोपकारी वर्तमान शासन के नायक श्रमण भगवंत श्रीमहावीर जिनेश्वर प्रभु को हमें नमस्कार करना चाहिए। आठ मद का जय करने के साथ में इंद्रियों के दमन करने वाले तथा उत्तम धर्म और शुक्ल ध्यान धारण करने में सदा तत्पर मुनिपुङ्गवोः श्रीगणधर भगवंतोः तथा धुरंधर पूर्वाचार्योः हमारा मंगल करें। चौदह पूर्वधर श्री भद्रबाहुस्वामीः श्रीस्थूलभद्रस्वामीः दशपूर्वी श्रीवज्रस्वामीः तथा श्रीदेवर्धिगणि क्षमाश्रमणजी आदि निग्रंथ श्रमण भगवंतो को हम शरण लेते हैं। श्री मृगावतीः और चन्दनबालाः प्रमुख साध्वीजी के उत्तम चारित्र, शील तथा विनयादि गुणों का अहर्निश अनुमोदन करना चाहिए। श्री आणंदजीः श्रीकामदेवजीः श्री पुणियाजी और श्री जीरणः प्रमुख श्रावकों के उत्तम उत्तम द्वादश व्रत, ज्ञानः Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन: चारित्रः इन तीन रत्नों की आराधकताः तथा दृढ़ सम्यक्त्वादिः उत्तम गुणों का हम शीघ्र अनुकरण करते जावें । श्री सुलसा और श्री रेवती : प्रमुख शीलवती श्राविकाओं का दृढ़ सम्यक्त्वादि चरित्रों का स्मरणः अनुकरणः हमें सदा प्राप्त होवे | श्री जैन शासन की अधिष्ठायिका श्री श्रुतदेवी सकल सिद्धि प्रदान करे । श्री महावीर भगवान के शासन की रक्षा करने वाले मातङ्ग यक्षः और सिद्धायिका देवी की स्तुति विघ्न शान्ति के लिए मैं करता हूं | श्री जैनधर्म की सेवा करने में तत्पर अन्य सम्यग्दृष्टि देवों को स्मरण कर, श्री सूत्र - सिद्धांत में से उद्धत कर, जिनाज्ञानुसार त्याग करने की इच्छावाले: और धर्म के इच्छुकः जीवों को भक्ष्याभक्ष्य का विवेक समझाने के लिए अभक्ष्यअनन्तकाय विचार नामक ग्रंथका प्रारंभ करता हूं । उत्सर्ग मार्ग में: - श्रावक को प्रासुक - अचित्त निर्दोष आहार लेने को कहा है, और शक्ति न होने पर अपवाद मार्ग में:- श्रावक सचित्त का त्यागी होना ही चाहिए । अगर वह भी न बन सके, तो बाइस अभक्ष्यः और बत्तीस अनन्तकायः वगेरह का त्यागी तो जरूर होना चाहिए । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *[श्रावक के धार्मिक जीवन में भी अहिंसाःतपः और संयम प्रधान रूप से होने चाहिए। इस काअहार में भी ये तीन तत्व अवश्य होने ही चाहिए । ये तिन तत्त्व जैन आहारविधि और भक्ष्याभक्ष्य विचार की भीकसौटी रूप है। "जैन खानपान की विधि में आरोग्यः रुच्युत्पादकत्वः वगेरह तत्त्वों का स्थान नहीं है" ऐसा किसी को भी नहीं मानना चाहिए । परंतु ये सबकी साथ ऊपर जनाए हुए तीन तत्त्व मुख्य होते हैं। वाचक महाशय वह हकीकत इस पुस्तक में कुछ विस्तार से जान सकेंगे] बाइस अभक्ष्यःपंचुंबरिचउ-विगई हिम-विस-करगेअस-बमट्टोअ। राइ-भोयणगंचिय बहु-बीय अणंत-संधाणा ॥१॥ घोलवडा वायंगण अमुणिय-नामाइं पुप्फ फलाई। तुच्छ फलं चलिअ-रसं वज्जे वज्जाणिबावीसं ॥१॥ पांच प्रकार के ऊबर फल, चार महा वगई, हिम, विष, कड़ा (औला), सब तरह की मिट्टी, रात्रि भोजन, ___ * मूल ग्रंथ में अथवा नीचे की टिप्पणीयों में प्रायः जहां [ ऐसे] कोष्ठक के बीच में लिखा हुवा हो वह इस आवृत्ति में हमारे द्वारा अभी ही बढ़ती की हुई समझना चाहिए। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहु बीज, अनंतकाय, संधान-बोर-अथाणा वगेरह, घोलवड़ा, वेंगण, अजाने फूल और फल, तुच्छ फल, और चलित रस, ये २२ बाइस वर्ज़ने योग्य अभक्ष्यों को वर्जना चाहिए। १-२ बाइस-अभक्ष्य पांच ऊंबर:- १० हिम (बरफ) १ वड़ वृक्ष के फल ११ विष (झहर) २ पारस पीपला तथा १२ कड़ा (औला) पीपली के फल १३ सब तरह की मिट्टी ३ प्लक्ष (पीपला) का फल १४ रात्री भोजन ४ ऊंबरा (गुलर) के फल १५ बहु बीज फल ५ कचुंबर (काली ऊम्मर) १६ अनंतकाय का फल १७ अचार-अथाणां चार महविगई १८ घोलवडा ६ मधु (शहद) १९ वेंगण ७ मदिरा २० अजाना फल-फूल ८ मांस २१ तुच्छ फल ९मक्खन २२ चलित रस यह दो मूल गाथाओं के ऊपर सारे ग्रंथ की रचना की गई है । इसी लिए उद्देश ग्रंथ बताकर उस हरेक का विवेचन करने में आवेगा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ पहले प्रकरण में - बाइस अभक्ष्यों पर मुद्देसर (सूक्ष्म) विवेचन | २ दूसरे प्रकरणमें-चलित रस । ३ तीसरे प्रकरण में - ३२ बत्तीस अनंतकाय । ४ चौथे प्रकरण में - भक्ष्याभक्ष्यका परिमित समय । ५ पांच में प्रकरण - अति हिंसा के कारण से वर्ण्य पदार्थ | ६ छट्टे प्रकरणमें - उन्हाळा में और चातुर्मास में, तथा गीले होने से और चौमासा होने से वर्जित पदार्थ । ७ सातवें प्रकरणमें- चालू वापरने में आनेवाली ( हमेश आनेवाली ) वनस्पतियें और उस विषय में रखने योग्य विवेक । ८ आठवें प्रकरण - व्रतधारिओंको कई एक उपयोगी सूचनाएं | ९ नवमें प्रकरण में - श्रावक के घर में तथा वर्तन में पालने योग्य कुछ नियम । १० दसवें प्रकरणमें-श्राविकाओं के योग्य सूचनाएं । ११ इग्यारहवें प्रकरणमें- सम्मूर्छिम जीवकी दया पालने के विषय में विचार । १२ बारहवें प्रकरणमें- श्री कुमारपाल महाराज के बारह व्रत । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण १ पहला बाइस अभक्ष्यों पर मुक्तसर विवेचन ५ पञ्चोदुम्बर १ वड़ के फल। २ पारसपीपला और पीपल के फल । ३ प्लक्ष जात के पीपले के फल । ४ ऊंबर (गूलर) के फल। ५ कचुंबर (कालुम्बर) के फल । इन पांच ही वृक्षों के फल में अनेक सूक्ष्म त्रसजीव उडते हुएदेखने में आते हैं, जिनकी गिनती नहीं हो सकती है। इस लिए [उसी तरह उस में छोटे २ बारीक बीज भी बहुत होते हैं] वे सभी अभक्ष्य हैं । इस लिए उनका त्याग करना । दुष्काल इत्यादि के प्रसंग से अन्न न मिलता हो तो भी विवेकी ज्ञानी पुरुष ये खाते ही नाहीं। [बीज के अनेक वनस्पति जीवोंकी, और उस में पडे हुए अन्य त्रस जीवोंकी, इस प्रकार से दो तरह के जीवों की विराधना होती है। पीपली के फल को भी इसी प्रकार में समझना।] १ फल में जितने बीज उतने ही वनस्पपि के जीव जानने । उन सबकी थोड़े से स्वाद के लिये हिंसा करनी उचित नहींहै ! ___ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार विगइओ. ६ मधु ७ मदिरा ८ मांस ८ मक्खन इन चार ही वस्तुओं के रंग के जैसे असंख्य जीव उन में हमेशां (निरंतर) उत्पन्न होते हैं, इस वास्ते अभक्ष्य हैं । तथा ये चार महा विगई अति विकार करने वाली हैं। [इसी लिए मानसिक और शारीरिक दोष भी उत्पन्न करने वाली हैं] उन का विशेष वर्णन योगशास्त्रः जैन तत्त्वादर्शः वगेरह बहुत से ग्रंथों में बतलाया है । इस लिए यहां संक्षेप में ही कहना चाहिए। ६ मधु-वागरीये, भील आदि जाति के लोग मधु के छत्ते-(माले) लाते हैं। वे लोग प्रथम शहद की मक्खियों के छत्ते की नीचें धुंवा करते हैं, इस से उन को अत्यंत दुःख दे कर उन के निवास रूप इस छत्ते में से बहार निकालते हैं। उस छत्ते में उड़वे में अशक्त उन के छोटे बच्चे होने से, वे सब अपने प्रिय प्राणों से मुक्त हो जाते हैं। एक आदमी का बहुत वर्षों तक, अत्यंत परिश्रम से संग्रह किया हुवा धन एक ही रात में चोर आकर चुरा ले जावे तो उस को तथा उसके कुटुंबियों को कितना भारी दुःख होता है ? इसी प्रकार से इन अनेक जीवों के बहुत समय पूर्व से किए हुए परिश्रम से अपने निर्वाह के लिए तैयार किये हुवे शहद को [मधुपोडं-विश्राम Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थल - गृह ] वागरीये वगैरह अनार्य स्वभाव के लोग अत्यंत कष्ट दे कर लूट जावें, तो उनको कितना दुःख होता होगा ? और एसे हिंसक लोगों को हम उत्तेजना देवें, वह कितना ज्यादा त्रासजनक है १ फिर मधु में निरंतर असंख्य जीव उपज ते है । इस से उसका अवश्य त्याग करना उचित है । १ रस लोलुपता से कोई मनुष्य शहद खावे, यह बात तो दूर रही, परंतु औषध के तौर पर मधु खावे तो भी वह नरक का कारण है । जैसे जीवित रहने के लिये कोई भूल से कोई कालकूट विष की कणी मात्र भी खा जाय, तो वह अवश्य ही मर जाय । उसी प्रकार से मधु खाने से नरक गति प्राप्त होती है । इसी लिए अन्य मत के पुराण वगैरह शास्त्रों में भी उसका त्याग करने के लिए कहा है । आत्मार्थी शूरवीर जीव अन्य जीवों को स्व- समान गिनकर एसी अभक्ष्य चीजों का सर्वथा त्याग करते हैं । और महारोग आवे या प्राणांत कष्ट आवे, तो भी इनका स्पर्श तक नहीं करते । उनको सहस्र वार धन्य है ! इस लिए हे बंधुओ ! प्रमाद को छोड़ कर इस चीज को त्यागने के लिए शूरवीर बनो । [ वर्तमान समय में शहद को खुराक तरीके उपयोग में लाने के लिए अधिक प्रमाण से प्रयोग करने के लिए राज्य की तरफ से बहुत खर्चा कर शहद की मखियों कों पाली जाती Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, परंतु शहद का यह ज्यादा प्रयोग आरोग्य को बिगाड़ेगा। यह हमारा निश्चित मत है। आरोग्य के नियमों को बिचार करते हुए कोई भी, एक ही रस प्रधान चीज सब को, सर्वदा सर्वथा माफिक पड़ती ही नहीं। इसी से एसे प्रयत्न हिंसक, प्रजाका धन और भावी आरोग्य को हानिकारक ही हमें मालूम पड़ते हैं। केसी अज्ञानता चल रही है ? समय २ के प्रवाह के अनुसार अनेक प्रवृतिओं जन समुदाय में फैल जाती हैं। उसी तरह की लगन लगी रहती है। उस के उपर से वे सभी ग्राह्य ही हैं, एसा समझना नहीं. परंतु विवेक से अनुभव से विचार कर के हमें ग्रहण करने योग्य वस्तु का ही ग्रहन करना चाहिए। और अग्राह्य का त्याग करना चाहिए। इस लिए मधु मक्खी को पालने की प्रवृत्ति में सहयोग देना उचित नहीं है। सरकार की तो यह इच्छा है, फीर कमीशन नीमकर, प्रजा में मत प्रचारकर, प्रजाकी तर्फ से मधु भक्षण का उच्छेर कराने का आग्रह कराने की तरकीब रची गइ है !] ७ मदिरा-इस का सर्वथा त्याग करने वाले को विलायती दवा का भी त्याग करना चाहिए। केफी (शराब) द्रव्यों से मिश्रित दवाइए तत्काल लाभ करती हैं, परंतु उसका असर जाने के बाद ज्यादा निर्वलता आती है । इस लिए दवाइयों में भी इस का उपयोग उचित तो नहीं है। कारण कि-उस में Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० प्रायः टिंक्चर- स्प्रिटे (दारू) आता हैं । फिर कितने ही पाउडर (भूका - चूर्ण) वाली दवायों में भी अभक्ष्य वस्तु का मिश्रण होता है । जिससे विलायती दवा का त्याग करना श्रेष्ठ है । 1 १ - १ द्राक्षासव, २ कुमार्यासव, ३ लोहासव ये देशी दवाइयें भी एसी हैं । क्योंकि द्राक्ष और कुंवार का सड़ा हि हैं । उसी सड़े पदार्थ का नाम आसव है । [ जमीन में कुछ दिन तक गड़ी रहती है तब उसमें शराब के तत्त्व और जन्तु उत्पन्न हो जाते है ] शरबत में भी अभक्ष्य के कारणों की संभावना है । अनेक तरह के वाइन (शराब) पीनेवाले हरेक व्यसनी का बुरा हाल जगजाहिर और आंखों के सामने ही है । किसी तरह की शराब हितकर है ही ज नहीं । गांजा, लीलागर, भांग, चड़स भी व्यागने । चाहिए | शराब - अर्थात् अनेक वस्तु का सडन करते हुए उसमें अनेक त्रस जीव ऊपजते है । उन सब के सहित मशीन से उस सडन का रस निचोड़ लेना वह । उस में भी एक तरह का स्प्रिंट ही होता है । २ - विलायती दवाओं में अभक्ष्य पदार्थ होते हैं उस का खुलासा १ कॉडलिवर पिल्स- दरयाई मछली के कलेजे के तेल की गोली । २ स्कॉट इमलशन बॉवरील बैल और भैंसा के खास भाग का मांस | ३ विरोल - गाय के मगज का मांस रस । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशी और बिलायती अनेक तरह के दारु बनते हैं। वह हरेक सर्वथा त्याज्य ही हैं । ताड़ी वगेरह भी त्यागने योग्य है। सारंश कोई भी प्रकार का केफी पीना, हिंसा दृष्टिसे, आरोग्य दृष्टिसे, नैतिक दृष्टिसे। और सभ्य और लायक जीवन की तथा संयमी जीवन की दृष्टिसे भी त्यागनीय ही हैं। [विलायती या देशी शराब चाहे किसी प्रकार का हो, नुकसान प्रद ही है। इसी लिए इसे सात व्यसनों में गिनाकर अपने शास्त्रकारोंने उसे त्याग करने के उपदेश पर बहुत ज्यादा जोर दिया है । इस रीति से प्रभु की आज्ञा के मुताबिक अपने सर्व लोक के हित के लिए उपदेश दे सकते हैं। देशी शराब के बनावट के साधन धबं हो जाय, और विलायती शराब ही शुरु होवे (जारी रहे), इस वास्ते शराब बंदी की अभी ४ बी फाइरीन वाइन-(पेटा) गेडी के मांस युक्त ब्रांडी। ५ कारतिक लीक्विड-मांस भिश्रित । ६ एक्सट्रेक्ट चिकन-मुर्गी के बच्चों का रस । ७ सरोवानी टोनिक-स्प्रिट (मदिरा) युक्त । ८ एक्सरेट मोल्ट-मधु और मांस मिश्रित । ९ वेसेन इन-सूवर-भालू की चर्बी । १० पेपसीट पाउडर-कुत्ते और डुक्कर के अण्डकोष का चूर्ण । ११ [पलोल तथा बहुत से इंजेक्शन-भी एसे ही हिंसामय और अभक्ष्य पदार्थों में से बनाए हुए होते हैं।] ___ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की तमाम हलचल एक व्यवस्ति सुचारू रूपसे बड़े जोर से चलती थी। यह अच्छा हुवा कि-उस में अपने मुनि महाराजाओंने चाहे जितने टीका टिप्पणी होते हुए भी सहयोग न दिया। नहीं तो भविष्यमां होनेवाला विलायती शराब के कायमी खूब प्रचार में आज अपनी सम्मति गिनाई जाती। देश के नेता ओंने देशी शराब को बंद कराने में पूर्णतया अनुमति दे दीथी। शराब को रोकने वाले देशनेता ताजी ताडी पीते हैं और शराब के बदले उस की जरूरत का दाखला विठलाता था । कितना आश्चर्य ? अबकहां गई देश नेताओं की लगन ? क्या कोई पेकेटिंग करता नहीं है? । परंतु यह सब बनावटी था। अपने को तो स्वाभाविक रीति से ही सब तरेह शराब छोडने का उपदेश समान भाव से देना चाहिये।] ८ मांस-अनेक जीवों को मार कर तैयार होता है। . ३ जैसे आयुर्वेद के बनाने वाले ब्राह्म विद्वानोंने अनार्यों के लिए अक्षम्य औषधि, चरबी, तेल वगैरह बताइ हैं। वैसे ही युनानी हकीमोंने दवाइयों में मांस, अण्डे और मछली वगेरह अभक्ष्य पदार्थों का उपयोग सहज ही बताये है। इस लिये हरेक दवा लेते हुए आर्य धर्म का विचार रखना चाहिए। [ आयुर्वेद प्रायः वनस्पति को मुख्य मानता है। युनानी वैद्य (हकीम) प्राणी जन्य औषधियें मुयतया काम में लाते हैं। विलायती दवाओं में प्राणिजन्य औषधे, प्राणिजन्य विष, खनिज विष तथा वनस्पिति विष, और केफी तत्त्व-स्प्रीट Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस के मुख्य तीन भेद हैं-१ जलचर में मछली वगेरह का, २ स्थलचर में पाड़ा, बकरा, हिरण, गाय, घंटा, (सूअर), खरगोश, ३ खेखर में चड़िया, मुर्गी, कबूतर वगैरह का । अनेक पंचेद्रिय प्राणियों का शिकार करके और धंधे के लिए ही मारकर मांस तैयार होता है । निरपराधी होते हुए भी वे बिचारे मारे जाते । वे सभी प्राणि अपनी २ माते के रुधिर और पिता के वीर्य से जन्मे होते हैं। इस लिए यह अत्यंत निंदनीय है। क्षत्रीय वगेरह मांसाहारी कितनेक हिंदू और मुसलमानों के दारु मांस त्यागना ही योग्य है। एसा मलिन पदार्थ सभ्य मानव के खाने लायक माना ही कैसे जाय ? जंगली मनुष्य-मनुष्य का मांस खाते हैं, उन से कुछ सुधरे हुए लोगदूसरे प्राणियों का मांस खाते हैं। इस बात को विचामते हुए भी सभ्य मनुष्य के लायक यह खुराक है ही नहीं। पुरान में तथा कुरान में भी मांस अभक्ष्य तरीके फरमाया हुवा है, तो भी बल, पुष्टि और जीहा के लालच से एसे अखाद्य पदार्थ खाते हैं । तथापि दूसरों के प्राण लेते हुए भी वगेरह का मुख्यता से और अधिक प्रमाण में उपयोग किया जाता हैं ] वे दवाइएं तुरत फायदा करती हुई मालूम पडती है । परंतु " नये रोग उत्पन्न करती हैं और परिणाम स्वरूप आरोग्य को नुकसान करती हैं और आयुष्य का ह्रास करती हैं"। ऐसा अनुभवियो का पक्का मत है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ स्वयं मरण के भय से बचते तो नहीं, वह निर्विवाद है । फिर बल और शरीर की पुष्टि का मंतव्य कहां रहता है ? जैसे अपने को मरना अच्छा लगता नहीं, बालबच्चों का या सगेसम्बंधि-कुटुम्बियों का वियोग सहन होता नहीं वैसे ही हरेक मृत्यु या वियोग चाहता नहीं । अतः जैसा वर्ताव दूसरों द्वारा अपने लिये चाहें, वैसा ही वर्ताव स्वयं भी दूसरे हरेक प्राणि के लिये चाहे और करें । यह न्याय सर दलील हरेक को हमेशा खास अपने सामने रखनी चाहिए । इसी में ही अपना और सब का भला है । सब प्राणी के साथ मित्रभाव चाहने वाला मांस नहीं खा सकते । क्यों कि मांस खाने में कीसी की हत्या अपने लिये होती है । और उसकी साथ वैरभाव रहता ही है । कीसी को मारना उनकी साथ वैरभाव का कारण बनता है भारतवर्ष में पवित्रता और आर्यपन है, यह मांसाहार के त्याग से और सिर्फ वनस्पति तथा दूध वगैरह सात्विक और निर्दोष खुराक से ही टिकाया हुआ है, परंतु सीधी या आड़ी टेडी रीति से मांस, रुधिर या चरबीजन्य पापमय चीजें खाने पीने से टिक सकता नाहीं । मांसाहार से स्वास्थ्य भी बिगड़ता है । मनुष्य का मांस खाने वाले राक्षस जैसे जंगली मनुष्यों की बात सुनते हुए हर किसी मांसाहारी के मन में भी उस के पापाचरण की घृणा उत्पन्न होती है। तो फिर मांसाहार में धर्म तो होवे ही कैसे ? मांसाहार कैसे धर्म १ [यांत्रिक 1 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहन और खेती के साधनों के बढ़ते हुए भी बड़ी संख्या में पशु कतलखाने ले जाए जाते ही है । इस लिये इस देशमें भी यांत्रिक कतलखाने बढ़ते जा रहे हैं। उन के बढ़ने में देशी कतलखानों की वध-क्रूरता का वर्णन, दूधवाले पशुओं को बचाने का प्रयास, यह सब जीवदयादि मंडळी वगैरह की प्रवृत्तिए साधन तरीके हो रही है।] किसी २ (बौद्ध) धर्म वाले ने तो "मुर्गा, हरिण और मछली वगैरह के मांस भक्षण से अनेक प्राणियों को मारने का पाप होता है। उस से बचने के लिए एक हाथी को मारने से उसका मांस बहुत समय तक चले, जिससे एक ही जीव कीथोड़ी हिंसा होती हैं"। एसी झूठी दलीलें चलाई हैं। जिससे जीव दया पालने की शोभा भी ली जा सके, और मांस भी खाया जा सके ! क्या यह न्यायसंगत दलील है ? [बड़े प्राणि को मारने में बड़ी महनत पड़ती है, इस लिए उसे मारने के लिए अनेक युक्तिएं करनी पड़ती हैं। जिस से ज्यादा तीव्र हिंसा के विचार में मन विचरता रहता है । उसी तरह से क्रूरता भी अधिक मन में उत्पन्न होती है। ___ सारांश-कोई भी प्राणी को मारना हिंसा ही है और बड़े शरीर वाले को मारने में बड़ी हिंसा होती है ] जो लोग अपने देवी देवताओं के वाहन तरीके से या देवीकी आकृति के तरीके से कोई २ मनुष्य मानते हैं, वे गणपती की आकृति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा हाथी और इंद्र वा महादेव की सवारी जैसा हाथीसिंह या वाघ को मारने में कैसे योग्य गिना जाय ? वास्तव में एसा जीव हिंसा का विचार भी अधोगति में जाने की सूचना करता है। कसाई अपना मांस बेचने का धंधा करते होते हुए भी बकरा भालू या पाडा का गला स्वयं काटते ही नहीं। परंतु एकदो पैसा देकर गलकहा वगैरह नीच के हाथ में छुरी फीराते हैं। क्योंकि वैसा करने में वे भी पाप मानते ही हैं [अतः "मांस खाने में पाप है" इस बात में हरेक आदमी सहमत है ] इस के शीवा मांस के अंदर क्षण २ में अनेक त्रस जीव उपजते हैं। मांस अग्नि ऊपर के पकातेहो और पकाये पीछे भी वे उपजते ही रहते हैं। उसका प्रमाण यह है कि"पड़े रहे हुवे शब में बड़े २ कीड़े पड़ जाते हैं, परंतु वे कीड़े समय पर बड़े होते जाते हैं । पहिले तो वे बारीक होते हैं । शरीर में से अलग हुवा मांस यह मरा हुवा भाग है । इस लिए वह शरीर से छुटते ही सड़ने लगता है। और तुरंतही उसमें उसहीके रंग के कीड़े-जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं । अतः भी “ मांस खाने में असंख्य जीवों की हिंसा होती है " एसा परोपकारी महापुरुषोने कहा है । अतः हरेक प्राणि को अपने ही समान जानना और उनकी हिंसा से बचना । मांस वगैरह प्राणिजन्य-खान-पान तथा औषध वगैरह का कोइभी प्रकार का उपयोग करना ही नहीं चाहिए। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी हिसाबसे श्री जैन शासनमें पंदरह कर्मादान छोडनेकी दरेक धर्मात्मा पुरुषको हमेशके लिए खास तौर पर कहा है । कितने ही दगाखोरलोक घीमें चरवी और वेजीटेबल नामके घी की मिलावट करते हैं । विलायती बिस्कुट वगैरह में अभक्ष्य पदार्थका मिश्रण की संभावना होतो है। आज कल कितनेही लोक ऐसी चीजोंको खाते है । यह वास्तव में खेदजनक ही है । उसीसे बिस्कीट [किसी २ बिस्कुट या चोक्लेट में इंडे का रस या शराब चीज स्वाभाविक ही होने का सुना जाता है। गाय के मांस की भी चोक्लेट आती हैं। अपने यहां पतासें आदि के बदले बच्चों को पीपरमेंट की मीठाई बांटी जाती है, यह हमारी बड़ी से बड़ी भूल है । क्योंकि भविष्य में अपनी भावि संतान को मांसाहारी बनाने की यह प्राथमिक योजना है । पीपरमेंट की गोलियों में से छोटी चोक्लेट और उसमें से बड़ी चोक्लेट तथा उसमें से ज्यादा बड़ी चोक्लेट व उसमें से उसीसे अधिक बड़ी, और कीमति और विटामिन्स वाली-जो लग भग मांस में से ही बनाई जाती है-उस तरफ-धीरे २ आकर्षित किया जा सकता है ) आदि घृणित चीजों को छूना भी न चाहिये। कितनी ही विलायती औषधिएं जैसे कि कॉड लीवर ऑइल (कॉड नामक मछली का कलेजा का तेल), कॉड इमलशनबोपरील और बम्बई आदि चरवी इत्यादि के संभेलसे बनाते हैं । इसका त्याग करना अत्यावश्यक है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी स्वास्थ्यता कायम रखने के लिये कई मनुष्य मक्ष्यामक्ष्य का विचार नहीं करते हुए ऐसी चीजें व्यवहार में लाते है। लेकिन हे भव्यात्माओ! उसका-किंपाक के फल के समान-फल बहुत नीच गति में जाकर भोगना पड़ेगा, तनिक उनका भी विचार करो । अनादिकाल से स्थूल शरीर का पोषण करते हुए ही यह जीव चारों गतियों में पर्यटन कर रहा है । लेकिन पवित्र मन के बिना आत्मा का कल्याण कैसे हो सकता है ? इस लिये जन्म, जरा, मृत्यु, आधि, व्याधि और उपाधि के दुःख निवारण करने के लिए इन अभक्ष्य पदार्थों का सर्वथा त्याग करो। धन्य है राजकुमार वंकचूल! तुमने, प्राण त्याग दिये लेकिन मांस भक्षण नहीं किया। और फलतः देव गति प्राप्त की। __ हम ऐसे महापुरुषों का अनुकरण करना कब सीखेंगे? और मोक्ष-श्री को कैसे प्राप्त करेंगे? जैसे दूध बिगड़ जाने पर खाने लायक नहीं रहता, उसी प्रकार दहीं भी जमाने के बाद दो रात्री के बाद में जंतु पड़ जाने से अभक्ष्य हो जाता है। सांड ( उटनी) के दूधमें अंतर्मुहूर्त के बाद जीव पैदा हो जाते है । अतः अभक्ष्य हो जाता है । उसी प्रकार सर्वज्ञ जिनेश्वर देवने मक्खन को भी अमक्ष्य कहा है । छाछ (भेद) में मक्खनका आ जाना संभव है । विरतिवंत जीवों को छान कर छाछ को काम में Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेना चाहिये । और अनजान में नहीं आ जावे इसकी पूरी २ यतना रखनी चाहिये । मक्खन में छाछ में से निकलते ही अंतर्मुहूर्त में तद्वर्ण जीवोत्पात्ति हो जाती है। जिनेश्वर भगवंतोने जो धर्म बतलाया है, वो सत्य मानना चाहिये. [आगम गम्य पदार्थो से कितनेक पदार्थ प्रयोगगम्य कर सकते है. परन्तु ऐसे साधनो करने में बड़ा भारी खर्च का सामना करना पड़ता है. अथवा सूक्ष्म हेतुवाद समझने में बहुत गहरे अभ्यास और सूक्ष्म बुद्धि की जरूरत पड़ती है. वैसे साधन और समझने की शक्ति न होने से सर्वज्ञ भगवंतों की वतलाई हुई हरएक बात सत्य मानना चाहियें.] (उपसंहार ) उपर बतलाई हुई चार महा विगई को [ मध, मदिरा, मांस, मक्खन ] का अवश्य त्याग करना चाहिये. प्रभु की आज्ञा पालन करना यह धर्म है, और उसमें दया, संयम तथा निर्मल जीवन का लाभ समाया हुवा है. यह चार विगई खाने वाले जिन्दे रहते है, और नही खाने वाले मर जाते है. यह बात नहीं है। तो फिर क्योंकर पाप में पड़ना ? १० बरफ बरफः हीमः और ओते. इन तीन चीजों में एकी सरीखा दोष होता है. अपकाय (हरेक सचित्त पानी का एक बिन्दु असंख्य Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवमय होता है, एक जीव का शरीर का सरसव के दाने मुताबिक कल्पना की जाय, तो पानी के एक बिन्दु के जीव लाख योजन जंबूद्वीप में न समाय. इतने [ सूक्ष्म ] छोटे शरीर वाले . होते है. [पानी को छान कर बरफ कोन बनावे ? और छानावे तो भी बहुत से छोटे जीव गलने में से निकल कर रह गये होतो तमाम ठंडी के उपद्रव से मुकड़ा करके मर जाते है, अगर कोई बच जाय तो उपयोग करते वक्त उसकी मृत्यु हो जाती है। इस तरह कई प्रकार से उसमें पाप प्रत्यक्ष समझ में आता है। बास्ते बरफ वगेरेको अभक्ष्यमें गिनने में आता है, वो ठीक है। ___ यानी पानी खुद असंख्य जीवमय होता है. और उसके उपरांत पानी के एक बिन्दु में कितने दुसरे (त्रस जीव होते है वो सामने के चित्र में देखो.] यद्यपि पानी बिना निर्वाह न हो, वास्ते जरूरत पुरता कच्चा पानी वापरने में आता है। ___ गर्मी को शांत करने में चंदन ( सुखड़) बरास खड़सलीया पित्त पापड़ा का विलेपन करने में आता है. शकर का पानी बदाम या मुखड़ सहीत पीने से तृषा शान्त होती है. केले भी शीत प्रदान है. मलयागिरी, सुरोखार, लीम, गलोका सत्त्व, किरीयाता और बुचकण आदि अणहारी वस्तुएं रात को अभिग्रह होते हुवे भी वापरने में आती है. हिम [बरफ] कुदरती होता है, और खास मशीनो के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે. ક દાદ કે, જા ર - - : • E : - ' મ9 : - : * ક. ૬ * : RE છે. કામ * 8 જ - - - . SR.T* સિંઘપદાર્થ વિજ્ઞાન નામનું પુસ્તક અઘબાદ 'ગવર્નમેટ પ્રેસમાં છપાયેલું છે જેમાં કેપ્ટન હોબીએ સૂક્ષ્મદર્શક યંત્રથી એકપાણીના ટીપામાં ૩૩૪ ૫૦. જીવો હાલતાચાલતા જોયા તેનું ચિત્ર છે. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ 'साधनो से बनता है। वो दोनो प्रकार का अभक्ष्य है. सबब उस में पानी के असंख्य जीव है, बहुत आरंभ करने का तिर्थंकर परमात्माने निषेध किया है. आईसक्रीम, आईसवॉटर, ( बरफ का पानी ) आईससोड़ा, कुलफी, प्रमुख बरफ की चीजों का अवश्य त्याग करना चाहिए. [ आईसक्रीम बनाने में बरफ तथा कच्चा पानी और निमक काम में लिया जाता है. जिससे छोटे एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौरिन्द्रिय चलने फिरने वाले जीवों का नाश होता है. ] मशीनो के अन्दर में रहा हुवा दुध आदि का रस साफ करने में न आवे, तो दोइन्द्रिय वगैरह जीवो का उत्पन्न होने का प्रसंग आता है, परन्तु वो जीव बहुत छोटे होने से ( दृष्टि ) नजर में न आते, और दुसरी दफा नया दूध गिरने से फोरन बिचारे का विनाश हो जाते है. इस तरह त्रस जीवों की हिंसा होने का संभव होता है. ऐसी बात का विचारकर जिह्वा इन्द्रिय में लग जाने से अपने में कितनेक अहिंसामय धर्म को मानने वाले आगेवान जैसे जैन बन्धुओं भी त्याग नही करते. अनेक जीवो का प्राण लेने का कारण हो जाता है, जैसे आगे उनके पूज्य बड़े सचित्त त्यागी और गंठसी - वेढ़सी प्रमुख कठिन नियमो को पालन करने में मजबूत रहते थे. परन्तु इस काल में कई बंधु चलते हॉटल - विश्रांतिग्रह (विश्रांति नहीं परन्तु खास विनाशकारीग्रह) आदि में ( भक्ष्याभक्ष्य ) याने खानेपीने में और Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (स्पर्शास्पर्श) छुने छाने आदि बुरी बातों का विचार नहीं करते। इसी तरह आगामी जन्म का [इस जन्म में गुरू बड़े व ज्ञाति आदि का भय न होनेसे] डर नही रखते हुवे निर्भयता से नाश होने के कारण नही समझते हुवे इन मामूली चीजों से खुद अपने मन की इच्छाओं तृप्त कर के खुद आत्माओं को भ्रष्ट कर देते है। अफसोस! यह बात कितनी दुःखप्रद है ? बन्धुओं! दुसरे जीवों को होता हुवा दुःख का कुछ विचार अपने विचारशील दिमाग पर लाकर ऐसी तुच्छ चीजों का हमेशा के लिये त्याग करना चाहिये । व बिगड़ी हुई बातों को सुधारना चाहिये । [कितनेक वैद्यो का मत है कि-"बुखार के अन्दर बरफ बहुत से काम में लाया जाता है. अगर शरीर नाशक बुखार हो तो चाहे जितने मण बरफ रखने में आये, तो भी उसीसे बच नहीं सकता. और शरीर को विनाशकारी जैसा न हो तो, उस समय के जोसके बाद चाहे जैसा बुखार हो, कम होते ही सिर का भार हलका हो जाता है, इतनी बात ठीक है कि-बरफ रखते समय बीमार को आराम पहुंच जाता है, .परन्तु जोरदार बुखार हो तो बरफ को हटाते ही फोरन उसको बुखार का असर मालूम पड़ने लगता है. इसी तरह बरफ रखने का रिवाज बढ़ता जाता है. परन्तु बरफ रखने से नुकशान होता है. यानी जहां बरफ रक्खा जाता है वहां का खून घट्ट हो जाता है. जैसे आईस्क्रीम [ बरफ दुध आदि वस्तुओं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ से बनता है उसी मुताबिक खून भी जम जाता है. फिर उस जमे हुवे खून का हृदय में प्रचार होने से शरीर को कमजोर बनाता है. इसके साथ २ दुसरे रोगो को भी निमन्त्रित करता है। एसी मतलब है।" ११ विष-[जहर चार प्रकार का होता है. खनीज़ः प्राणिजः वनस्पतिज़ और मिश्रणजः सोमलः हड़ताल आदि खनिज है. और सांप बिच्छु वगेरे का प्राणिज है. बच्छ नागः अफीयूनः धतुराः आकड़ा आदि वनस्पतिज है, मध और घीरत बराबर मिलाने से वो भी विष बन जाता है, और मिश्रणज कहलाता है. ]-अफीयून, सोमल, वच्छनाग, हड़ताळ मीठा तेलीया, संखया आदि प्रमुख चीजे अभक्ष्य है. सबबउस जहर खाने से पेट के कीड़े आदि जीवों का नाश होता है. और शरीर कमजोर होजाता है, व पराधीन बनजाता है। वास्ते जहरी वस्तुएं ताकात और शोख के लिये नही खाना चाहिये, औषध के लिये काम मे ला सक्ते है. [मगर यह भी ठीक नही ]. देखो व्यसनी (आदत वाले) मनुष्य का क्या क्या हाल होता है. यानी समय पर अफीयून नही मिले तो आत्मा में बेचेनता और क्रोध बढजाता है. और उस चीज खाने वाला जहां मल मूत्र करता है, उस जगह पर (त्रस स्थावर) छोटे बड़े जीवों का विनाश होता है. और यह वस्तुएं खाकर आपघात करने से दुसरे जन्म Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५ में नरकादि नीच योनियां में भ्रमण करना पड़ता है. इसीलिये जहर व्यसन व आपघात करने में नहीं खानी चाहिये और इनका व्यापार भी नही करना चाहिये.अगर राज्य कर्ता ज़हर के व्यापार करने की इजाजत मर्यादित उपयोगके लिये देवें तो ठीक है. सर्वज्ञ भगवंतोने पन्द्रह कर्मादान छोड़ने में जहरका व्यापार करनेका इन्कार फरमाया है. क्योकि उसके व्यापार से बहुतसे बुरे काम होते है. माताएं अपने बच्चों को अफीयन को छोटीर गौलीयां बनाकर देती है. लेकिन उस व्यसन से फायदा नहीं होता. बल्कि उलटा नुकसाक होता है. [ थोड़े समय के लिये ही बच्चे को स्फूरतीप्रद होती है. और बिमारीयां उनके अन्दर अपना घर बना लेती है. उनकी माताएं इस बात का ख्याल नहीं रखती. कदाचित-किसी समय भूलसे गौलीयां मुकाम सर न रख्खी गई हो, और वच्चे के हाथ लग जाय व ज्यादा खा लेवे, तो उसकी मृत्यू हो जाती है. इसीलिये समजने वाली माताओं को ऐसी जहरीली चीजें न मंगाना चाहिये.x X सोमल: पाराः गन्धकः वच्छनागः जहरकोचलाः धत्तुराः अफीयूनः क्वीनाईनः आदि झेरी चीजें औषधि के काम में लाई जाती है. वो औषवियें ताकात देने बालि व फायदा करने बालि होती है. और जल्दी रोगो का नाश करके फायदा पहुंचाती है. इससे सामान्य दवाईयां बेचनेवाले वैद्य डाक्टर भीजल्दी प्रसिद्धि को प्राप्त कर लेता है. साथ २ उनकी इज्जत व धन की प्राप्ति भी अच्छी होती है. लेकिन Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ कितनेक विद्वान समझदार वैद्य डाक्टर का मत है कि-"अखीर में इनका परिणाम (भयंकर ) नुकशानदायक होजाता है. यह पदार्थ ज़हरी है. इसी लिये इनका जहर असर किये बिना नही रहता.” परन्तु बहुत से मनुष्य इस प्रकार का प्रश्न करते है कि-इनमें दुसरी चीजों का पट देकर उनका ज़हरी असर नेस नाबूद करने में आती है, इसी लिये वो जहर असर कैसे कर सके ? उनके जवाब में कहते है कि-"वनस्पतिया का पट जहर को जड़ से नहीं मिटा सकता. परन्तु उनको छीपा दे देता है. जहर हमेशां जल्दी से जल्दी फिरने के स्वभाव वाले होता है, एकदम खून में मिलकर फेल जाता है. साथ ही साथ इन में वनस्पतियों के पट का असर जल्दी होता है. इसी लिये वो उन वक्त तो नुकशान नहीं करता। वनस्पति वगेरे दवाईयों का गुण शरीर में जल्दी फैलाकर अच्छा बना देता है. मगर कुछ दिन के बाद वनस्पतिका पट को शरीर में रही हुई सात धातुऐं पचा लेती है. फिर शेष रहा हुआ जहरका असर एकदम फेल जाता है. व हृदय के अन्दर जाकर उनको कमजोर करता है, फिर उस कमजोरी के कारण दुसरे नये रोग उत्पन्न होने का मौका देता है. जिसीकी बिमारी को मालूम नहीं होती और सारी उम्र तक खाये हुवे अनेक प्रकार के जहर का असर शरीर में इकठा होने से वृद्धावस्था में जल्दि मृत्यू ले आती है. जहरीली औषधी कि सहायता को मेंणे की चौकी कहते है. जैसे गांव में चौकी करता है, और जंगल में मनुष्य अकेले फिरे तो वोही लूट मार करता है। इसी तरह शरीर में खून वगैरा धातुओं का जोर बराबर हो, उस वक्त तक शरीर को शक्ति शालि रखता है. लेकिन ज्यों २ खून कम होता Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। त्यों २ वह ज्यादा २ आक्रमण करने लगता है। अखीर में बीमार को खुद की कुदरती उम्र से जल्दि मरने का कारण आजाता है। उस में जहरीली औषधी जहर की तरह असर कर जाती है. जिनकी मनुष्य को मालुम नही होती कि मेरे खुद की कितनी उम्र थी? और जहरने कितनी कम की? वो यह समझता है, कि-मेरी मृत्यू कुदरती हुई. परन्तु सच्चे रूप से देखा जाय तो जहरने ही उसकी उम्र कम की है. याने जहर तो जहर ही रहता है. ज्यादा खूबी तो यह होती है कि चाहे जैसे रोग में बिमार को चालु खुराक पर रखकर आराम करने वाले डाक्टर और वैद्य ऐसी असर कारक दवा देते ह कि उससे बिमार को फोरन फायदा पहुंचता है क्योंकि ज़हर व जड़ा बूंटी से मिली हुई दवाइयां ऐसी असर बतलाकर दिमाग, हृदय, और शरीर की धातुऐं वगैरा रक्षा करने वाले तत्वों की मदद लेकर बीमारी को साफ कर देती है. जिस से बीमार फोरन आराम हो जाता है. लेकीन सच्चे रूप से बीमारी जड़ मूल से नेस नाबूद नहीं हो सकती. बल्की बिमारी शरीर के अन्दर के तत्त्वों में विभक्त हो जाती है. और औषधी के जहर से शरीर स्वस्थ मालूम होता है। जब दवा का असर कम हो जाता है तब फिर इस तरह दवा लेने पर पहिले ग्रहण की हुई दवा असर नही करती. वास्ते उससे ज्यादा जहरीली असर वालि दवा देने में आती है. जससे उसका अच्छा परिणाम मालूम होता है। ऐसे लगाता ह जोरदार औषधी के जोर से बहुत से बहुत से बीमार मृत्यू से बचे रहते है. मगर जहर का असर इकट्ठा होने से बीमार की आयुष्य पर बड़ा भारी असर पड़ता है। और देशी विदेशी वैद्यक में ऐसी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ लगाता है जोरदार शास्त्रसिद्ध गिनी जानेवाली दवाईयां बनती है. अच्छे डाक्टर और वैद्य तेज दवाईयां क्वचित् देते है. कभी देते, तो वक्त लेने को इन्कार करते है. और जहां तक बन सके, एसी दवा नहीं भी देते है. फिर जरूरत के मुताबिक खास आत्यमिक कारणों में ही देते है । लेकिन अंग्रेजी दवाईयां और उस में खास पुरान ( Injection ) इन्जक्शन जहर वाला होता है. इतना ही नहीं लेकिन होमियोपेथिक जैसी बार क्षार वालि और दुसरी औषधियां ज़हर से मिली हुई रहती है. जैसे ऐलीया जैसी दवाईयां को (Sugar of milk) शुगर ऑफ मिल्क में घोट घोट कर इतनी बारीक कर देते है जैसे ज्यादा दुध का शक्कर में जहर का भी बहुत ही बारीक बनकर शरीर में एकदम फेल जाते है, ओर छोटी से छोटी तत्वो में मिलकर असर करते हुवे बनावटी चाल देकर रोग को दबा देते है । पीछे से अपना ज़हरीम पन बताये बिना नही रहता. कितनीक दवाईयां इन्द्रियों को तेज बनाकर दर्द नही होने देती है. लेकीन इनके उपर से बिचार कीया जाय की रोग का नाश हो गया में यह बात मानने में नही आ सकती. देशी वैयो में से कितनेक हिमगर्भ की गोली को एक दो मरतबा घिस कर मरते हुवे आदमी को पिला कर बातचीत करवा देते है. उसका कारण बीमार की मृत्यु की तै पारी होती : है, तथापि यह दवाईयां अपना जोर बता का स्वबा देती है. या बातचीत करने पूरता बीमार को अच्छा करती है. लेकिन इसकी शक्ति हउ जाने पर मरने जैसा हो जाता है. और कुच्छ जल्दी मृत्यु को प्रात: कर लेता है. वो दवा देने वाले कहते है कि - " अब जल्दी मृत्यु होगी, · Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ करा-यानी ओले आकाश में से पडते है उसमें भी बरफ के मुताबिक महा दोष है.१ जिनेश्वर की आज्ञा के खिलाफ है. वास्ते त्याग करना चाहिये. [देखोबरफ पृष्ठ १९] समालना.” मगर उसका कारण जहर होता है. बहुत से प्राचीन वैद्यक में ऐसे जहर का उपयोग खास कर बतलाया नहीं। अलबत्त, ऐसे प्रसंग कभी जरूर होते है। जिसमें जहर की खास जरूरत पड़ती है. जैसे--पानी के अन्दर डुबे हुवे मनुष्य मूर्छित हो जाता है। उस वक्त उसको हिम गर्भको गोलि कुछ प्रमाण में एक दफा धिस कर पिलाई जावे, तो उसकी मूर्छा उड़ जाती है। परन्तु कुछ देर देख कर अगर जरुरी देखने पर देना चाहियें, लेकिन मरने जीने का खास महत्व और सच्चे प्रसंग में देने में आवे, तो हरकत नहीं । ऐसे खास कारण में बताई हुई जहर की चिकित्सा को पीछे के वैद्यक में व्यापक कर दी गई, ऐसा मानने में आता है। और आधुनिक विदेशी चिकित्सा का जहर खास प्राण है, ऐसा मानने में आता है।' इसके उपर से जहर को अभक्ष्य गिनने में जैन शास्त्रकारो की कीतनी सूक्ष्म दृष्टि है ? ये समजानेके लिये इतनी चर्चा की गई है। (१) जैसे कच्चा फल और उगता हुवा धान्य खाने से मीट चड़ती है. और गर्भवालि स्त्री के कच्चा गर्भ गिर जाय, उस वक्त सुवाबड़ में खाने जैसी घी वगेरे उत्तम वस्तु के बदले उसको कसुवावड़में तेल चोल कलसे बाजरी की सुखी रोटी वगैरा खाना पड़ती है इसी तरह कच्चे गर्भकी तरह कच्चे वरसाद का स्वरुप ओले कुदरत खिलाफ होने से अभक्ष्य है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० १३ भूमिकाय (पृथ्वीकाय) सर्व जाती की मट्टी. मश्लन खड़ी, भूतड़ा (सरकड़ा) खारा कच्चा निमक वगैरा अभक्ष्य है. ___ क्योंकि उसमें असंख्य जीव है. मट्टी नमक. इसमें दोष का मुख्य कारण-प्रत्येक वनस्पतिकाय में जैसे एक शरीर में (पत्ते फल बीजमें) एक २ जीव है, वो हरेक जीव कबूतर मुताविक शरीर करे, तो इतने जीव इस लाख योजन गोळाकार (जंबूद्वीप में) रह नहीं सकते, इतनी बड़ी संख्यावाले होने पर भी छोटे शरीर वाले होते है. उसका नाश करके अल्प तृप्ति लेना, उसके बदले एसी चीजो को त्याग कर उन जीवो को अभयदान देना चाहिये. इन चीजों के बदले दुसरी बहुतसी अचेतन चीजें मिल सकती है. आंबला, ककोड़ी, अरीठा, वगेरे वस्तुए नहाने धोनेमें काममें लेना ठीक है. गर्भवाली स्त्री को भूतड़ा खाने से गर्भ को व्याधि और नुक्सान होता है. ___पापड़ या साळीयां बनाने में संचीरा वापरने के बदले. साजीखार उपयोगी होता है. चाक, चूना, गेरू, अचित्त होने से पेट में असंख्य जीवों की उत्पत्ति होती है. याने पांडूरोग, आमवात, पित्त, पथरी, आदि प्रमुख रोग होते है. और कितनेक जातकी मट्टी, गेरु वगेरे समुर्छिम जीवों की योनि रूप होती है. जिससे अभक्ष्य है. वास्ते उसका अवश्य त्याग करना चाहिये. और अनाज Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कंकर खाने में आ जाय या पानी में धुल उडकर पड़े, और शाक तरकारी में मिट्टी लगी हुई हो. उसका उपयोग करते हुवे भी मिट्टी रह जाती है. लेकीन कच्ची मिट्टी के नियमका भंग नहीं होता. परन्तु उसकी जयणा तो रखना चाहियें. कच्चा-सचित्त निमक श्रावक को त्याग करना चाहिये. और अचित्त वापरना चाहिये. पृथ्वी में से खान खोदकर निकला हुवा पहाड़ से मिला हुवा या समुद्र के पानी से आगर में जमा हुवा एसा वडागरू, घशीयु, उस, लाल सेंध्या वगेरे अनेक खार जिसको अग्नि रूपी शस्त्र न लगा हो वहां तक सचित्त है. वैसा तमाम प्रकारका निमक हरेक जैन भाईयों को त्याग करने लायक है. ग्रहस्थों को अचित्त किया हुवा (बिकता हुवा) कीमतसं नहीं मिले, तो जरूरत पूरता अचित्त कराना चाहिये. दाल शाक में डाला हुवा सचित्त का अचित्त हो जाता है. परन्तु आचारमें, मशालेमें, मुखवास और औषध में अचित्त निमक वापरने में योग्य है । ___ अहणहारी में गिना हुवा-सुरोखार, टंकणखार और फटकड़ी ये अचित्त है। निमक भिन्नभिन्नरीतिसे होता है। एकमिट्टी के बरतन में निमक मरकर उपर से मुंह मजबूत बन्धकर कुम्भार या पहलवाइ की भट्ठी में रखनेसे बराबर अचित्त होता १ निमक कुंभार के यहां अचित्त करनेके लिये देनेकी प्रवृत्ति गुजरात में पाटण शहर के अन्दर है. यह रिवाज कुमारपाळ महाराजा के Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ है. इस तरहसे अचित्त किया हुवा निमक चार पांच वर्ष तक सचित्त नहीं होता. श्रावक खुद के घर एक सैर निमक खांडकर या पीसाकर लगभग दो सैर पानी में मिलावे, फिर एक रस होने के बाद छानकर चुले पर रखकर जैसे शक्करका बुरा बनाया जाता है, वैसेही शेक डालना चाहिये । इस तरीके पर बनाया हुवा निमक बराबर अचित्त होता है. परन्तु पानी के संयोग से किया हुवा रस दो चार माह के बाद सचित होने का संभव है। भट्ठी में पका हुवा बलमण का काल अधिक होना संभावित है । कारण-भट्ठी में शिका हुवा निमक स्वयं गलकर पानी होकर ढेपा बंध जाता है । कोई२ जगह पर लोहे के *तवे वगैरा में शेकते हैं. परन्तु जब तक लाल रंग न हो जमाने से चला आता है. वहां पर दांतन का चीर व अचित निमक कॉमत से बिकता हुवा मिलता है. जिसको अहमदाबाद के कितनेक श्रावक मंगवाते है. तथा अचित खारा हलवाई की पेढ़ी में मिलता है. * काठीयावाड़ में कितनेक आयंबील एकासमा प्रमुख में अचित्त निमक वापरने के लिये तवेया कटोरी में सचित्त निमक डालकर चुले पर थोड़ी देर शेक कर उपयोग करते है । उनको अवश्य समझना चाहिये कि निमक को योनी इतनी सूक्ष्म है की जिसके बदले शास्त्रकारोंने भी भगवती सूत्र के १९ में शतक के तीसरे उद्देश मे फरमान किया है कि- चक्रवर्ती की दासी वज्रमय शीला के उपर ब्रज के बत्ते से इक्कोसबार घी तो भी निमक का जीवको बिलकुल असर नहीं होती. वास्ते अग्नि रूपी Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ जाय, तब तक अचित्त नहीं होता. क्योंकि निमक की योनि बहुत सूक्ष्म है, वास्ते उसको अग्नि रूपी शस्त्र जब तक बराबर नहीं लगे, तब तक अचित्त नहीं हो सकता. मुनिराज श्रीवीरविमलजी महाराज सचित्त-अचित्त की सज्झाय में लिखते है कि अचित्त लवण वर्षा दिन सात, सियाले दिन पन्दर विख्यात । मास दिवस उन्हाळा मांहि, आघो रहो सचित्त ते थाय ॥ १ ॥ + यानी- “अचित्त किया हुवा निमक वर्षा ऋतुमें सात दिन, शस्त्र बराबर नही लगे तबतक अचित्त नहीं होता. अन्यथा शंकाशील जानना, अचित्त निमक निकालतें वक्त हाथ साफ करके निकालना चाहिये, नहीं तो सचित्त पानी का एक बिन्दु मात्र सचित्त हो जाता है. इसलिये बहुत ध्यान रखना चाहिये. पड़ने से निमक + इस दुनिया में आहार, भय, परिग्रह और मैथुन यह चार संज्ञा तमाम जीवो को होती है. देव देवीयों को कोई व्रत पच्चक्खाण नही होता. जिससे वो पिछले जन्म के मुनाफे का भोग करके फिर परभव में खाली हाथ से जाने वाले होते है. तथा नरक गति में सिर्फ दुःख सहन करते है. इसी तरह वो रात या दिन देखते नहीं. जीससे व्रत नियम का वहां पालन व शुभ कार्य नहीं किया जाता है. सबब पुन्यका बंध नही पड़ता. और तिर्यच गति में पशु पक्षि सर्व विवेक हिन होता ३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठंडी ऋतु में पन्द्रह दिन, व गर्मी की ऋतु में एक मास अचित्त रहता है. उसके बाद सचित्त हो जाता है." इस तरह काल मान का रंगत देखते हुवे घरमें ही तवा या कड़ाई बगैरे लोहे के बरतन में शेक कर अचित्त किया हुवा निमक का इतना काळ मानने में आता है. क्यों कि भट्टि में पक्का हुवा बलमन का काल तो प्रवचन सारोद्धार वगेरे मैं बहुत बड़ा-प्रभूत कहते है। दो चार वर्ष या उसके उपरान्त कुछ समय तक अचित्त रहता है । अर्थात् उसका काळ बहुत समझना। श्रावक मूळ भांगे सचित्त परिहारी होता है। जिससे प्रमाद को त्यागकर तमाम सचित्त वस्तु का त्याग करना चाहिये। सर्वथा नहीं बन सके तो, सचित्त निमक का तो अवश्य त्याग करना चाहियें. १४. रात्रि भोजन:-इस जन्म व आगामी जन्म के लिये महा दुःख का कारण होता है. रात्री को चारो आहार अमक्ष्य है. रात्रि भोजन करनेवाला आगामी जन्म में उलुक, काग, गीध, भुंड, बिच्छु, घो, बिल्ली, चुहे, सर्प, वागोल, चामचिड़ीया वगैरह के भव करना पड़ता है. व महा दुःखी होते है और उनको धर्म का मिलना बहुत ही दुर्लभ होता है। जो मनुष्य खुद रात्रि भोजन करते है. उनके पुत्रादिक की भी बुरी आदतें पड़ जाती है. ___ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ अलावा, भोजनमें चिंटी खानेमें आ जावे तो बुद्धि मंद होती है। जू जलोदर रोग पैदा करती है. मक्खी वमन करवाती है. ( माता पुत्रकी व्यवस्था रहीत होने से ) है. खाना पीना पराधीन होता है. सिर्फ मनुष्य गति में उनको सच्चे शास्त्र का भरोसा है, जिससे त्याग करते है. जो पुन्यवान आत्मा रात्रि भोजन के पारावार दुःख को समझते है. मोक्षः याने मनुष्य काही कर्त्तव्य करना चाहिये. त्याग याने दान अर्थात् अभयदान देना चाहिये की जिसका फल शिव है. उसको प्राप्त करना चाहियें. अठारह पापस्थानक में पहिले प्राणि हिंसा व्याग करनेकी है. फिर दुसरे स्थानको की त्यागवृत्ति होती है. अथवा पहिले प्राणातिपात विरमण व्रतका पालन करना वो दुसरे व्रतों की संभाल के लिये क्षेत्रकी वाढ रूप है । अपने लिये या दूसरे के लिये हिंसा नहीं होनी चाहिये। ऐसी अच्छी चाल रखने के लिए रात्रि भोजन का त्याग चार प्रकार से सर्वज्ञ, सर्वदर्शि, परमात्माने परोपकार करने के लिये अनेक शास्त्र द्वारा फरमाया है. साधु मुनिराज रात्रि भोजन का सर्वथा त्याग करते है. याने पंच महाव्रत के साथ छठे व्रत का पालन करने को सुचना की है. दुसरे जीवो को भी मनुष्यों की तरह कान, आंख, नाक, मूंह वगैरह होते है. परन्तु विवेक पूर्वक अच्छे वर्त्तन रूप धर्म, मनुष्यों को ज्यादा है. अनादिकाल से जीव खाता आया है । मगर तृष्णा नही छोडी वहांतक सन्तोष वृत्ति का सुख नहीं मिल सकता है 1 1 सूर्य होता है. जबही वातावरण स्वच्छ रहता है. और वो नहीं हो उस वक्त याने रात को वातावरण बिगड़ता है। ऐसे बिगड़े समय में Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ उसके करोलिया, कुष्ट रोग पैदा करता है। अरूवेश प्रमुखका कांटा तथा कष्ट के टुकड़े तालवे को चीर डालते है । बडा वगेरे या खानापिना फीरना राक्षस, भूत और प्रेत के मुताबिक है. और निशा - चर ( रातको आहार लेने वाले घुबड़ बिल्ली) जैसे कहने में आते है... भोजन बनाते वक्त जहरी जीवों की तंतुवें किसी वक्त पड़ जाय, तो देखने में नही आते, और फिर उससे अवसान होनेका कइ उदाहरण मिलते है. जैसे किसीको मारकर भाग जाना अन्याय है. वैसेहि भोजन कर सो जाना अनारोग्यकर है। वास्ते सूर्यास्त के पहिले भोजन कर लेनेका वेद पुराण में भी लिखा हुवा है। उसका उलटा अर्थ बताकर उपर बताये हुवे शास्त्र की आज्ञा का भंग करते है. चुंटी, कुंथुं, जू, इयल, उधई, मच्छर, वगैरे बहुतसे छोटे बड़े जीव का घात रात को खाने पीने से होता है. इस बात को तमाम कबूल कर सकते है. यानी वो प्रत्यक्ष देखने में आता है. वास्ते यह काम आर्यों को भूषणरूप नही है. जब मांगने से नही मिले और जोगवाई भी न हो, या बिमारी में लंघन कर भूखा रहे. उससे रात्रि भोजन का फल नहीं मिलता, परन्तु शक्ति होने से हरेक चीजकी जोगवाई मोल जाय तो भी त्याग भाव से इच्छा का रोध करना चाहिये, ऐसा करने से रात्रिभोजनका त्याग करने से दररोज आधा उपवास का महाफल होता है. (१) पुराण आदि वैदिक शास्त्रो में भी रात्रि भोजन का महा पाप बतलाया हुवा है. उस कारण से - सूर्यास्त न हो, उन्हे पहिला भोजन करने का फरमान किया है. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान आकाखाली चीजमैं या शाक-तरकारीमें अगर साप बिच्छू आजाय तोतालवा फोड़ डालते है। याने बाल आ जाय तो गलेमें और निशीथ सूत्रकी चूणि में भी कहा है कि-गरोळी का अवयव रातको भोजन करने में आवे तो जरुर पेट में गरोली जैसे जीव उत्पन्न होते है. और सर्पादि के तंतु-विष गीर गया हो, तो अवश्य मोत की 'निशानी है. चूहे वगैरह की लिंडी से पीसाबकी महा व्याधि होती है. वैसेही व्यन्तर भी छलते है. .. उपर बताई बात निशीथ सूत्र के भाष्य में लिखी है. रातको तैयार सुकी चीज लड्डु, पेंडा, खजूर, द्राक्षादि खाय, तो उसे रोशनी या चन्द्र प्रकाश होते हुवे भी कुंथु तथा पंचवर्णि (रंगबिरंगी) लील फुगी वगैरह की विराधना होती है. वास्ते अनाचरणीय है. याने वो मूल व्रत का विराधक होता है. : .. स्कंद पुराण में “रात को पानी को खून समान और अनाज को मांस के ग्रास मुताबिक" कहा है. रुद्रने कपाल मोचन सूत्र में कहा है कि-" रात को भोजन नहीं करनेवाले को तीर्थ यात्राका फल होता है. और दान, स्नान, श्राद्ध, पूजा आहूति और भोजन यह सभी रात को नहीं करना चाहिये। आयुर्वेद में-"हृदय और नाभि कमल रात को बन्द हो जाते है। जिसे उस वखत कोई (चार प्रकार से) आहार नहीं करना" ऐसा कहा है. योगशास्त्र में “ शामको सूर्य दो घड़ी बाकी रहते वख्त ओर सुबह में दो घडी सूर्य उदय हो जाने पहिले रातके माफीक खान पानका त्याग करने से महापुण्य होता है." ऐसा बतलाया है. ___ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुतही पीड़ा उत्पन्न करते है। इत्यादिक रात्रिभोजन सम्बन्धी बहुत दोष है। कितनेक पशु, पंखी भी रातको भोजन नहीं करते। वास्ते यह बात भी देखकर रात्रिभोजन का त्याग करना चाहिये। ' दिन होते हुवे अंधेरे में या छोटे बरतन में भोजन करना भी उपर बताये मुताबीक दोषित है। दिन में बनाया हुवा भोजन रातको खावें. रातका बनाया हुवा रातको खावें. रातको बनाया हुवा दिन को खायें, यह त्रीभगी अशुद्ध है । फक्त दिन को यतना पूर्वक बनाया हुवा भोजन दिनमें खावे, वो ही शुद्ध है. मुख्यरीतिसे सूर्यास्त पहिले व सूर्योदय बाद दो घडी तक आहारका त्याग करना चाहिये । तथा ( लगभग वेलाऐं ) याने सूर्य होते हुवे सूर्यअस्ताचल की बहुतही नजदीक आ जाय याने थोडा स्वरूपमें नजर आबे या न आवे, सूर्य होगा या नहीं ? ऐसा मालूम हो, उस वक्त से भोजन का त्याग करना चाहिए। चौविहार के नियम वाले महानुभावों को सूर्यास्त के दस मिनीट पहिले भोजन करना चाहिये । तिविहार दुविहार के नियमवालों को भी उपर बताये मुताबिक अमल करना चाहिये, नहीं तो दोष लगने का संभव है। शास्त्रकारोने फरमाया है कि-"जो मनुष्य लगातार एक मारा २ रात को भोजन करते वक्त पानी से भरा हुआ थाळ पास में रखने से जितने जंतु पडे हुवे देखने में आवे, उतने का मांसाहार होता हुवा प्रत्यक्ष जानकर रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करना चाहिये. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ तक चौविहार करते रहें । उनको पन्द्रह उपवास का फल मिलता है. और वोहि भव्य आत्मा मोक्षका अधिकारी होता है. इनमें बिल्कुल संदेह नहीं है । अगर जो मनुष्य चौविहार करने को असमर्थ हो, उनको तिविहार दुविहार जरूर करना चाहिये । जैन शास्त्रो के अलावा = दुसरे मजहब के शास्त्रो में भी रात्रि भोजनमें जल रुधिर व अन्न मांस के समान है । एक इटालीयन कविने नीचे लिखे मुताबिक कहा है: २ पांच बजे उठना, और नव बजे जिमना पांच बजे व्यालु, और नव बजे सोना. इससे नेवुं और नव वरस जीया जाता है. १ श्राद्ध विधिः - " ( उत्सर्ग मार्ग सें ) दिन होते ही - दिवस चरिम पच्चक्खाण कर लेना चाहिये, ऐसा कहा है." योग शास्त्रादिक में दिवस चरिम शब्दका अर्थ - " अहोरात्र का बाकी रहा हुवा समय." ऐसा बतलाया है, इसलिये रातको दिवस चरिम नहीं होता. एसा एकान्त नही है । लेकिन बराबर ख्याल रखकर दिन को हि पच्चक्खाण कर लेना उचित है । चौविहार, तिविहार, दुविहार, पच्चकखाण लेने का अभ्यास हर एक जैन भाईयों को बचपन से ही होना चाहिये । · २ इस देश में मजदूर वर्ग में सामान्य रूपसे तीन वक्त भोजन करते है. और शिष्ट वर्ग में आम तोर से बालको के सिवाय दो वक्त भोजन करने का रिवाज था. हाल में चाय का प्रचार होने के बाद प्रातः काल में कुछ खाने का रिवाज होगया है. नहीं तो बिना कारण Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ इनका अर्थ यह है कि पांच बजे उठना व नौ बजे भोजन करना. पांच बजे शामको व्यालु करना और नौ बजे कोई नही खाते, सिर्फ दस बजे भोजन करते और शाम को ऋतु के मुताबिक पांच बजे के लगभग खाने का रिवाज था । दिन को सूर्य के प्रकाश से जठराग्नि तेज रहती है. इस लिये सुबह दस बजे का किया हुवा भोजन ७-८ कलाक में पच जाता है, व शाम को किया हुवा भोजन रात्रि में लगभग १६ कलाक की मदद से पच जाता है. यानी दूसरे दफा भुख अच्छी लगती थी। जब ही भोजन करने में आता था। मारवाड़ प्रदेश में हाल में भी यह रिवाज देखने में आता है। लेकिन, इस समय ... में टाईम का ख्याल कोई नहीं करते. यानी सुबह, दो प्रहर, शाम, रात्रि को नही देखते हुवे खा लेते है, जिससे बहुत को पित्त की बिमारी कायम रहती है. और उनका चेहरा पीला-फीका देखने में आता है । खून में सफेद-पीले रजकण ज्यादा होते व लाल कम होते है. अगर इस तरह अनियत वख्त पर भोजन होते रहे तो फायदा नहि करते है। महेनती मनुष्य के अलावा दो टाईम ही भोजन करने का रिवाज रक्खे तो तन्दुरस्त रह सकते है, ऐसा हमारा ख्याल है। महेनती लोग भी इस नियम पर चले तो उनक भी अनेक लाभ हो सकते है। और उनको यह बात समझ में आ सकती है। मगर उनको यह बात आज तक नहीं बतलाई गई, इस लिये इस लाभ को नहीं समझ सकते। और जरूरत होने पर दो वक्त से ज्यादा भी भोजन कर सकते है. व साथ २. इसके आरोग्यता भी रह सकती Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ रातको सोना, ऐसे नियम से चलने वाले मनुष्यों का आयुष्य पूर्ण ९९ वर्ष का होता है, रातको भोजन छोडने से धर्म के साथ शरीर भी बहुत तंदुरस्त रहता है. व इस लोक में वह जीव मुखी है। पित्त के जोर से दिनमें खाया हुवा भोजन जल्दि पच जाता है। जैसे कि सूर्य की गर्मी से पित्त का जोर भूख को बढ़ाता है, व "बादलों" से जठराग्नि कमजोर करता है । और हमेशां कफ के जोर से निद्रा भी बहुत आती है । जठराग्नि भी कमजोर हो जाती है. जैसे कि सूर्य का प्रकाश नहीं होनेसे वातावरण में भी मंदता आती है। दिन में निद्रा लेने से कफ का जोर बढ़ता है व शरीर कमजोर होता है, इन तमाम बातों को देखते हुवे रात्रिभोजन का हंमेश के लिये त्याग करना चाहिये. यह तन्दुरस्ती के लिये भी फायदेमंद है । इस लिये समय पर दो वक्त भोजन करना ठीक माना गया है। जैन फिलोसोफी पच्चक्खाण में (हट्ठ) (दो उपवास के आगे पिछे दो एकासणा ( और दरमियान में दो उपवास ) याने छ वक्त भोजन करने का त्याग । अट्ठम तीन उपवास के आगे पीछे दो एका`सणा (व दरमियान तीन उपवास) जैसे ३+२=६+१+१=८ ऐसे आठ वक्त भोजन का त्याग याने पांच दिन में दो वक्त ही भोजन किया 'वास्ते अठ्ठम - आठ वक्त का त्याग = पच्चक्रखाण समझना मतलब यह है कि मनुष्य को दो वक्त ही भोजन करना सामान्य रीतिए शिष्ट पुरुषोंको सम्मत माना जाता है. B Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहतें है । मनुष्य जन्म दस दृष्टांत में दुर्लभ बतलाया है । और चिंतामणि रत्नसमान जैन धर्म अगर पुन्य का उदय होने से मिलसकता है. वास्ते पाये हुवे मनुष्यजन्म सें आत्मा- . का कल्याण साधने के लिये प्रमाद को दूर कर रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिये। जिसे चौरासी लाख जीवायोनि से मुक्त होकर मोक्ष गति को प्राप्त कर सकें, बेटाबेटीयां पर मोह रखकर रात्रि भोजन कराना ठीक नहीं है. अगर वो रात्रि में आहार मांगे, तो उनको शारीरिक, धार्मिक, नैतिक वगैरा रात्रि भोजन के दोष को समझाकर सुधारना चाहिये। [घरमें रात्रि भोजन करने का रिवाज न हो, तो संतान वगैरह मी नहीं करते.] जो मनुष्य खुद रातको आहार अथवा दूध, चहा, काफी, कावा, वगैरह लेने की आदत वाले हो, वो उत्तम सामग्री प्राप्त करके भी खुद के मन को दृढ करके सकाम निर्जरा नहीं करते, उनको किंपाकके फल समान दुःख होता है। जैसे कि-नारकी में सीसाका रस पिगला हुवा गरम २ पीना पड़ता है. तिथंचमें भूख तृषा की वेदना व पराधिनता के कारण चाबूक वगैरह सहन करनी पड़ती है । उस वक्त पश्चात्ताप होता है-कि "हा! हा! पिछले जन्ममें बहुत ( अनाचार ) पाप किये, वो अब उदय में आये है," इसलिये "हे महानुभावों ! अब भी जागो, और रात्रि भोजन का त्याग करो. जिससे मोक्षलक्ष्मी जल्दि Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ प्राप्त हो जाय.[आज कल के जमाने में सरकारी स्कूल के पढ़ने वाले विद्यार्थी, स्कूल बन्द होते ही क्रीकेट खेलने को जाते है. और उनको अवश्यमेव देरी होजाने से रात्रि भोजन करना पड़ता है । जैन बॉर्डिंग वगेरे में जहां नियम होता है, वहां जल्दि आना पड़ता है. व खेल बन्द रहता है. और शाम को भोजन करने के बाद उपर बताये मुताबीक क्रीकेट वगैरह खेलना नुकशान कारक है। इस विषय में कितनेक लोग जैन विद्यार्थीयों को रात्रि भोजन की इजाजत दिलाने बाबत शिफारिश करते है। खेल के साथ लाभ जरूर होता है। परन्तु रात्रि भोजन करने से मानसिक शारीरिक को अधिक नुकशान होता है. वो सहन करना पड़ता है । यानी दो में से एक लाभ उठा सकते हैं। रात्रि भोजन के त्याग का फायदा जैन विद्यार्थीयों को उठाने के लिये क्रीकेट वगैरे खेल को बन्द करके प्रातःव्यायाम वगैरे की व्यवस्था कर देना चाहिये. जिसे दोनो प्रकार के लाभ हो सकें। गर्मी की ऋतु में दीन बडा होनेसें बहुत समय रहता है. इस लिये जितनी देर खेल खेलना हो, वो खेल सकते है. शक्ति से ज्यादा व्यायाम करने से शरीर को हानिकारक होता है, जैसे "अर्ध-बलेन व्यायमः" यह आयुर्वेद का वाक्य है. और एक युरोपियन लेखक के लेख पर से भी यह बात सिद्ध होती है। वर्तमान समय में जगह २ बड़ी २ हास्पिटाले है, लेकिन प्रजा आरोग्यता में रहे, ऐसा पूर्ण ध्यान कोई नहीं देते. जिसे प्रजा की तन्दुरस्ती बिगड़ रही है। ___ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका आक्षेप उलटा प्रजा पर डाला जाता है । प्राचीन जमाने में प्रजाकी आरोग्यता बहुत श्रेष्ठ थी. आजकल के समय में अखाडे वगैरह का बहुतसा साधन है जिसे कुछ संख्या शक्तिशालि होती है । लेकिन साथ २ प्रजा की लाखों की संख्या शक्ति हीन होती जारही है। अक्सर देखने में आता है कि छोटे गावों में रहेने वालोंकी भी आरोग्यता जोखमदारी में है। यानी सच्चे रूपसे उनकी तन्दुरस्तीकी तरफ कोई निगाह नहीं करते. लेकिन आरोग्यता के बहाने से प्रजाका धार्मिक, नैतिक बंधारण तुड़वाने का प्रबन्ध देखा जाता है. दिनमें आठ आठ घंटे किताबोका ही ज्ञान देने के बदले में महेनत का ज्ञान देने में आवे, तो प्रजा उद्योगी और 'परिश्रमी बनती है, व होशियार होती है। शाम को जरूरी महत्व की कीताने पढ़ाने में आवे या अच्छे मनुष्य का सत्संग 'किया जाय, तो भी सच्ची बुद्धि बढ़ती है । परन्तु इस सच्चे रास्ते का कोई अमल नहीं करते व देखादेखी चलते है. ] १५ बहुबीज = याने ज्यादा बीजवाले फल में बीज के दरमियान अन्तर न हो, अर्थात् बीज से बीज मिला हुवा हो । ऐसे फलादिक में गर थोड़ा व बीज ज्यादा होते है । जिसमें गर और बीज का अलगर रहने की (स्थान) जगह नहीं हो. उनको ज्यादा बीज वाले फल समझना चाहिये: - जैसे कि कोठीasi, टींवरू, करमदे ( बीज पैदा होने के अव्वल अन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ न्तकाय ) बेंगन, खसखस, राजगरा, वगैरह. यानी इनमें जितने बीज होते है, उतनेही पर्याप्त जीव है. इसलिये त्याग करना चाहिये । ऐसे फल खाने में कम आते है मगर हिंसा ज्यादा होती है. इसलिये ज्यादा वीज वाले फल का बीलकुल त्याग करना चाहिये. [ ज्यादा बीज वाले फल खाने से पित्त प्रमुख रोग होते है. और जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के विरुद्ध है. कितनेक साधु मुनिराजों का मत है की दाड़म, और टिंडोरा, अभक्ष्य नहीं है । कच्चे टिमायें को भी वेंगन की जाती समझकर (बहुवीज ) ज्यादा बीजका शाक होने से त्याग करदेना चाहिये । १९ संधान - शब्द से बोलका अचार समझना चाहिये.. जिसको ज्यादा समय तक रखते है । वोह बहुतसी वनस्पतियां का होता है: जैसे कि:- आवळ, पाडल, नींबू, केरी, गुंदा, केरड़ा, करमदा, काकडी, डाला, गीले मरीय, खडबुच, मिर्ची वगैरह का अचार तीन दिन बाद अभक्ष्य हो जाता है। यह सब तरह के अचार तुच्छ और त्रसजीव की खान है । कंदमूल [ अदरक, आलू, हल्दी, गरमर, गाजर, कुंवार, और नागरमोथा, यह चीजें अनन्तकाय है । उपर बतलाई हुई चीजें तथा पंचुंबर, बहुवीज बील्लां - बील्ली, हरा वांस वगैरा का अचार बिलकुल नहीं बनाना चाहिये क्योंकि ये चीजें अभक्ष्य है. इनमें जरूर शुरू से चोथे दिन दोइंद्रिय जीव उत्पन्न होते है । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झूठा हाथका स्पर्श करने से पंचेंद्रिय समूर्छिम मनुष्य की उत्पत्ति होती है। हरे तीखे (मरीय) जो मलबार से निमक के पानी में शामिल होकर आते है वो बोलका आचार है। वास्ते अवश्य त्याग करना चाहिये। अन्य दर्शनीयों के शास्त्र में भी बोल का अचार नरकके द्वार गीना है। इस लिये हमेशके लिए त्याग करना जरूरी है। जिस फल में खटाइ हो वो अथवा उपर बताई हुई चीजें शामिल हो, वो अचार, तीन दिन के बाद अभक्ष्य गिनने में आता है। परन्तु केरी, नींबू वगैरा में नहीं मिले हुवे गुवार, गुंदा, डाला, खरबूच, मिर्ची वगैरा का अचार जिनमें खटाई न हो, वो एक रात्रि व्यतीत होने के बाद दुसरे दिन अभक्ष्य हो जाता है। केरी और नीबूं की साथ मिला हुवा हो, तो तीन दिन खाने में आसकता है। लेकिन उसमें भूजी हुई मेथी डाली हो, तो बाशी रहने से दुसरे दिनही अभक्ष्य होजाता है. सबब मेथी धान्य है। मेथी, चनेकी दाळ या आटा मिलाया हुवा हो, तो उसी रोज हि काममें आ सकता है। और जिस अचार में मेथी डाली हुई हो वो द्विदळ होने से कच्चे गोरस-दुध और दहींके साथ नहीं खाना चाहिये। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केरी, गुंदे, खारीक, मिर्ची वगैरह का अचार सुकाया ‘जाता है. मगर उनको गर्मी बराबर नहीं लगे, और गीला रह जाय, तो तीन दिन के बाद अभक्ष्य हो जाता है। इस लिये तीन दिन तक बराबर सुखाना चाहिये, ऐसा नियम नहीं. इस तरह सुखाने के बाद राई, गुड और तेल मिलावे। ऐसा अचार वर्ण गंध, रस, स्पर्श, फिरे नहीं, वहां तक खाने के काम में आ सकता है। परन्तु तेल कम हो, तो जल्दी से बिगड़ कर अभक्ष्य हो जाता है। __ वास्ते इस मुताबिक उपयोग पूर्वक बनाये हुवे अचार के पिछे भी बहुत ख्याल रखना पड़ता है। (१) अचार की बरनीयों अच्छे गरम पानी से साफ करके फिर उनमें अचार भरना चाहिये। (२) उन बरनीयों के उपर मजबुत ढंकन लगाकर कपड़े से बांध देना चाहिये, जिससे उसमें हवा नहीं जा सके. नहीं तो वर्षाऋतु में हवा लगके लील-फुग हो जाती है. जिससे अभक्ष्य हो जाता है. (३) अचार, नोकर-चाकर व बालबच्यों के पास नहीं निकलवाना चाहिये. उपयोगवंत मनुष्य खुद हाथ को स्वच्छ करके चमचा या दुसरे किसी साधन से निकालना चाहिये. मगर बने वहां तक हाथ से नहीं निकालना चाहिये। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છૂટ अगर निकाला जाय, तो उपयोग पूर्वक गीले हाथ को साफ करना चाहिये। नहीं तो पानी का एक बिन्दु गिरने पर जीवोत्पत्ति हो जाती है । इस लिये इस विषय में खास ध्यान रखना चाहिये । (४) अचार की बरनीयों के उपर चिंटा चिंटी वगैरा जीव नहीं चढ़े, ऐसी जगह रखना चाहिये. व वर्षा ऋतु म हवा न लगे ऐसे स्थान पर रखना चाहिये. कितनेक लोग अचार, मुरब्बा वगैरह अंधियारे में रखते है, वहां निकाल वक्त उनका रस प्रमुख जमीन पर गिरने से वो जगह चिकनी व गंदी हो जाती है. जिससे मच्छरादि जीव चिपक जाते है. और बरनीयोंका मुंह खुला रहने से उसमें भी गिर के मर जाते है । फिर वो कलेवर पेट में आते है. जिससे भयंकर बीमारी पैदा होती है. इसीलिये जहां अच्छा प्रकाश पड़ता हो, व जगह साफ हो, वहां रखना चाहिये. (५) अचार को मामुली रूपमें सुखाया हो, तो वो अचार तीन दिन से ज्यादा काम में नही ले सकते, वास्ते उपर बताये मुताबिक सुखाना चाहियें । साथ यह भी बात बतलाई जाती है, की - अचार बनाते वक्त पानीका जरा भी स्पर्श नहीं होना चाहिये । (३) ऐसे अचार की मुदत एक वर्ष से ज्यादा है. १ अचार सरसों के तेल में इस मुताबिक डाला जाय की डाली हुई चीजें डुबी हुई मालूम होवे | Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन ऐसा नही रखते हुवे जल्दि काम में लेकर खलास कर देना चाहिये, या फिर थोड़ा जरुरीका डालना चाहिये. ____ उपर लिखी हुई सूचनाओं के अनुसार बनाये हुवे अचार में दोष हैं या नहीं ? यह बात केवलीगम्य-केवली भगवान के अलावा कोई नहीं बतला सकते। आज कल के समय में जिह्वाइंद्रिय के लालच से उपर की सूचना के मुताबिक नहीं सुखाते है सबब-उसमें ज्यादा सुखाने से स्वाद चला जाता है। ऐसे तुच्छ अचार को जिह्वाइंद्रिय द्वारा विजय करके त्याग करने वाले रत्न शिरोमणि वीर पुत्र होते है. और वो लोग तारीफ के लायक है. कारण इस आत्माने अनेकवख्त हरेक चीजें खाने के काम में ली, मगर तृष्णा नहीं गई. यह एक आश्चर्य है. ( अणाहारी) अनशन किये बिना मोक्ष नहीं मीलता, मीलेगा भी नहीं, इसीलिये ऐसी तुच्छ अभक्ष्य चीजों की ममता छोड़ देना चाहिये. जिसे हमेश के लिये अनाहारी पद प्राप्त हो. [अचार, मुरब्बा वगैरह संधाण-सोड रूप पदार्थ ज्यादा समय तक रक्खें जाय, तो उनमें जीवोत्पत्ति का संभव होनेसे बहुत से जैन बंधु ऐसी चीजों का हमेश के लिये सर्वथा त्याग रखते है. वो ठीक है] (१५) घोलवड़ा-घोलवड़े यानी द्विदल-विदल और गायके दूध में मिला करके बनाई हुई चीजें अभक्ष्य गिनने में आती है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... द्विदल-विदल यानी सामान्य रूपसे जिसको कठोल धान्य कहा जाता है. वो हरेक का कच्चे गोरस के साथ खाने का त्याग करना चाहिये. . द्विदल की सामान्य रूप से यह व्याख्या करने में आती है, किः- जिसमें से तेल नही निकले, व वृक्ष के फल रूप न हो. और दोनो दल चीरके बराबर दाल बने, उनको द्विदल कहते है. चने, मूंग, मटर, उड़द, तुवर, वाल, चवलां, कलथी, रह, लांग, गुवार, मेथी, मसूर, हरे चने, बगैरा द्विदल की चीजें है. हरी-सुखी चीजें, तरकारीयां का चुरा, दाल, और उसकी बनावट वगैरा भी द्विदल गिनने में आती है. जैसे कि कठोल मात्र के पत्ते की तरकारीयां-वालोर, चौलासींग, तुवर, मूंग, मटनें, गुवारफलीं, हरे चने, पांदडी की तरकारी और सुकवणी, संभारा, अचार, दाल, फली, सेव, गांठिया, पूरी, पापड, बुदी वगेरा भक्ष्याभक्ष्य के विवेक में द्विदल गिनने में आती हैं। उपर लिखी हुई तमाम बातें लागू पडती हो, मगर जिसमें से तेल निकले, वो द्विदल गिनने में नही आते, राई, सरसों तिल: मेथी डाला हुवा अचार वगैरा चीजें द्विदल मानना चाहिये. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर लिखी हुई तमाम बाते लागु पडती है, और झाड के फल रूप हो, तो द्विदल नहीं माना जाता है. जैसे किःसांगरी. अलावा. जिसके दो फाड नहीं बनती हो, वो भी द्विदल मानने में नही आती. बाजरी, जूवार, मक्का, -(इनमे तेल भी नहीं होता) वगैरा। कच्चा गोरसः-यानी कच्चा दुध, दही, छाछ, उनके साथ द्विदल का संयोग होने पर दोइंद्रिय जीव उत्पन्न हो जाते है, इसलिये वो अभक्ष्य है. परन्तु अच्छा गरम करके, फिर ठंडा करदिया जाय, व फिर उसमं द्विदल चीजें मिलाने में आवे, तो दोष नहीं लगता है. इस विषय का श्रावक के घर में हमेश के लिये खास विवेक रहना चाहिये. द्विदल वाली चीज खाने के बाद पानी अवश्य पीना चाहिये, व हाथ मुंह धोकर लुंछ लेना चाहिये. और बरतनो को बदल देना चाहिये. तात्पर्य यह है किःकच्ची या पकाई हुई द्विदल की बनाई हुई कोई भी चीज को दूध, दही, छाछ का स्पर्श नहीं होना चाहिये. मेथी डाला हुवा अचार के साथ कच्चा गोरस नहीं खाना चाहिये. - कढ़ी:-छाछ को अच्छी तरह गरम करने के बाद बेसन डाल कर बनाना चाहिये. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ [ इस तरह बनाई हुई कढी भी श्रीखंड के साथ नही खा सकते है । क्योंकि श्रीखंड में कच्चा दहीं होता है, वास्ते दोनो का स्पर्श होनेसे द्विदल होते है । अलावा श्रीखंड की रसोई में कढ़ी चने के आटे की नहीं बनाना चाहिये. अगर बनाना हो तो बाजरी के आटे की बना लेना चाहिए ] दहींasi - दहीवडी वगैरा कच्चे गोरस में मिलायें हो, तो अभक्ष्य जानना चाहिये. परन्तु पक्के दूध या दही में बनाये हो, तो उस रोज़ ही काम म आ सकते है. राईताः - गरम दहीं करके बनाना चाहिये, अगर कभी दुसरी बिल की चीजें इसके साथ खानेका प्रसंग आवे, तो कोई हरकत नहीं. फूलका - - यानी रोटी के साथ कच्चा गोरस खाना हो, तो द्विदल वाली वस्तुओंका स्पर्श नहीं होने देना चाहिये. और द्विदल वाली चीजें खाना हो, तो कच्चे गोरस का स्पर्श नहीं होने देना चाहिये. कितनेक लोक गरम करनेका अर्थ - " सिर्फ जरासा गरम हुवा" की गरम मान लेते है. परन्तु यह ठीक नहीं. क्योंकी दिल का दोष लगता है. इसका सवव यह समजतें है कि छाछ एवं - दहीं गरम करने से फट जाता है। जिसे मामुली गरम करतें है, परन्तु उसमे निमक या बाजरी का आटा डालके हिलाकर Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अच्छी तरह गरम किया जाय, तो छाछ बगैरा नहीं फटती. (शास्त्रो में गरम किये हुवे दूध के विषय में श्री जिनदत्तसूरिश्वरजी महाराज विरचित संदेह दोलावली में नीचे लिखे मुताबिक गाथा कहते है:"उकालियंमि तके विदलक्खेवे वि नत्थि तद्दोसो." इत्यादि उपर लिखी हुई गाथा का अर्थ वाचनाचार्य श्रीप्रबोधचन्द्रजी विरचिन विधि रत्न करन्डिका नामे छोटी टीका में इस तरह कहते है. ___ "उत्कालितेऽग्निना-अत्युष्णीकृते, तक्रे गोरसे, उपलक्षणत्वाद्दध्यादौ च, द्विदलं-मुगादि, तस्य क्षेपः-द्विदलक्षेपः, तस्मिन्नपि सति किं पुनः ? द्विदल-भक्षणानन्तरं प्रलेहादिपाने, इत्यपेरर्थः, नास्ति तद्दोषो द्विदलदोषो जीवविराधनारूपः ।) इत्यादि इस पाठ से साफ जाहिर होता है कि-" अग्निद्वारा गरम किया हुवा दूध छाछ उपलक्षण से दही, आदि शब्द से दूध में द्विदल पड़ने से विदल का दोष नहीं लगता है, वास्ते उपर बताये हुवे पाठ के मुताबिक अच्छा गरम करना चाहिये, जिस से विदल का दोष न लगने पावें। आज कल के समय में बहुत से लोग बीना अनुभव से जैसामरजी में आवे वैसा करते है. मगर वो अयोग्य है. इस लिये पूर्वोक्त विधि के अनुसार गरम किये हुवे बाद चने का आटा, मेथी प्रमुख द्विदल मिलाने में आवे, तो दोष नहीं लगता है। ___ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , खट्टे ढोकले का आथा करते है. मगर उपर बताये माफिक छाछ गरम कर के बनाना चाहिये. स्वजन, संबन्धी, अन्य दर्शनीय, या अन्य जाति की रसोई वगैरा में भोजन करने का मोका आवे, तो विदल का अच्छी तरह उपयोग रखना चाहिये. नहीं तो चलते रास्ते दोष लग जाने का संभव है. और कढ़ी, राईता, वगैरा बनाया हुवा हो, तो पहिले शंका का निवारण करना चाहिये की छाछ को गरम करने के बाद (विदल) बेसन डाला गया था? या नहीं ? इस तरह पुरी बराबर जांच करने के बाद खाना चाहिये । ... घर पर भी राईता, कढ़ी बनाया हो तो विरतिवंत श्रावको कों बीना खात्री किये नहीं खाना चाहिये । हाल में बहुत सी जगह (गोरस) दही, छाछ, अच्छी तरह गरम करने की प्रवृत्ति देखने में नहीं आती, वास्ते विरतिवंत मनुष्यों को बरावर खात्री करना ही बेहतर है, अगर किसी जगह ऐसा पाया जावे, तो भोजन करने को नहीं जाना चाहिये। - आशा है कि-विरतिवंत मनुष्य तथा अन्य श्रावक श्रावीकाएं अब से उपर बतलाये मुताबिक, (गोरस) दूध, दही, छाछ, गरम करने की प्रवृत्ति में उद्यमवंत रहेंगे. द्विदलके साथ कच्चा गोरस मिलने पर फोरन दोइंद्रिय जीव उत्पन्न होते है, वो आगमगम्य है । इसका वृत्तान्त आगे मक्खन के. संबन्ध में बतला चूके है। इस लिये शंका नहीं रखना व Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्ष्य का अवश्य त्याग करना चाहिये । " भोजन करते वक्त खुद के घर पर विदल नहीं खाउंगा, और अन्य के घर पर खास उपयोग रखूंगा. " ऐसा नियम असमर्थ (कायर) मनुष्यों के लिये है. किसी जगह भोजन करना लेकिन साथ २ इसके अभक्ष्य वस्तुएं खाने का आगार नहीं रखना चाहिये । आगार रखे तो समझना चाहिये कि, "लड्डुभी खाना, और मुक्ति में भी जाना" इस मुआफीक हुवा | लेकिन बंधुओं और बहिनीयां ! ऐसा करने से मोक्ष पद प्राप्त नहीं होता. मगर इसके लिये आत्म वीर्य की शक्ति रखकर त्रिकरण योग से ऐसी चीजों का त्याग किया जाय तो प्राप्त हो सकता है. अलावा इस शरीर के साथ माता, पिता, भाई, भगीनी के मोह का जब तक संबन्ध रक्खा जाय तब तक चार गति के चक्र में से निकलना बहुत मुश्किल है. इस शरीर का तो अवश्य विनाश होने का स्वभाव है. इस लिये हे वीर पुत्रो ! शरीर पर से ममता भाव हटाकर मोह रूपी रात्रि का त्याग कर व निद्रा को दूर कर जाग्रत होना चाहिये. व पाये हुवे मनुष्य जन्म को सफल करना चाहिये । " आज करेंगे, कल करेंगे" इस तरह विचार करते २. यमराज के चक्कर में आ जाना पडेगा । जैसे कि:" आई अचानक काल तोपची, ग्रहेगो ज्युं नाहर बकरीरी. " इसका अर्थ यह है कि - "जब काल रूपी दूत गिरफ्तार Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ करने को आता है, तब कोई का नहीं चलता है, जैसे के नाहर के चक्कर में अगर बकरी आगई तो फिर उसका निकलना मुश्किल होता है." मतलब, उसकी जान जाती है, ऐसे मोके पर पस्ताना पडता है, " अहा ! हा ! मैंने कुछ नहि किया " वास्ते इस चक्कर से बचने के लिये पूर्ण महेनत करनी चाहिये । जिनेन्द्र भगवंतोने फरमाया है की - "क्षण लाखेणी जाय." [क्षण मात्र समय गुमा देना मानो - लाख रुपये का नुक्सान हुवा ] तो उनको क्युं भूल जाते हो ? इस वाक्य को हमेशा याद करके जिनेश्वर भगवान की आज्ञा के मुताबिक द्विदल वगैरा अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग करना चाहिये. - ऐसे जगद्वन्द्य जिनेश्वर भगवान के वचनो का अखंड रूपसे इस मनुष्य जन्म को छोड़कर कोनसे जन्म में पालन करके अचल सुख को प्राप्त करेंगे ? १८ बेंगनः = हरएक प्रकार के अभक्ष्य है: सबब एकतो उसमें बीज बहुत रहते है. दुसरे इनकी टोपीमें सूक्ष्म त्रस जीव होते है. इनको खानेसे नींद का विकार बढता है, एवं पित्तरोग प्राप्त होता है. अखीर में इसका परीणाम बूरा आता है । बेंगन को सुकाकर खाना भी निषेद्ध है. वास्ते इनका शीघ्रता से त्याग करना चाहिये कितनेक रोग के Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण से ऐसी अभक्ष्य वस्तुओं का आगार रखते है. परन्तु बंधुओं ! कर्मरूपी रोग का नाश करने के लिये त्रिकाल ज्ञानीओंने इन अभक्ष्यवस्तुओं का सर्वथा त्याग करना बतलाया है । अफसोस है कि-फिर भी इन चीजों का आदर करके कर्म रूपी रोगों को बढ़ाकर भवभ्रमण करने की इच्छा करते है. याने आत्मा का रोग का निवारण नहि करते ही खास तौर पर उनको पुष्टि दिलातें है. हे महानुभावों ! ज्ञानचक्षु से देखो. अब इतने से ही ठहरना, जिसे अपना कर्मरूपी रोग को नाबुद करके अमर पदवी शीघ्र ही लेवे। १९ अपरिचित फल-जिस के नाम का किन्हीकुं मालूम न हो, और किसीने उनको खाया भी न हों, जैसे फल-फूल अभक्ष्य हैं। १ पुराणादि अन्यशास्त्रो में भी बेंगन खाने का निषेध किया है. " यस्तु वृन्ताक-कालिङ्ग-मूलकानां च भक्षकः । ____ अन्त-काले स मूढात्मा न स्मरिष्यति मां पिये!". अर्थ:-"बेंगन, कालिंगडा और मूला खाने वाले मूढात्मा को मरते वक्त भी में याद नहीं आता." __ और यह भी बतलाया है कि बेंगन की तरकारी का भाफ लगने से ही, आकाश में चलता हुवा विमान अटक जाता है ।। पण्डितजन मनुष्यो को चाहिये की-शास्त्र को मान देते हुवे स्पष्ट रूप से निषिद्ध की हुई चीजों का खुद त्याग करके श्रोताजनोको अपना दृष्टान्तसें समझाकर त्याग करवाना चाहिये Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ इसका सबब यह है कि उनके फायदे या दोष का हमें मालूम न रहा हो, और वे फल जहरीले हो तो उसें आत्मघात होता है । इस लिये वो त्याज्य है । वंकचुल राजकुमार को महान परोपकारी गुरुमहाराजने अपरिचित फल न खाने की प्रतिज्ञा करवाई थी । अत्यन्त भूख लगने पर भी उसने अपनी प्रतिज्ञा का दृढता पूर्वक पालन किया, जीसे उनके प्राण बचे । एवं उनके साथ दूसरे चोर अपरिचित फल खाने से मर गये । हे भव्यात्माओं ! ऐसे परम कृपालु एवं निःस्वार्थी तीर्थकर महाराज तथा गुरुमहाराजका अपार दुक्ख से शीघ्र मुक्त करवाने का सदुपदेश अपने पूर्वपुण्य के उदयसे ही प्राप्त हुआ है । वह फिर से प्राप्त होना दुर्लभ है । पुण्यरूपी लक्ष्मी का व्याज खर्च कर यदि मूल धन का भी खर्च कर दोगे, तो अगले जन्म में सुख और सम्पदाएँ कैसे मिलेगी ? इस हेतुसे शांत एवं गंभीर प्रकृति वाले अनंत गुणों के धारक उस परमात्मा की उस उत्तम शिक्षा को ग्रहण करो । और तदनुसार आचरण करके ऐसी शक्ति पैदा करो कि जिसे स्वयं के गले में मोक्षरूपी माला सुशोभित हो जाय । २० तुच्छ फल :- एसे पदार्थकि - जिसमें कुच्छभी तत्त्व न हो । बहुत आरंभ करने पर भी तृप्ति न हो। जिसमें खाना थोडा और फेंफना अधिक हो । उदाहरणार्थ-चणीबोर, पीलु अथवा पीचु, गंदी, म्होर आदि तुच्छ फल हैं । तथा मूंग, चवले, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ गँवार, वाल आदि की कोमल सींग और दूसरी जात के कोमलफल इन सब को तुच्छ औषधि मानना चाहिये । चने के फूल, केरी के मोर - जिसमें गुटली न पड़ी हो, बोर के ठलिये में से गर निकाल कर खाना आदि में भी दूषण लग जाता है । क्यों कि वनस्पतियें अत्यन्त कोमल अवस्था में अनंत काय होती है । इसे अनन्त काय व्रत का भंग हो जाता है । ऐसी वस्तु को अधिक खाने से भी तृप्ति नहीं हो सकती है । तथा खाने में थोडी आती है । एवं खाने के पश्चात् उसकी गुटली को बाहर फेंकने से मुँह की लार का परस्पर सम्बन्ध होने से असंख्याता संमूच्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है । तथा जो पुरुष बहुत तुच्छ फल खाता है । उसे तत्क्षण रोग भी हो जाता हैं । यह सबबसें तुच्छफल का हम्मेश त्याग करना चाहिये । हे भाइयों ! जब आपका तुच्छ ममत्व भाव इन तुच्छ अभक्ष्य वस्तुओं पर से उड़ जायगा, तभी आपको शाश्वत् अनंत सुखरूपी लहरों में मग्न होने का समय शीघ्र प्राप्त होगा । २९ चलित रसः - सड़ा अन्न, वासी रोटी, चांवल, दाल,. शाक, खिचड़ी, सीरा, लापसी, भजियें, थेपलां, पुड़ला, बड़े, नरमपूरी, ढोकला आदि अनेक रसोई ऐसी है, कि जो एक रात्रि व्यतीत होने के पश्चात् वासी हो जाती है । सूर्यास्त हो जाने के पश्चात् उन चीजोंका स्वाद, रंग, स्पर्श, और बदल कर "चलित रस" होने से अभक्ष्य हो जाती है । खुशबू Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " मिठाई वर्षाऋतु में अच्छी, उत्तमरीति से बनाई हो, तो उत्कृष्ट पंद्रह दिन। गरमी की मौसम में वीस दीन, शीतकाल में एक महिने तक भक्ष्य है। यदि बनाने में । कच्चापन रह जाय, और उसका वर्ण, गंध, रस, स्पर्श बदल जाय, तो काल की मुद्दत पहले भी जैसे-आज की बनाई मिठाई आज ही, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, बदल जाने से अभक्ष्प हो जाती है। शास्त्र में जितना समय कहा है, उसके व्यतीत होने के पश्चात् उस वस्तुका चलित रस हो जाता है। तब असंख्य बेइंद्रियजीवों की उत्पत्ति उसमें होती है। इसलिये श्रावको को तिलमात्र भी अन्न अथवा झूठा अपने घर में न रखना चाहिये। जो विवेकी पुरुष अपनी थाळी में लीया हुआ अनाज वगैरह जूठा नहीं रखतें तथा थाली, कटोरी धो कर पीतें है, उनके निमित्तसें असंख्य समुर्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्यों की उत्पत्ति होते ही बचती है। इसे उनको आयंबील तप के समान लाभ प्राप्त होता है । इसलिये जिमणवार करने के पश्चात् बरतनों और जूठा अनाज को रातभर नहीं रखना। दिन को भी दोघडी हो जाने पश्चात् झूठा साफ करदेना चाहिये । और वह जानवर के उपयोग में आ जावे तो और भी उत्तम है । लापसी, सीरा आदि सूर्यास्त के पूर्व ही घी के अन्दर दाना दाना अलग करके मूंज लेना और रोटी के खाखरे कडक बना Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेना (जो नरम बिलकुल न रहे ) तो वो बासी नहीं गिने जाते हैं। ___ रात को बनाई हुई रसोई भी खाना योग्य नहीं है। प्रातःकाल सूर्य निकलने के पश्चात् सूक्ष्म अन्न देखने में आ जाय ऐसा उजाला होने पर और रात को सूर्य अस्त के पहिले भोजनादिक से निवृत्त हो जाना वो दयालु श्रावक का आचार है। प्रकरण २ रा चलित रसका स्पष्टीकरण. चलित रस किसे कहलाया जाता हैं ? "जो वस्तु जिस जातिकी उत्पन्न हुई, उत्पन्न कीगई, अथवा जिस २ स्वरूप में योग्यरीति से खाने के उपयोग में आ सकती है, वह यथास्थित रसवाली गिनी जाती है। . जिस वस्तु में यथास्थित रस उत्पन्न न हुआ हो, अथवा यथास्थित रस उत्पन्न होने के पश्चात् उसमें फेरफार होगया हो, और वह खाने के लायक न हो, वह वस्तु चलित रस कहलाती है। किसी चीज में मूक्ष्म फेरफार समय २ पर हुआ करता है, परन्तु अमुक प्रमाण में फेरफार हो कि, जिस फेरफार से उस वस्तु को उपयोग करने लायक न गिनीजावे, उसे चलित रस कहते हैं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चलित रस के मुख्य वर्णन. १ आटा १६ रसोई २ जलेबी १७ ओदन ३ हलवा १८ दहीं ४ अम्रती १९ दूध ५ मावा २० घी ६ मुरब्बा २१ बली ७ सेंव आदि २२ ढोंकले [खटें] ८ खीर २३ दहीं बड़े ९ केरी २४ खांकरे १० पापड़ २५ पापड़ के लोये आदि ११ चटनी २६ जुगली राब १२ संभारा २७ रायता १३ पक्वान्न २८ भूजा हुआ अनाज १४ चवाणे २९ हूंढ़णीआ १५ चूरमे के लड्डू ..१. आटाः-चीना छाना हुआ आटा, पिसाने के पश्चात् कुछ दिनों तक मिश्र [कुछ सचित्त कुछ अचित्त] रहता है। पश्चात् वह अचित्त होता है । पीसाने के पश्चात् विना छाना हुआ आटाश्रावण, भाद्रवे मास में पांच दिन तक मिश्र रहता है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३. आसो, कार्तिक में चार दिन । अगहन, पोस में तीन दिन । माह, फाल्गुण में पांच प्रहर । चैत्र, वैशाख में चार प्रहर । जेष्ठ, आषाड़ में तीन प्रहर । पश्चात् अचित्त होता है । जिस दिन पीसा हो वो दिन छाना हो तो सब ऋतुओं में, उसी दिन अचित्त है। और दो घडी पश्चात् कार्यवश मुनिराज भी उपयोग में ले सकते है । सिद्धान्त में आटेका समय निश्चित देखने में नहीं आता, परन्तु अचित्त आटे में कटुता और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श पलट जाय, तब अभक्ष्य है। तथा जीवकी उत्पत्ति मालूम पडे, तो वह आटा छानकर भी नहीं खा सकते । याने वो अभक्ष्य मानना । और वर्षा ऋतु में आटे को प्रत्येक दिन में दो वक्त और शियाले तथा उन्हाले में एक वक्त छानना । कारण कि उसे न छानने से उस जाले पड़ जाते हैं, और वह शीघ्रही बिगड़ जाता है। तथा हरएक समय काम में लाते समय अवश्य छानना चाहिये । जीससे जीवो की यतना हो सके । [यान्त्रिक चक्की द्वारा पिसा हुआ आटा गरम होता है। इससे उसको एकदम विना ठंडा होने के पूर्व ही भरदेने से भाफ के कारण वराळ से पानी छूटता है इससे आटा बठरा होजाता है । और वह बदबू डबे में दबा देता है। इससे वह अभक्ष्य होता है । इस कारण उसे ठंड़ा होने के पश्चात् भरना चाहिये । यन्त्र चक्की द्वारा पिसे आटे का भक्ष्य रहने का समय बहुत कम है । यन्त्र चक्की द्वारा पिसा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ हुआ आटा खाना यह प्रजा का कमनसीब है। इसमें से सच्च का नाश होजाता है । विटामीन की चर्चा करने वाला जमाना मसीनका आटा नहीं छोड़ सकता है । गाँवडे के मजदूर, कीशान भी अपने सिर पर बोजा उठा के लाते हैं और उसे पिसवा कर ले जाते हैं। बाजरी का आटा गेहूँ, चने की अपेक्षा से बहुत शीघ्र खराब हो जाता है । इसका ध्यान रखना चाहिये । | विना कारण आटा अधिक न पिसवाना चाहिये । और बाझार से भी आटा खरीदना नहीं । कारण यह है कि - व्यापारी के पास बहुत दिन का पुराना माल रहता है, और वे सड़ा हुआ हलका माल विना साफ कीये भी पिसा लेते हैं । क्यों कि उनको व्यापार करना है । इससे वे जैसा ही करते हैं। जीससे अपने घर अच्छा माल मंगवाकर देख साफ कर उपयोगपूर्वक पिसना और पिसवाना और छानकर उपयोग में लेना । गेहूँ आदि में कितने वक्त बहुत छोटे छोटे छेद होते हैं । उसमें धरिये आदि अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है वे जीव बहुत छोटे छोटे होते हैं इससे वे एकाएक निकल नहीं सकते । परन्तु जब बड़े होजाते हैं तब उस दाने में से कहीं निकल सकते नहि । इससे उन दानों को चुन कर उनको उपर्युक्त जगह में रखदेना चाहिये [ या जीवातके खाने में भेजदेना चाहिये । ] परन्तु कितनेक व्यक्ति उनमें सिर्फ छेद है, एसा समजकर वैसे ही पिसवाने को दे देते हैं। यह दुक्ख की Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात है। अपने जरासे स्वार्थ के लीए वह प्रमाद महान् अनर्थकारी होता है। [परन्तु कितनीक वख्त लोको अधिक अनाज मरते है, वो ऋतु परिवर्तन के कारण आखिर में क्वचित् सड़ जाते है । वो दाने यदि कितनेभी अधिक क्यों न हो, लेकिन उनको काममें न लेना चाहिये । वास्तव में जिस भाँति चाहिये उस भाँति एक मन, दो मन या पाँच मन साफ कर के अच्छा माल लेना ठीक है। परन्तु यदि यह न हो सके और अधिक आवश्कता हो, तो उसे ध्यान पूर्वक, सुरक्षित कीस भाँति से रखना चाहिये? यह खास अनुभत्रियों से पूछ लेना चाहिये। प्रत्येक को सुरक्षित रखने की भिन्न भिन्न रीति है। कितनेक बाजरी, गेहूँ आदि राख में मिलाते हैं। मूंग आदि रेत में दबाते है । कितनेक में पारा भी डाला जाता है। कितनेक को कितनेक स्थान पर एरण्डी का तेल लगाते हैं। कोई कोई स्थान पर चूना भी डालते हैं। किसी में पारे की डलियां डालते हैं। यद्यपि इसमें की कोई भी रिति अन्न के मूळ गुणो के हानि करती है, और इसी रीति से रक्षा करने में न आवे, तो फीर जीवजंतु से सड़ जावे, यह भी मुश्केली होती है। पारा गुप्त नुकसान करता है । जिस पर एरंडी का तेल लगा हो उस पर यदि जंतु चढ़े तो चिपकर मर जाता है, इस लिये हर प्रकार से सावधानी रखना निहायत जरुरी है । जरुरत अनुसार अच्छा देखकर खरीदना यह आदर्श प्रणाली है। परन्तु यह स्थिति बडे कुटुम्ब में या अनावृष्टि आदि कारणो में Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिक नहीं सकती। इससे संग्रह भी करना होता है-इस भारतवर्षम से जब अनाज परदेश बहुत नहीं जाता था, तब तक प्रत्येक कुटुंब हरेक प्रकार के धान्य पृथक् पृथक् रीति से संग्रह करके कालजी पूर्वक रक्षण करते थे। यह सब अनुभवीओंसें जान लेना चाहीए.] राखमें भारना, पारा देना, तथा सार संभाल लेना चाहिये । उसमें भी वर्षाऋतु में खासकर के प्रत्येक वस्तु में जीवों की उत्पत्ति होनेका संभव है। इससे विशेष समाल कर रखना चाहिये। यही सब कार्यों में ओरतोंने विवेक तथा चतुराईपूर्वक अपना फर्ज समझ उपयोग रखना चाहिये। यदि बन सके, तो दूसरे को पीसने के लिये भी न दे। कारण पीसने वाले को तो मजदूरी करना है । वो चाहे घंटी साफ़ करे या नहीं, स्वच्छता की दृष्टि से भी दुसरी कीतनी बातो का भी उपयोग कैसा रख सके ? घंटी के ऊपर चन्द्रवा आदि हो या न हो [प्रायः वे धर्म से परिचित न होने के कारण वे शुद्धि, यतना आदि का उपयोग कैसे रख सके ? ] तथा वे तिथि के मी दिन पीसेंगे। और उसमें भेल भी कर देवे, [बहुत लोग "हाथ से पीसेंगे" एसा कह कर पेसे ले लेते हैं, और यन्त्र-चक्की में पिसवा कर ठंडा कर के आटा दे जाते हैं।] कीन्तु यह यंत्र के जमाने में गरीब भी चकी के द्वारा आटा ___ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ पिसवाते है । तब फिर धनवान, श्रीमंतपुरुषों की तो बात ही क्या ? परन्तुधर्म तो अमीर और गरीब सब के लिये समान है । शास्त्र में घंटी के ऊपर जीवदया के लिये चंद्रवा न होने से अनेकानेक दोष बताये हैं । [ जीव दया के कारण ] आज के पच्चीस पचास वर्ष पूर्वे अमीर के घरवाली स्त्रीयां भी हाथ से पीसते और पानी लाते थे । तथा दूसरा कार्य भी खुद ही करते थे । यह भी जीव दया के कारण करोंगे तो इस में आपकी कोई लघुता नहीं हैं । यदि चतुर महिलाओं का इस बात पर ध्यान रहे तो वो अच्छा उपयोग रख के अनेक जीवों को जीवित दान देने का उत्तम फल प्राप्त करें, और क्रमानुसार सुख संपदा भी प्राप्त करें । इससे जयणापूर्वक करना यही उत्तम है | [ आज कल की कितनीक लडकीयां भोजन बनाने में भी अप्रसन्न हैं । तो फिर हाथ से पीसना, खांडना और जयणा आदि की आशा उनसे किस प्रकारों की जावे ? वे आजकल की शिक्षण पुस्तकें पढ़ना और लिखना सीखती हैं, परन्तु जीवनोपयोगी योग्य शिक्षा, धार्मिक जीवन, यतना, जात महिनत आदि योग्य तच्चों से वंचित रहती हैं । और आर्य संस्कार तथा धर्म से विमुख बनती हैं । अग्नि के अन्दर से जिस भांति पानी की आशा रखनी व्यर्थ है, उसी भांति आज के जमाने के शिक्षण से यतना और कालजीपूर्वक जातमहेनत Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के जीवन की आशा रखनी व्यर्थ है । कितनीक पढ़ी लिखी बहिनों में यह संस्कार कोई कोई वख्त देखने में आता है। वह तो प्रायः उनके कौटुम्बिक वारसे का है । सारांश यह है की . आधुनिक पढाइ जहां तक बाल्यावस्था में है वहां तक पूर्व के संस्कार बने रहे हैं। फिर वर्तमानकी पढाइ जिस जिस भांति विशेष मजबूताइपे चले जायगी, उस उस प्रकार पीछे के जीवन के सुन्दर तत्व भी मजबूत रीतिसे अदृश्य होने की संभावना है।] २ जलेबी-जलेबी का आथा करने की जो रीति है, वह जीवों की उत्पत्ति का कारण है। कोई जगह दिन में आया तयार करके उसी दिन उपयोग में लेते है, और " इसमें दोष लगता नहीं" ऐसा कहते हैं। परन्तु इस विषय पर तपास करने से पत्ता लगता है कि पुराने मेंदे का जावन दिये बिना नया मेंदा फुलता नहीं है। और उपसे बीना जलेबी फूलती नहीं। आथा होता है तो जलेबी फुलती है। मैंदा फुलता नहीं, इस लिये जलेवी अच्छी बनती नहीं है। इस लिये जलेबी अभक्ष्य है। उसमें असंख्य बेइंद्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। इससे उसका हमे त्याग करना चाहिये। जैसा सुना जाता है कि-जलेबी उसी की उसी दिन नहीं बनती। बाजार में जलेबी बनती है वह रात का आथा की बनाई जाती है। इस लिये सर्वथा अभक्ष्य है। ३ हलवा-लीला, सूखा, बदाम आदि कइ जातका हलवा अभक्ष्य है । क्यों कि गेहुँ के आटे को दोतीन दिन सड़ा ___ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९ | कर उसमें से सच्च निकाल कर उसे बनाते हैं । इससे उसमें असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं । इस हेतु से उसका सर्वथा त्याग करना चाहिये । दुधी का हलवा जिस दीन बना हुआ उसी दीन भक्ष्य दुसरे दीन अभक्ष्य हो जाते है । जलेबी, हलवा, या जो चीज अत्यंत आरंभ से बनाइ जाती है इनका अवश्य त्याग करना चाहीए । , बम्बई में हलवा बहुत प्रसिद्ध होने से वहां से जो लोग अपने वतन जाते है वह साथ ले जाते हैं । परन्तु भाईयों ! अनेक इंद्रियादिक जीवों की हिंसा करने वाला पदार्थ को खाने का उपयोग में लाने से अपनी आत्मा को कठिन फल चखने पड़ेंगे। उस वख्त माता-पिता, भाई-बहन, स्वजन, कुटुम्बी या मित्र अथवा स्त्री कोई उस महादुक्ख में से निवारण करने के लिये नहीं आयेंगे, न उस वख्त होते हुए दुक्ख में से [ निवारण करने के लिये ] थोड़ा बहुत आप भी स्वीकार करेंगे । भोक्ता अपनी आत्मा ही बनेगा । इस लिये इस प्रकार के अभक्ष्य पदार्थ बिलकुल उपयोग में न लेना चाहिये | वैसे ही ज्ञाति में, रिश्तेदारी में अथवा किसी दूसरे के वहां भोजनके लीए जाते वख्त जैसी अभक्ष्य चीजों को विष समजकर उसको स्पर्श भी न करना चाहिये । शकर आदि के खिलौने जानवर के के रूप Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो बनाये जाते हैं, वो भी अभक्ष्य है। क्योंकि यशोधर राजाने पूर्व जन्म में माता के दाक्षिण्यता से उड़दका कुकड़ा मारकर उसको मांस की भांति भक्षण किया था, इससे वारंवार कितने ही तिरियंच के भव करना पड़े ? व छेदन भेदन किया गया ? इस सबब यह जरुर वर्जनीय है। धर्मी मातापिताों जैसी बाबत पर लक्ष्य रख कर अपने बच्चों को भी समझाना चाहिये। ४ अम्रती-कलकत्ता तरफ बनाई जाती है। उसकी शकल जलेबी की भांति ही होती है। लेकिन अम्रती बनाने में आथा नहीं करना पड़ता, इससे यदि उपयोगपूर्वक बनाई गई हो, तो उसी दिन खाने में कोई हरजा नहीं। दूसरे दिन वह अभक्ष्य हो जाती है। इस हेतुसे कब बनाई गई है ? इसका निर्णय करके ही उपयोग में लेना चाहिये । ५ दूध का मावा-जिस दिन बनाया हो उसी दिन भक्ष्य है । रातको अभक्ष्य हो जाता है । यदि उसको घीमें कीट्टीवनाकर तल लिया जाय तो रात को भी रह सकता है। उसके पेंड़े, बरफी आदि मिठाई बनाना हो तो ताजे मावे से कीट्टी बनाकर फोरन बना लेना चाहिये और चार पांच दिन में उस मिठाई को समाप्त कर देना चाहिये। ज्यादा दिन रखने से खट्टी हो जाने की तथा लीलन-फूलन जम जानेकी संभावना है । और इसी प्रकार बहुत से व्यापारी की दुकान पर की मिठाई पर लीलन-फूलन देखने में आती है। जैसे मावे की मिठाई सर्वथा ___ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभक्ष्य है। वैसे ही मावा कच्चा रह गया हो यानी उसके अन्दर दूध का प्रवाही भाग रह गया हो तो उस मावे की मिठाई उसी दिन उपयोगमा ले कर पूरी करनी चाहिये । शकर डाला हुआ मावा जो बीकता है वो बासी होने से दूसरे दिन नहीं लेना चाहिये। कितनेक दगाबाज मावे में बटेटां, रतालू, प्रमुख कंद मिलाकर उसका मिश्रण बनाकर बेचते हैं। इस लिये उसका ध्यान रखना चाहिये। हे भव्यों! ऐसी मिठाईयां में प्रथम, मध्यमें, और अन्त में, कितनी हिंसा होती है ? तथा कितना दगा होत ? इसका ध्यान दीजिये। जलेबी, हलवा आदि मिठाई बीगर क्या आपकी उदर पूर्ति नहीं हो सकती? अथवा, अन्य भक्ष्य मिठाई नहीं मिलती? जिससे इन अभक्ष्य मिठाईका उपयोग किया जाय? उन वीररत्नों को धन्य है ! कि जो प्रारंभसे ही निष्पन्न हुई मिठाई के रसास्वादन से विमुख होकर उसका सर्वथा त्याग करते हैं। यह बात यथार्थ है कि एक रसइन्द्रिय के तुच्छ स्वाद के लिये असंख्याता जीवों की हानि होती हैं, तो भी भक्ष्याभक्ष्य की तर्फ ध्यान न देकर, अनादि काल की रफ्त के मुआफिक मुंह हिलाया ही करना, यह कितनी आश्चर्यजनक बात है ? ____ अपना मुख कब बंद रहेगा ? और अनंत सुखमें कब लयलीन होगा ? जब कि-एक रसनेन्द्रिय ही वश में न हुई Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तो बाकी की शेष चार इन्द्रियां कभी भी वशमें होने की नहीं। इससे रसनेन्द्रिय जो कि प्रवल है उसको कवज करना चाहिये। चतुर भ्राताओं ! देखिये, श्रीमहावीर भगवान्ने साड़ाबार वर्ष में सिर्फ ३४९ दिन भोजन किया। शेषकाल में तपश्चर्या की है। वैसे आत्मशूर महापुरुषो ही आत्मा का कल्याण कर सिद्धि महल में पहोंच गये है। रसनेन्द्रिय को वशवर्ती होकर पौद्गलिक सुख में मग्न होते हुए अपन सब लोग चतुर्गति में भ्रमण कर रहे हैं, और कष्ट का अनुभव कर रहे है । तथापि हे चेतन ! अनादिकाल की कुवासना क्यों नहीं मिटाता हो ? अब तो चेत!चेत ! श्री जैनशासन फिर फिर मिलने की चोकस खात्री नहीं है ! वास्ते इसी शरीर से कुच्छ अपना जीवन साफल्य कर ले ! कर ले! ६. मुरब्बा-"केरी का मुरब्बा-तिनों ऋतु में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श न फिरे बहां तक भक्ष्य है, अन्यथा अभक्ष्य हैं।" ऐसा सेनप्रश्नादिक में कहा है। तथापि अचार के लिये रखनेकी, निकालनेकी जैसी जुक्ति बतलाई है, वैसी सब जुक्ति मुरब्बा के लिये भी रखनी चाहिये. चोमासाकी मोसममें मुरब्बे में लीलन-फूलनहोन जावे, जैसी संभाल-जुक्ति से और योग्य स्थल में रखना चाहिये. मुरब्बा ___ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ की चासणी जो कच्ची होगी, तो फौरन वो बिगड जायगा। कच्ची चासणी का मुरब्बे में पंदरह-धीश दीन में-लीलन फूलन हो जाती है । अथात् बनाने में रखने में खूब उपयोग रखना चाहिये। बीजोरां, सफरजन, मोसंबी का मुरब्बाका उल्लेख कहीं शास्त्र में देखने में आते नहीं, इसी लिये वर्ण गंधादिक का परिवर्तन का उपयोग रखना चाहिये। __मुरब्बा, अचार वगरह खुल्ले रखने से बिगड जाते है और मीठाई, चवाणां [सेव, गांठीये-आदि] बिल्कुल बंध रखने से बिगड जाते हैं, और वर्षाऋतु में तो हवा लगने से भी लीलन-फूलन हो जाने से अभक्ष्य हो जाता है। इसी लिये जो चीज जिस रीति से रखने से अच्छी रह १ तिन तार की चासगी में मुरब्बा बनाने से ढोला गुड की माफक रहेगा और बिगडेगा नहीं. परंतु आंबला या तो सरफजन का मुरब्बा का रसा दवाई में लेते है, वो जुना पुरागा नहीं लेना चाहिये । शरबत-अनार और गुलाब का और भी कई तरह का होते है, वो अभक्ष्य है, क्योंकि उनकी चासगी बहुत कच्ची रखनी पडती है, और पानी खूब डालना पडता है। सीसा में पेक होने पर भी बोल अचार की तरह वो भी अभक्ष्य है। सीरका-चो भी अनेक हरी वनस्पति को बनता है, वो भी बोल अचार की तरह अभक्ष्य है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सकती है । उन के लिये खूब इंतजाम रखना चाहिये. और जिस तरह बन सके उसी तरह जिह्वास्वाद कमी रख जैसी बहुतसी चिजों का त्याग कहना ही उत्तम है । तथापि यदि अपनी जिहवेन्द्रिय बस में न रह सकती हो तो, सब बातोमें अच्छी तरह से उपयोगपूर्वक वर्तना चाहिये. अन्यथा अनेक प्राणीओ के विनाशक होकर दुर्गति का अतिथि बन कर पूर्वकृत कर्म का फळ का अनुभव करना ही पडेगा. अर्थात् वोही मार्ग है-१ जिबेन्द्रिय का जय करना या २. प्रमाद छोडकर यतनापूर्वक वर्ताव करना, जिस से अल्प दोष लगने का संभव रहता है। ७. संभारा–तथा सेव, वडी, पापड, खेरा, फरफर, उड़द की सेव, सालीवडां, खीचीका पापड, वगरह सियाले में और उन्हाले में सूर्योदय बाद आटा बांधकर बनाना १ सेव [परदेशी मेंदा की अभक्ष्य है ] पापड, उड़द की सेव का आटा सूर्योदय बाद ही बांधना चाहिये. फरफर, खिचि का पापड, सालिघडां इत्यादि चावल का आटा को रांधकर बनाते है, वो भी सूर्योदय बाद ही करना चाहिये. खेरा-जो चणाका आटा आथकर मशालामिश्रित बनाते है, वो भी सूर्योदय बाद आथकर बनाना चाहिये, नहींतर वो अभक्ष्य है । विरतिवंत को अवश्य खाते पहिले इसी बात का उपयोग रखना चाहिये कि कैसे ? कब ? और कीसी विधि से? चीज बनाई गई है ? भक्ष्य है ? या अभक्ष्य है ? इस बात का विचार कर पीछे उपयोग करना युक्त है। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और सूर्य अस्त के पूर्व ही बराबर सूखजाना चाहिये, नहीं तो वासी होजाते हैं। चातुर्मास में इस प्रकार की वस्तुएं बनाना और खाना या रखना योग्य नहीं है। क्यों कि उसमें त्रस जीव तथा लीलन-फूलन की उत्पत्ति हो जाती है। कदापि चातुर्मास में पापड़ अशाड़ सुद १ से पूर्णिमातक बनाये गये हो, और खाने के वास्ते रखना होतो उनको वख्त वख्तपर सुखाना चाहिये, एवं वार वार हेर फेर करना चाहिये । परन्तु आजकल आलस्य के वशीभूत होकर एसा उपयोग नहीं रखते हैं। इस लिये चातुर्मास में नहीं खाना ही उत्तम है। कितनेक लोग सियाले, उनाले में बनाये हुए सेव, पापड़, चातुर्मास और दूसरे सियाले तक रखते हैं, मगर वो अयुक्त है। अषाड़ मुद पूर्णिमा के पूर्व वो वस्तु उपयोग में लेलेनी चाहिये, और कार्तिक सुद पूर्णिमा के बाद बनानी चाहिये । सेव, पापड़ जो बाजार में मिलते हैं, यह बिलकुल नहीं लेना चाहिये । उपयोग पूर्वक घर पर बनाया गया हो, वो ही उपयोग में लेना चाहिये। “पापड़ और बड़ी चोमासे में अभक्ष्य है" एसा श्राद्ध विधि में कहा है। ८दूधपाकः-बासुदी, खीर, शीखंड, दूध, दूध की मलाई आदि दूसरे दिन वासी होजाते हैं। सबब अभक्ष्य हैं। वैसे ही रात को बनाया हुआ भी अभक्ष्य है। जिव्हा की लोलुपता से ऐसी चीजें रातमं वासी रखकर दूसरे दिन खाना शर्म की बात है। दही की मलाई का समय दहीं के मुआफिक ही जानना। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ केरी-आर्द्रा नक्षत्र बैठे, वहांसे पक्की केरी का रस चलित होता है, उसे वो केरी अभक्ष्य है ॥ बास आती हुइ, सड गइ हुइ, बीगड़ गइ हुइ, हमेश के लीए अभक्ष्य है। आम चूसके खाना, उस्से उनका रस नीकाल के खाना व्याजबी है। सबबकी चूसनेसे उनका गोटला जहां डाले वहां अपनी लाळ लगीहो, उस्से असंख्य समुर्छिम लाळीये और पंचेन्द्रिय मनुष्य उत्पन्न होवे। फीर भी केरी में त्रस जीव (कीडे) कभी नीकलते है । रस नीकाला हो, तव उनमें जीव देखने में आनेसे रस का जंतु पेटमें न जाते है, उनकी और अपनी रक्षा होती है। और चूसनेसे सचित्त रसका उपयोग होता है। अचित्त का नहीं होता है। केरी का रस उन्हाले की उग्र गरमी से सुबे का नीकाला हुआ साम तक रहने का असंभव है। वास्ते जब उपयोग करना हो, तब रस नीकालना । और चार, छ याने आठ घंटे तक रखना हो, तो ठंडे पानी के बतरन में रस का बरतन रखना। जहां गरमी न लगे वैसी जगा में रखना । आर्द्रा नक्षत्र से केरी का अवश्य त्याग करना जरुरी है । क्यों की उनके बादमें यह क्षेत्रमें केरी प्रत्यक्ष बिगड़ी हुइ मालूम होती है. बरसाद आदि कारण से कोई वख्त जल्दी भी बीगड़ जाती है, इसी लीए शास्त्रकारोंने “आर्द्रा" की मर्यादा रक्खी है, वो झूठी ठरती नहि । (क्यों की-आर्द्रा में बरसाद का खास संभव होने से वह बराबर है। आगे पीछे की ___ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुस्थिति चाहे जैसी हो, लेकीन अमुक काल मर्यादा नक्की अवश्य करनी चाहिए, नहिं तो कुच्छ भी व्यवस्थारहती नहीं। [दूसरे देशोमें चातुर्मासमें केरी पकती है, वहां के लीए भी शास्त्र में अलग उल्लेख मालूम नहि पड़ता है। याने सामान्य रीती से वो देशो में भी आर्द्रा के बाद में कैरी अभक्ष्य गीनने की अनुमान से शास्त्राज्ञा मालूम होती है । नहिं तो, पूर्वाचार्यों के विहार भारतवर्ष के हरेक विभाग में रहा हुआ है, यदि जो कुच्छ फेरफार होता तब वैसा उल्लेख हरेक स्थळों में करने में आता, लेकीन वैसा उल्लेख अबतक देखने में आया नहिं है। १० पापड़-भुंजा हुआ पापड़ का दूसरे दिन रूपान्तर होजाने से वासी हीता है, तैल या घी में तळा हुआ दूसरे दिन वापरने में आ सकते है। पापड़में लीलन-फूलन की बहुत समाल रखनी चाहिए. ११ चटनी-कोतमीर, फोदीने की चटनी करने में आती है, उनमें मुंजा हुआ चनेकी दाल या गांठीया (वड़ी) विगैरे डाल के बनाइ हुइ हो, तो वोही दिन भक्ष्य, दूसरे दिन वासी होने से अभक्ष्य है। खटाइ (लींबु कोठ प्रसुख) वाली कोतमीर फोदीने की पाणी बीगर की कोई भी अनाज डाला न हो, वैसी चटणी तीन दीन तक ली जावे। छंदते वक्त पाणी डाला हो, तो दुसरे दीन त्या अवश्य होवे । खटाइ बीगर की चटणी ताप में Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सुखाइ होवे, तो दुसरे दीन लेनेमें हरकत नहिं । अन्यथा शंकास्पद मानना | योग्य रस्ता तो यह है कि ताजेताजी रोज के रोज बनाके खाना उत्तम है । कभी उसमें झूठा पड़जावे या झूठे हाथ का स्पर्श हो जाय, उससे भी अभक्ष्य होती है । १२ संभारा- आटा या मेथी या पाणी डाल के बनाया हुआ संभारा दूसरे दीन वासी होता है । १३ पान - मीठाई गोलपापड़ी या पाक के लड्डु जो पाणी बीगर होता हैं, वो वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, फीरने से अभक्ष्य होता है । इसी लीये " पक्वान्न का काळमान खास तौर पर निश्चित नहीं कर सकते है, "विषेश काळ भी पहोंचे " वेसा शास्त्र में भी कहा है। जिसने गूड़की और घीकी बीगइ का त्याग कीया हो, और नीवीयाते की जीनको छुट हो, उनको वोही दीन की बनाइ हुइ गोलपापड़ी लेनेमें काम न आवे | दुसरे दीन ली जावे । क्यों की वोही दीन उनमें airs पणा रहता है, वास्ते नाही । तो भी उत्कृष्टसे सुखड़ी की काळ मुताबीक लेनेमे ठीक है. सबब की कीतने वख्त रसनेन्द्रिय में लुब्ध हो जानेसे उनका वर्ण गंधादिक पल्टा हुए, और मालूम नहो तो वो वापरने में दोष लगता हैं | वास्ते गोल पापड़ीका काल पक्वान्न के काल जीतना कहा है उस मुताबीक लेना वो ज्यादा ठीक है । मिठाइ अच्छी उत्तम प्रकार की बनाई हुई आगे पीछ में --- Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्कृष्ट पंदरह दीन, गरमी की ऋतुमें बीसदीन, और ठंडी ऋतु में एक महिना तक भक्ष्य है, बाद में अभक्ष्य है। हलवाइकी दुकान की मिठाह बहुधा वैसी उत्तम नहोने से उनका काळ कम समझना। और जो वर्ण, गंध, रस, स्पर्श फीर जावे तब काळ के पहिले भी अभक्ष्य होजाय । हलवाइ की दुकान की मिठाइ वापरने में अनेक दोष है। जीससे अपने घरपे बना के या बनवाके खाना वोही उत्तम है। दूसरी बात यह है की-बो पानी पीके झूठी कटोरी वोही बरतन में डाले, उसे असंख्य समुर्छिम जीव होते हैं, ऐसा पानी को मीठाई बनाने में डाले। जुना माल (मुखड़ी) बिगड़ी हुइ हो उनका चूरा वगरह नवी मिठाइ के साथ भी मीलाते है-आटा वगरह पुराना माल वापरने में आवे, पानी बीना छाने भी वापरें. रातको आरंभ करके बनावे, परदेशी मेंदा वगैरेह अभक्ष्य चीजें वापरें, घी बीलकुल हलका और कडसा भी वापरें, लकड़ी, चूला, वगैरेह साफ करे या नहि, उनके चूले पर चंदरवा कहांसे होवे ? ऐसी संमाल बिना धमाल से बनाते रहने से एकेंद्रिय से लगाके चौरेन्द्रिय और असंज्ञी-समुच्छिम पंचेन्द्रिय तक के अनेक जीवों की भयंकर हिंसा होती ही है । षटकाय का आरंभसमारंभ होता है। वगैरेह सबब से हलवाई की दुकान की मिठाइ या सेव, गांठीया, बुंदी, चवाणा आदि बहुधा अभक्ष्य है। चातुर्मास में तो हलवाई की दुकान की मीठाइ का अवश्य त्याग करना चाहिए । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० मिठाईका - काळमान कार्तिक शुद्ध १३ या १४ तक में जो मिठाइ बनीहो, उनका काळ १५ दिनका समझना । सब की वो मिठाइ वर्षाऋतु के काळमें बनी है । फाल्गुन शुद्ध १३ या १४ तक में जो मिठाइ बनाइ हो, उनका काळ २० बीस दिनका जानना । यद्यपि वो मिठाइ ठंडीकी ऋतु में बनाई है, लेकीन ग्रीष्म ऋतुमें वापरनी है, जीसे उनका उन्हाले के मुआफी काळ जानना, और आशाड शुद्ध १३ या १४ तक जो मिठाइ बनी हो उनका काळ पंदरह दिनका जानना । सबब की वो मिठाइ वर्षा ऋतु वापरनी है । इस लिये कम काळ समझना, परंतु विशेष नहि । इस तरह चलने से दोष नहि लगता, प्रतिज्ञा बहुत शुद्ध रहती है। कीतनीक मिठाइ तो दूसरे ही दिन या दो-चार दिन में भी वर्ण, गंध, रस स्पर्श आदि फीरजाने से अभक्ष्य होती है । वास्ते हरेक चीज अच्छी तरहसे देख कर, तपास कर, सुंघ कर खात्रीपूर्वक वापरनी उचित है । परदेशी मेढेंको या परदेशी पड़सुंदी के आटेकी मिठाइ अभक्ष्य है। जिनेश्वर भगवंतोने उपयोग और आज्ञा में धर्म कहा है | वास्ते ऐसी कई बाबत में उपयोग रखना बहुत जरुरी है । बन्धुओं ! प्रथम तो धर्म मार्ग में प्रवेश करते बख्त बहुत जीवों को वो कड़वी औषधि मुआफीक लगे, कोइ महा पुण्यशाळी लघु कर्मी प्राणीओ को ही धर्म प्रति अत्यंत उत्सुकता होती है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म अपनी इच्छा से करना पसंद न पड़े तो भी कर्मरूपी रोग दूर करने के लीए धर्म रूपी औषध फरजीआत लेना। जैसे की कोइ रोगी आदमी होवे, उनको कटु-झहर समान औषध पीना ठीक नहिं लगे, तब उस्से विमुख रह कर जो वो दूधपाकपुरी आदि मिष्ट पदार्थ खावे, तो थोडा वख्त में वे मृत्यु वश हो जाये, और जो शहर जैसी कड़वी औषधि बलात्कार से भी पीवे, तो उनका रोग का अवश्य निवारण हो जाय । जो हमारे को धर्म पर खुशी से प्रेम बढता नहि, तो भी बढाना । यदि विषयवासना बगरह में लपट गये तो अनंतभव भ्रमण करना पड़ेगा। इस लिए कर्म रूपी रोग का निवारण करने को यह धर्म रूपी ( औषध ) का प्रयोगें बतलाया हैं, उसे कंटाळ के विमुख न होते ही, संपूर्ण आत्मवीर्य विकसावना, जीस्से सहजमें ही शिव संपदा प्राप्त कर सके। १४ चवाणा-सेव, गांठीये, बुंदी, दाल, चेवड़ा वगरह (फरसन) चवाणे का काल मिठाइ जीतना जानना. और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श फीर जाय तब काळमान पहले भी अभक्ष्य १ बुंदी नरम तली हुइ हो, तो वाशी होती है. २ रात को भीगाइ हुइ दाल वासी हो जावे, वास्ते नहि वापरना. ३ घी और तेल कडच्छा हो जाय, तब अभक्ष्य कहा है, तो वैसे घा तेल की मीठाइ भी अभक्ष्य समझनी. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ समजना. भजीये, कचौरी, लोचापूरी, मालपूआ वगरह नरमचीजें दूसरे दिन वाशी होती है. १५ चूरमे के लड्डु - जो मूठीये तळ के बनाया न हो, वो लड्डु दूसरे दिन वासी हो जावे. परंतु अच्छी तरह से तळा हुआ उत्तम मृठीये के बनाया हो, तो दूसरे तीसरे दिन खाने में हरजा नहि । खसखस, चूरमे के लड्डु और वैसे ही कीतनीक मिठाई पर डालने में आता है, वो वापरना युक्त नहि है । विरतिवंतीने तो अवश्य ख्याल रखना । [ यदि मूटिये ज्यादा अग्नि से तळा हुआभीतर कच्चा रह जाए, और उपर से जल्दी लाल हो जाय, तो वासी होना संभव है । वास्ते धीमे मधुर अग्नि से तळना. ] १६ रसोई - उन्हाले में सुबह पकाई हुई दाल, भात वगरह रसोई सख्त धूप से साम को पलट कर बेस्वाद [ चलितरस ] होजाने की संभावना है। तत्र अभक्ष्य हो जावे । रोटी, परौंठा वगैरह भी सम्माल से रख देना चाहिये । एकदम गरमागरम हो, वैसाही उनके बरतन में भर देना नहि. लेकीन थोड़ी देर पीछे भरना | वैसे ही गरम धूप में भी न रखना. और ढांकने में काळजी रखना चाहिये । रखने का स्थान भी स्वच्छ और वीगर जीवजंतु का एवं खुली हवा मीले बैसा होना चाहिये [ रसोइ मध्यम पाक से बनाना चाहिये। कड़क X खसखस - अभक्ष्य है वास्ते हलवाई की दुकान से मिठाइ खरीदने व उनका निर्णय किये बीगर विश्वास रखना नहि. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ रखने से, या ज्यादा जलादेने से, ज्यादा तळ डालने से, ज्यादा पका डालने से, दूणादेने से वगैरह तरह से भी ठीक नहि । पचने में भारी हो जाय, अपक्व, और दुष्पक्क न होना चाहिये, वैसी रसोइ खाने में अतिचार गीने गये है. ] फीर भी कलाइ रहित बरतन में दहीं, छाछ वगैरह खट्टे पदार्थों और दूसरी रसोइ दाल, शाक वगैरह भी कट जाते है, जीससे वो चीजोका वर्णादि फीरजानेसें वो खाने लायक रहता नहि है | वास्ते पीतल, तांबे के बीना कलाइके वरतन में वो चीजें जरा वख्त भी नहि रखना | कीतनीक बख्त थोडी कलाइ रही हों वैसे वरतनमें पकाई हुई चीज, या दहि-छांछ रखने सें भी वो कट जाती है, वास्ते वारंवार कलाइ करवानेका अवश्य उपयोग रखना उनमें प्रमाद या लोभवृत्ति रखने से उनका परिणाम व्याधि वगैरह खराब होता है । हरेक रसोई साधारण रीति से पकाने बाद ज्युं समय पसार होता रहे त्युं युं पचने में भी भारी होजाती है । इसीही मुआफी कुटा हुआ, पीसा हुआ मसाला, पीसा हुवा आटा मिठाइ वगैरह भी पचने में भारी हो जाती हैं । और दीखाया हुआ काल मानके बाद खराव चोंका प्रवेश होकर खाने लायक रहती नहि । याने सुक्ष्म जंतुओं भी उत्पन्न होजाने से अहिंसा दृष्टिसे भी अभक्ष्य बनता हैं. कलाइ कीया हुआ और कांसेका बरतन खानेका पदार्थ रखने के लीये Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी है । लेकीन आरोग्य दृष्टिसे भी जहां तक बने वहांतक खट्टे पदार्थका उपयोग कम रखना फायदाकारक है । खटा रस पाचक हैं. तथापि स्थंभक होनेसें जींदगी तक खाया हुआ . खट्टारसका परिणाम वृद्धावस्था में बहुत असरकारक मालूम होता है । सामान्यतः आंबले, और दाडम शिवाय हरेक खट्टी चीजें गरम है। सुफेद कोकम, नीबूं यह चीज तीव्र खटापनवाले पदार्थ दाल, शाक में डालना ठीक नहिं है। काला कोकमकी खटाइ माफक है। वास्ते वो ठीक है। खटा रस स्वाद देते है। पाचन में भी अच्छी मदद करता है। लेकीन खोराक के साथ स्वयंभी पचकर शरीर में घरकार रहता है। और बाद एक स्वरूप में या दूसरे कोई रूपमें शरीरको नुकसान कीया करता है । बो वृद्धावस्था में मालूम होता है ] 'एल्युमेनीयम' के बरतनो पकाने खाने और तैल बीगर की चीजे रखने के लीए नुकशानकारक मालूम होता है। १७ ओदन (भात )-पकाया हुआ चांवल * छाछ में रखा हुआ हो, उनका काल आठ प्रहर तक है। उतना कालचांवल सांजको पकाया हो, और छाछ छांटी हुई हो, उनका समझना । परंतु द्विप्रहर में पकाया हुवा चांवल जो छाछ * छांछ में बुड होना चाहिए, छांछ में नयापानी मीलाया हुआ नहोना चाहिये. तीन दिनका ओदन नहि लेनेका अतिचार सूत्रमें कहा है। वो सीर्फ जाडी छांछसे पका हुआ अनाज समझना. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ छांट के रखा हो तो उसीही दिन वापरने में आवे. सूर्यास्त वाद वो काममें न आवे । छाछ छांट के सामको पकाया हुआ चावल रखने में भी बहोत उपयोग रखने की जरुर है। वो चांवल के सूर्यास्त होते पहले सब दाना अलग करना चाहिए, और जो वैसा न किया जावे, तो वो वासी होजावे, प्रत्येक दाना अलग अलग करना और उनके पर च्यारह अंगुल छाछ जरुर रखनी चाहिये, फिर वो छका कपाल में तीलक हो सके वैसी घट्ट अर्थात् पानी बीलकुल कम और छांछ ब बहुत हों वैसी चाहिए ] तथा वो चांगल जहांसे तैयार हुआ हो, व्हांसे काल आठ महरका गीनना, परंतु छांछ छोटी व्हांसे नहि । और सूर्यास्त होते पहिले हि उनकी पूर्वोक्त सब क्रिया कर लेनी चाहिए. चातुसिमें तो इसरीतिसे चावल रखना हि योग्य नहिं है । तर तो वह है की जैसी चीजां परसे ममता उठालेनी चाहिये | क्यूंकी प्रमाद वशात् हम उपर बतलाया मुआफीककी व्यवस्था बहुधा रख सकते नहिं । और उसे वासीका दोष लगता है । वास्ते जरुर जीतनाहि पकाना, और वैसे करते ह अधिक हो जावे, तब अनुकंपा दान करना भी ठीक है । कीतनी जगह न्यातमें सांजका भात, मग वगैरह पकाई हुई रसोई अधिक हो गई हो, उनका कृपण स्वभावसे सदुपयोग कर नहि सकते, परंतु दूसरे दिन वो वासी रसोई नई रसोइ के Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ साथ मीलाकर खीलाते है । उसे चलीत रसके त्यागीओ को खास, और दूसरोंने भी ऐसी जगहपे भोजन करते पहिले सावधान रहेनेका विचार करना । श्रावकोंको इसतरह से वासी खीलाना वो ही ज अयोग्य बात है | अपना थोडासा नुकसान के लीए असंख्य जीवोका विनाश वो लोक कबुल करते हैं । अफसोस ! बन्धुओं ! उनने किंपाक समान कर्मका फल चखना पडेगा, तब बहुत पश्चत्ताप होगा । वास्ते समजो और अनादि की कुमति को दूर करो । जीस्से सुमति के संगसे स्वात्मका श्रेयः करके अविचल सुखवास प्राप्त कर सके, याने मोक्ष मील जाय । १८ दहिं - मुवे [ दूधमें खटाई डालके ] जमा हुआ दहिं सोलह प्रहर बाद अभक्ष्य हो जावे । और सांमके समय बना हुआ दहिं बारह प्रहर बाद अभक्ष्य होवे । जैसा सेन प्रश्न में कहा है । दृष्टांत सह - इतवार सवेरे सात आठ या दस बजे दहिं बनाने के लीए छांछ डाली हो, उनका काळ इतबारका सूर्य उदयसे हि गीनना. नहिकी - " दश बजे मीलाया हो याने उनके बाद १६ प्रहर " अर्थात् इतवार के अहो रात्रीके आठ प्रहर मील कर सोलह महर गिनना, वो दहिं मंगळवार के सूर्योदय पहिले छांछ बना लेना चाहिए | व्हांसे सोलहप्रहर वो छांछका काळ समजना । वैसेही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ इतवार के संध्या वख्त या उनके बाद मीलावट डाला हो उनका काळ इतवारका सूर्यास्तसें गिनलेना याने इतवार के रातका चार प्रहर और सोमवार की अहोरात्रका आठ प्रहर मीलके वारा प्रहरका काळ समजना । अर्थात् दहिं तैयार कीये बाद दोरातका काळ मान समझना [ मीलावट चाहिए उस वरूत डाला जाय । लेकीन सामान्यतः दूध नीकालनेका प्रसिद्ध वख्तसे दूध के अंदर के तत्त्वों दहिं बनाने की क्रिया तर्फ गति कर रहे होते हैं । बराबर दूध नीकालने पीछेसे हि कालकी गीती कहनी बराबर है ] वर्णादि पलट न जावे तो दूध चार प्रहरतक भक्ष्य है, दरम्यान मीलाना चाहिए, और सामको चाहिए उसी वख्त दूध नीकाला हुआ हो, उसमें रातको बारा बजे - मध्य रात्रि पहिले मीलावट डाल देना चाहिए । दहिं बाजार में से नहि लेते हि अपने घरपे बनाना वो उत्तम है, सबकी - उन्होका बरतन बहूधा शुद्ध नहि रहते, खुल्ला बीगर ढांका रहते है. बासी दूधका या मिश्र कीया हूआ दूधका या संचेके दूधका बनाते है, काल मान कमज्यादा कहे, ही पोहे पकाके दूध के साथ मिश्र कर मीलाके दहि बनाते हैं। कीतनेक वख्त मरा हुवा जीव भी दहिंसेंस नीकला हुआ मालुम होता है । वगैरह अनेक दोषके सबसे घरपे बनाके वापरना युक्त दीखता है । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कांजी-जो चीज कच्ची अथवा गरम की हुई छांछकी छाछ-पराश कहलाती है, वो कांजीका काल सोलह प्रहरका कहा हैं। दहि, छांछ और कांजी का सोळ प्रहर उत्कृष्ट काल कहा है, वो सोलह प्रहर में दोरात उल्लंघन न होनी चाहिए. उनके पहिले भी यदि वर्गादिक फीर जाय, तो वो चीअ उत्कृष्ट काळतक आभक्षय है। चलितरसमें जो जो कालमान बताया है, उसके उत्कृष्ट कालतक आचरणीय है उनके बाद क्वचित् निश्चयसें चलीत न हुई हो, तो भी वो व्यवहारसे अनाचरणीय है। कालमानका अर्थ ऐसा हुआ, की जो मर्यादा जो काळकी आचार्य महाराजाने बतलाइ है, उनके बाद वो चीज नहिंज बापर सकते, और कभी कालमान पहिले भी वर्ण, गंध, रस, स्पर्श बदलजाय तो भी ज्हां से अभक्ष्य समजमें आइ व्हांसें ही त्याग करने का खास ख्यालमें रखना। १९ दूध-चार प्रहर तक भक्ष्य है, लेकीन सांजका नीकाला हुआ दूध का उपयोग मध्यरात्रिके आगे होजाना चाहिये । कीतनीक वख्त ग्रीष्म ऋतु, दूध सख्त धूपसें या ज्यादा वख्त रहने से या उपयोग पूर्वक शुद्ध बरतनमें नहिं रखना वगैरह कीतनेक कारणसें बीगड जाता है। और कोइ वख्त दहिं के मुआफीक जमजाता है। उनको “दहिं हुआ" समजके वापरना नहि । कारण-वो दूधका वर्णादि पलटजाय उससे वो दूध हि अभक्ष्य है। कोइ वख्त दूध फट जाता है। तो भी उनका वर्णादिक फीरजानेसें अभक्ष्य मानना । ___ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीतनेक बेचनेवाले वासी दूधका भेल करतें है। कलकत्ते तरफ रात को दूध खूब गरम करके, उनमें से मलाई नीकाल के उनमें सींगापुरसे आता हुआ आरारुट का आटेका मीश्रण करके सुबेमें ताजा कहकर-बेचते है। अपने तुच्छ स्वार्थके लीये बन्धुओं ! यह लोग क्या क्या नहि करतें है ? अर्थात वो बहुधा हरेक चीजमें दगा करतें है। उनका सूक्ष्म दृष्टिसें तपास करना और बनसके वहांतक उपयोग रखकर खरीद करना. बीगडा हुआ और वासी दूधका दहि, दूधपाक, बासुदी, मलाई, मावा वगैरह पदार्थों भी अभक्ष्य हैं । दूध दहिं प्रमुख प्रवाहि पदार्थ के बेचने वाले लोगों वो चीजों के बरतन खुल्ले और अयतनासे कीतनीक वख्त रखतें है, उसे थोडा वख्त पर काठीयावाड में जुनागढ शहर में एक दूधका बेचने वालेका दुध ज्हां जहां दीया वहां वहां जीनोंने वो दूध पिया उन्होको कलाकोंके कलाको तक पेखाना, वमन, और अत्यंत बेचेनी सहन करनी पडी थी। तपास करते मालुम हूआ की वो दूधमें कोइ जीवकी लाळ वगैरह झहरी पदार्थ पड़ा हुआ होनेसें उन्होंको बीमारी ‘सहन करनी पड़ी थी। केइ वख्त सर्प वगैरह की लाळ (विष) गीरगई हो तो वो वापरनेसें मृत्यु हो जानेका संभव है। उसीहि लीये शास्त्रकारोंने दश जगह पर चंदरवा रखने का कहा है। एक मीनीट भी पानी, भोजन वगैरहका बरतन Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुल्ले नहि रखना, वगैरह प्रकारकी यतना यह ग्रंथ में बतलाइ है, वो शारीरिक और धार्मिक दोनोकों लाभके लिये है. जीससे अवश्य उपयोग रखना [ टट्टी - जंगल जाने वख्त लेजाने के. लये पानी का बरतन भी खुला न रहे, उनके लीये भी विवेकी पुरुषों ढंकने की योजना रखते है. ] बन्धुओं ! यह उत्तम जैन धर्म में बतलाइ हुई ( यतना) याने दया पालनेवालोंको शिघ्र मुक्ति देता है । जैन धर्मकी बलीहारी है । दोया हुआ दूध जैसे वने वैसे तात्कालिक गरम करके रखना चाहिए, नहि तो ठंडा दूध थोडे वख्त में बीगड जाने का संभव है | मुनि महाराजाओं भी ठंडा दूध व्होरते नहि । दूध छान गरम करना चाहिए [ गाय प्रमुखका वाल पीने छांनके में आ जाय तब सडेका भयंकर रोगका संभव होता है । ] दूधको बीना छाने नहि खाना. इतर धर्म में भी कहा है और जैन शास्त्रमें छानने के सात कपडे कहा है- १ मीठे पानीका, २ खारे पानीका ३ गरम पानीका ४ दूधका, ५ घीका, ६ तैलका और ७ आटा छानने का । " दूध बेचनेवाला दूधमें थोडा पानी डाले, वो बीगर छाना पानी जंतुवाला होता है । गायका, सका, बकरीका, और गाड़रीका यह ४ दूधको दूध विभाग में शास्त्रकारोंने गीना है. जीससे दूसरा जानवरोंका दूध खाने में दोष है, जल्दी अभक्ष्य हो जाता है । और रोग भी पैदा करता है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ [ शहरों में दूध में - सपरेंटका दूधकी मीलावट होती है, और विलायती पावडरका भी भेल होता है । स्वच्छ दूध के लीए म्यु० प्रयत्न कर रही है । और दूसरी तर्फ हजारों वर्ष के अनुभवी भरवाडों के हाथमें से दूधका धंधा छुट जाय वैसी कोशिषें चलती हुई देखने में आती है. और विलायत की. पद्धति पर चलती डेरी कंपनींओं के हाथमें दूधका धंधा रखने की कोशिषे भी चल रही है । जीससे अपने देश के गरीब मनुष्यों को सस्ता और तुर्तमें दोहा हुआ ताजा दूध मीलना मुश्केल होनेका संभव हो सकता है, और धंधे बीगर होते ही, भोली, प्रामाणिक और आर्य प्रजाका एक भाग ३५ हजारो वर्षकी, और अपना धंधे में खूब पावरधी न्यात का विनाश से बडी हिंसाका भी संभव मनाता है । और खानपान की ऐसी महत्व की चीजों की मुश्केली के लीए अपनी प्रजाका आरोग्य भी जोखम में आजानेका संभव है । दूधवाले जनावरों को वचनेका अनेकविध प्रयास मुख्य तया डेरी के धंधेको किसाने के लीए है. और मूल धंधार्थीओं के मार्ग में विघ्नों बीना डाले डेरीओं मजबूत नहीं हो सकती है । सादाई, कुशळता और महेनत वाले दुध सस्ता बेच सके याने हरिफाई में डेरीवालेको भी पहोंचने न देवे, जीससे उन्होंका दुध, घीकी परीक्षा करके अप्रमाणिकता और अज्ञानता उनको जनसमाज में हलका बना करके कायदे से विघ्न रचा रहे है। प्रजा का आरोग्यकी तो बात: Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ ही क्या ? लेकीन जहां से गौचरें खेडे गये और डबा दंडका कायदा शुरु हुआ, व्हांसे दुधवाले जानवरोंका पालनेवालेकी मुश्केलीकी शुरुआत हुई. उनमें से अप्रमाणिकता, वैर, विरोध, तुफान, खून खरावी होती है । और उनका बच्चोंको फरजीयात स्कूलके केलवणी लेनेकी फरज पडने से, उनको पशु रक्षण का ज्ञान वारसे से आता नहि, और केळवणी पूर्ण ले सके नहि, मानो ऊनका नुकसानका पार न गीना जाय ] २० घी - कडछा, काळ पूर्ण हो जानेसे, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श बदल जाने से अभक्ष्य हो जाता है। वीमें कीर्तनेक दगाखोर लोग चरबीका और बटाटा, रताळ प्रमुख कंदका मीलावट करते हैं । उनका अवश्य उपयोग रखना | बीना परीक्षा हरेक माल लेना नहि । [ वर्तमान में बीलायत से वेजीटेबल ath नामसे बनावटी घी आता है। वो सारे देशमें करीब करीब प्रख्यात हो गया है । और दुध देनेवाले जनावरों को पालने वाले लोगो में भी बहुत प्रचलित हुआ है । वो अच्छे घी के साथ मीला के बड़ी सिफारस से बेचते है | चाहीए जीतनी खात्री करने में आवे तो भी जहां घी की पदास के मुख्य स्थानोंमेंही ऐसी भेलसेल बहुधा होने लग रही है । अब क्या इलाज ? ज्यादा चेतते रहता वोहि । यह जमाने में केळवणी, अखाड़ा और आरोग्य वास्ते धमाल मच रही है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ लेकीन दूसरी औरसे ऐसे प्रजा के आरोग्य के नाश के बहुत तत्त्वों यह जमाने में खुबी से प्रचलित कीया है । उनके पर कोइका ध्यान नहि जाता है । जुटी बूम और खर्च चल रहा है । यह भी जमाने की बलीहारी है ] फिर जो लोग घी गरम करके बेचते है वो केई सात आठ या दो चार दिनका मक्खन एकट्ठा करके, गरम करते हैं, वो अभक्ष्य गीना जाता है । उनके वास्ते जीन्हो के घरपे गाय भैंस हो तो वो हि ज सच्चा उपयोग रख सकते है । थोडी छांछ के साथ या छांछ से अलग करते व ताबडतोब मक्खन चूले पर रख देना चाहिए | [ अपने घरपे इसरीति से तैयार कीया हुआ घी आग्रहपूर्वक वापरने वाले भी है । बहार गांव जाना पड़े तो भी यह घी साथमें ले जा कर उनका ही उपयोग करते है. नहि तो बीना वीसे चला लेवे | ऐसा कीतने ही श्रावक कुटुंब आज भी देखने में आते है ] परंतु कोइ श्रावक अपने घर अंतमुहूर्त्त से ज्यादा या कलाकों के कलाक वासी मक्खन न रक्खे [अन्तमुहूर्त्त - जघन्य नव समय से लगा के दो घडी में कुछ कम काल उनको अन्तर्मुहूर्त्त कहा है ] एक आंखका पलकारा लगा दे उतने वख्त में असंख्य समय हो जाता है ] उसी ही से मक्खन की बाबत में बहुत उपयोग रखना उचित है । अपने प्रमाद में अहाहा ! असंख्य जीवोंका नाश होता है । हे बन्धुओं ! श्री जिनसासन में हम लोग ऐसा अत्युत्तम Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोका प्राप्त कीया है की जीससे सुक्ष्म बातें का अनुभव होता है। अहो ! केवळी भगवंतो के अलावा दुसरा कौन कह सकता है ? अर्थात् त्रिकाळ भाव जीन्होंसे एक समयमें देखा है वो . प्रभु केवळज्ञान से ही यह सब प्रकाश सकते है। बन्धुओ! चलो अब अपना प्रमाद छोडके यह उत्तम मोकेको सहर्ष स्वीकार लीजीए, और “जीवदया प्रतिपाळ" यह नाम सार्थक करके मंगळमाळ पहनीए । [घरपे दुधवाले जनावरों रखने सिवाय घी, दुध स्वछच्छ मीलनेका दुसरा उपाय नहिं है। लेकीन जनावरों के लिये जो गौ-चर जमीन अलग रखने में आती थी वो शुभ प्रथा बंध होजाने से याने गौचर खेडे जाने से, और बांधने के लीए म्यु० तर्फसे महसुल वसुल करना होनेसे यह सादा और गरीब देशोंमें घरपर पशु रखना सर्व सामान्य प्रजाको परवडता नहीं है. म्गु० स्वच्छ घी-दूध के लिये प्रयास करती है, वो तो डिब्बेका घी दुधका भावि परदेशी व्यापार के लिये है। स्वच्छ, सस्ता और ताजा घी दूध मिलने का इससे संभव नहीं है] २१ बली-तुरत की बीयाइ हुई गाय तथा भेंस के दूध से बली बनाते है । गाय के जनने बाद १० दिनतक, भेंस के जनने के बाद १५ दिन तक, तथा. बकरी के जनने के पश्चात् ८ दिन दूध काममें लेना कल्पता नहीं है। तो फिर बली कैसे काममें आ सकती है ? अर्थात् यह खाने योग्य नहीं हैं। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दूसरे दूध में तुरतकी जनी हुई गाय अथवा भंस का अभक्ष्य ध शामिल न हो यह भी तपास कर लेना चाहिये।] ___ २२ खट्टे दोकले–चांवल की कणकी के साथ उड़द, चने और तूवर की दाल पीसकर छांछ में घोलकर रातको रख छोड़ते हैं वो अभक्ष्य है। इससे गरम की हुई छाछमें दिनमें घोलकर, बनाकर उसके ढोकले बनाना चाहिये । और सूर्यास्त के पूर्व उसको काममें ले लेना चाहिये । वन्धुओं! एसी चीजों का दूसरे दिन खाना यह श्रावक कुलको योग्य नहीं है । [सिकी हुई, तली हुई, बाफी हुई चीज़ प्रायः कच्ची रहती है। यह आरोग्यता के लिये हानि प्रद है। ढोकले वाफी हुई चीज में गिने जाते हैं। पापड़ सेकी हुई चीज में और पूडी भूजियें आदि तली हुई चीज में ।] वासी रखी हुई रोटी, नरम पूडी, भजिये । ढोकले और छाछमें न भिगोये हुए चांवल आदि चीजें खाने से अनेक जीवों का नाश होता है। भगवान् की आज्ञाका उल्लंघन होता है। और शरीर में अनेक रोग उत्पन्न होते हैं । इस हितार्थ प्रत्येक वस्तु ताजी खाना ही उत्तम है। प्रातःकालमें यदि छोटे बालकों के जलपान के लिये कोई चीज रखी जाय तो गेहूँ के पतले खाँकरे बनाकर रखना चाहिये. जिसमें विलकुल नरमाई न हों । परन्तु महान् अफसोस की बात तो यह है कि प्रायः बहुत सी जैन स्त्री शीतलामाता को अपने बालकों की Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ रक्षक मानकर सीलसातम के दिन एक रोज पहले बनाया हुआ बासी भोजन काममें लेती हैं । और उसी दिन चूल्हा नहीं जलाती । इस लिये इस मिथ्यात्व आचार को छोड़कर बासी चलित रस कभी भी काम में नहीं लेना । एसी दृढ़ प्रतिज्ञा करना चाहिये | २३ घोलवड़ा (दहीं बडे ) गरम किये हुए दहीं व छाछ में बनाये हुए हों तो वे उसी दिन तो भक्ष्य हैं | कच्चे दहीं अथवा छाछ में बनाये हों तो अभक्ष्य ही है । I 1 २४ खाकरे - गेहूँ की रोटी को तवेपर सेककर बिलकुल करड़ी बना लेतें हैं । वो पांच सात दिन से ज्यादह नहीं रखना चाहिये । रोज २ बनाकर एक ही बरतन में रखते जाना अच्छा नहीं हैं। क्योंकि ऊपर ऊपर से काम में लेना और जो नीचे के बचे रहेंगे वो ज्यादह दिन के हो जाने से अभक्ष्य हो जाते हैं । और उनमें भी जंतुओ की उत्पत्ति हो जाती है । इससे पहले के बनाये हुए काम में लेते जाना चाहिये । और उस वरतन को साफ रखना चाहिये जिससे दूसरे जंतु भी उसमें अपना घर न बना सकें । और उसमें फूलन आदि भी नहीं हो सकती । खांखरे को बिलकुल करड़े बनाना चाहिये । [सुबह सिरावन के लिये बासी खानेमें न आवे इस लिये श्रावक के कुल में खांकरे बनाकर काममें लेने का रिवाज चला आ रहा मालूम होता है । ] Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ पापड़ के लोये, बड़े, पोरन पोली-उड़द, चना, मॅग आदि के पापड़ के लोये, तथा मँग, उडद आदि की दाल के बड़े, और पोरन पोली [दाल बाँटकर रोटीमें भरकर बनाई जाती है] सुबह में बनाई हो, तो श्याम तक काममें आ सकती है । ये सब चीजें रातमें रखने से अभक्ष्य हो जाती हैं। २६ जुगलीराब (जीराराब)-छाछ में जुवार का आटा मिलाकर रांधते हैं। यह सुबह की बनी हुई श्याम तक काममें आ सकती है । बाद में अभक्ष्य हो जाती है। और जिस छाछ में अनाज जादह मिलाकर बनाया जाता है, उसको फंस कहते हैं। वो आठ ८ घंटे वाद अभक्ष्य हो जाती है। अर्थात् जीराराबका समय १२ प्रहर तथा घेसका ८ प्रहरका।] २७ रायता:-केला, दाख, खारक आदि लोंजी का काल १६ प्रहर का है । परन्तु उसमें कोई भी भाँति अन्नका मिश्रण न होना चाहिये । रायते में यदि भजिये, सेव, गाँठिये आदि डालना हो तो पहले दहीं अथवा छांछ को खूब गरम कर के फिर उसमें डालना चाहिये। ये रायता सायंकाल तक खाने योग्य है । बादमें अभक्ष्य हो जाता है। दहीको गरम कियाबिना बनाया हुवा रायता कठोळकी साथ न खाने की संमाल रखनी चाहिये. २७ सेका हुआ अनाज-शृंगड़ा, धानी, परमल पहुवे, आदि सेके हुए अनाज हैं। इसका काल कड़ा विगई प्रमाण है। चोमासे में उत्कृष्ट १५ दिन, सियालेमें १ महा, तथा उन्हाले में २० दिन है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ २९ खिचडाका ढुंढणीया - जुवार और बाजरी को पानी डालकर खाँड़ते है, इससे उस के छिलके (फोंतरे) निकल जाते हैं, उनकुं सौराष्ट्र देश में ढुंढणीया कहते है । फिर उसको रांधते हैं। इस खंडे हुए अनाज का समय सेका हुवा धान्य की माफक है । अर्थात् वर्षाऋतु में १५ दिन, शीतऋतु में १ माह, और ग्रीष्मऋतु में २० दिन । इनके पश्चात् अभक्ष्य होता है । ढुंढणीया बराबर सुख जाना चाहिये. प्रकरण ३ रा २२. बत्तीस अनंतकाय. He rate अभक्ष्य होते हैं । कारण - एक सूई के अग्रभाग पर असंख्य शरीर होते है, और एक शरीरमें अनंत जीव रहते हैं, इस लिये सब अनंतकाय अभक्ष्य है । इससे श्रावक को उनका त्याग करना चाहिये । एक ( जिव्हा इन्द्रिय ) रसनेन्द्रिय की लोलुपता के लिये अनंत जीवों की हानि करना महान् अनर्थकारक है । इस लिये बत्तीस अनंतकायका सर्वथा त्याग करना चाहिये । इससे अनंत जीवों को अभयदान प्राप्त हो सकता है । कितनेक बन्धु रसनेन्द्रिय के वशीभूत होकर “ सालमें ५-१० सेर कंदमूल काम में लेना " एसा नियम करते हैं। परन्तु हमारे उन सुज्ञ बन्धुओं को जरा विचार करना चाहिये कि - " अनंतकाय Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न खाने से क्या आपका निर्वाह न होगा ? अथवा क्या दुनियां में दूसरी वनस्पति का काल पड़ गया है ? । अभक्ष्य का त्याग करने वाले वंकचूल कुमार की ओर दृष्टि उठाकर देखियेगा। अपने पर मृत्युतक कष्ट आने पर भी उसने अभक्ष्य वस्तु को अंगीकार नहीं किया। वास्ते ऐसे सत्त्वशाली, दृढ़ प्रतिज्ञ, आत्माको करोड़ो बार धन्यवाद है । अहोहो ! कर्म के वशीभूत होकर लेशमात्र भी पापका डर रखे बिना जो प्राणी अदरक, मूला, गाजर, प्याज, लसून आदि अनंतकाय का भक्षण करते हैं, उनकी क्या गति होगी? इस मनुष्यभव के साथ जैन धर्म भी प्राप्त किया है, जिससे संसार का भ्रमण मिट जाय और मुक्ति प्राप्त हो । हे भाइयों ! में आप से नम्रतापूर्वक विनंति करता हूं कि-बावीस अभक्ष्य श्रीर बत्तीस अनंतकाय का त्याग करेंगे, और सच्चे जैन बनेंगे। बत्तीस अनंतकाय के नाम. १ पृथ्वी के अंदर जितने ६ हा कचूर भी कंद पैदा होते हैं ७ सतावरी उनकी सब जाति ८ विराली लता विशेष २ गीली हलदी __ सोफानी-भोंय कोलूं। ३ ,, अदरख ९ कुँवार पाठा और उसकी ४ ,, सूरण फली ५ वज्रकंद १० धूवर सब जातिकी ___ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ११ गिलोय (गुड़वेल) १२ लसण १३ वांस करेली १४ गाजर १५ लुणी याने साजी वन स्पति १६ लोढ़ी पद्मिनी कंद १७ गरमर (गिरिकर्णी ) [कच्छदेश में प्रसिद्ध है ] १८ किसलय पत्र १९ खीरसुआकंद २० थेग २१ हरिमोथ २२ लुण वृक्ष की छाल २३ खीलोडा कंद २४ अमृत वेली २५ मूळा २६ भूमी फोडा २७ बाथवे [बंधूला ] की भाजी २८ विरूढाहार २९ पलंकाकी भाजी ३० सुअर वल्ली ३१ कोमल आंबली ३२ आलू, रतालू, पिंडालू १८ किसलय पत्र - कोमल पत्ते । जो केवल ऐसे बिल्कुल नये मुलायम निकलते हैं । तथा सब वनस्पतियों के निकले हुए अंकूर । ये सब अनंतकाय होते हैं। इस प्रकारकी उगती हुई वनस्पति उगती हुई अनंतकाय होती हैं । बादमें प्रत्येक वनस्पति के थड, पत्र, अंकूरा, अंतर्मुहूर्त पश्चात् प्रत्येक रूप हो जाती है । और सब जीव च्यव जाते है । परन्तु, साधारण वनस्पति के थड, पत्रादि हमेशा अनंतकायपनेज रहती है । इन अनंतकाय पत्ते आदिका सर्वथा पच्चक्खाणकरने वाले [ अथवा कर लिया] हो, उन लोगोंने भाजी पत्त को उपयोग में लेते समय सावधानी से काम में लेना चाहिये । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि दोष लगने की संभावना है । मेथी आदि की भाजी के नीचे के दो २ पत्ते अनंतकाय होते हैं। और वे दो पत्ते दूसरे पत्तों की बजाय जाड़े होते हैं । साथ साथ वे कोमल भी होते हैं। और भाजी में अनेक प्रकार के अनंतकाय के पत्ते शामिल हो जाते हैं। इससे भाजी काममें लेते समय बराबर ध्यान देकर जरुर देख लेना चाहिये, नहीं तो दोष लगता है। १९ खीरसुआकंद--कसेरु ( खरसइयो); २० थेग -कंदथेगी तथा थेग नामकी भाजी, थेगीपोंक; २१ हरिमोथ (लीलीमोथ); २२ लुग वृक्षकी छाल; २३ खिलोड़ा कंद २४ अमृतवेली। २५ मूळा-देशी तथा विदेशी (लाल और सफेद) मूले के पांचो अंग अभक्ष्य हैं । (१) मूलाका कंद ( कांदा.) (२) पत्तों के मध्यभागमं जो कंदकी थाप है। जिसको डांडली कहते हैं, वो पत्ते सहित अभक्ष्य है। (३) फूल (४) फल, जिसको मोगरा कहते हैं वो, तथा(५) उसमें से निकले हुए बारीक बीज. ये पांचो अभक्ष्य हैं । और इनमें त्रस जीवोंकी भी उत्पत्ति हो जाती है। इससे मूले के पांचो अंगका त्याग करना. ___ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ २६ भूमिफोडा-वर्षाऋतुमें छत्री के आकारकी वनः स्पति उगती है, वो। २७ बाथले की भाजी। २८ विरूढाहार—याने वीदल धान्य-गूग, तूवेर, चने आदि रात्री को पानी में भिगोते हैं। और उनमें से अंकुर पेदा हो जाते हैं । बो अनंतकाय होने से अभक्ष्य है। इससे उन्हें प्रातःकाल ५ बजे या ६ बजे भींजवाना, और वो भी थोडी देर पानी में रखना, नहीं तो दो २ या चार ४ घंटे बाद उसमें अंकुर बिलकुल पेदा हो जायगा। शाक बनाने के लिये मूंग, चने आदि को वाफ कर ही बनाना चाहिये। कोई के वहाँ जीमने जाना हो तो वहाँ पर भी ऐसा शाक बना हो, तो तलाश करलेना आवश्यक है। कोई कोई शोकीन मूंगके अंकूर फूटे बाद ही शाक बनाते है। ऐसा शाकका सर्वथा त्याग करना चाहिये ।। __ २९ पालकेकी नाजी ३० सुअरवल्ली-जो जंगल में बडी बेलडी के सदृश्य होती है, वह । ३१ कोमल इमली-जहां तक उसमें बीज पैदा नहीं होते है, वहां तक वह अनंतकाय है । कोमल फल में जहाँतक बीज पैदा नहीं होते है, वहांतक वह अनंतकाय है। इसहेतु से कोमळ फल नहीं खाना चाहिये। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ ३१-३२ आलू, रतालू, बटाटा, पिंडालु (डुंगळी) सकरकंद, घोषातकी और करीर-केरड़ा, इन दो वनस्पतियों के अंकुर अनंतकाय है। तिंदुक वृक्षके कोमल फल, जिसमें गुटली नहीं बधि हो, एसे आम आदि फल, तथा वरुण जातके वृक्ष विशेष, तथा बड़का झाड़ और निवादि जातके वृक्ष के अंकूर ये अनंतकाय होते हैं। ___ इस भाँति अनंतकाय जाति के बत्तीस नाम हैं । और विशेष नाम भी अनेक हैं। उसमें की कोई भी वनस्पति के पांच अंग, कोईकी झड़ (मूल ), कोइके पान, फूल, छाल, काष्ठ अनंतकाय है। इस भाँति कोइका एक अंग, कोईके दो तीन-चार और कोइके पांच अंग अनंतकाय होते हैं। अनंतकाय पहिचानने का चिह्नःजिन वनस्पति के पान या फल आदि की नसों, संधि, मालूम न हो, ये गूढ-गुप्त हो, जो तोड़नेसे बरावर तूटे, तोडनेसे जिसका चूरा हो जाय, या हरदम बिखर जाय, काटने के बाद फिर उग जाय, पत्ते मोटे दलदार और चिकने हो, जिसमें बहुतसे फल, पत्ते, अत्यन्त कोमल हो, ये सब लक्षण अनंतकाय के हैं। १ कोबी भी विदेशी मूळा या पिंडालू की जात मालूम होती है, बो भी पत्रात्मक शाक मालूम पडता है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ उपरोक्त बताये हुऐ जितने साधारण वनस्पति के लक्षण हैं, वो सब के सब ही में होना संभव नहीं । कोई में कम भी होते हैं, और कोई में अधिक भी । पोई (पद्म) की भाजी के पान तथा पिण्ड [ अॅन्डीपेण्डी] अनंतकाय सुने जाते हैं । अनंतकायके लिये कितनीक सूचनाएँ: १ दूध के मावे तथा घी में कितनेक दगाखोर लोग रताळू, सक्कर कंद, बटाटे का मिश्रण करते है । इसका ख्याल रखना चाहिये । २ हरा अदरख तथा हलदी सूकेबाद (सुंठ और हलदी ) के खानेके उपयोग में आते है वो भक्ष्य है । इसके सिवाय अनन्तकायकी सूकी हुइ शाक, अचार आदि त्याज्य है । निध्वंस ( निर्दय जैसा मन ) परिणाम । २ निःशुक ( नफरत न होना, संकोच नहीं होना, वृतिकी चड्स, लोलुपता ) ३, परंपरा बढ़े । ४ देखनेवाळा अधर्मी बने, आदि हेतु होने से कंद जैसी कोईभी अनंतकायवस्तु, उसके भुजिये आदि प्रासुक होने पर भी शास्त्रमें इन्हें लेनेका मना किया है । ३ काँदे, इगली आदि के भुजिये करते है, तथा दुकानदार ढोकले में अभक्ष्य - चीजोका मिश्रण करते हैं, वे बासी रखकर बेचने के लिये फिरसे गरम करलेते है | बाजारु Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ चटनी आदिमें लसनका स्पर्श तथा अदरक आदि अभक्ष्य चीजे डालते है। तथा ये चीजे बासी भी रहती हैं । इससे दुगुने दोषवाली होजाती है। इसमें त्रसजीव उत्पन्न होते हैं। इत्यादि कारणों से पापसे बचनेवाला आत्माको यह खाते समय ख्याल रखना चाहिये । काँदे आदिके भुजिये जो तेल में तले जाते है और उसी तेल में यदि अन्य भक्ष्य जातिके भुजिये तले गये, तो वो भी अपने उपयोग में नहीं लेना । दालमें कितनेक व्यक्ती सूरण, अदरक,आदि डालते है । उसमें भी ईंगली,कांदे आदि अभक्ष्य वस्तुएँ डाली होय तो उनको, तथा चटनी, दाल, कढ़ी आदिमें कोई स्थान पर कोमल इमली डालनेमें आती है, उसका मिश्रण तथा स्पर्शादि का अवश्य ध्यान रखना चाहिये । अथवा भेळसंभेळ आदि की जानकारी बिना, और दाक्षिण्यता का आगार रखना । आगार का अर्थ यह नहीं है कि "जानते हुए मी आँख के आडी कान करके यह दोष सेवन करना ।" ४ मेथी की भाजी में अनंतकाय थेग तथा लुणीकी भाजीकी डालियां आ जाती है। इससे उनको अलग कर देना। और यदि बिना जाने आ जाय तो उसका ध्यान रखना। मेथी की भाजी के नीचे के दो पत्ते अनन्तकाय है, इससे उनको पहले से ही निकाल देना चाहिये। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ - ५ बावीस अभक्ष्य के त्याग पर उपसंहार-- पुस्तकांतरमें बावीस अभक्ष्य निम्नोक्त है:पंचुंबरी चउ विगइ अणायफल-कुसुम हिम विस करे । महि अ राइभोयण घोलवड़ा रिंगणा चेव ॥१॥ पंपुट्टय सिंघाड़य वायंगण कायवाणिय तहेव ।। बावीस दव्वाई अभक्खणिआई सड्ढाणं ॥२॥ अर्थः-१ गूलर २ प्लक्ष ३ काकोदंबरी ३ बड और ५ पीपल । ये पांचजातिके फल । ६ मांस ७ मदिरा ८ मांखण और ९ मधु ये चार विकृति (महाविगई)-विकार करनेवाली विगइ । १० विना परिचय का फल ११ अपरिचित पुष्प १२ हिम (बरफ) १३ विष १४ करा १५ सचित्त मिट्टी १६ रात्रिभोजन १७ दहीवडे कच्चे, जो कच्चे गोरस के साथमें विदल मिश्र किये गये हों ९८ रींगणा १९ पंपोटा-(खसखसके डोडे ) [ खस खसका त्याग करना ] २० सिंगोडे [ जो कि अनंतकाय नहीं है तथापि कामवृद्धि जनक होनेसे तथा पानीमें होनेसे " जत्थ जलं तत्थ वणं" इसरीतिसे अनंतकाय सम्बन्धी होनेसे त्याग करने योग्य है ] २१ वायंगण (१) अने २२ कार्यवाणि (?) पूर्व कहे गये बावीस अभक्ष्य के साथमें इस गाथा में के ११, १९, २०, २१, २२ नामवाले अभक्ष्य विशेष हैं। वो भी त्याग करना। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ - अभक्ष्य और अनंतकाय अन्य के घर अचित्त हुआ हो तो भी निःशूकता, रसलोलुपता, प्रसंगदोष इत्यादि कारणों से वर्जना । सुकी मुंठ और हलदी नामभेद तथा स्वादभेद से अभक्ष्य नहीं है। इन अभक्ष्यो में अफीम, भंग आदिका जिसको व्यसन लगा हुआ हो तो व्रत-सोगन-पच्चक्खान करते समय उसके तोलमाप से जयणा करे । और रात्रि भोजन में चउविहार, तिविहार, दुविहार एक मासमें इतना करना, एसा नियम करे । रोग आदिके कारण यदि कोई औषधि में अभक्ष्य खाना पडे, उसका नाम, समय तथा वजनसे यतना रखनी पडती है। देखो, बत्तीस अनंतकाय का सर्वथा निषेध है। तो भी यदि रोग आदि कारणों से लेना पडे तो उसकी जयणा रखे तो रोग आदिके कारण औषधि में लेना पडे या अजानपनेसे कोई वस्तु मिश्र हुई खाने में भी आये, तो व्रत भंग नहीं होता। आगे बीमारी में भी नहीं लेना एसा लिखा है, यह सिर्फ उत्कृष्ट नियमवालों के लिये है। जिससे नियम जिस तरह पालन हो, वो यथाशक्ति उसी तरह करना उचित है। " श्रावक को अन्य धर्मावलाम्बियों ( अन्य मतवालों) के घर बरात में जीमने जाने के समय अधिक ध्यान रखना चाहिये, कारण-वहाँ बावीस अभक्ष्य और बत्तीस अनंत कायमें से कितनेक दोष अवश्य लगनेका संभव है। इससे बने वहां ___ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ तक बहुत कम परिचय रखना। उसमें भी द्वादश व्रतधारी तथा विरतिवालोंने तो एसी जगह पर जाना ही नहीं चाहिये । कभी जाना भी पडे, तो पूरा ध्यान रखना । बावीस अभक्ष्यका जो यह वर्णन दिया है, उसको बराबर समझ कर मनन करना। तथा जिनेंद्र भगवानने मना किया है, उनका त्याग करके परमात्माकी आज्ञाका पालन करना चाहिये। भाईयों ! आप नित्य पूजा करते है, उसके पूर्व अपने मस्तक पर खुद तिलक करते है । उसका मतलब यह है कि" हे भगवन् ! आपकी आज्ञा मैं शिरोधार्य करता हूँ।" उनकी आज्ञाका कभी भी उल्लंघन करना नहीं और उसे सादररीतिसे पालन करना, यही धर्म है। यह अभक्ष्यों का वर्जन से असंख्य और अनंत जीवों को अभयदान मिलता है। शास्त्रमें कहा है कि-एक जीव को अभयदान, और मेरु जितना सुवर्ण का दान दो, इनमें अभयदान का फल बढेगा । जो पुण्यात्मा अनंत जीवों को अभयदान देता है, वो पाप फल नहीं पाता है ! अर्थात् सब अच्छे फल पाता है। इसलिये चतुर भाईयों! मोक्ष प्राप्तिका यह सरल साधन है-" भगवान् के वचनका आदर व पालन करना।" इसके बारेमें अजित शांतिस्तवकी अन्तिम गाथामें कहा है कि: Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ जंइ इच्छह परम-पयं अहवा कित्ति सुवित्थडं भुवणे। ता तेलुकुद्धरणे जिण-वयणे आयरं कुणह । ४० मूढ और अज्ञानी पुरुष कहते है कि-"खाना, पीना और मौज उडाना, यही सच्चा सुख है, वास्ते भोगसामग्री का उपभोग करलो। और जब मोक्ष मिलना होगा तब मिलेगा।" ऐसे मूर्ख प्राणी के हितार्थ श्री पद्मविजयजी महाराजने तपपदकी पूजा में कहा है कि: तप करिये समता राखि घटमें ॥ तप० ॥ खाने में पीने में मोक्ष जो माने, वो सिरदार है बहु जटमें ॥३॥ अर्थ:-" खाना पीना ही मोक्ष है " । एसा माननेवाले पुरुष मूोंके सरदार हैं, इससे हे भव्यो ! जैनशासनका रहस्य समझकर " देहे दुक्खं महा फलं" इसके अनुसार वर्तनेसे सानंद मोक्षनगर पहुँच जा सकते है। - इस भाँति तीन प्रकरण में बावीस अभक्ष्यका विचार पूरा करने में आया है। १ यदि मोक्षकी इच्छा रखते हो, तिन लोकमें फेलनेवाली कीर्तिकी इच्छा रखते हो, तो तीन लोकका उद्धार करनेवाला जिन वचनमें आदर रखो. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ४ था, ५ वा, ६ ट्ठा, । बावीस अभक्ष्य के अलावा अभक्ष्य वस्तुएं १ फाल्गुण सुदी १५ से कार्तिक सुदी १५ तक अभक्ष्य वस्तु ऐं. २ आर्द्रा नक्षत्रसे त्याग करने योग्य अभक्ष्य वस्तुएं. ३ असाड सुदी १५ से कार्तिक सुदी १५ तक त्याग करने योग्य अभक्ष्य वस्तुएं. ४ हमेशां त्याग करने योग्य कितनीक वस्तुएं. ५ बहुत आरंभसे उपयोगमं न लेने योग्य वस्तुएं. ६ लोक विरुद्ध तथा जैन दर्शन विरुद्ध छोडने योग्य वस्तुएं. ७ त्रस जिवों की अधिक हिंसा होने के कारण त्यागकरने योग्य वस्तुएं. इस भाँति ऊपर मुजब सात विभाग करने में आये है, और हर एक में समावेश होनेवाली मुख्य चीजों की यह यादी भी साथ में दी गई है -- - - - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ फाल्गुन शुदि (१५) पूर्णीमासे कार्तिक सुद (१५) पूर्णीमा तक अभक्ष्यकी गीनती में आती हुइ चीजें १ खजुर २० गेन्हारी [तांदळजा]] २ छुहारा २१ धनीआ के पत्ता ३ काजु २२ फोदीना [कोथमिरी] ४ अंगुर २३ डांभेकी ५ सुके अंजीर २४ टांकेकी ६ चारोली २५ रामतराइ ७ पीस्ता २६ कड़लीकी ८ कीसभीस २७ भोंपाथरीकी भाजी ९ अखरोट २८ लुणीकी भाजी १० जरदालु (अनंतकाय ) ११ सुकेवखाइ बोर २९ कलिमलीकी १२ चीनीया बदाम ३० हरएक प्रकारके पान १३ तेल ३१ नागरवेलके .. १४ तील ३२ अळवीके पेकरी पत्ता १५ तीलकुट ३३ अडुके पत्ता १६ तील रेवडी ३४ कांगीके , १७ तीलके लड्ड ३५ मीठे नींवके पत्ते १८ सभी जातकी भाजी- ३६ पोइके १९ मेथीकी भाजी ३७ एलचीके , Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ गीला मरीचके , ४४ मुनगे सरगवा] कीसिंग ३९ तुलसीके , ४५ कोबीज ४० अजवानके " ४६ कोंकणी केळं ४१ फुलावर ४२ गुलाबके फुल ४७ मुकी रायण ४३ राडा रुडिके फुल ४८ खसखस २ आर्द्रा नक्षत्रमें छोडने लायकआम और रायण ३ अशाड शुदि (१५) पूर्णिमासे कार्तिक सुदि (१५) पूर्णिमातक छोडने लायक अभक्ष्य चीजें१ मुखुआ ८ चने के ओळे २ जवारीका पोंक (बाले) ९ सेकी हुइ मक्काई १० पापडी ३ कोपरे-गडी ११ चौला ४ बाजरीके (वाले) १२ भिंडे ५ घऊंकी ऊंबी-तथा पोंक १३ कंटोले ६ जुवारके लोथे १४ कारेले (करइली) ७ बाजरी के झुंडे १५ तुरीआ ४ हमेश छोडने लायक चीजें १ भडथे ३ परदेशी [मिलका] मंदा. २ उंधीआ ४ मीठे काजु Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ डिबेका दूध ६ सोडा ७ लेमन ८ जींजर ९ रोझवरी १० पिकमिअप ११ बिल्कास १२ एल्टॉनीक १३ कोल्डडींक १४ कोल्डक्रीम १५ जींजर एललाइम १६ लीथीआ १७ अमरीक १८ चेरीसीडर १९ चेम्पेइन सीडर २० क्वीनाईन टॉनीक २१ क्रीम सोडा ३२ बीडी २३ साफी २४ होका २५ चुंगी २६ सीगारेट ११३ २७ चीरुट २८ जरदा २९ गांजा ३० चरस ३१ माजम ३२ भांग ३३ अफीम ३४ दारु ३५ कोकीन ३६ स्तंभक दवाएं ३७ वीलायती दवाओं ३८ युनाईनी दवाओं ३९ देशी दोषयुक्त दवाओं ४० देशी-गुड ४१ परदेशी मोरस ४२ केसर ४३ अखी कठोळ ४४ हरेक प्रकारके बीस्कीट ४५ नानखटाइ ४६ देशी केक ४७ विलायती केक ४८ पांउ ac ac Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९ डबल रोटी ५० टुथ पावडर ५१ शरबते ५२ आइस्क्रीम ४ रामफळ ५ खलेले ५७ इवनींग पार्टी ५३ आइसवॉटर ५८ दोषित पानी ५९ वेजीटेबल घी ५ बहोत आरंभसे नहिं वापरने लायक चीजें - १ ईख [ शेरडी ] २ सीताफळ ३ रायण ६ पक्के गुंदे ७ जांबू ८ रावणां १ पंडोरा २ हरा फणस ३ तपकीरी कोळा ४ कोळा हरा ११४ ५ कडवी तुंबडी ६ दुधी ५४ होटल की हरेक चीजें ५५ चहा पार्टी ५६ गार्डन पार्टी ९ करमदे १० बोर ११ गीले अंजीर १६ वालोळ- सेंम ६ लोक विरुद्ध ओर जैन दर्शन विरुद्ध अभक्ष्यकी गीनती में आती हुई चीजें - ७ पक्के कंटोले ८ पके कारेले - करइली ९ पक्के टींडोरे, कुनरी १० पक्के टमेटे ११ पक्के कंकोडे १२ मधुक - महुवा १२ सेतुर १३ फालसे १४ शिंहाळा [सिंगोडा ] १५ मुंग आदिकी शिंग Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ ७ स जीवोंकी बहुत हिंसा होनेसे छोडने लायक१ बीली २ बीलां ३ गीली वांस उपर बताइ हुइ हरएक चीजें की विशेष समज १ से ४८ तक की संख्या, उन सभी चीजों बीगडनेका और उनमें जीवोंकी उत्पत्ति होनेसे हिंसा होनेका संभव है. वास्ते फाल्गुन शुदि (१५) पूर्णीमासें कार्तिक शुदि (१५) पूर्णीमा तक अभक्ष्य है. उनका जरुर त्याग करना चाहिए. १ खजुर-दोनो प्रकार की. ऋतु बदलनेसे फाल्गुन शुदि (१५) पूर्णीमासें अभक्ष्य होजाती है। कितनेक देशमें ऐसा रीवाज है की होलीके दीनोमें अपनी बेटीयां, मित्रों, सगेवहालों वगैरह को खजुर, खारीक आदि का हारडा लेने देनेका रीवाज है। परंतु वो खारीक-खजुर फाल्गुन शुदि १४ के बाद वापरने योग्य नहि है। और अपने पास उन्हो को भेजा हो तो फाल्गुन शुदि १४ के बाद अपने • काम में नहिं आ सकता है। २ खारीक-उपर मुताबीक यह भी सादी में फाल्गुन शुक्ल १४ पीछे भी कहीं कहीं बाँटी जाति है । वो भी जैन श्रावकों को अभक्ष्य होनेसें बांटना अनुचित है. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ३ से १०, काजुसें लगा के जरदालु तककी चीजेंयह सभी सुका मेवा है । और उनमें मिठाश है। वो फिका होजानेसें उनके अंदर वोही रंग के जीव पडतें है । यही कारनसें उन्हींको अभक्ष्य कहा जाता है. ताजी छुली हुइ बदाम ( बीगर छीलकेकी) और पीस्ते वोही दिन वापरने में काम आवे. लेकीन बदाम, पीस्तेका तैयार बी आतें है, वो काम में नहि आ सकते है । कीसमीस में बहुत दफा अपनी आंखोसे प्रत्यक्ष जीव देखा है. [ खुल्ली की हुइ बदाम आदि कितनेक मेवा अशाड चोमासा से दूसरे दिन अभक्ष्य होनेका प्रचार भी मालूम पडता है. ] पीस्ते, चारोली - बहुत वेपारी पीछले वर्षका पडा हुआ माल बेचते है, तो खरीद करते वख्त बडी चालाकी से ख्याल पूर्वक वैसा पुराना मालका त्याग करके ताजी चीजें खरीदनी. १३ सें १७ तक - तील, वगैरह फाल्गुन चातुर्मास पहले अपने लीए जरुरीआत जीतना माल खरीदना चाहिए। ओर उनको बराबर संभाल के रखना चाहिए. संमालने में गल्ती रे जावे, तो उनमें भी जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है, तीलकी चीकी, तीलके लड्डु, और तीलकी रेवडी वगैरहका भी त्याग करना जरुरी है । फाल्गुन महिने बाद तिलकी जरुर हो, तो पहिले सें गरम पानी में हीलाके नीचो करके सुका देने से जीवोंकी उत्पत्ति नहिं होती है. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ १८ सें ४० तक-भाजी पाला वगैरह में आठ महिने तक जीव पड़ने से उनका जरुर त्याग करना चाहिए, भुजीयां, मुठीयां, वडा वगैरह में भी उनका उपयोग न करना चाहिए... ३१ नागरवेल के पान-आठ महिने तक नहिं वापरना। क्यों की उनमें सुक्ष्म जंतुओका संभव तो है, और हमेश पानीमें रहने से लील, फुल, सेवाल आदि अनंतकायकी हिंसा होती है। कोइ वख्त तंबोलीआ सर्पकी उत्पत्तिका भय होने से अपनी और उनकी, उभय की हिंसा हो जाती है। जैसे प्रत्यक्ष दाखले बने हुवे है । वास्ते आठ महिने तक तो जरुर छोडना। बहुत लंबा वख्त तक जलमें रहनेसें सचित्त भी है। फीर भी विलास और विकारोंकी वृद्धि करनेवाले होनेसें ब्रह्मचारीयों को सादाइकी नजरसें त्याग करने लायक है. ___आज के जमानेमें जहां पान-सुपारी की दुकान होती है। व्हां बीडीकी विक्री भी शुरु हो जाती है। फीर चहाकी होटेल, फीर उनमेंसें शरबतें,और उनमें से देशी दारुका प्रचार हो सकनेसे शराबके पीठों की स्थापना होती है। जैसा क्रम देखने में आता है। वास्ते लिखनेका भावार्थ यह है की-भविष्य में होनेवाली अपनी भावि प्रजा को दारु वगैरह आदतोंसे बचाने के लीए उनकी प्राथमिक भूमिका रूप पान सुपारी की दुकानों को उत्तेजन नहि देने की दृष्टिसें भी पानका खास त्याग करना चाहिए। कीतनेक लोग वानर का मांस हंडीमें पका के खाते है, वो गरीब लोग वो ही हंडी में कत्था भी पकाते है, जैसा मालूम हुआ है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ३५ मीठा नींब-दाल और खटीया याने कढीमें आठ महिना तक नहि डालना. शियाले में भी हर एक भाजीपाला बराबर ध्यान लगा के काममें लेना चाहिए. २ आर्द्रा नक्षत्रसें त्याग करने लायक वनस्पतिऑपक्की केरी (आम) और पक्कीरायण-आर्द्रा नक्षत्र में पके हुवे आमका जरुर त्याग करना. यह चीज बहुत प्रिय होने से कीतनेक लोग आर्द्रा नक्षत्र होजाने के बाद भी वापरतें है. उन्हों को ज्यादा क्या कहना? "भगवंतकी आज्ञाका इन्कार करके अपनी इच्छाओ तृप्त करना । क्यों की जिंदगीभरमें कभी ऐसी चीज देखी न हो, वास्ते खाओ, पीओ, और वापर लो, फीर ऐसी चीज मीलेगी नहि." ऐसा सोचके युवक कन्धुओ तो क्या? लेकीन जिनका बुढापन आया है वैसे कीतनेक वृद्धों भी इन चीज के स्वादमें लुब्ध हो के खूब आनंदसें उनका स्वाद लेते है. अफसोस तो यह है की, असंख्य जीवोंका संहार करने से जरा भी खेद नहि होता! विचार करना हि दूर रहा, अपना मन रंजन करने के लीए महान् अनर्थोंका सेवन कर के दुर्गति में पडनेका रस्ता शोधतें है. अब यह ममता रूपी दासीका त्याग करना चाहिए. नहिं तो वो ही लहझत के कडवे विपाक अनुभवते वख्त "हाय! हाय ! कोइ छुडाओ! कोइ बचाओ!" ऐसे त्रासदायक पोकार करते भी कोइ छुडाने को समर्थ नहि होंगा. वास्ते अब Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविनय प्रार्थना करके कहना पडता है की अपनाऔर अन्यजीवों के हितार्थ वो चीज आर्द्रा नक्षत्र में अवश्य वर्जन करना। और उनमें कुछभी बातोंका आगार रखना नहि । [ पक्की की साथ कच्चे आमका भी त्याग समझना.] ३ अशाड शुदि (१५) पूर्णीमासें कार्तिक शुदि (१५) पूर्णीमा तक त्याग करना. १ सुकवनी-सुकवणी याने गीली तरकारी वगैरह को मुखाके रखते है। पर्व तिथिओं ओर सचित्त त्यागी व्रतधारी के लीए वापरने में आती है. जैनोका आहार सीधा या आडकतरी हिंसा विगरका होता है। वो भी स्वकृत-कारित और अनुमोदित न होना चाहिए. लेकीन जिसका त्याग नहिं किया होता है, उतनी हिंसा तो अनिवार्य लगती ही है। वास्ते स्वाभाविक रीतिसें मीलता अचित्त खुराक निर्दोष गीना जाता है । और त्यागी मुनिमहाराजाओंको तोत्याग सबका होता है। मात्र खास जरुर पडनेसें खुराक लेते है। और वो भी स्वकृत-कारित-अनुमोदित और सचित्त न होना चाहिए । स्वाभाविक रीतिसें अचित्त और दूसरें दोष बिगरका लेनेका रहता है. उन्होंको वैसी खुराक लेने जाना, आना, वापरने में और जितना अपवाद मार्गका सेवन कीया हो, उतनी हि क्रिया लगती है। ज्यादा हिंसा व असंयम लगता नहिं । जैनोमें मुखुआ का प्रचार-साक्षात् हिंसा करने का त्याग Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० में से हुआ है. जहांतक बने वहांतक ज्यादा त्याग रकवा जावे, वैसे ही ठीक.लेकीन कमती त्यागीओंको भी जहांतक बने वहांतक कभी हिंसा न लगे, यह ही सिद्धांत पर सुखुआ का वापरना प्रच- . लित हुआ हैं. और वो बरावर है. यद्यपि त्याग मार्गमें आरोग्य -अनारोग्य की चर्चाको प्रधान अवकाश नहि हैं. आरोग्य दृष्टि से क्या वापरना और कया नहिं वापरना? वो अलग प्रश्न है। परंतु, त्याग, अहिंसा, और संयमकी दृष्टि से कया वापरना? कया नहिं वापरना? वो ही विचार करना अत्र जरुरी है. आरोग्यकी दृष्टिसे मुखुआ वापरनेकी टीका करनेवाले इतर अनारोग्यकर अनेक चिजें वापरते हैं. और प्रवृत्ति भी असी बहुत करते है, उनका त्याग करते नहि. यानि आरोग्यका ब्हाना आगे धरके उन्होंका उद्देश अपना प्रचलित खानपानकी शैलीकी टीका करनेका होता है. अलबत, सब काम विवेक पूर्वक करना चाहिये, और शास्त्रकार भगवंतोका भी वेसा ही उपदेश है, कीसीमें दुराग्रह रखनेकी आज्ञा है भी नहीं। परंतु, खोटा लक्ष्यसे टीका करने वालों आधुनिक प्रचारकोंको उत्तेजना मिलनी न चाहिये। यह खास ख्यालमें रखना चाहिये। त्याग दृष्टिसिवाय साधारण सभ्यताकी दृष्टिस भी नहिं वापरने लायक चीजें अपवाद यानी रोगों वगैरह कारणसें वापरने की जरुरत पड़ती है। वास्ते जैनों के मुखुवा वापरनेके सामने प्रचार करनेवालोंकी टीका व्यर्थ और जैन जिवनकी मर्यादाओ व सिद्धांत समजने बीगरकी है। चातुर्मासमें सुकवणीमें Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ नील- फुग होनेका और सूक्ष्मजीव वगैरह या कुंथुंआदि होनेका, सुक्ष्म त्रस जीवो घुस जानेका, संभव है। गरमी - की ऋतुमें भी बराबर उनकी रक्षा करनेमें न आवे, याने संभाल से नहिं रखी जावे तो उनमें जीवों पडनेका संभव होता है। फीर भी, वेपारीयों के पाससे सुकवणी लेनेसे, उन्होंने हलकी चीजें वापरी हो, बिना देखरेखर्स सुधराइ हो, वगैरह हिंसाका दोष विना सबब लग जाता है। " हरी वनस्पति का त्यागवालोंको तिथि और त्यागके दिनके अगले दिन हरे वनस्पति लाके उनकी चटनी, अचार, संभार्या किया हो, तो वो भी काम आता नहि । क्योंकी उनमें हरी सचित्त चीजें वापरनेका हेतु गर्भित रहता है । वास्ते जैसी युक्ति नहि करना - करवाना | सुकवणी खास करके बहुत सज्जड बरतन में भरना, उनमें हवा एवं बारीक जंतु भी न जावे । और दुसरी रीतिसें भी बहुत युक्तिपूर्वक समालना चाहिए । चातुर्मासमें सुकवणीका त्याग करना ही उचित है । २ खोपरा - चातुर्मास में नरीयल तोडके गीला गीलीगडीखोपरा नीकाला हो, वोहि दिन भक्ष्य है. परंतु उनको कतरके धीमें भुंज लीया हो, तो दूसरे दिन वापरने में हरजा नहिं. ३ से १२ तक, पोंक - पापडी, घडंकी डंबी, और बाजरी के डुंडे, जुवारके पोंक, चने के ओळे, मकाइ ( शेकेली ) और चोलेका सुडीआ [मटकीमें रखके अखी बाफेली] वगैरह का अवश्य त्याग करना चाहिए। क्योंकी यह पदार्थों बहुत सजीवोंके विनाश से होते है, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ४ हरदम त्याग करने योग्य चीजें१ हरेक वनस्पतिका "भडथा" करना नहि, एवं-किया हुआ भडथा खाना भी नहिं. २ उंधीया-हरएक प्रकारकी वनस्पतिका मटकोमें रखके उपर खुल्ली आग जळवा के कइ वनस्पतिओंका एकही दफा लहजतका अनुभव करनेमें आता है. उसीमें भयंकर आरंभ होता है। और भक्ष्याभक्ष्यका विवेक नहि रहता है। वास्ते उनका त्याग करना उचित है. ३ परदेशी मेंदा याने पसोली-कलकत्ता, अहम्मदाबाद, बम्बई वगैरह जगोंपे आटेकी मीलों चल रही है। उन मीलोंमें मेंदा बनता है, वेपारीयों को फीर अपने लीए जत्थाबंध माल देते हैं. उनको भेजनेसें रस्तामें खूब वख्त होता है। वेपारीओंके वहां भी महिनाओं तक वो ही माल पेक पडा रहता है। फीर पडतर होजानेसें, उनमें बहुतसी इयळ हो जाती है । अब वोमरा हुआ जीवका स्थूल कलेवर रह जाते है । वैसें परदेशी [ मीलका ] मेंदेका भक्षण केसे कर सकें ? दीलगीरी तो यह है, की यह बात मांसाहारीयों के सुनने में या देखने में आवे, तो वे अपनी दिल्लगी कयों न करे? की-"धन्य है ! श्रावक बन्धुओं ! और हिंन्दुओ! यह तुमेरी अहिंसा कीस १ बात यह है की-मांसाहारीयों को अपनी हांसी करनेका बारतविक अधिकार नहि है. क्योंकी अपना विवेक के बराबर बो लोगमें कीसीतरहसे विवेक आना हि दुर्लभ है. ___ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ तरहकी ? " अरे भव्यो ! किसका भक्षण हो जाता है ? वह बराबर सोचो. हमलोगोंको बाईस अभक्ष्यके त्याग करनेमें उभय लोगकी भय रखके परदेशी मेंदेका बिल्कुल त्याग करना युक्त है, मीठा वालोंसे वैसी मीठाई लेनी नहि. और उन्हों के पासभी बनवानी भी नहि. और उनका व्यापार भी करना नहि, वैसी चीजें वापरने वाले के व्हां उस चीजका भोजन भी करना नहि, मिलके में देके साथ परसुलीका आटा, एवं रवा, मिलका आटा, भी खाना योग्य नहिं है । और चलित रसकी लीखी हुई सूचनाएं वांचके - ख्याल पूर्वक कितने दिनका और कीसी तरहका आटा भक्ष्य है ? वो समझ लेना। जहांसें अपन लोग (प्रमादि) आलस हो के वैसी चीजोंका उपयोग करने लग गये | व्हांसे उनके लीए बडीबडी मीले, फेक्टरीए, खुल गई, उनसे बहुत traint घात हो रही है । परदेशी मेंदेकी मीठाइआँ - परसुली की पुरी, घारी, मीठे फीके साटे, सुतफीन, गणगण गांठीये, नानखटाइ, हिन्दु बीस्कीट, सेव, जलेबी वगैरह. 1 ४ मीठे काजु - मीठाइ वाले लोग मीठे काजु बनातें है, वो प्रायः विगर देखे बनते है । जीनमें त्रस जीवोंका होना संभवित है । इस लीए वो नहिं खाना । मानो की खाने की मरजी हुइ, तो काजु के दोनो विभाग अलग अलग करके साफ कर, जीव को बचा कर, बाद घर बना के उपयोग में लेना । फीर सादे काजु खाना पड़े तो वो भी उसी तरह देख के Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ वापरना । परंतु जिस ऋतु में वो अभक्ष्य है, तब वीलकुल काजु वापरना नहि । इतना जरुर ख्याल रखना. ५ (वीलायती) डिबेमें पेक कीया हुआ दूध-एवं-ने सल्स मील्क, मील्क मेइड मील्क, वगैरह दश बारहसें भी ज्यादा जात के नाम पर विक्री हो रही है। मुसाफरीमें, चहा बनाना हो, तो दूध के सबब वो डिबेमें से दूधका उपयोग कीया जाता है। सीसे में पेक की हुइ केरी, मुरब्बा, गुलकंद वगैरह और विलायती बीस्कीट आदि अभक्ष्य है। वास्ते जरुर उनका त्याग करना चाहिए। उनका उपयोग अपन न करें, तो भी ऐसी परदेशी-एवं देशी भी अभक्ष्य चीजों की प्रतिज्ञा करनी। जीससे आश्रव खुला न रहें । जक्तक हरेक चीजपरसें मूर्छा न गइ हों तबतक बराबर फल नहिंमीलता है । इसी लीए शास्त्रकार महर्षिओने कहा है की "मरू देशमें जैसे की तांबूल न मीले " तो भी प्रतिज्ञा नहिं करनेसें उन के त्याग का फल न पावें । वास्ते जरुर नियम करना । नेसल्स मील्क वगैरह जो विलायतसें आती है, वो प्रत्यक्ष अभक्ष्य है, उनकी विशेष विवेचन लिखनेकी जरुर नहिं है। बन्धुओं! अपने शरीर में रोग, शोक, दारिद्रय, दौर्बल्य वगैरहका बहुत प्रवेश हो गया है, उनका सबब यही तुच्छ भ्रष्ट चीजे वापरने का बदला है। क्यों की ." आहार वैसा ही औडकार" वो दृष्टांत से समज लेना। [अब अपने देश में भी परचुरन ताजा दूध मीलनेका ___ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ आस्ते आस्ते बंध हो के, डिबेमें पेक कीया गया दूध लेनेका मोका उपस्थित होने की तैयारीयां हो रही है । क्यों की परदेशी मुडीवादों से डेरी - कंपनीआं खडी होने की शुरुआत बडे पायेपर हो रही है। शेठ शांतिदास आशाकरण जैसे बडे बडे लोक प्रजाको अच्छा घी या दूध केसे मिले ? उनके लिये जो प्रचार कार्य कर रहे है, वह प्रचारका मुख्य ध्येय डेरीकंपनीयां की जाहिरात और विकासमें फायदा कारक है । वास्तवमें- अपनेको कुच्छ फायदे मिलनेवाला नहीं है । ५ से २१ तक, सोडा, लेमन, जीन्जर, रोझबरी, पीक मी अप, बील्कास, एल टोनिक, कोल्डड्रीन्क, कोल्डक्रीम. जीन्जर, एल लाइम, लीथीओ, अमरीक चेरी सीडर, चेम्पेइन सीडर, क्वीनाइन टोनीक, क्रीम सोडा वगैरह कीतनीक जात शिसामें पेक की हुई आती है। वो सब वापरने योग्य नहि है । क्यों की बोटलों मुसलमान, पारसी और इतर लोगोंने मुंह में डाला हुआ होता है वो ही बोटलें अपने लोग मुखपें रखो । इसे स्पष्ट धर्मभ्रष्टता होती है। फीर भी जीवाकुल और बीगर छाना हुआ पानी उसमें वापरने में आता है । और बहुत दिन के वासी एवं उतरती जातिवालोंसें बनाया हुआ होता है । इस तरह बहुत दोषयुक्त ऐसी चीजें अभक्ष्य है । वास्ते अवश्य त्याग करना । आरोग्य दृष्टि से भी हानिकारक है । higher education हायर एज्युकेशन प्राप्त कर के सुधारक की गीनती में आते हुए जैन युवकों अब हृदयमें Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ कुछ सान रख मर्यादामें रहें तो ठीक है। नहिं तो उनके कटु विपाकका स्वाद लेना पडेगा तब उपाय नहि रहेगा. [जैन जाति में जन्म लिया हुआ कितनेक युवकों इतने । बहुत आगे बढ गये है की-आरोग्य के तत्वों बीना समजे आरोग्य के नामसें जैन खान-पान विधिकी चेष्टा उडाने वाले अज्ञानी पडें है।] २२ से ३५ तक, बीडी, होका, चीलीम, चुंगी, चीरुट, तमाकु, गांजा, चडस, माजम, अफीम, कसुंबे, भांग, कोकीन, दारु वगैरह व्यसनों अनाचरणीय है, जीव हिंसा और अनर्थ का कारण,और पैसों का दुरुपयोग है। अलावा इन के कोई लाभ नहिं । वो चीज कभी न मीले तो, चैतन्य व्याकुल होता है, और उसे क्षयादि महा रोगों की उत्पत्ति होती है। कभी मरण होने का भी संभव है। उनमें आग और पवन के और दूसरे त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा होती हैं। वास्ते ऐसी केफी पदार्थो का सर्वथा त्याग करना। [सीगारेटका प्रचारके लीए, होके और चीलीम की नाटकादिमें चेष्टा-करके प्रजासे त्याग करवाने के लीए बीडीयांका वपराश बहुत प्रमाणमें बढ गया है। अब उनके बडेबडे कारखाने तैयार होनेका समय आ चुका है और होते रहे है. बीडीका प्रचार और उनके पर लाइसन्सद्वारा अंकुश, यह सब अवश्य सीगारेटके प्रचारकी प्राथमिक भूमिकाके लीए था और है. इस देशमें सीगारेट के बडेबडे कारखाने निकलने लगे है.] Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ [३६ स्थंभक दवाओं-बहुधा-झहरीली, केफी, और रासायणिक, औषधिओंका मिश्रणसे होती है, जुठी उश्केरनी और जुठी उत्तेजनासे भविष्य में नामर्दाई उत्पन्न करके आयुष्यका ह्रास करते है. धत्तुरा, आक, वन झहर कोचला, सोमल, वच्छनाग, गंधक, पारा, वगैरह विषप्रायः औषधोंका उनमें संभव है. वास्ते प्रसिद्धि में आती हुई बहुत जाहिरात से लुभवाके वैसी दवाओं नहीं वापरनी चाहिए। स्त्रीओ के लिये भी गर्भ न रहनेकी वैसीही जाहिरात होती है. वो सब नुकसान कर्ता है. विषप्राय होनेसे अभक्ष्य और आरोग्य बिगाडने वाली है।] ३७ विलायती दवाएं अभक्ष्य है, अच्छी बात तो यह है की-रोगादि कष्टों होते हुए भी न लेना चाहिए । आत्मबल मजबूत होवे तोकया न हो सकता है ? यदि यही आत्मा वैतरणी नदी (नारकीमें ) प्राप्त करता है, और यही आत्मा स्वर्गादि सुखोंका भोक्ता भी होता है. अखीर, यही आत्मा सिद्धि गति जाता है. कीतनेक उच्छृखल, स्वछंदी, शोखीनों, विलायती दवाके डोझों आनंदसे पीतें है. वो प्रत्यक्ष अनाचरणीय एवं दुर्गतिके सबल कारण है. वैसे मनुष्योंको कभी कोई उनका भलाकेलीए उपदेश करने जावे, तो उनका परिणाम कीतनेक वख्त खेदकारक आता है. नीतिशास्त्रकारोंने फरमाया है, की Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये । पयः पानं भुजङ्गनां केवलं विष-वर्द्धनम् ॥ १ ॥ भावार्थ - दीवानों को उपदेश करनेसें, वो लोग उपदेश सुनके, शिक्षा लेने के बदले में क्रोधीष्ट हो जाते है. जैसे सर्पको दूध पाना केवळ झेरकी वृद्धि के लीए होता है. वास्ते वैसेको प्रतिबोध करनेसे क्या ? ४० गुड - गुडमें जीवकी उत्पति होजाती है, कीतनेक वेपारीयों ज्यादा नफा प्राप्त करने के लीए गुडके अंदर बेशन, खारा, मट्टी इस तीन प्रकारसे यानी दूसरी चीजों का मिश्रण करके बेचते हैं. गुडमें उनके वर्ण जैसा (लाल रंग के) कीडे हो जाते है, वास्ते वैसा गुड अभक्ष्य है. इसीलीए वो काममें नहि लेनेका उपयोग रखा जावे, गुडमें बहुधा मिश्रण करते होंगे, वैसा अनुमान होता है | बेशन और खारा मीलानेका कारण- गुड दिखने में अच्छा लगे. मिट्टी मीलाने से सौ मण गुड में चार मण मिट्टी मीलानेसें वजनमें ज्यादा होता है । असा दगा होते हुवा सुना है | वास्ते वैसा हलका माल बल्कुल लेना नहि । लेकीन, देशी माल भी परीक्षा करके लेना. " जीतना सस्ता उतनाहि मेहगा बहार से शुशोभित वो अंदर सें दोषित " यह सूचना अवश्य उपयोगी है। जो माल खरीदना वो सस्ता देख उनका भपकेमें लुब्ध हो के न खरीदना. उनके गुण दोषकी परीक्षा करके अच्छा माल खरीदना व्याजबी है । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ ४१ परदेशी मोरस-वो शुद्ध करने में अशुद्ध पदार्थे वापरतें हैं। उनकी चर्चा बहुत जगह हो गइ है। उनका ज्यादा अहेबाल नहि लीखतें है। कहना यह है की वैसी मोरस एवं सक्कर वापरने में शारीरिक तन्दुरस्तीका बीगडना और धर्मभ्रष्टताः यही दोनों बडे दुर्गुण है । इसलीए त्याग करना। अब कीतनेक मनुष्यों उनका त्याग करके, काशी प्रमुखकी देशी चीनी वापरते है ।* लेकीन यह जमाने में दगलबाज बढ गये है। कीतनेक वख्त देशी के नामसे परदेशी माल खूब ज्यादा भाव से दिया जाता है। और जहां देशी बनावट होती है व्हां भी परदेशी चीनीका मिश्रण होता है । वास्ते ख्याल करना। इन के अलावा, देखने में जहां दगा होता है। उनकी पहिलेही उपयोग रखना। और जबसे खात्रीपूर्वक न हो, यानी शंका मालुम पडे, तबसे वो चीज वापरनी नहि । और नियम ले के उनमें दोषित न होनेका बराबर ख्याल रखना। ४२ केसर-अपने देश में काश्मीरमें बहुत किंमती केसर होता है, एवं परदेशसें भी केसर अच्छाभी आता है। बने तक काश्मीरी केसर वापरना हर एक प्रकार से उत्तम है । लेकीन देशी केसर के नामसें एक तरहका कतरण को ऐसा काइ रंगका पट लगाके बनावटी केसर बेचने वाले * चाय आदिक को टेवसे रोज नियमित मोरस पेटमें जाति है। जरुरीयात पर खाने की चीज अतियोग होने से शरीर में बिगाडाकरे ऊनको पतला करे, यह सब स्वाभाविक है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेचतें है । और वो रू. २) का रतल से लगा के रू. १०, १५, २०, तक का रतल मीलता है। वास्ते उसे खूब सावधान रहना । केशर को समालने में ख्याल रखना, क्युं की उनको । हवा लगने से सूक्ष्मजंतुओपडतें है, औरभी जीवजंतु हो जाता है। ४३ अखी कठोळ-हरेक प्रकारकी अखी कठोळ न खानी चाहिए, प्रत्येक कठोळकी दाल करके खाना सर्वोत्तम हैं। क्योंकि-अखी कठोळ में त्रस जीवों की उत्पति होती है, वो साफ करने पर भी जीवो नीकलते नहीं। और अपनी दृष्टि भी भीतर पडती नहि । वास्ते जीव हिंसा हो जावे, इसी लीए कठोळकी ताकीद से दाल बनवा लेना. कठोळका ज्यादा वख्त रहनेसें जीवोकी उत्पति होती है । अखी कठोळ त्याग न हो सके, तो चातुर्मासमें और पर्व तीथि के दिनोमें तो जरुर त्याग करना । कठोळमें मीठाश होने के सबबसें बहुत जीवोंकी उत्पत्ति होती है। वास्ते वो अवश्य वर्जने योग्य है। ४४ से ४९ तक, हिंदु-दिल्दी-बीस्कीट, जो दिल्ही, पुना, वडोदरा वगैरह जगोंपे बनाने में आतें है । वो अपने कीतनेक बन्धुओं वापरतें है । परंतु वो बनाने में परदेशी मेंदा का उपयोग कीया जाता है । और उनको हलवे के माफक दो तीन दिन पानीमें हीलाते है। पीछे उनके बीस्कीट बनातें । वास्ते उनमें असंख्य संमूर्छिम और द्वीन्द्रियादि जीवोंकी घात होती है। केइ बीस्कीट तैयार करने में भी चरबी लगानेमें आती है, जीसे वो बीलकुल छोडने योग्य है । नानखटाइमें परदेशी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेंदा वापरते है । इसे वो भी त्याग करने योग्य है। विलायती विस्कीटमें इंडोंका रस मीलातें है वैसा सुनने में आया है, और बिस्कीट फूलाने के लिये आटेमें खट्टा जामण-खमीर नांखने में आता है। कीतनेक माता,पीताबें अपने बच्चों को लाड लडाने के लीये, एवं शोख के सबबसे छोटी उमरमें वैसी चीजें खीलाने का आरंभ कर देते है, फीर बडी उमर होनेसें बच्चों ऐसी चीजें कैसे छोड सके ? और आगे बढते चोकलेट वगैरह खाने की आदतका आरंभ हो जाता है। ५० टुथ पाउडर यानी दंत मंजन, टुथ ब्रश. दांत साफ करनेका ब्रास] विलायती दंत मंजन तैयार आतें है । वो वापरने लायक नहिं है। न मालुम वो भक्ष्याभक्ष्य कोन पदार्थमें से होते होंगे ? इस वजह से वो काममें न लेते ही, बदाम के छीलके की मषी याने उनके साथ कपूर, बरास, चाक [सचित के त्यागीओंको चाक को गरम पानीमें हिला के सुकाने बाद अचित्त होने पर वापरा जाता।], हरडे, बेडे, आंबळे, मस्तकी दाडम के छीलके, सोनागेरु, कत्था, मोचरस, हीरा दखण, छोटी हरडे, दाडम के सूके फूल, कांटाला माया, चणकबाब वगैरह दांतको फायदा करनेवाली बहुत चीजें से बना हुआ देशी मंजन वापरना युक्त है। दांत, हडी यानि दूसरी कोइ अपवित्र जातके हाथोवालों, हरकोइ जानवरों के बाल, एवं Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ रब्बरके टुथ ब्रशों हिन्दुओं और खास करके जैनों को मुंहमें डालकर भ्रष्ट होना वो कीतनी शर्म की बात है ? फीर वो ब्रशों कीतनी वख्त दांतो में पोल पाडके बहुत बीगाडा करता है । यद्यपि वो बहुत फायदाकारक नहिं है, और मान लो की कभी होवे तो भी अपन लोग कहां साधनहीन है ? अथात् दांतकी शुद्धि, मजबुताई और दूसरे फायदेकारक बहुत तरहका इलाज है । इस वजह विलायती टुथ पावडर और दुथ ब्रश को कामम लीया जाते होवे, तो बंध करना चाहिये । और उपयोग न किया जाते हो तो, फिर नहि वापरने की प्रतिज्ञा करनी । ऐसी चीजो की प्रतिज्ञा करनेसें फायदा होता है । [ सब लोगोकों सस्ते में भी दंत शुद्धि के लीये सभीको मुफत मीले, वैसी सगवड सिर्फ दातन ही है। देशी वैदामें आवळ, बावळ, बोरडी और लीमडा के दातनमें कोहवाट दूर करने का फायदा बताया हैं । कुदरती उत्पन्न हुवेहुऐ दांत नीकलवाने का बहुत भयंकर रिवाज शुरु हुआ है । पेटकी खराबीसे दांत के रोग होता है । यद्यपि पीछे दांतका रोग पेटका भी बीगाडा करते हैं । लेकीन सबसे सीधा रास्ता यही है की, पेटकी खराबी दूर करनी चाहिये। वो करनेका बिनअनुभवी वैद्य - डॉक्टरों दांत नीकलवानेकी बात बातमें सूचना करते हैं | जरासा दांतमें या दाढमें दुःख हो जाय की - ताबडतोब दर्दीओंको फुसलाते ही अचानक दांत या दाढ नीकला 1 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ डालनेका दृष्टांत देखे है । मामुली इलाज करनेसे मीटे वैसा हो, तो भी नीकाल डालते है । अहा ! कुदरतकी बक्षीस हुइ चीजका ऐसा मामुली कारणसे विनाश करना, वो कीतनी अज्ञानता! ? पीछे वो उत्पन्न करा सकते हि नहि । संभव है कि-परदेशी कृत्रिम दांतोका विक्रयके लीये डॉक्टरोंका गुरुओं युरोपीय डॉकटरोंका यह चाल चलाइ हो । वास्ते अच्छे मनुष्यों उनका अवल कारणो दूर करके दांतकी सफाइ रखना। यहां थोडी यादि देना जरूरी है-की कीतनेक मुनिमहाराजाओ भी इसीतरह विषमाशनादि कारणोसें दांतके रोग के भोग होते हैं। और केइ केइ दंत संस्कार के प्रयोगमें जा रहे है। इनमें भी डॉक्टरोने चलाइ हुइ उपर मुजबकी बहुत गेरसमज है। दंतसंस्कार मुनि धर्मको दूषण रूप कहलाती है, और दांतकी वास्तविक शुद्धि भी नहीं होती है। वास्ते उनका मूल कारण हटानेका प्रयत्न करना, वोहि सर्वोत्तम इलाज है। जिन्होका पेट बराबर साफ है उन्होंकोदातन करनेकी भी जरूरत नहि रहती। क्यों की उन्होंका दांत और जीभ साफ रहती है। इसलीए उनको जीभका मैल उतारनेकी भी जरुर रहती नहि । दांत और जीम साफ करना पडता है, उतनीही पेटकी खराबी मान लेना। कीतनेक ऐसे मुनिमहाराजाओं देखे हैं की जीन्होंका दांत चमकते है और मुंहका श्वास सुगंधित होता है। जिसके मुखमें सवेरे पतला और सुगंधी पाणी होता है, उनका दांत जीभ विनाप्रयत्न साफ रहेंगे। और जिसके मुहमें सवेरे घट्ट, दुर्गधी, खट्टा, खारा, कडच्छा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છુ पाणी होता है, उनका दांत मलिन होते है । क्यों कि उनका पेटमें मैल है । खाना बराबर पाचन होता नहीं, ऐसा मानना चाहिये । उसका उपचार करनेसे दांत भी अच्छा हो जायगा । - ५४ होटेल - विश्रांतिगृह - आनंदाश्रम - भोजनगृहवगैरह में बनती हुई हरेक चीज शुद्ध ब्राह्मणीआ कहलाती है । ब्राह्मणीया शब्दका उपयोग जाहेरातके तोरपें किया जा रहा है। पहिला तो यह विश्रांति गृहोंकी मुलाकात लेनेवाले ब्रह्मणबनीआसे लगाके, लोहाना, कडीआ, जैसे उत्तरोत्तर ऊंच नीच प्रायः सवं हिंन्दु होते है ! और उनके मालीक कोन जाति के हे? वो तो पूरा तपास करने से मालुम होवे. व्हां चहा, दूध, पूरी, दूधपाक, बासुंदी, शीखंड हरेक चीज ब्राह्मणीया के नामसे हर वख्त मील सकती है । फीर भजीये, कचौरी, आइसक्रीम, कुलफी, आईसवोटर, कंदमूळ वगैरहकी तरकारी याने शाक, तरेह तरेहकी चटनीएं, बहमनीआ होवे, और नानखटाइ, बीस्कीट, १ तमासा देखनेका तो यह है कि - भारतकी आर्य जाति की, और भोजन की व्यवस्थायें तोड डालने के पहिले सेंहि परदेशीओं के प्रयासों में कोन्ग्रेस मारफत प्रचार करवा के आर्योकी छेल्ली मुख्य स्पर्शास्पर्श व्यवस्था की दिवाले भी अन्त्यजोको होटलो में फरजीयात प्रवेश करने का कायदा अमल में लाके सरकारने भी तोड डालनेका आरंभ करने में मदद दी मालूम होती है । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ 1 सोडा, वगैरह जीन्होंकी जो इच्छा होवें को ताजी ब्राह्मणीआ बील सकती है। कहो, कैसी सगवड ? । ओ जैन बन्धुओं ! आर्यो ! यह होटेल वगैरहका प्रचार होनेका सबब अनार्योका परिचय है । और उनके सहवाससें हम लोगभी अनार्य जैसा ही हो जाते है । होटेलो में बनी हुई सब चीजोंकी विवेकपूर्वक तपास करनेमें आवे, तब ही मालुम पडे, वहां, कया हाल है १ । लेकीन वो तकलीफ किन्हों को लेनी है ? "हिन्दु भोजन गृहों में चीजें तैयार हुई वह शुद्ध पवित्र ही होगी. " सबबकी - विवेकका विचार, भक्ष्याभक्ष्यका विचार करे, तो फीर खाना पीना कीस तरहसे हो सके ? जैसे हम विवेक विकल, अर्धदग्ध, जीव्हा इन्द्रियकी रस लंपटतामें क्य क्या अकार्य न कर रहे है ? स्पर्शास्पर्श याने भक्ष्याभक्ष्यका विचार नहि करते भोजन करके आनंदित होते है । अखीर मुसलमान तो क्या लेकीन युरोपीयन होटेलमें से मक्खन, पाउं ( बिस्कीट ) डबलरोटी वगैरह मंगवाके खानेवालों भी क्वचित् मिलनेका संभव है । अफसोस ! यह संस्कार भ्रष्टताका विवेचन करते ही कंपारी पैदा होती है । वैसे कार्यों को करनेवाले यह कलियुगमें बढ रहा है । हमको असे प्राणीओं प्रति अनुकंपाकी दृष्टि होती है । उन्होकुं कैसे बुरे विपाक अनुभवना होगा ? और उन्हों को कैसा कैसा त्रास होगा ? अबतक भी, हे भाइओं ! कुछ समजों, और भ्रष्टतासे अटक जाओ ! ओह जैन युत्रकों ! यह श्रमण भगवंत श्रीमहा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ वीर देवके शासन में मनुष्य जन्म पाये हो तो यह तुम्हारी मुसाफरी सफळ कर लो । दश दृष्टांतसे मुश्केल पाये हुये मनुष्य जन्म फीर मीलना दुर्लभ है। “काग उडावण काज प्रिय ज्यु डार मणि पछताया रे" जैसा वख्त आने न पावे । वास्ते उक्त तीन हर्को (विवेक) की कमिना हो तो, उन विवेकरूपी दोस्तकोजगाओ, और आत्महितार्थे भ्रष्टाचारको तिलांजली दे दो। ५५-५६-५७ भिन्नभिन्न तरहकी पार्टीए-यह पार्टीआं बहुधा रातका समयमं ही होती है। जिसमें जैनोको जानाहि अनुचित है, यह तो खुल्ली बात है । यह पार्टीआंमें भक्ष्यामक्ष्यका विवेक संमालने के लीये खास व्यवस्था नहि होती है। यह विवेक समालना अपवादरूप और अनिच्छाओंका विषय है। यह पार्टीआंका खाना बहुत भारी दामका होता है । एक रुपयेसें लगाके दोसोतककी एक एक डीश होती हैं। और उनमें जुठा भी बहुत छोड देते हैं, सिर्फ जमानेका मोह शिवा उनम कुच्छ भी फायदे के तत्त्व दिखने में नहि आते है। पुराने वख्त के सादे और अल्प खर्च एवं स्नेहभावनायें वगैरह अनेक सुतत्वोसें रचा हुआ भोजनो की बडी भारी टीकायें शुरु हो रही है। वह टीकायें सुधारा, वधारा, और परिवर्तन करानेवाली तो नहि है। ऐसे शब्दप्रयोगें तो निमित्त मात्र है, किंतु यह सादा भोजन व्यवहार के अलावा अबकी पार्टीआं Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३७ का भोजनका आरंभको इस देशमें उत्तेजन देनेके लीए ही टीका की जाती है । सादा भोजनकी अपनी पद्धतिमें सबको सरळतासे मील सके, वैसे मिष्टान्न के साथ, प्रत्येक मनुष्यको चार आने खर्च आता है । याने थोडीसी रकममें अधिकव्यक्ति लाभ ले सकती हैं । तब पार्टी में कार्डसे अमुक आमंत्रित संख्या ही लाभ ले सकती है। और वो भी केवळ व्यक्तियां ही बहुत वख्त उनके स्त्रीयां, बाल बच्चें तो घरपेही रह जाते है । उन्हों के लीये पार्टीआं भी नहि, और सादे देशी जिमणोंका भी निषेध तो वो लोक कर रहे है । कमाल ! दोनो तर्फसे बराबर कम बख्ती । धर्म, मार्गानुसारिता, और आर्य संस्कृतिके समजनेवालों एवं चाहनेवालो को ऐसी पार्टी रचना नहि । इतनाहि नहि, किंतु सिद्धान्तकी रक्षाके लीये उसमें जाना भी नहिं । धार्मिक विवेक संमालनेका कुछ भी साधन उसमें नहिं है । लेकिन स्वच्छंदीजन को यह जमाने में कोन पूछ सकता है ? क्यों कि उन्होंका ही यह जमाना तो है । उन्हों के विचार से तो उन्होंको उत्तेजन देना, वह इस जमानेका भूषण हैं । धर्म १ छोटी मीजलसों में भी अल्पाहार [ संपूर्ण आहार खर्चाळ होनेसे मुश्केल होता है ] टीफोनको इन्साफ देनेका प्रवृत्तिओं भी पार्टीपद्धतिकी भूमिका स्वरूप समजना । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re और सामाजिक कानूनो एवं नियमोंसे स्वतंत्र रहना इच्छने बालों पर प्रतिवर्ष धारासभाकी बैठकोमें नये नये कानूनों के ढगले डाले जाते है । और गुलामीके भावि कारागृहे उत्पन्न होते है । वो भी इस जमानेका हि विलास है । शहर के आलीशान मंजिलोंकी खोलीओं में सिकुडकर -पडा रहनेका भी आरोग्यशास्त्र इस जमाने की ही भेट है । लेकीन आज यह बात ख्याल में नहि आवेगी । बन्धुओ ! अपना भला किसीमें है ? वो शोचो, और परमज्ञानीयों के पवित्र सुमार्ग में स्थिर रहकर अपना भला प्राप्त करो। ] ५८ पानी - इस कलिकालमें बडे बडे केइ शहरोंमें, स्टेशनोंपे पानीके नळ - मशीन - बडी बडी टांकीआं वगैरह बहुत वन गये है । जीसे मुसाफरी वख्त, और हवा लेनेको फीरते वख्त, अगर रास्तेपें कहीं भी प्यास लग जाय, उसी वख्त बीना छाना पानी पीया जाता है । वो बील्कुल अनाचरणीय है । बीना छाना हुआ पानी शास्त्रकारोंने दारु मुताबीक फरमाया है । इसलिए पानीमें मजबूत जाडे कपडेसें बराबर छानके काममें लेना । और पानीके बरतनमें जुठा ग्लास - जीनकी मुंहकी लाळ लगी हो, वैसे बरतन डुबानेसें असंख्य समुर्छिम जीवों पैदा होतें है । ऐसा न बनने पावे इसीलीए एक अलायदा लोटा लेके उनके गलेमें मजबूत लोखंडका जाडा तार लगाके तैयार रखना। जीस वख्त पानी लेनेकी जरुर पड़े उसी बख्त Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ उस लोटेका उपयोग करना । और जिसलोटा या ग्लाससे पानी पीया हो, उस्से भी मुंहकी लाळ लगनेसें कपडेसे साफ करना । जब पानी पीना पडे तव हरेक वख्त वो ग्लास देखना की " उनमें सूक्ष्म जीव जंतु या कचरा तो नहिं है ?" देखके ही पानी पीना । खुल्ला रक्खा गया पानी पीनेमें बहुत दोष है । पानी छीछरा ग्लास से पीना । क्यों की " उनमें क्या है ? " वो देख सकते है । ( लंबा और गहरा ) प्याले में देखने नही आवे वैसे प्याले काममें नहि लेना । वो कपडेसें बराबर साफ भी नहिं हो सकते है । सामान्य रीति सें ही (लंबे गहरे ) प्याले बराबर देखा नहि जाता। उनकी भीतरकी कीनारीके नीचे राख, मैल, कचरा वगैरह रह जाता है । क्यों के बराबर साफ नहीं हो सकते है | वैसेही छीछरे प्यालेके भी गोल कांठे के वळांक में मैल भरा रहता है, जीसे गोल कांठे वाले छीछरे प्याले भी काम के नहि है । श्रावकोंने मुंह के दूरसे - उपरसे पानी पीनेकी वैष्णवोंकी तरह आदत रखनी ठीक नहि है । क्यों की दूरसे मुंह में पानी डालते बख्त " संपातिम जंतुओ " मुंहमें गीर पडते हैं, अगर पानीमें जीव हो, तो वो भी मुंहमें आ जाता है । किंतु मुंहको ग्लास लगाके पीने से दांत और होठ के स्पर्श होते ही उन्हे बचा सकतें है । और अपन लोग भी झेरी जंतुओंसे बच सकते है । स्वपर उभयकी दया और रक्षा होती है । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१४० वर्तमानमें नल हो जाने से पानी छानने के संबंधों और संखारा संभालनेकी बाबतमें बहुत अराजकता चल रही है। इस वजह दया प्रेमीओंके इस संबंधमें बने वहांतक बेदरकार न रहना। . वैसे ही गटरों होजानेसें पानी फेकने में, वापरनेमें और उनमें यद्वा तद्वा डालनेमें भी विवेक रखने में नहि आता है। यह बहुत अयोग्य है । दया दृष्टिसें यह बात उपेक्षा करने जैसी नहि हैं। गटरो में हरेक चीज जानेसें वो सड जाती है। फीर उनमैं बहुत जीवोंकी उत्पत्ति होती है। उसे हर तरहसे हवा बीगडकर आरोग्यको नुकसान करती है । गटरों के विष्टा मिश्रित पानीसें तरकारी, फळ, फुल वगैरह तद्दन फीके और स्वादहीन होते है । और एकदम सुक्ष्म रीतिसें गंधका अनुभव करनेवालों को उनमेंसें भी विष्टाकी बास आती है। सच्ची म्युनिसिपालिटी मूर्यका धूप, कुत्तो, काग, गधों, वगेरह है। वो कुच्छ भी गंदकी रहनें नहि देते । लेकीन नळों, गटरों, विगेरेह परदेशी माल की विक्री-करनेंका और प्रजा जीवन को काबु(हाथ)में रखने के लीए बडे आडंवर से "म्युनिसीपालीटी" की स्थापना करके परदेशी लोगोने हिंसा के बडे मत्थकें चालु कर दीये है। श्रावक वर्गको विवेक रखना । स्वच्छता के नामसें मुनिमहाराराजाओं के लीए भी यह कृत्रिम म्यु० ने मुश्केली खडी कर दी है। थोडासा प्रमादसे असंख्य जोवोंका नाश हो जाय वो कैसा अनर्थ है ? जीसे हरेक भाइओ और भगिनियां पानीके लीए अवश्य ध्यान देंगे, असी हमारी प्रार्थना है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ " श्रावकोंने प्रत्येक पहोरमें यानी तीन तीन घंटेके बाद पानी छान कर पीना।" उनमें जीतनी आलस्य उतना हि पाप है । नल होजाने से अब पानी पीने, और वापरने में बहुत अराजकता चल रही है। _ " यत्र यत्र प्रमाद : तत्र तत्र हिंसा.” प्रमाद छोडने बीगर धर्मका पालन कहां सुलभ है ? धीरजसं उपयोग पूर्वक चलना वो हि धर्म है । उभय लोकका डर रखके, जो सज्जनों "अष्ट प्रवचन माताकों"-हृदयमें रखते चले उन्होका ही कल्याण और पृथ्वी पे आना सार भूत है, एवं बाकी के सब ही इस जमीन को भार भूत ही समजना. धन्य है ! श्री कुमारपाळ महाराजाको की- जिन्हेंने अठार। देशमें "अमारी (अहिंसा) पडह" बजवाया। जीन्हों के वख्त में गाय, भैंस, बैल, घोडे, वगैरह जनावरों को भी पानी छानकर पीलानेमें आता था। और उन्हींको ‘परमाईत' पद्वी कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य महाराजने दीया था। वो कुपारपाळ महाराजा भविष्यकी आनेवाली चौवीसी के प्रथम तीर्थकर श्री पद्मनाभ प्रभुके गणधर होनेवाले हैं। उनका यशवाद आज भी प्रवर्तता है। और आगामि भवमें भी प्रवर्तगा] । वैसे महापुरुषों सदा जयवंतर हो । अरे! अपन लोग कब प्रमाद रूपी चादरको दूर कर पाप रूप मलिन शय्यामें से उठ कर वैसे परमाहत हो के शिववधूकी साथ आनंद लेने को भाग्यशाळी होंगे? जिस्से भवाटवी रूप प्रचंड तापका उपशम हो। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ५ बहुत आरंभ से उत्पन्न होनेसें नहि वापरने योग्य चोजें, ओर उनका त्याग करने का सबब - १ इस (शेरडी ) - बहुत खानेसेही इच्छा तृप्त होती है. और उनके छोतरे बहुत नीकलते हैं । चूसने से मुंह की लाळ में समुच्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्योकी उत्पत्ति होती है । और मीठान होनेसे मुंगाओं वगैरह चढती है । उनके पर पांड पडने से एवं जनावरों के खाने से बडी हिंसा होती है । २ से १० तक, सीताफल, रायन, रामफळ, खलेलां, पके गुंदे, जांबू, करमदे, बोर वगैरह । यह चीजों के बीज फेंक देना पडता है । वोह मुहमें से नीकाल के, बहार डाला जाता है उनमें भी समुच्छिम मनुष्योंकी और उक्त मुताबीक दूसरे त्रस जीवोंकी हिंसा होती है । बोरमें से कीडे वगैरह जंतु नीकलतें है, उस्से भी वो अभक्ष्य हैं । I बरावरकी समाल तो यह कहलाती है की - हरेक चीजमें सें नीकाला हुआ बी, आम की गोंटी वगैरह को राखमें लपेट कर साफ करके फीर बहार छोडना चाहीये । गीले अंजीर, सेतुर, फालसे—ज्यादा बीज वाले पदार्थ होने से त्याग करने लायक है । शींगोडे -- विकार वृद्धिके निमित्त होने से वर्जना । वो तलव के पानी में होता है, उनके आजुबाजु बहुत स जीवों की उत्पत्ति होती है । जीसें सींगोंडे छीनते वख्त बहुत Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रस जीवोंकी घात होती है। और पानीम पैदा होनेसें उनकी चारों तर्फ लील, फुल, शेवाल हो जाती है । वास्ते अवश्य त्याग करना। वालोर-श्रावकातिचार में भी लीखा है को "वासी वालोळ, पोंक पापडी खाधां" जो वालोर आजकी उतारी हुइ हों, वो रात वासी रहने से उनमें स जीवोंकी उत्पत्ति होती है, इसीलीए दुसरे रोज अभक्ष्य हो जाती है । उसी दिनकी उतरी हुइ हो तो भी उपयोगपूर्वक देख के वापरनी युक्त है। क्यों की उनमें कीडे वगैरह त्रस जीवों रहतें है। यदी उसी दिनकी ताजी वालोरें मीलनी ही मुश्केल है। और इस तरकारी बीगर चले ज नहि, वैसा तो कुच्छ नहि हैं। तो फीर उनका त्याग करना वोही सर्वोत्तम है । तो भी ममता न छुटी जाय तब, पूर्ण संमालके ख्यालपूर्वक और भक्ष्याभक्ष्य का विवेक संमालके काममें लेना । और सर्वथा त्याग हो जाय तो सबस ठीक है। ६ " दर्शन विरुद्ध और लोग विरुद्धके सबबसें त्याग करने योग्य वनस्पतिआं.” पंडोरा--लंबे सर्पके आकार जैसा होनेसें और अशुद्ध परिणामके हेतु होनेसे त्याग करना. - फणस--दर्शन विरुद्ध होनेसे (मांस पिंड सरिखा दिखता है) अनाचरणीय है। ... Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ । भुलं कोडं--अन्य दर्शनीय वगैरह उनको देवी आदिकी पूजामें घेटें की कल्पना करके उनका बलीदान देते है। इससे वो वर्जना ( औषधादि कारणोंसे प्रमाण रखा जाता है. ) कोळु--बडा फल होनेसे कीतनेक नहि वापरतें । कडे तुंबडी (कडु दूधी)--कीसी वख्त झेरी नीकल जाय तब आत्मघात होता है. वास्ते अनाचरणीय है। __ पक्के केटोले, कारेले, टांमेटे, ककोडे-उनके प्रथम रंग हरा होता है, और पकनेसे लाल हो जाता है। उनमें और कंटोले और कारेले में जीवांत बहुत पडती है । टींडोरे में बीज खूब रहते हैं, वास्ते यह चीजेंका अशुद्ध परिणाम होनेके सबबसे और त्रस जीवोंका हिंसा होनेके लीए त्याग करना. इनकी ज्यादा समज " श्राद्ध विधिमें" दिया है। ___ मधुक-महुडेके झाड के फळ, जीनको महुडे कीया जाता है। उनमें से दारु वगैरह बनता है । वो नीशेवाली चीज और अशुभ परिणाम करनेवाली होने से वर्जनीय है । फीर त्रस जीवोंसे व्याप्त रहता है। ७. बस जीवोंकी बहुत हिंसा होनेसें वर्जने योग्य : वनस्पतियां. १-२. बीली, बीलां-यह वनस्पतियां में कीडे और क्षुद्र जीवों उत्पन्न होनेके सबबसे सर्वथा वर्जनीय हैं। तब उनका बोल अचार करके वापरना, वो कितना त्रासदायक कर्तव्य है ? Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसूति वगैरह भयंकर रोग का कारण हो, तो भी यह चीजें बील्कुल दृष्टिसे दूर रखने योग्य है। स्त्री वर्ग में हरेक वस्तुओं खानेकी (जीभको स्वाद लेनेकी) लालसाए ज्यादा रहती है। उन्होने पापका भय समजके अवश्य वर्जना चाहिये । ३ सरगवेकी शींग--फाल्गुन शुक्ल पूर्णीमा बाद उनके बीज त्रस जीवो उत्पन्न हो जाते है, उसे आठ महिने तक उनका त्याग करना। ४ कोबीज (कर्मकलो)-उनके पत्तेमें उनके जैसा रंग की ही त्रस जीव होतेहै. और वो मालूम नहि होता-जीस्से वो आठ महिना तक वर्जनीय है. और योग्य ऋतुमें भी संभाल पूर्वक पत्तोंको देखके वापरना युक्त है. उनकी वास और पत्ता दोनों देखतें ही प्याजकी जातिका याद दीलाता है, वास्ते वो त्याग करना युक्त है. वरसादकी ऋतुमें (आशाड शुक्ल १५ पूर्णीमा सें कार्तिक शुक्ल १५ पूर्णमा तक) त्रस जीवोंकी उत्पत्तिका सबबसे अवश्य त्याग करने योग्य वनस्पतिआं: १ सें. ४, भींडे, कंटोले, तुरीए-दूसरी ऋतुओं में उनमें भी जीव तो होतें है. चातुर्मासमें ज्यादा कीडों वगैरह जीवोंकी उत्पत्ति होती है, और कारेले वगैरह बहारसे कुछ थोडा भी सडा हुआ नहि दीखता. और उनको समारते वख्त ___ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अंदरसें कीडे देखने में आतें हैं । ख्याल रक्खो तो भी यह जीवोंकी हिंसा हो जाती है, इसी लीए वरसादकी ऋतुमें खास करके उपयोग में नहि लेना । कारेले, तुरीए-वगैरह उपरका विभाग खड्डेवाले-खडबचडे होनेसें उनमें कुंथुंओं वगैरह बारीक त्रस जीवों घुस जातें है, वास्ते वैसी वनस्पति, पुंजनीसें ख्याल पूर्वक पुंजकर समारना चाहिए. और वनस्पतिओंकी तरकारी शुद्ध करके वापरना युक्त है । ठंडी ऋतु में भी भाजी पान वगैरह उपयोग पूर्वक चालकर शुद्ध करके वापरना ठीक है । उनमें भी सब जातकी भाजी छान वापरना । क्योंकी उनमें कीडे, कुंथुं वगैरह त्रस जीव नीकलतें है । तब उनका ख्याल आता है, और तीन वख्त छांननेसें जीव नीकल जाय, तब वो फेंक देने योग्य रहता है । वापरना न चाहिए । प्रकरण ७ वां चालु वापरनेमें आती हुइ वनस्पति औरउनके बारेमें विवेक रखने की आवश्यक्ताएं. तरकारीमेसे काम में लेने के योग्य, और कच्चा-पक्का फलमेंसे काममें लेने योग्य शाक १ काकडी, विगर मूल पानकी फळ तरबुच Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केळे २ कारेले मीठा लींबु ३ कंटोले पोपैया ४ गलके सफरजन ५ गुवारकी सिंग पीचीज ६ 'कच्चे गुंदे चीकु ७ हरे चने केरीकी जात ८ खरबुच (आरियां) बिना मूल पानकी. जमरुख ९ चोली अनेनस १० 'कच्चे टमेटे कोठफळ ११ टीडोरे (मुफेद) १२ डाळां दाडीम १३ डोडी आबळे १४ तलीयुं-भुजीयाँ, सकरटेटी नारंगी, (संतरा) १५ तुरी नरीयल, कच्चा-पक्का १ कच्चे गुंदे को तोड के उनमें का बीज उसी वखत राख में डाल देना. क्युं की वो खानेका पदार्थ समज के उनके पर मक्खी बैठती है. और उनकी पांख चीपट में अटक जाने से वो उठ सकती • नहिं है। फीर वो मर जाती है, जोसें खास उपयोग रखना. २ कीतने मुनिमहाराजों कच्चे टभेटे भी ज्यादा बीज वाले होनेसें अभक्ष्य होने का फरमातें है। देशी वैद्यक में उनको बेंगनकी जाति कहनेको बात भी सुनने में आइ है । बहुश्रुत पुरुषोंसें नक्की कर लेना। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ तुएरा १७ दातन (बावळ, बोरडी, झील, आवळ) १८ परवर १९ पांदडी, पापडी, २० फणसी २१ भींडा २२ मीरची २३ मरवा १४८ पपनस हरी द्राक्ष बीजोरें २४ मोघरी २५ खटा - नींबु २६ मटर २७ आलकुल २८ परवर २९ मीठी दूधी [ और दूसरे देशोंमें होते हुए पहिचानवाले एवं अभक्ष्य न हो वैसी तरकारीयां और फळ उपलक्षणसें वापरने योग्य समजना, किंतु उनकी भक्ष्याभक्ष्यता गुरु ( मुख से ) गम नक्की कर लेना ] उक्त लीखी हुइ वनस्पतिमें से भी यथाशक्ति त्याग करना | और बहुधा हर वख्त मील सकती हो, याने काममें लेने आती हो, जैसेकी केळे अलावा हरेक हरी चीजें जो रखना हो, सो अमुक वख्त तक खाना, इनके अलावा त्याग करना, जैसेकी कार्तिक महिने में कभी कभी ही खाना. वैसे हरदमके लीए प्रतिज्ञा कर लेनेसें बाकी के समयमें " विरति " का लाभ मीलता है । सबबकी - केरी शित ऋतु पीछे मील सके, जीसे फल्गुन या चैत्रसें आर्द्रा नक्षत्र तक काममें Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ आवे । पीछे त्याग | वैसेही संक्षेप पूर्वक प्रतिज्ञा लेनेसें बहुत लाभका कारण है. और प्रतिज्ञा लेली हो, वहांसे प्रत्येक वर्ष में कुछ - २ वनस्पतिओंकी बीलकुल छोडने की भी प्रतिज्ञा करनी । जैसे की - १९९७ में कुछ २ हरी चीजोंकी प्रतिज्ञा की, उसी वख्त साथ में असी प्रतिज्ञा करना की - " १९९८ से मुजे नोलकोल, मोगरी, पपनस, चीकू, पीचीजका बीलकुल त्याग; १९९९ सेंडाळां, हरीमरीच, मरवा, वगैरहका सर्वथा त्याग;" उसी मुताबीक, अगले वर्षो के लीए स्वशक्ति मुताबीक प्रतिज्ञा कर लेनी, जीसे उसीही वख्त, अमुक वख्त पीछे त्याग करनेकी भावना होनेसें उसीही वख्तसें अभयदान देनेका फळ मील जाता है । इस मुताबीक नीयम करनेसें केइ हरी वनस्पतिओंके जीवोंको अभयदान देनेका फल मीलता है । और जबतक प्रतिज्ञा न की गइ हो तबतक काममें लेना न हो, तो भी कुछ फल मीलता नहि है । और हिंसाका पाप लगता है । फीर भी श्रावकोंने "छ- आट्ठाइओमें " वनस्पति का जरुर त्याग करना, जघन्यसे पांचपर्वी तिथिओमें-शुक्ल १ पर्युषण महापर्व की अठ्ठाइ भादवा वद १२ से लगाके भादरवा सुद ४ तक । इस तरह छ अठ्ठाइ मनाई जाती है। वो दिनो में सचित्तका त्याग. वनस्पतिओं का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, अमारि का प्रवत्तन, जिनपूजा, गुरुवंदन, व्याख्यान श्रवण, सामायिक, पौषध, अतिथि संविभागादि नियम और प्रतिज्ञा अवश्य अच्छी तरहसें करना. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पंचमी, दो अष्टमी, और दो चतुर्दशी में - उत्कृष्टसें- बारापर्वी तिथिओंमें दो बीज, दो पंचमी, दो अष्टमी, दो चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमामें, और मध्यसें सात, आठ या दश तिथिओमें अवश्य हरी वनस्पतिओंका त्याग करना चाहिए। वो तिथिओं में केवळ पक्के केळे कीतनीक व्यक्तिएं. उपयोगमें लेते है, सबबकी वो अचित्त है । तो उनके अलावा बाकी सब वनस्पतिओंकी अवश्य प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए । फीर सामान्य नियमसे कहा है की, बीन पहिचाने फळ, नहि शोधी हुइ तरकारीआं, पत्र, सुपारी वगैरह आखे फळ, गांधीकी दुकानके चूर्ण, चटनी, महेला घृत, और बिना परीक्षा कीये लाए हुए दूसरे केइ पदार्थों, खानेसें मांस भक्षण समान दोष प्राप्त होता है। उनमें भी, सुपारी चातुर्मासमें आजकी कटी हुइ आज ही उपयोग में लेनी, दूसरे दिन लील फुग होनेके कारण सें वो नहि वापरना । वैसेही इलाची जब वापरनी हो, तब उनका छीलटा नीकालके अच्छी तरहसें तपास करके वापरना युक्त है । चातुर्मास में पीपरी मूळके गंठोडे, सुंठ वगैरह २ चैत्र ओर आसों महिने की दो अड्डाइओ शाश्वता है. वो चैत्र खुद ७ से १५ पूर्णीमा तक, और आसो सुद ७ सें १५ तक समजना. ३ तीन चौमासी की तीन अड्डाइआं वो एक कार्तिक सुद ७ से १५ पूर्णीमा तक, दूसरी फाल्गुन सुद ७ से १५ पूर्णीमा तक, तीसरी आशाड सुद ७ से १५ पूर्णीमा तक. जैसे अठ्ठाइ मानना. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लील फुग, कुंथु आदिकी उत्पत्ति होने के सबब नहि खाना । चुनेकी फाकमें रखनेसें सड़ते नहि. दवाइ प्रमुखमें वापरना हो, तो उनको अच्छी तरह देखके वापरना युक्त है । बने वहांतक तरकारी वगैरह नोकरोंसे नहि खरीद करवाना, स्वयं खरीदके उनको स्वयं ही समारना याने सुधारना । जीसें यतना का अच्छा उपयोग रहता है। प्रकरण ८ वां सचित्त त्यागी, द्वादश व्रतधारी, और चौदह नियम धारनेवालों को सचित्त के बारे में ध्यान में रखने योग्य केईक खुलासे। सचित्तका बील्कुल त्याग कीया हो, उन्हें कौन कौन चीजें सर्वथा याने सचित्त रहे वहांतक वो छोडना ? और कौन कौन सचित्त पदार्थ है ? केसे अचित्त बने ? गेहूँ आटा करनेसे और मूंजनेसे या पकानेसें अचित्त होता है। बाजरी जुवार मेथी कठोळ वगैरह अनाज, भुजा हुआ चना जुवार की धानी भरडने से, दाल या आटा करने से और रेतीमें भंजने से अचित्त होता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ हर एक अभक्ष्य पदार्थे महा सचित्त है धनीआ जीरा कूटने से या अग्नि का प्रयोग सौफ करने में। अजवान बडी सोंफ सुकी को भी मूंजना चाहिए नीमक कुंभारकी भट्टीमें या खूब 'सिंघालुन अग्नि की भट्टीमें पकानेसें चाक खडी पानीमें उकाळने से अचित्त कॅम्फर चोक होती है। चलित रसमें कहलाती चीजें } महा सचित्त है। बोलअचार महा सचित्त है। १ छांछ में या करंबादि में डाला हो, तो भी जीरा अचित्त होता नहि ( हीर प्रश्न में ) २ सफेद सिंधव सचित्त है। ३ दंतमंजन में वापरते हैं, लेकीन अचित्त कीये बीना वापरा हुआ सचित्त के त्यागीओ को काममें न आवे । कॅम्फर चोंक की बनावट भी अपन लोग नहि पैछानते, जीसे सचित्त त्यागीओंने नहि वापरना। ४ इनमें दो इन्द्रिय जीवों को भी उत्पत्ति होती है। वास्ते महा Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन उमळे आनेसे बराबर तीन उभळे बीगरका पानी अचित्त होता है। और ऋतु मुजब के काळ तक अचित्त रहता है। शरबतें गुलाबजळ नहि वापरना. सचित्त है. केवडाजळ विलायती प्रवाही दवाई केइ प्रवाहि शिवायके दवाएं अचित्त हो, तो भी अपवित्रादिक के सबब नहि वापरना. पवित्र वापरनी पडे, तो भी अचित्त पानीमें डालके भूकी वगैरह वापरना. एकदम प्रवाही दवाएं नहि वापरना. बरफ अभक्ष्य होनेसे महा , सचित्त है. सचित्तमें है । सचित्त के त्यागीओंने वो सबका त्याग करना होता है। ५ पानी ठंडा करने के बरतन पर ढांकनेका अवश्य ध्यानमें रखना. नहि तो उनमें से गरम वराळ नीकलनेसें, मक्खी, मच्छर, और दूसरे संपातिम जीवों गीरे, तो हिंसा होती है. वास्ते अवश्य ख्याल रखना. करे ___ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरे दांतन नागरवेल के पान १५४ सुके होजाने से अचित्त. घी शुद्ध करने में वापरने सें अचित्त हुआ हो, तो वो वापर सकतें. नीम के पत्ते कढ़ी में डाला हुआ हो, तो वापर सके. तुलसी के पान, ईलाची के पान - गरम उकाळा वगैरह में बाफ लीआ हो, तो वापर सकते हैं । नीम के महोर, आंबा के महोर- नहि वापरना । गुलाब के फुल - मीठाइ वगैरह में डाला हो, और अचित्त हुआ हो, तो वापर सकतें । चटनी - हरा धनीआकी, फोदीनेकी— उनमें नीमक सचित पडता है, ऐसे दोनो सचित्त हो तो भी उनको खूब घुटने से परस्पर शस्त्र लगने से दोनो दो घडी बाद अचित्त हो जाता है । गुवार के अचार – इनमें बीज है, वो दो घडी बाद अचित्त होता नहीं । दाडम - बीजसहित होनेसें दो घडी बाद भी अचित्त होता नहिं, रस नीकाला हो तो, वो दो घडी बाद अचित्त होता है । १ त्याग के दो भेद है। फक्त सचित्त सर्वथा त्याग और दूसरा - वस्तु सर्वथा त्याग, याने जिनको सचित्तका सर्वथा त्याग है, उनको अनि आदिसें अचित्त कीया हो, तो वापर सकते है। परंतु जिनको दाडम, जमरुख, Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हाता नहि । व अचित्त होता है। पकानेसें १५५ पेरु-[जमरुख वो भी दो घडी बाद अचित्त होता नहि । अग्निका शस्त्र लगे तब अचित्त होता है। तो भी शाक वगैरह पकानेसें पेरु काफी नक्कर होनेसें पकता नहि, और सचित्त रहता है । वास्ते उनका सर्वथा त्याग करना। __उस-[शेरडी] मात्र रस नीकालने बाद दो घडी पीछे अचित्त होता है। सेतुर-सचित्त है । इस लीए सर्वथा त्याग करना । सीताफळ-सचित्त ही रहता है। बीजसें गर एकदम अलग नहिं पड़ता। जांबु, रायण, बोर, खलेला, गीली बदाम, द्राक्षगीली-बीज नीकालने बाद दोघडीसें अचित्त होता है। बीज सहीत पक्के केलें-सोनेरी केळे कलकत्ते तरफ होता है । वो पक्का होनेसें बीज उनमें भी रहता है । अचित्त होनेका चोकस नहि कह सकतें । संदिग्ध होनेसें नहि वापरना। विना वीजके सोनेरी या हरकोइ पक्के केळे छीलटा नीकालने बाद तुर्त ही अचित्त होता है । हरा वनस्पति त्यागी को केट बस्तुओंका त्याग है, उनसे सचित्त या अचित्त कुच्छ नहि वापरा जावे, यह स्पष्टीकरण करनेका सबब यह है की-अर्थ का अनर्थ न होवे, क्यु की अपने में वक्रता और जडताने बहुत स्थान लीया है, इसी लीए हरएक बाबत स्व मतिसे समजनेका निषेध कीया है। वास्ते गुर्वादिसे समजना। नहिं तो अनेक प्रकारसे अनर्थ हुआ देखने में आता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ भी वापरने योग्य नहीं है । पक्के खडबुच, सकरटेटी - जीतने बीज हो वो सब खात्री पूर्वक नीकालने बाद दो घडी पीछे अचित्त होता है । काकडी - बीज अलग नहि पड सकतें । पकानेसें शाक वगैरह अचित्त होता है । केरी-याने आमका रस-गुटलीसें अलग होने बाद -दो घडी अचित्त होता है । नरीयल - बीज नीकालने बाद पानी और कोपरा अचित्त होता है। पक्की इमली, छुहारा, खजुर-बीज नीकालने बाद दो घडी अचित्त होता है । सुपारी [कच्ची] - तोडने बाद दो घडीसें अचित्त होती है । बदाम - अखरोट - बीज नीकालने बाद दो घडीसें यादूर देशांतरसे आया हुआ हो, तो अचित्त होनेका संभव है । नजीक के देशमें हुआ हो, तो अचित्त होनेका संभव है । पीस्ते, जायफल - उपर के छीलटेमें से नीकालने बाद दो घडीसें पीछे अचित्त होता है । लाल-काली - द्राक्ष - बीज नीकालने बाद दो घडीसें अचित्त होती है । जरदालु - बीज नीकालने बाद दोघडीसें अचित्त होती हैं। उनकी बदाम- बीज नीकालने बाद दो घडीसें अचित्त होती है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुंदर-झाड परसें ताजा नीकालने बाद दो घडीसें अचित्त । सुके अंजीर-अचित्त नहि होता है, जीसे सर्वथा त्याग करना। सकरका पानी, राखका पानी-दो घडी बाद अचित्त होवे । गरम (उकाळेला) पानी न मीले तो वैसा अचित्त करके वापर सकते है। त्रिफळेके चूर्णका पानी-दो घडी बाद अचित्त होने के बाद भी दो घडी तक रहता है। अनाजके धोनेका पानी-दो घडी तक अचित्त रहता है। फलके धोनेका पानी-एक प्रहर तक भी अचित्त रहता है। सामान्य धोवनके पानी-दो घडी अचित्त रहता है। ) गरम ऋतुमें ५ प्रहर। तीन उभरासें गरम कीया पानी शित ऋतुमें ४ प्रहर । वर्षा ऋतुमें ३ प्रहर । पीछे वापरनेके लीए रखना हो, तो कली चूना डालके हीलानेस शित ऋतुमें वापरनेके काममें ८ प्रहर तक अचित्त रहता है। ____ पालीतानेकी तळेटी पर और वरघोडा वगैरह अवसरोपे रखाहुआ सक्करका पानी पीपमेंसें सब एकही प्याला डुबाके पानी पीते है। उनमें एक दूसरोंका जुठा प्याले में मुंहकी लाळके सबब समुच्छिम पञ्चेन्द्रिय मनुष्यों होते है। और उनकी हिंसा होती Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ । जीसे खास जैसी योग्य व्यवस्था करना, की जीसें जैसी हिंसा होने न पावे । कीतनीक दफा सामुदायिक ऐसे मौके पे ऐसा होता भी है । सामान्य श्रावकों को उपयोग रखने जैसा है । तो फीर सचित्तका त्यागीओं के लीए प्रश्न ही क्या है ? इसी तरह सचित्त चीजें कीस तरह अचित्त होवे ? उनका थोडा परिचय दिया है. ज्यादा गुरु आदि सें समज लेना । सचित्त के त्यागी उपरांत एकासनादि व्रतोमें भी सचित्त लीया न जावें । जीसे उनमें वापरने के लीए अचित्त ही चीज होनी चाहिये । वो अचित्त किसतरह प्राप्त कीया जाय ? वो इस प्रकरण से मालूम होगा । 1 उपसंहारः arate अभक्ष्योंका श्री जिनेश्वर देवोने निषेध कीया है। जीसे उनका त्याग करना । और, और भी अनाचरणीयका त्याग करना । और वनस्पति आदिका अवश्य प्रतिज्ञा करने सें विरति का लाभ मीलता है । विरतिका फल वडा भारी है । कहा भी है की " ज्ञानस्य फलं विरतिः " ज्ञान [ पढनेtre] का फल विरति है । और जो वैसा न हुआ, तो सिर्फ ज्ञान ( अनुभव ) से क्या ? वो तो जब रहनी में आवे तब सारभूत है । चिदानंदजी महाराजश्रीने भी कहा है की - शुक रामको नाम खाने, नवि परमारथ तस जाने या विध भणी वेद सुणावे, पण अकळकळा नहिपावे ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ कथनी कथे सब कोई, रहणी अति दुर्लभ होई ॥१॥ षट्त्रिंश प्रकारे रसोई, मुख गणतां तृप्ति न होई ॥ शिशु नाम नहि तस लेवे, रसस्वाद सुख अति लेवे॥ जब रहणीका घर पावे, कथणी तब गिणती आवे ।। अब चिदानंद इम जोई, रहणी की सेज रहे सोई॥ भावार्थ-यह कहना है कि कथनी जब रहणी के रूपमें हो जाय, तब उनका उत्तम रस प्राप्त होवे । अन्यथा, छत्तीस जातका पक्वान्न का नाम मात्र गीनने से क्षुधा शान्त होती नहि । वैसे ही ज्ञान संपादन करके उनका यथायोग्य अमलमें लेना चाहिये. वो विरतिवंत क्रिया रुचि जीवों शुक्ल पाक्षिक कहलातें है। मन, वचन, कायाका व्यापार नहि चलता हो, तो भी अविरतिसें निगोदिया वगैरह जीवोंकी माफक बहुत कर्मबन्ध होता है। कहा है की:___ "जो भव्यात्मा भावसें विरति [देश या सर्वसें] अंगीकार करते है, उनकी, विरति पालनेमें असमर्थ देवों बहुत प्रसंसा (गुण ग्राम ) करते है । एकेन्द्रिय जीव कवलाहार बील्कुल करते नहि, तो भी उनको उपवासका फल प्राप्त नहिं होता. वो अविरतिका सबब मानना। एकेन्द्रिय जीवों मन, वचन और कायासें सावध व्यापार करते नहिं, तो भी उनको उत्कृष्ट अनन्त काळ तक वो गतिमें रहना पडता है, और जो भूत पूर्वके भवमें विरतिकी आराधना की हो, तो तिर्यच जीवों यह भवमें चाबुक, अंकुश, लकडीकी तिक्ष्ण आर इत्यादि से सेंकडों ___ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० दुःख सहन करने की आवश्यक्ताए नहि रहती है । सुज्ञो ! अविरतिसें महा दुःखों, पराधीनतासें तिर्यच, नारकी वगैरह भवोंमें सहन करना पडता है । जीस लीए विरतिका अंगीकार कर लो, थोडासा कष्टसे बहुत फलप्राप्ति करानेवाली होती है। और वो कष्ट - दुःख ( अज्ञानीको ) बहारसें दीखता है । लेकीन भविष्य में सुखका निमित्त होनेसें ( विरति ) सुख रूप ही है। जिसे सकाम निर्जरा होती है । और वो नहिं अंगीकार करेंगे तो दूसरे भवमें तिर्यच और नारकीमें व परमाधामी वगैरह क्रूर मनुष्यों और देवोसें आती हुइ भयंकर व्याधियां पराधीनतासें सहन करनी पडेगी । उसे ज्यादा अब क्या दुःख है? सारांशमें:- प्राणान्त कष्टोसें भी तीर्थंकर महाराजाने निषेध की हुई वस्तुओं का भक्षण करना नहि. और उनमें भी, अमुक शेरकी छुट - आगार वगैरह न रखके कायरता का त्याग करके बावीश अभक्ष्यका सर्वथा त्याग करने उपरांत दूसरा भी अनावरणीय - अभक्ष्यका भी त्याग - नियम अवश्य करना । नियम ( प्रतिज्ञा - व्रत) कैसे लेना ? और कीस तरह पालना ? व्रतके अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार, यह चार भेदसें दोष लगता है। जैसेकी चौविहार (चार आहारका त्याग ) कीया हो । बहुत प्यास लगे जब पानी पीनेकी इच्छा मात्र करे, वो अतिक्रम, जिस जगहपे पानी हो वो जगह पानी पीनेके जावे, वो " व्यतिक्रम " दोष लगता है। पानी पीनेके लीए पानी के Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरतनमेंसें प्याला भरके मुंहपे लगावे, लेकीन पीवे नहिं, तबतक अतिचार लगता है। और जब वो बिन धास्तीसें पानी पीवे, तब उन्हे अनाचार [महा दोष पाप] कीया, कहलावे। तब तो उन्हें दूसरे भवका भी डर न रहा। जैसा समजा जावे । [कायदेमें अपकृत्य और कसुरगुनाह में जो भेद है, वो भेद धार्मिक जीवनमें अतिचार और अनाचार दोनोके बीचमें है। अपकृत्यका दीवानी दावा होता है। और कसुरका फोजदारी दावा होता है। उस मुताबीक अतिचार और अनाचार दोनोहीदोषके निमित्त होते भी अतिचारमें सुधारके अवकाशकी संभावना है, तब अनाचारमें असंभावना समजनेमें आती है। जीसें वो अधर्म कृत्य माना जाता है । और अतिचार तक दोषवाला होते हुवे भी वोधर्मकृत्य माना जाता है] जब परमाधामीओं गरम जलते सीसेका रस जबर जस्तीसें उनको पीलाते है, तब वो अत्यंत दुःख अनुभवते है, और उनमेंसें छुटनेकी कोशीप करते है, लेकीन कीया हुआ कर्म अनुभवने वीगर वो बीचारेका कहांसे छुटे ? असा समजकर अतिक्रम दोष भी न लगे, वैसे भवभीरु होकर व्रतका पालन करना चाहिये। धन्य है व्रत पालनेमें दृढ सिंह श्रेष्ठिको, की-जिने दिशि नियमका स्वीकार कीया,लेकीन अति विकट स्थितिमें भी व्रत-खंडन नहिं करके अनशन करके. केवळ ज्ञान प्राप्त कर मोक्षको प्राप्त किया. शरीर (पुद्गल) की-जीसका स्वभाव, सडन, पडन और विध्वंस पानेका है, उनके पर मोह नहि रखते ही उभय लोगमें Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखरूप जो व्रत, उनको प्राणसें ही अधिक प्रिय गीना । अनिमें प्रवेश करना अच्छा, लेकीन लीया हुआ व्रतका कभी खंडन नहि करना । (Sacrifice Money, Even give rather . than Principle) वास्ते, सत्य प्रतिज्ञावंत होना। सुज्ञेषु किं बहुना ? ९ वाँ अध्याय. श्रावकके घरमें नित्य व्यवहार में लाने लायक कतिपय आवश्यक नियम । १. घरमें दस स्थान पर छत (चंदरवा) अवश्य बांधना चाहिये। १ चूल्हे पर, २ पाणियारे पर, ३ रसोई घर में, ४ घट्टी पर, ५ ऊँखल पर, ६ मट्टा (छाछ) करनेके स्थान पर, ७ शय्या पर, ८ स्नान घर में, ९ सामायिकादि धमक्रिया करनेके स्थान पर (पौषध शालामें), १० जिनगृह में । इस प्रकार दस स्थान पर छत बाँधना नितान्त आवश्यक है। जिनमें छः भोजन सम्बन्धी है। भोजनके स्थानमें छत बांधनेका आशय यह है कि हमें भोजन विषयक बहुत ध्यान रखना चाहिये। इससे शारीरिक तंदुरस्ती को बहुत लाभ पहुँचता है और अहिंसाका पालन होता है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ २ सात छनने रखने चाहिये । १ पानी छाननेका, २ घी छाननेका, ३ तेल छाननेका, ४ दूध छाननेका, ५ छाछ छाननेका, ६ अचित्त उष्ण जल छाननेका, आटादिक छाननेकी छननीयाँ | इस तरह ७ छनने जरूर रखने चाहिये, जिससे चींटी, कंसारी, मच्छर, मक्खी आदि त्रस जीव छानने से अलग हो जातें हैं । पानी और आटा छाननेसे त्रस जीवकी रक्षा होती है । पानी छाननेका कपड़ा घट्ट और मज़बूत होना चाहिये । इस रीति से जीवरक्षा करने वाले भव्य प्राणियों को उसका प्रत्यक्ष लाभ मिलता है । जल तो प्रत्येक प्रहर में छानना चाहिये। इस विषय में महाराजा कुमारपालका सुचरित्र वारवार मनन करने योग्य और यथाशक्ति अमल में लाने योग्य है । ऐसे आत्मार्थी परमार्थी पुरुषोंकी बलिहारी है ! वे ही धन्यवाद के पात्र हैं, वेही पुण्यवंत और महंत हैं, वेही महान् सुखी हैं, तथा वेही महान भाग्यशाली हैं कि जिनके हृदय - पट पर दया -- यतना का चित्र चित्रित है । जैन शासनकी सदा जय हो । ३ कैसे वर्तन काममें लाने चाहिये ? 46 ra कैसे पात्रमें तथा किस प्रकार भोजन करना ठीक हैं ? उसे संक्षेप में कहते हैं " - जो दोष रात्रि भोजनमें हैं वैसेही दोष अंधकारयुक्त स्थानमें खानेपीनेसे और सकडे मुखवाले Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पात्र (जिनमें दृष्टि नहीं पहुँच सक्ती ऐसे सुरई, लोटे आदि) काममें लानेसे लगते है। समयानुसार काँसेके अथवा कलईदार तांबे-पीत्तलके - वर्तन सामान्यरूपसे अच्छे माने जाते हैं। फिर हाल इस दुनियाका वेग विचित्र गतिसे चल रहा है। न जाने किस प्रकारकी हवा वह रही है, समझमें नहीं आता। यहाँ तक कि हम अपने पूज्य पूर्वजों की पद्धति और मार्गको तिरस्कार भरी दृष्टिसें देखते हुए उसे मिटाकर अब टीन-लोहे के पात्रोंका आदर करते हैं। एसा पात्र जैन या हिंदु बंधुओंको उपयोग करना मुनासिब नहीं । सामायिक पत्रोंसे पता चलता है कि ऐसे पात्रोंमें ग्लेज के वास्ते अंडोंका रस काममें लिया जाता है। और जीवित बैलोंको मारकर उनके आंतड़ियोंके तरल भागका भी उपयोग कहते हैं। वस्तुतः यह बात त्रासजनक है। वास्ते एसे वर्तनोंका शीघ्र त्याग कर देना चाहिये । ऐसी सस्ती व चडकीली भड़कीली चीजें परिणामरूप बहुत मँहगी और निरर्थक होजाती हैं। इस प्रकारकी वस्तुओंका इस्तेमाल करनेसे हम थोडे समयमें ही कैसी निर्धन अवस्थाको पहुँचे हैं ? कि. जिस वस्तुकों खरीद कर काममें लेनेके बाद उसकी कुछ भी कीमत उपज नहीं सक्ती ! परन्तु कांसे अथवा तांबा-पीत्तलके बर्तनोंकी फूटे ढूंटे बाद कभी भी मूल कीमतसे आधी अथवा उससे भी कहीं ज्यादा रकम अवश्य उपज जाती है। ___ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ - अहा ! हमारे पूर्वज कैसे दीर्घदृष्टि व अगम बुद्धिवाले तथा व्यवहार व धर्मकार्यमें कितने कुशल थे ? और अब हम कैसे हुए ? कि उनके वचनोंका अनादर करके स्वच्छन्द होकर और अपने आपको श्याने समझकर हमारे पूर्वजों द्वारा उपार्जित उत्तम शाखको भी खो बैठे है ! ___ अब तो हम "विनाशकाले विपरीतबुद्धिः" के अनुसार अपने समस्त सुवर्ण समान पदार्थको लोहा समझ उसे बेचकर और उसके स्थान पर जो लोहा है उसे मुवर्ण समझते हुए हर्ष पूर्वक (उसमें कितनेक मिथ्या लाभोंकी कल्पना करके) अपनाते हैं। देखा जाय तो कैसी दयाजनक स्थितिमें हम हमें पाते हैं ? वह अपने ही कर्मका दोष है। वस्तुतः अभी भी यदि हम नहीं संमालेंगे, तो इससे भी बढ़ कर खराव दशाको हम पहुँच जायँगे। वास्ते हे सुज्ञ बंधुओ ! अभी भी समालो: और ऐसे अपवित्र भाजनोंका त्याग करके काँसे अथवा तांबेपीत्तलके ही पात्रोंमें आहार करो। रसोई तथा भोजन करने के पीत्तलके सब वर्तन कलईदार होने चाहिए । वैसेही पत्तलदोनेके आश्रित भी त्रस जीव रहते हैं उससे उन्हें तथा केलेके पत्तों पर भी भोजन करना मुनासिब नहीं। अन्य-दर्शनिओंके वहां इसका खास ध्यान रखना चाहिए । दिनमें भी अंधेरेमें भोजन करना ठीक नहीं. वास्ते दिनमें जहां ठीक उजेला हो वहीं बड़े और स्वच्छ पात्रमें, भक्ष्या Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ भक्ष्यका विवेकपूर्वक विचार करके स्थिरचित्तसें, मौन रखकर भोजन करना चाहिये । जूठे मुखसे बात करने से एक तो ज्ञानावरणीय कर्मका वंधन होता है । दूसरा, वातों में ध्यान जाने से भोजन में मक्खी आदि स जीवके गिरनेसे उस जीवकी हिंसा होती है । मक्खी खानेमें आ जाय तो वमन हो जाता है । वैसेही सरस - निरस भोजनकी प्रशंसा व निन्दा भी नहीं करनी चाहिये । इसलिये मौनपूर्वक भोजन करना उचित है । कदाचित् बोलनेकी जरूरत पड़े तो जलसे मुख-शुद्धि करके बोलना चाहिये । भोजन में कोई भी सजीव-निर्जीव कलेवर न आ जाय वैसी स्थिरचित्त से निगाह रखकर, बराबर देख-भाल करके उपयोगपूर्वक हित-मित ( पथ्य और परिमित ) व समय पर ही भोजन करना उचित है । भोजन करने समयकी धोती पृथक् ही होनी चाहिये । १ साथमें बैठकर भोजन करनेकी प्रवृत्ति अनुचित है। क्योंकि किसीके दाद, खुजली, फोड़े, फुन्सी आदि संक्रामक रोग होते हैं, दूसरे के साथमें जीमनेसे उन रोगोका पीप लगना संभव है । फिर भी एक दूसरेका जूठा खानापिना भी बुरा ही है । साथमें जीमनेसे जूठन भी बहुत पड़तो है और जूठन से जीवोत्पत्तिः होती है आदि अनेक बुराइयाँ हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __१६७ फिर हाथ-पैर की शुद्धि होना भी जरूरी है। उनमें भी जो नित्यप्रति प्रभुपूजा करते हैं उन्हें चाहिये कि वे राख आदि पदार्थसे उपयुक्त हस्तशुद्धि करें, क्योंकि ऐसा न करनेसें केसर या घृत आदिका अंश अपने हाथमें होनेसे उनका पेट में जाना संभव है। और यदि ऐसा हुआ तो देवद्रव्य-भक्षणका महादोष भी लगना संभव है। अतएव शुद्धि बराबर करनी चाहिए। (प्रसंग वश यहाँ यह लिखदेना भी उचित है कि हस्तशुद्धि करते समय कभी सचित्त मिट्टि भी काममें ली जाती है, उससे जीवहिंसा होती है, वास्ते राख आदि निर्जीव पदार्थों से हस्तशुद्धि करना ठीक है।) खुले छत पर अथवा मैदानमें जहाँकि उपर छत न हो वहाँ भी भोजन करना उचित नहीं है। घी, गुड़, दूध, दही. छाछ, दाल, शाक और पानी आदिके पात्र कभी क्षणभरके वास्ते भी खुले नहीं छोड़देने चाहिये। श्रावकने अपनेको चाहिए इसीसे भी कम भोजन लेना अर्थात् जरूर जीतनाहि लेना और जूठा बीलकुक नहि छोडना। अपना बरतन-थाली वगेरेह धोके पी लेना जीससे एक आयबीलका लाभ मीलता है। इसी तरह हमेश प्रथम शुद्ध मान २ देवद्रव्य-ज्ञानद्रव्यादिके भक्षकका तथा देव-गुरु-धर्मके निंदक का अन्न-पानी कभी नहीं लेना चाहिये । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ आहार 'निग्रंथ मुनिराजों को व्होराने बाद उपयोग पूर्वक भोजन करने से वो अमृत तुल्य फल देते है। अलावा उनके विष तुल्य फलं-अवश्य चखना पडता है । वैसा जानकर भव्य बन्धुओं ! अष्ट-प्रवचन माता को हृदयमें रखके यह मनुष्य १ शुद्धमान आहा में प्रथम न्यायोपार्जित द्रव्यका आहार करना चाहिए । अन्यायसें प्राप्त किया हुआ धनका आहार तुन्छ है । जीनका न्यायपूर्वक व्यापारादिमें से प्राप्त कीया हुआ धन हो उनका ही उत्तम और शुद्ध भोजन है। वैसा और श्रादकसें लगता हुआ दोष न लगाकर निदेोष अहार व्होराना वो शुद्धमान आहार है। वैसा ही न्यायोपार्जित अल्प धन में "पुण्या" श्रावक एक दीन खुदही उपवास करते थे, और दूसरे दिन उक्त महानुभावको पनी उपवास करतीथी. ऐसा करके दर रोज एक साधर्मिक भ ईयोंकी भक्ति करते थे। हमलोग भी वैसी तरह न्यायसें धन कमाना उचित है । नहि तो जूट, कपट, कर अन्याय मार्गसें प्राप्त कीया हुआ धन यहां ही छोड़ कर हाय ! द्रव्य ! हाय ! द्रव्य ! करके मर कर उनका फल भोगवना पडेगा. अन्याय, अनीति जहां तहां चल रही है । कोई विरले आत्मा न्याय मार्गपर चलनेवाले होंगे। उनका अनुकरण होवे तो उत्तम है। देशावरों के धंधादारी हरोफों की सामने हरीफाई करने में बहुत मुश्केलीआं खडी हुई है। अपने धंधे की बीच पड़ने का भयंकर अन्याय वो लोग कर रहे है । वो स्थितिमें अपने देशी व्यापारीयों का अनीति आदि की कीतना अन्याय गीना जावे ? वो विचारना जरूरी है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन्म सफल करो! की जीससे अष्ट कर्मका नाश से अल्प भवों में शिव-संपद-सुख प्राप्त करें। भोजन कीया हुआ जूठा और रसोइ के बरतन कलाकों के कलाक तक पड़ा रहनेसें उनमें त्रस जीवों पड कर अपना प्रिय प्राण गुमाते है । और जूठे बरतनों में दो घडी अंदाजन में समुर्छिम जीवोंकी उत्पत्ति होती है। जीससे शिघ्रही मांज के मुखाले कर रख देना। पानी छानना, चूला साफ करना, तरकारी शाक आदि साफ करना, लकडी, कंडे, वगेरे देखनेका काम नौकर या रसोया के विश्वास पर छोडनेसें अनेकजीवोंकी नित्य हानि हो जाती है। जीसें गृहिणी (स्त्री) ने खुद ही स्वयं करने जैसा हो वो बने वहांतक प्रमाद छोडकर स्वयं करना । और नोकर के पास कराना होता तो भी बने वहांतक पासमें खडा रह कर संमाल पूर्वक करवाना-और नोकरोंको भी उपदेश देकर खूब कालजी पूर्वक कराना उचित्त है । सुज्ञेषु किं बहुना? अध्याय १० वा. - "सुज्ञ श्राविका बहिनों को अवश्य ध्यानमें रखने योग्य सूचनाएँ" जैसाकी राज्यमें मंत्री प्रधान होता है, वैसाही घरमें स्त्रीका प्रधान स्थान है । जीससे स्त्री वर्ग इस "अभक्ष्य अनंतकाय" ___ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० वर्णन मननपूर्वक खास बांचके या कीसीसे समजकर उस मुआफीक चलनेकी आवश्यकता है । सुज्ञ श्राविका बहिनों ! आपही घररूपी राज्यके सुधारने चाहो तो, तब ही ठीक रहेवे, नहिं तो पुरुषसें होना मुश्केल है । क्युंकी पुरुष दिनभर उनके व्यापार धंधे से लपटे हुए हि रहतें है । जीसे नीचे लीखी हुइ सूचनाएं ध्वानमें रखकर उसी तरह अमल में लाना ध्मानमें रखोंगे तो आप स्व और परका ( दूसरोंका ) कल्याण रूप होंगे । १ सूर्यके किरण जबतक न दीखाइ देवे, तबतक चूलेका आरंभ करना नहि २ सब जगह परसें यतनापूर्वक कचरा साफ करने बाद सब कामका आरंभ करना. ३ सुवहमें सबसे पहिले पुंजनिसे दररोज प्रत्येक वरतन चूले वगैरह ख्याल से पुंजना और वो जीवोको सुखी जगहपर रखना की जहां मनुष्य या जानवर आदिका आना जाना न हो । ४ लकडी, कंडे, कोयला, सगडी आदि रसोईके साधन पुंजने बाद उपयोग में लेना, उनमें भी चातुर्मासकी ऋतुमें दो तीन वख्त खूब संभालपूर्वक पुंजना, कारणकी - चोमासेमं जीवों की उत्पत्ति बहुत होती है । १ कंडे तोडके वापरना. चातुर्मासमें कंडे या नरीयलके छीलके जलाना नहि । कयुंकी उसमें त्रस जीवो उत्पन्न होते है । और उसमें I Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ लकडेमें भी कीसी ही जातके अंदर बडे जीव होते है, जो लकडेमसे आटे जैसा भूसा नीकालते है। तो उस परसें लकडेमें वैसे जीवोंकी उत्पत्ति है एसी खात्री होती है, फीर भी वो झाटकनेसें नहि नीकल सकते है। जीसे वो जीव अग्निमें जलके भस्म होते है । तो वैसे लकडे एक बाजू रख देना और वो बाबतका बहुत उपयोग रखना। ६ जलाउ चीजोंमें जीवजंतु कम भरा रहे वैसा खरीदना और वैसी तरह रखना व यतनापूर्वक वापरना। ७ रसोडे के बरतन और मसाला, घी, तेल, दूध, दहि, फुलके, बाटी और पानी, जूठका बरतनादिका उपयोग रखके बीलकुल खूला रखना नहि। ८ जूठन दोघडी पहिले जनावरों को पीला देना या धूप पडता हो वैसी जगहमें छांट डालना । ऐसा नहि करनेसे उसमें असंख्य समुच्छिम जीव पैदा हो जाते है । ९ नमक, मीरची, वगैरह मसाला रखनेका साधन स्वच्छ रखना और ढांकना । १० प्रस्तुत चीजें लकड़ें के खाने बनवा के उसमें कीतनेक लोग रखतें है। उसे भी मजबूत बूच वाली बाटली या सीसेमें रखना युक्त है। कारण यह है कि-चोमासेमें हवा लगनेसें उसमें तद्वर्णी लाल सूक्ष्म कीडे पडतें है और कुंथु, लील, फुग होती है। और लकड़े के खाने में भी त्रस जीव चड जातें है । बाद ___ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोइ करते वख्त जल्दी के कारणसें बिना देख भाल-वापरनेमें आवे, जीसें ऐसे प्राणीयों का विनाश हो जाता है। ११ मसाला दाल शाकमें, सकर चीनी प्रमुख दूधमें, थी तेलादि दाल शाक या रोटीमें वापरने पहिले खूब मूक्ष्म दृष्टिसें तपास करना, जीसमें सजीव, या निर्जीवका कलेवर तो नहि है न ? नहिं तो थोडे प्रमादसें बडा अनर्थ होगा । १२ सांजको सूर्यास्त पहिले चूला ठंडा कर देना। १३ वो भी सचित्त [कचा] पानी छांटके ठंडा करना नहि । कारणकी-उसे अग्नि और पानी के जीवोंको अति तीव्र दुःख होकर उसका दोनोका नाश होता है। १४ वासी बीलकुल नहि रखना। छोटे बच्चे के लिये मुबहमें ताजा बना देना । जीससे शारीरिक और धार्मिक दो वडे लाभ है। १५ छोटे बच्चों को शुरूमें ही अभक्ष्य अनन्तकाय के लीए उपदेश करते रहना, जीसें वो बडी उम्मर होने पर भी वैसी चीजोंसे दूर रहे। मुलायम डाली जैसी वालने की हो, वैसी वल सकती है। किन्तु वो जड हो जाने बाद वलती नहि । जीससे शिशुवय के बच्चोंका स्वार्थ सुधारने या बीगाडने का उनकी मातापर विशेष आधार रहता है। १६ जो आप श्रीमंत होंगे तो वो भी पूर्व पूण्योदयसें ही, जीसे नोकर को हुकम करके काम कराने में भी खास मर्यादा रखना। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ १७ जो कार्य स्वयं यतनापूर्वक होता है वो नोकर कभी कर सकता नहि । १८ नोकर को तरकारी सुधारने को दी हो तो शाक के साथ दूसरों जीवोंका भी नाश कर डालता है। पानी छाने वो भी ठीकाने बीगरका और उनका संखारा नीचे डाल देवे, या खारे पानीका भी मीठे पानीमें डाल आवे, पानीके जूठे बरतन मटके में डाले। १९ आप नोकर पर विश्वास छोड़के आपके जीमे हुए जूठे बरतन वैसे ही छोड़कर हीडोले खाटपे या सुखशय्यामें आराम करो, पीछे दो दो कलाक तक वो बरतन पडा रहेवे, और उसमें टपोटप मांखी वगैरह जीव पड़ तड़फटाडकर अपना प्राण छोड़ देवे। २० वास्तविक श्रावकों का यही धर्म है की थाली आदि धोके पी जाना चाहीए। कारण की उसमें दो घड़ीमें असंख्य जीव उत्पन्न होते है। २१ प्रमादसे पनियारे के पास, मटके के आसपास लील भी हो जाती है। ऐसे अनेक दोष अपने प्रमादसे होता है। आपसे ऐसा काम होना अशक्य हो तो पासमें खड़े रहकर नोकर के पास यतना से कराना वो भी योग्य हैं । नहि तो पुण्यरूपी मुड़ी व्याज सहित खा जावोंगे। तव दूसरे भवमें कहां से सुख मीलेगा ? अजरामर सुख लेनेका अवसर आया है, तो भी क्युं विषय-कषाय और विकथामें लीन हो जाते हो? Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्रमाद छोड़ो और मनुष्य जन्म सार्थक करो ! दुष्ट प्रमाद हि दुर्गतिमें ले जानेमें वडा तस्कर समान है, जीसें चेतो! २२ चार महाविगयका अवश्य त्याग होताही है। २३ आइस्क्रीम, बरफ, वगैरह परसें ममत छोड़ दो। २४ आपके बच्चोकों अफीम और वालागोली के व्यसनोंसे छुड़ाओ। २५ कच्ची मीट्टी, कच्चा नमक का त्याग करो। २६ प्रमाद छोड़के अचित्त नमक तैयार करके वापरो। २७ रात्रि भोजनका आप त्याग करो, जीससे आपके पुत्रादि आपके अनुकरण करें। २८ तील, खसखसका त्याग करो। २९ बोलका अचार आदिके स्वाद छोडो और छुडाओ ( वास्तविक, स्त्रीओं ही ऐसी अनेक चीजें विचित्र प्रकार की बनाकर पुरुषोंको रसेन्द्रियका आधिन करती है।) ३० विदलका खास उपयोग रखो, क्यों कि उसमें आपका ही उपयोग काम आ सकता है। यह आपके हाथकी बात है। कभी पुरुष विरतिवंत न होवे, तो भी आप उनको ऐसे दोषों में से अटका सकते हो। ३१ बेंगन आदि शाक करने का त्याग करो। ३२ बोर खानेका त्याग करो।। ३३ विकथाका भी त्याग करो "क्षण लाखेणी जाय" जरा विचारो । धर्मकायमें प्रवृत्त हो जाव । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ चलित रस, वासी वगैरह नहि वापरने का उपयोग रखो। ३५ आटा, मुरब्बा, अचार, सेव, बड़ी, पापड, प्रमुख के लीए आगे लीखी हुइ बाबत पर ध्यान दो, वैसा स्वयं चलो और जीनको उपयोग न हो उनको नम्रता से सीखाओ। ३६ अनंतकायका त्याग करो। ३७ यह मनुष्य जन्म सफल करने के लीए हरी हलदी, आदु, लसन आदि चाहीए जीतना रोग हो तभी उनको काममें मत लो। अपना अनादिका कर्मरूपी रोग नाश होगा तभी मच्चा सुख-शाश्वत् सुख प्राप्त हो सकेगा। ३८ फाल्गुन चोमासा आते पहिले तेल आठ माह तक अछे बरतनमें भरके रखो। ३९ आशाई चातुर्मासमं, खांड, काजु, बादाम, पिस्ता, द्वाक्ष वगैरहका उपयोग बंध करो। ४० सुकवनी आशाड चातुर्मास पहिले वापर डालो, और व्हांसें कार्तिक चातुर्मासतक उनका त्याग करो। ४१ हरावांस, वीली, बीला केरडे और नागरवेलके पानको काममें लेना छोड दो । ४२ परदेशी मेंदा, परसुंदीका आटा खा वाजारमेंसें मंगवाना बंध करो, कुछ कष्ट पडेगा, लेकीन उसे अनेक जीवोंका आशीर्वाद प्राप्त होगा। ४३ पानी पीके तरह वापरो। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ 1 ४४ मजबूत कपड़े से दिनमें दो तीन बार छनने का कष्ट उठाने से भवान्तरमें दुःख भोगना न पड़े, अर्थात् सुख प्राप्त होता है । और क्रमानुक्रम शिवसंपदा मिलेगी । अर्थात् सुखी वनोंगे। और अनुक्रमशः शिवसंपदा को भी प्राप्त करोंगे । ४५ विशेषतो तुम्हारे घर के प्रधानपणे में तुमही जाणकार हो, इसलिये प्रत्येक कार्य उपयोग, विवेक, तथा जयणा पूर्वक करो । ४६ तिथियों के दिन दलने, खांडने, पीसने, धोने, माथा गुंथने, नहाने, गोबर लेने जाना, गार करना इत्यादि आरंभ समारंभ करना, कराना तथा अनुमोदन करना नहीं । ४७ तथा ३ चौमासे की, २ आयंबिल की ओलीको, तथा १ पर्युषण पर्वकी इस प्रकार ६ अट्टाइयो में उपर लिखे कोई भी आरंभ समारंभ त्रियोग ( मन, वचन, काया ) से करना नहीं । ४८ मिथ्यात्व लौकिक पर्वः – जैसे कि दिवासा रक्षा-बंधन, श्राद्ध, नोरतां (नवरात्रि - व्रत ), होली संक्रांति, गाणेशचतुर्थी, नाग पंचमी, रांधण-पष्टी, शीळ- सप्तमी, ( वाशी न खाना), दुर्गाष्टमी ( गोकलअष्टमी ) राम नवमी (नोली नौमी), अहवा - दशमी (विजया-दशमी); भीम अग्यारशी (जेट शु. ११) वत्स द्वादशी धनतेरशी, अंनत-चौदश, अमावास्या, सोमवती, बुद्धाष्टमी, दशहरा, ताबूत, बकरीईद, [रेटीयावारश, राष्ट्रीय - सप्ताह महावीर आदि जयंतीओ, जीवदया दिन, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ नातालः) इत्यादि पर्व मित्थात्व का हेतु तथा अनर्थकारी है, इसलिये इन सबका त्याग करना। ४९ अपने को दूध-पाक, बासोंदी, लड्डू,-इत्यादि करके खानेके क्या दूसरा दिन नहीं हैं ? कि-उन्हीं मिथ्यात्वीपर्वो के दिन खाना या उत्तेजन देना ? एसे मिथ्या आचरणोंका त्याग कर, अपने सत्य आचरणों को जानने या पालन करने में प्रयत्नशील बनिये । धन्य है उन सुलसा श्राविकाको, कि जिनका सम्यक्त्व अत्यंत दृढ था। इससे वह श्राविका आगामी चौवीसी में, इस भरतक्षेत्रमें पंद्रहवें श्री निर्मम नामक तीर्थकर होवेगी। ५० प्रातःकाल जल्दी उठने की आदत डालो। ५१ सुबह जल्दी उठकर प्रतिक्रमणादिक करो। देवदर्शन, गुरु-वंदन, तथा स्नान-पूजा करो और पश्चात अपने गृह-कार्य में लगो। ५२ घर के मनुष्य-बालक बालिका तथा नौकर चाकर आदिको भी जल्दी उठनेकी टेव-आदत पडावो, और धर्मध्यान में, अपने नित्य नियम में, लागू रहे, ऐसी व्यवस्था करो। ५३ सुबह जल्दी उठकर प्रत्येक काम शांति-पूर्वक बिना किसी खड़बड़ाहट के करना चाहिये। जिससे दूसरे अड़ोसीपड़ोसी अपने द्वारा किसी पाप कार्य में प्रवृत्ति न करे। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ५४ आवाज करने से छिपकली वगैरह अधर्मी जीव, तथा मच्छीमार इत्यादिक अधर्मी मनुष्य जाग आते हैं । व हिंसा इत्यादिक पाप-प्रवृत्ति में लग जाते हैं । ५५ अपने घरमें जगह जगह जहां जहां जरूरत हो वहाँ वहाँ जीव-जंतू की जयणा के लिये छूट से पूजणीयां रखो । ५६ रसोई इत्यादिक भोजन - कार्य अपने स्व- हातों से ही उतावल या वे परवाई बिना नली भाँति पकाना और स्वादिष्ठ बनाना । ५७ मुनि महाराजाओं को बहोराने के लिये, अपने घर के मनुष्य द्वारा बुलाने के लिये भेजने का रिवाज अपने घर से हमेशा कायम रखो । ५८ अपने घर के बालक-बालिकाए और पुरुष पूजासेवा में प्रमाद न करे, इस बात को उन्हें भोजन करने के पहिले से ही सावचेती दिला दो । ५९ अपने घर की बहू और बेटियाँ भी, दर्शन, गुरुवंदन तथा प्रत्याख्यान ( व्रत पच्चक्खाण ) इत्यादिक में प्रमाद न करे, इस बातकी भी पूरी खबरदारी रखना । ६० तिथिओं के दिन हरा - शाक इत्यादि के बदले अन्य सूखे शाक इत्यादि की योग्य व्यवस्थासें संतोष-दायक प्रबन्ध रखते रहना । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ ६१ जीमने वाले प्रत्येक पुरुष एक ही साथ एक ही पंक्ति में जीमने बैठे या प्रत्येक मनुष्यको हरएक प्रकार की व्यवस्था मिले, इस बात की पूरी कालजी रखो । ६२ रसोई तथा जीमनेका कार्यक्रम हमेशां के नियमानुसार नियमित समय पर ही चालू रखो । ६३ भोजन में अभक्ष्य, अनंतकायादिक तथा स्वास्थ्य को हानिकर हो एसी वस्तुए मत बनाओ । ६४ घर के सब मनुष्य तन्दुरस्त रहे इस वातकी पूर्ण सावधानी रखो | ६५ घर में प्रकाश, स्वच्छता, नियमितता, व्यवस्था, रखना । तथा जो चीज जिस जगह पर रहती हो उसे उसी जगह पर रखना । इत्यादिक योग्य गोठवण की कालजी रखना । ६६ घरमें फजूल खर्च न हो इसलिये योग्य करकसर करने की भी पूरती कालजी रखो । ६७. जिस वख्त जिस चीज की जरूरत पड़े, उस वख्त वह चीज घर में से ही आसानी से मिल जाय, इस प्रकार जमाओ और उस की बराबर ध्यान रखो । ६८. अनाज इत्यादिक खाद्य पदार्थों की खरीदी, सावचेती, संभाल, और उसको वापरने में यतना, योग्य करकरस, ठीक चिजकी पसंदगी, योग्य समय पर खरीदी, जरूरत Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० के अनुसार उस को वापरना। इत्यादि बातों की पूरी काळजी रखना। ६९. रात्रि के समय में प्रत्येक स्थान पर योग्य । उजाला पड़े, उस प्रकार दीवे की व्यवस्था रखनी, विना जरूरत के और ज्यादा टाइम तक दीवे रखना नहीं। ७०. शामको, जल्दी भोजन इत्यादिक से निकटकर, प्रतिक्रमण इत्यादिक के लिये तय्यार हो कर उस में भाग लो। (गुजरात में यह रिवाज खूब व्यापक है). स्त्रोयों, पुरुषो वगैरह सबको प्रायः ६ बजे के लगभग फुरसद मिल जाती है, इसलिये वे धार्मिक क्रिया कर रात्रि में बड़ी शान्ति का अनुभव करते है। [इधर अपने मालव इत्यादि देशमें इस बात की बहुत खामी है। ७१. घर में शान्ति का संचार हो । तथा एक-दूसरे में परस्पर प्रेम की वृद्धी हो इस प्रकार की आदतें डालो। ७२ छोटे दूध पीते बच्चों को उन्हाले में दो पहर को जल-पान कराने में मत भूलो । ७३ जीवों को जीवांत खाना (पांजरा पोल) इत्यादिक में भिजवाने में प्रमाद मत करो। ७४ बर्तन थोड़ी राख-मिट्टी और पानी से बराबर साफ करने की आदत रखो। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ ७५ बने वहाँतक किसी भी कार्य को स्वच्छ, व्यवस्थित और योग्य समय में ही सम्पूर्ण कर डालने की आदत डालो । ७६ भोजन करते वख्त बीदल का खास उपयोग रखो । ७७ खाल, मोरी, चाँदनी, परिंडे इत्यादिक पानी ढोलने की जगहों को बने वहां तक उपयोग ही कम करो और उन को स्वच्छ रखना । ७८ रात्रि में नियमित समय पर सोने की आदत डालो । ७९ दोपहर को तो सामायिक करने की आदत चालू रखो । ८० धार्मिक पर्व और तिथियों की आराधना घर में आग्रहपूर्वक बराबर चालू रखो । तो ही धर्म घरमें टिकेगा, नहिं तो घरमें अधर्म अपना साम्राज्य चलावेगा । ८१ पतिव्रतापनमेंहि स्त्री जाति की समस्त शिक्षा का समावेश होता है, उसे वरावर प्रचलित रखो. और पुत्रियों को उस में दृढ़ करेंगे, तो उनकी सम्पूर्ण जीवन सुखी, योग्य स्वतन्त्र, और संस्कारी बनेगी ही । ८२ और उस धर्म को सिखानेवाले, तथा उसके गूढ रहस्य को समझाने वाले देव, गुरु, तथा धर्म की भक्ति हमेशा यथाशक्ति करने में चूकना नहीं । ८३ स्त्रियोंको अपना ऋतु- धर्म बराबर पालना चाहिये. गूमडे फूटने के समान उसको मत समझो। शुरूआत का रजस् अत्यन्त मलिन पदार्थ है। एसा सूक्ष्म विचार करनेवाले ज्ञानी पुरुष और पूर्व के महान वैद्योने कहा है । इसलिये किसी भी Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ प्रकारकी आशानता न हो और पवित्रता रहे उस प्रकारके वर्तन में बेपरवाही मत रखो । अनार्य और अन्य नीच जाति की प्रजा के विचार-तथा अनार्य विचार वाली आर्य प्रजाकी . समझ में भी अपनी इन सूक्ष्म बातों का रहस्य अभीतक नहीं आया हैं । इसलिये वे ऋतुधर्मको पालते नहीं हैं । और उल्टी अपनी मश्करी उडाते है. परंतु इसमें उनकी महान् मूर्खता और बे समझ हैं । इसलिये उन लोगों का एसी असभ्य बातों पर ध्यान नहीं देना । ८४ स्कूल इत्यादिक में पढने में, मोटर, ट्राम, रेल्वे इत्यादिकमें, तांगे में तथा अन्य एसे प्रसंगो में, स्त्री-पुरुषों के परस्पर स्पर्शास्पर्शकी व्यवस्था को उपयोगपूर्वक साचवनी और एक दूसरे से दूर रहने में ही शास्त्रोक्त कथित नव वाड़ो का पालन हो सकता हैं। और पवित्र एवं महान् शियल धर्मकी रक्षा के लिये इस बातकी सावधानी रखनेकी पूरेपूरी आवश्यक्ता है। ८५ पूर्वापरकी स्पास्पय जातिओसाथकी स्पर्शास्पर्श की व्यवस्था समालना। वो तोडनेसें परीणामे अपनी प्रजाका नाश है। वास्ते अन्योंका अंध अनुकरणसे या अज्ञानसे स्पर्शास्पर्श व्यवस्था तोडने की बातका अमलकर उत्तेजन नहि देना. ८६ अपने पूज्य मुनिमहाराजाओं अलावा कीसिकाही उपदेश सुनना नहि चाहिए, आजकल जाहिर भाषन Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ सुननेकी कुरूढि बढती जा रही हैं, वो अंतमें उलट मार्गपर ले जा कर धर्म से भ्रष्ट करनेवाली हैं। सुज्ञ बहिनीएँ ! उपरकी सूचनाएँ वांच विचार उस तरहसें वर्तन करनेमें तैयार रहोंगे, तो अवश्य अपने को कमसेकम गेरफायदा (नुकशान) होगा, बल्कि-कुच्छ ने कुच्छ लाभहोगाही। अध्याय ११ वाँ समूर्छिम जीवों की दया मनुष्यों के लिये समर्छिम पञ्चेन्द्रिय जीवों के उत्पन्न होने के निमित्त भूत बारह द्वार २ आँख २ कान १ नाक का मूल छिद्र १ नाभि १ मूत्र द्वार १ मल द्वार स्त्रीओंको ३ अधिक द्वार है...... १ जन्म द्वार २ स्तन Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन बारह द्वारों में प्रवाहित होते विविध रसों, धातुओं, पित्तों, श्लेष्मो, वीर्य, ऋतु, मल, पैशाव, गर्भो के मळो और रसों, खून, पीप, मल, धुंक, रिटोडा, . खकाट इत्यादि सरस अथवा निरस (शुष्क ) जो जो बाहर आते हैं, उनमें से प्रत्येक में दो घड़ी (४८ अडतालीस मिनिट) के बाद समूर्छिम (बिना मन बाले) मनुष्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। और वे दो घडी ( अडतालीस मिनिट), वाद ही मृत्यु को प्राप्त होते है। इस हिंसा से बचने के लिये श्रावकों को कैसा वर्ताव रखना चाहिये ? उस के लिये कितनिक सुचनाएं यहाँ दी जाती हैं। १ जो छोटे ग्रामों में रहते हैं, अथवा जिनके नज़दीक में नदी, तालाव, समुद्र तट, वन, क्षेत्र अथवा पडत भूमि होवे, उन्हें जहाँ तक हो सके वहाँ तक उपरोक्त उचित स्थानो पर ही मल त्याग के लिये जाना आवश्यक हैं। क्योंकि बनी हुई टट्टीयों में प्रकाश की कमी, हवाका अभाव तथा दुर्गन्धी रजःकणों इत्यादि से शारीरिक तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी हानि अवश्य उठानी पडती हैं।। धार्मिक नियमानुसार खोज करने पर उस में अनेक प्रकार के जीवों की उत्पत्ति तथा नाश होता है । असंख्याता समूर्छिम पंचेन्द्रिय मानव जीवों की उत्पत्ति तथा नाश होता है। कोई किसी प्रकार के रोगी के मल अथवा पेशाब Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ पर लघुशङ्का अथवा दीर्घशङ्का करने से उसी प्रकार के कई भयङ्कर रोग हमारे गले लग जाते हैं । तथा कई प्रकार के संक्रामक रोग भी कईयों को हो जाते है । इत्यादि कई प्रकार से स्वास्थ्य सम्बन्धी तथा शारीरिक और धार्मिक हानियां होने के कारण से इन शङ्काओ के निवारणार्थ खूले स्थानों पर ही जाना योग्य है । जहाँ चींटी इत्यादि के नगरे ( चींटीओं के नगर ) न हों । हरियाळी ( नन्ही नन्ही हरी दुर्वा तथा काई फूलन आदि) रहित हो, कीचड से परिपूर्ण न होते हुए कडी भूमि हो, ऐसी भूमि पर जावे, जिस से शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहता है । तथा अनेक जीवों की रक्षा होती है। सच्चे अहिंसक होने का दावा कर सके, और उन जीवों को अभयदान प्रदान करें, अपन इसलिये इन बातों को ध्यान रखना अत्यन्त ही आवश्यक है ।' १ भारत वर्ष के प्राचीन महान् शहरों के वर्णन मैं शहरों की बड़ी बडी खाल तथा उनके साथ मोहल्लो की जुदी हुई गटरों तथा उनसे सम्बन्धित नकानो के छुट्टी छुटी खालो का वर्णन भी प्राप्त होता है । उनपर सें इतना तो अवश्य मानना पडता है कि उस समय भी आज से सेंकडों वर्ष पूर्व भी हमारे देश में गटरों की व्यवस्था थी— लेकिन उन गटरों का उपयोग मुख्य रीति से वर्षा ऋतु का पानी तथा स्नान आदि का जल बाहर निकालने के छिये ही होता होगा । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल-मूत्र तथा जूठ का पानी इत्यादि का पानी गटरोंसे बाहार निकालने में असम्भवित प्रतीत होता है । क्योंकि भारतीय संस्कृति-भारतीय वैद्यक शास्त्रीय विज्ञान । तथा धर्मशास्त्र-उनसे विरुद्ध है। इसलिये मुख्य रीति स जनता इन शङ्काओ के निवारणार्थ तथा जूठे पानी को फेंकने आदि का कार्य खूले में-प्रकाशमान हवा धूप वाली तथा मिट्टीवाली भूमि पर ही विशेषतः करती होगी। पाटण अमदावाद जैसी गुजरात की महान् समृद्धिशाली नगरियों में प्रथम सें खास इस भांति की गटरों का न होना ही जैन भावना का फल मालूम होता है । तथा समृर्छिम पंचेन्द्रिय जीवों के बचाव के लिये जैनों की अहिंसा का ज्वलन्त उदाहरण है-इस प्रकार हजारों वर्षों के पूर्व भी जन लोग अपनी अहिंसा के पालन में कैसे सचेत थे ? वह दृष्टिगोचर हो सकता है । तथा जैन लोग राज्यों के दीवान, नगर शेठ तथा शहरों तथा ग्रामों के मुख्य व्यक्ति होने के कारण उनका प्रभाव इस ही जनता के उपर कितना पडा है? इस समस्या पर विचार करने सें भी वही पूर्व की व्यवस्था ही दूरदर्शिता पूर्ण उच्च प्रतीत होती है. आजकल की म्युनिसिपल कमेटिये कि जो यहां की प्रजामें परदेशीव्यापार,संस्कार तथा सामाजिक जीवनभरनेका एक साधन मात्र है। लेकिन यह होते हुए भी यहाँ की जनता Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ को उस का जीवनकी आवश्यकताओं की पूर्ति कराने का एक साधन समजाया है। मानव शरीर से उत्पन्न हुए तमाम ' मैल'' तथा 'मल, बाहर दिखाई नहीं देते हुवे जमीन के अन्दर ही अन्दर भी गटर द्वारा करार चले जाते हैं । लेकिन इसमें अहिंसा की दृष्टि को अंश मात्र भी स्थान नहीं है । पानी का अधिक दुरुपयोग तथा अन्दर ही अन्दर विकृत होते कई पदार्थ तथा उनमें उत्पन्न होते हुए अनेक प्रकार के कीटाणु ( jerny) तथा समूर्छिमजीवा का तो को हिसाब ही नहीं रहा है । अस्तु, इस गन्दे पानी को खातर रूप में काम में लाकर इससे शाक - तथा भाँति भाँति के फल उत्पन्न किये जाते हैं, जिसमें इस गन्दे पानी के तत्त्व उन शाको तथा फलों में प्रकट हो कर स्वाद रहित तथा दुर्गन्धपूर्ण फल जनता के स्वास्थ्य के लिये हानि प्रद होते है । तथा इस प्रकार गुप्तरीति सें बडा भारी पाप का ढेर इकट्ठा होता है इस लिये हमारी अहिंसापूर्ण व्यवस्था से हमारे शरीर सें उत्पन्न होते मैल तथा मल खुले तो अवश्य दिखाई देते हैं, लेकिन हवा, धूप तथा प्रकाशके प्रभाव से वे रोजका रोज नष्ट हो जाते हैं। जिससे उनका संग्रह न हो कर उनसे उत्पन्न होता हुवा बुरा प्रभाव जनता के स्वास्थ्य के उपर नहीं होता है । आज - Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल की गटरों से उत्पन्न होते कई प्रकार के कीटाणु जनता के स्वास्थ्य के उपर प्रभाव पाडते हैं, जिससे कई प्रकार के रोग फेलते हैं। जिनका नाम तक सुनकर आजकल की भोलीभाली जनता को आश्चर्य होता हैं ओर वह कहने लगती है कि ये रोग तो पहले नहीं होते थे. लेकिन इनका मूल मात्र कारण है अर्द्ध पाश्चात्य व्यवस्था। वे कीटाणु हमारे भोजन तथा हवा द्वारा शरीर में प्रविष्ट होते हैं और हमारे स्वास्थ्य पर अपना प्रभाव डाल कर हमें रोगी बनाते हैं जिनके निवारणार्थ हमें कई प्रकार का उंची दवाइयें तथा उग्र मशीनों द्वारा जन्तुनाशक आविष्कारो की सहायता से इन जीवों का नाश किया जाता है। यह दूसरी हिंसा हुई । गटरों द्वारा मैल चाहे जितना दूर ले जाया जावे, लेकिन किसी खास स्थान में 'मल' के संग्रह से उन्पन्न जन्तु मानव समाज के उपर प्रभाव (effect) डालेविना रहते ही नहीं। प्रजा को आज की गटरोंसें स्वास्थ्यसम्बन्धी हानि अवश्य उठानी पडी हैं । पहिले के समान शारीरिक शक्ति अब नही रही हैं। और इसका प्रभाव भावी पीढी पर भी पडेगा ही। लेकिन आजकल हमारे उपर और हमारे दूसरे साथियों के उपर पश्चिमीय अनुकरण की ऐसी छाप पडी है कि आज हम इस समस्या पर विचार करते हे नहीं, लेकिन अगर कोइ कहे तो हम उसकी मजाक उडाने को Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८९ तैयार हो जावेंगें। तब आर्थिक हानि की तो बात ही क्या है ? किसी संस्था विशेप के चुनाब में अधिक मत प्राप्त ( to get majority ) करलेने में एक आदी राज्य प्राप्त कर लिया हो, ऐसी हास्यास्पद मनोवृत्ति अपने भाईयों की हो गई है, कि-ईन्हें एक तमु भूमि प्राप्त करने की भी तो शक्ति नहीं है, फिर नया ग्राम अथवा देश प्राप्त करने की तो बात ही क्या? हमारे पूर्वज राज्य के राज्य विजित करते थे, तब भी अपने बडाई की इतनी डींग तो नहीं मारते थे। मत प्राप्त करने पर अपने पोरूष पर गर्व होता है । वास्तव में यह हमारी दीन मनोत्ति का महान् ज्वलना उदाहरण है । आजकलकी म्युनिसिपालिटियों के अधिकारों की वृद्धि होने से जैन नियमानुसार जीवन व्यतीत करने की तीव्र इच्छावाले मुनियों तथा धार्मिक पुरुषोंकी कठिनाईयोंमें भी वृद्धि ही होती आ रही हैं, ये म्युनिसिपालेटियां कत्लखाने चलाती हैं,और शहरोंमे निजी अथवा गुप्त स्थान पर 'मटन मार्किटो' को प्रोत्साहन देकर चलाती है। जिसमें कई ज्ञानहीन जैनों को भी किसी हालत में सहायता देनीही पडती हैं और उसने पास से होकर आना जाना पडता है, इसी प्रकार की चीजोको प्रोत्साहन तथा सहायता देने के लिये हमारे भाईओं बिना विचार किये आगे बढ रहैं हैं। ___ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० २ लघुशंका का निवारण (पेशाब) करना वह भी खूली और सूखी अगह में कि जो शीघ्र ही मूख जाये. पेशाब के उपर पेशाब करनेस प्रत्यक्ष शारीरिक हानि होती है। तथा मोरी और गटर आदि में पेशाब करने से असंख्य समूर्छिम पंचेन्द्रिय मानव जीवों तथा कीडे इत्यादि त्रस जीबों की उत्पत्ति और विनाश होता है। इसी लिये एसे स्थानों का परित्याग करना आवश्यक है । शास्त्रों में मोरी आदि स्थानों में पेशाब करने वाले को बेला (दो उपवास) का प्रायश्चित्त कहा गया है-तब फिर बन्धी हुइ टट्टीयों (Latrine) टट्टी जाने से कितना अधिक पाप लगता होगा ? इस लिये लघुशंका (Urine) दीर्वशंका आदि जहां पर मूर्य का प्रकाश पडता हो ऐसे स्थान पर करना आवश्यक है। __ ३ मुंहसें खेकार डालते, नाक साफ करते, थंकते, वखत करते, कान का मेल निकालते, मेल (खून-पीप आदि) फेंकते समय-ऐसे सूखे स्थान में फेंकना अथवा करना चाहियेजहां शीघ्र सूख जावे-दिन के समय सूर्य के प्रकाश (धूप) में फेंकना चाहिये। ऐसा स्थान अगर घर से दूर भी होवे तो प्रत्येक जैनको अवश्य समजाना चाहिये-कि भलेही वास्तव में इसके तात्कालीक परिणाम नहीं आते है। लेकिन समय व्यतित होनेपर इसके भारी भारी परिणाम अवश्य आनेका है। इसमें रत्तीमात्र भी संशय नहीं है। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९१ वहां जाना चाहिये | और उपर राख डालना चाहिये । इतनी बातोंका ध्यान - खाल धर्मात्मा और विवेकी मनुष्य को रखना अत्यन्त आवश्यक है । तथा इस प्रकार अगर विचारे, तो प्रत्येक मनुष्य अपने को इस व्यर्थ पाप (sin) से बचा सकता है । इस प्रकार वर्ताव नहीं करने से अनजान में असंख्य समूर्छिम जीवों की उत्पत्ति तथा विनाश होता है । तथा माक्खी चीटो इत्यादि प्राणी उसे अपना भोज्य पदार्थ समज कर उसे खाने को चोंट जाते है-और उसका स्पर्श करने ही उनके पेखु उपरोक्त पदार्थ से चिपक जाते है । इस प्रकार अनुपयोग ( carelessness ) अनेक प्राणियों के प्राणों के हरण का कारण भूत बन जाते है । हत्यादि कई प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं - इस लिये उपरोक्त पदार्थों को खूखे अथवा धूप वाले स्थान पर फेंक कर शीघ्र राख से ढक देना चाहिये नहीं तो सिर्फ ४८ मिनट ( दो घडी) के ही क्षुद्र समय में समूर्छिम पंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति हो जाती है - इसलिये इस तरफ विवेकी श्रावकों को अपने कोमल हृदय में दया को स्थान देते हुए उपयोग रखना चाहिये | ४ शरीर को (मर्दन) मालिश कर अथवा बिना मालिस के भी अगर स्नान करना होवे. तब भी मोरी में स्नान नहीं करना चाहिये - क्योंकि उस जल के अन्दर शरीर का मेल Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ तथा तेल इत्यादि सम्भालित रहता है, ओर वह जल वेसे का वेसा ही रहने से उसमें 'समूर्छिम' जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। तथा अधिक समय तक या कई दिनों तक एक ही स्थान- . में रहते ही दूसरे भी कई प्रकार के 'त्रस' जीवो की उत्पत्ति तथा विनाश होता रहता है। इसलिये जब स्नान करना होवे तब किसी निर्जीव स्थान पर रेती इत्यादि में तथा जो धूप में शीघ्र सूखने मिट्टी होवे, ऐसे स्थान स्नान करने के योग्य है। श्रावक को कभी भी नदी, तालाव, कुण्ड इत्यादि में स्नान करना नहीं चाहिये। क्योंकि उससे अनेक जीवों की हिंसा होती है। तथा जल का परिमाण तो रहता ही नहीं. उचदह नियम वाले श्रावक को तो कभी जलाशय में स्नान करना ही नहीं चाहिये। कई वार जहरीले जन्तुओं के कारण प्राणों के हरण भी हो जाता हैं। तथा पानी में डूब जाने से अथवा तैरना नहीं आने से तथा कोई स्थान में फँस जाने से प्राणो से हाथ धोने तक की नोबत आजाती है। इस प्रकार कई कारण होने से कभी भी एक योग्य श्रद्धालू श्रावक को किसी भी जलाशय में स्नान नहीं करना चाहिये. स्मशान जाने के समय भी विवेकपूर्ण श्रावक जल छान कर स्नान कर सकता है । श्रावक सचित्त पानी से स्नानन इत्यादि नहीं कर सकता है तब तो जलाशय में स्नान करना क्रीडा करना -कितने दोषों का कारण है ? इस तरफ अधिक ___ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन न कर के यही लिखना प्राप्त होगा कि-जिस लिये मोरी तथा जलाशय में स्नान न कर के पूर्ण रीति से जयणा (जीव जन्तुओं की रक्षा) करते हुए मुखे रेती वाले अथवा धूप वाले स्थानपर करना ही विशेष श्रेयस्कर है। .. __ इतना खास ध्यान रखना आवश्यक है कि-लघुशंका अथवा दीर्घशंका का निवारण जिन मंदिर से एक सोहाथ करीब दूरी पर करना चाहिये । इसी प्रकार नाक का सेंभडा, खेकार. इत्यादि जिन मंदिर के चोक में भी तथा आसपास नहीं डालना चाहिये । कई स्थानों पर जिन मंदिर के पास में ही कोई कमरा स्नान करने के लिये होता है- जिसका पानी एकत्रित हो कर गटर में जाता है। ऐसे स्थान पर-मुँह साफ करना, खंकार डालना-नाक साफ करना, साबुन इत्यादि से स्नान करना भी अनेक दोषो का कारण है । इस लिये इन बातों को जानते हुए भी जो लोग अनजान बन कर जो इस काम को चलाते है, अथवा प्रोत्साहन देते हैं, वह भी इस दोष के जवाबदार है-इसीलिये जिन से बने उन्होंने यथाशक्ति उपाय खोज कर इन दोषों को दूर करने का भरसक प्रयास करना योग्य है। ५ शास्त्रो में कहा गया है कि-भोजनमें से जूठा (ऐंठा) रखना नहीं । इनका मतलब-भोजन करने समय हमारी थाली में अथवा पात्रमें जिसमें हम भोजन कर रहें है, उसमें से भोजन करते करते बाकी नही छोड़ना। क्योंकि इससे उसमें दो घडीमें असंख्य समूमि जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिये भोजन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ करने की थाली अथवा पात्र उसी समय धोके पी जाना चाहिये । इस और बड़ी बड़ी रसोइयों में बडी बेफिक्री की जाती है। इसके फल स्वरूप लोग जूठा बहुत डालते है-और इस ओर कोइ भी ध्यान नहीं देता-इसलिये नियमवान् श्रावकों को तथा दूसरे भी श्रावक भाईयों को ऐसे समय ध्यानपूर्वक जरूर अपनी आवश्यकता अनुसार खाने की सामग्री लेना, जिससे जूठा डालनेका प्रसंग ही आवे। ६ इसी भांति जल (पानी) के वोटने में भी समजने का है। किसी बेड़पात्र में पानी काम में लाने के लिये उसमें से पानी निकालने के लिये एक अलग ही पात्र रखना चाहिये। क्योंकि जूठे पात्र पानी के अन्दर डालने से भी वही दोष लाता है, जो भोजन जूठा छोडने से लगता है। इसीलिये-इस ओर भी खास ध्यान देना आवश्यक है। काठीयावाड-गुजशत मा ल्वा तथा दूसरे प्रान्तों में यह दोष बहुत अधिक प्रचलित है इसलिये ये लोग अधिक समालोचना के पात्र है। इपलिये उपरोक्त स्थानों के सभ्यों को अधिक फिक्र लेना चाहिये। ताकि वे अधिक तीव्र आलोचना के पात्र न हो सके. इस प्रकार उनके सम्हलने की पूरी आवश्यकता है___आखिर इस पुस्तक में बुद्धि हीनता, उत्सूत्रता-इत्यादि स जो कोई दोष लगा हो, तो उसकी क्षमा प्रार्थते हैं। इति शुभम् सर्व-मङ्गल-माङ्गल्यं सर्व-कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां जैनं जयति शासनम् ॥१॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ प्रकरण १२ वां परमाहत महाराजाधिराज भूपाल श्रीकुमारपाल गूजरेश्वर के बारह व्रतों की संक्षिप्त नोंध• महाराजाधिराज कुमारपाल की राजधानी गुजरात स्थित अणहिल्लपुरपाटण (Anhilwada) थी। उनके आधीन उस समय सब से अधिक प्रदेश था-उस समय समस्त भारत के गुजरातेश्वर ही सब से बड़ा शासक था-इतना होते हुए भी "परमाईत महाराजा विद्वान् और धर्म के पालन में कितने कट्टर थे-और जैन धर्म का किस मांति पालन करते थे? वह आज भी जानने से कई जीवों को आज भी उससे लाभ हो सकता है क्योंकि वे इतने बड़े महान् शासक होते हुए भी, कई जवाब रियों होते भी इस प्रकार धर्म का पालन करते थे-तब तो हम उनके सामने कुछ भी नहीं हैं-तब फिर हम आलस्य को त्याग कर हमें धर्म का पालन क्यों न करना चाहिये? हमारे पास उनके समान बन्धन और कठीनाइयां कहां? तथा उली प्रकार उनके समान वैभव तथा सुविधाएं कहां? तब फिर किस कारण आलस्य में पड़ना योग्य है ?" . * यह नोंध और इस अभक्ष्य अन-तकाय के मूल लेखकजुनागढ़निवासी शा. पाणलाल मंगलजी हैं। दीक्षा अंगीकार करने के बाद उनका नाम मुनि पुण्यविजयजी था] यह नोच उन्होंने मुनि अवस्था में ही लिखी थी-उसमें कुछ फर्क करके, आवश्यकता पूरा हो हमने यहां दिया है। to ___ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकारके विचारों में आदर्श आत्माओं के जीवन का अनुकरण करने की इच्छा आजकल के श्रावकों की हो सकती है। और वे आत्मकल्याण के मार्ग में अग्रसर होने की सफल चेष्टा कर सकते हैं । इस भावना से परमाईत राजर्षि के धार्मिक व्रतों संक्षेप में यहां देने में आते हैं। १ सम्यक्त्व व्रत .. श्री कुमारपाल महाराजा समकित मूल बारह व्रतों को धारण करते थे। सम्यक्त्व यह एक अपूर्व वस्तु है । संसारसागरमें भ्रमण करती हुई आत्माओं की बड़ी कठिनाइपूर्वक बहुत समय के पश्चात् प्राप्त हो सकती हैं। इस प्रकार बिना सम्यक्त्व के कार्य, विना नमक के व्यञ्जनों के समान हैं। १ अठारह दोष से रहित वीतराग श्री जिनेश्वर भगवान् वही सर्वोत्तम देव । . २ पांच महाव्रत धारी संवेग रंगरूपी तरंग में झीलने वाले शुद्ध प्ररूपणा करने वाले वही सर्वोत्तम गुरु है। . ३ तीथङ्कर महाराजा द्वारा कहा हुआ अहिंसा धर्म वही सर्वोत्तम धर्म है। . इन तीनों रत्नों में दृढ़ विश्वास रख करके प्राणान्तक कट होने पर भी चलायमान नहीं होना। अटमी तथा चतुर्दशी को पौषध और उपवास । . पारणा के दिन सकडों मनुष्योंमें से जो दृष्टि में आवे, उनके आवश्यकता पूरती आजीविका बांध देना। . ., Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ में पौषध करने वालों को अपने घर पारणा करवाना। ___ धन हीन हुए प्रत्येक स्वधार्मिक बन्धु को एक एक हजार स्वर्ण मोहरें देना। एक वर्ष के अन्दर स्वधार्मिक भाइयों को एक क्रोड़ स्वर्ण मोहरें दान में देना । इस प्रकार चौदह वर्ष में चौदह क्रोड़ स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया। इट्ठयासी लाख का द्रव्य योग्य दान में दान दिया। बहोत्तर लाख का द्रव्य कर्जदारों को देकर उन्हें कर्ज मुक्त किया। इक्कीस ज्ञानभण्डार लिखवाया । - प्रतिदिन श्री त्रिभुवनपाल विहार में स्नात्रोत्सव करवाये। श्री हेमचन्द्राचार्य के चरणो में द्वादशावर्त वन्दन करने के बाद क्रमानुसार सर्व साधुओं को वन्दन करनेका था । प्रथम पौषधादि व्रत अंगीकार करने वाले श्रावक को वन्दन तथा योग्य आदर आदि प्रदान किया। अठारह प्रान्तों में अहिंसा का पालन करवाया (अमारी पडह) न्याय की घण्टी बजवाई। तथा दूसरे चौदह प्रान्तोंम धन तथा मित्रता के अधिकार से निरपराध जीवों की रक्षा करवाई। चारसो चुम्मालीस नये जिन मंदिरों का निर्माण करवाया। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सोलहसों जिन मंदिरों का जिर्णोद्धार करवाया । तथा सात तीर्थयात्रा की । " प्रथम व्रत: - १ “ मारो" इस प्रकार जो अक्षर मुंह से निकले तो भी उपवास करना । द्वितीय व्रत: - भूल से अथवा दूसरी भांति अगर झूठ बोला गया तो आयंबिल इत्यादि तपश्चर्या करना । तृतीय व्रतः - मृत्यु पाये हुए लावारिस का भी द्रव्य लेना नहीं । चतुर्थ व्रतः — कुमारपाल महाराजा ने जैन बनने के बाद नये विवाह न करने का नियम लिया था । चातुर्मास में मन वचन और काया से शीयल - ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । मन से शीयल भङ्ग होता, तो उपवास, वचन से भङ्ग होता, तो आयंबिल, तथा काया से भङ्ग हो तो, एकासना करते थे- उनको 'परस्त्रीभाई' की उपाधि थी। भोपालदेवी इत्यादि आठों रानियों की मृत्यु के बाद प्रधानादिकों ने बहुत कहा तथापि शादी करने के लिये उन्होंने नियमों का उल्लंघन नहीं किया। आरति ( आरात्रिक) के समय स्त्री को साथ रखने ९ हम लोग ' गर ' ' मरना' 'मर क्यों नहीं गया ' - ' जा डूब मर' ' मूर्दा इत्यादि शब्द बोलते हैं, इनमें सत्यता तो बिलकुल नहीं हैं, और जिसे ये वचन कहे जाते हैं, उसके हृदय में तो इससे भी दुःख होता है । इससे हिंसा का पाप लगता है । जिसके परिणाम स्वरूप भयंकर कष्ट सहन करना पड़ते हैं । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ के लिये भोपालदेवी रानी की स्वर्ण की प्रतिमा बनवाई थी । श्री गुरु महाराजाने - वासक्षेप सहित महाराजा कुमारपाल को राजर्षि ' की उपाधि प्रदान की थी । " उपर लिखे अनुसार महाराजा कुमारपाल चतुर्थ व्रत के पालन में त्रिविधे त्रिविधे दृढ प्रतिज्ञापूर्वक शियल का पालन करते थे। परस्त्री तो उनके लिये सदैव माता अथवा भगिनी के सदृश्य थी । पंचमतः - करोड़ स्वर्ण मोहरें, आठ करोड़ चाँदी की मोहरें, एक हजार कीमती मणि रत्न, इत्यादि । बत्तीस हजार मण घृत, बत्तीस हजार मन तैल, तीन लाख मन चावल, तथा चणा, जुवार, और मूँग इत्यादि प्रत्येक धान्य के पांचलाख मूडा । घर, हाट, तथा जहाज, गाडी, पालकी, इत्यादि ग्यारह सौ हाथी, पच्चास हजार रथ, ग्यारह लाख घोडे, अठारह लाख सैनिक, इस प्रकार सम्पूर्ण रखने का संग्रह परिग्रह में खुला था । षष्ठमव्रतः - वर्षाऋतु के अन्दर तो श्री पाटन की हद के बाहर गमन करना नहीं । सप्तमव्रतः - कुमारपाल महाराजा को मद्य, मांस, मधु, मरक्खन, बहु बीजा फल, पांच जाति के उदुम्बर फल, अभक्ष्य, अनन्तकाय, वेबर इत्यादि का नियम था । देव के पास नहीं रक्खे हुए वस्त्र फल तथा आहार इत्यादि का त्याग था । देव के सन्मुख रखकर बाकी का बाद में काम में लेते थे । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पान सचित्त और उसकी भी एक दिन में आठ बीड़ी काम में आसकती थी। रात्रिको चारों प्रकार के आहार का त्याग रखते थे। वर्षाऋतु के समय घृा की एक विगय छुट्टी थी। हरी शाक का त्याग रहता था। नित्य प्रति एकासना रहता था-पर्व के दिन विगय तथा सचित्त का त्याग करते थे। अष्टमत्रतः-महाराजा कुमारपालने देशमें से सातों ही व्यसनों को दूर करवा दिये थे। नवमत्रतः-महाराजा कुमारपाल को दोनों समय सामायिक करना तथा सामायिक करते समय श्रीमद् आचार्य हेम चन्द्राचार्य को छोडकर दूसरों से बोलने तक का त्याग था। प्रतिदिन 'योगशास्त्र' के बारह प्रकाश तथा' वीतराग स्तव' के वीश प्रकाशों का पाठ करते थे। दशमत्रतः-वर्षाऋतु में युद्ध नहीं करना-गजनी सुलतान महमूद आया, उस समय भी चलायमान नहीं हुए थे। ग्यारहमानतः-पौषध ओर उपवास करते थे । उस दिन रात्रि के समय काउस्सग्ग ध्यान में रहते थे। उस समय पैर में मंकोडा चिपक गया था, तब लोग उसे खींचने लगे। लेकिन वह तो चिपका ही रहा । उस समय "वह मंकोडा मर जायगा" इस शंका से अपनी चमडी का उतना माग कटवा कर उसे दूर किया। पारणे के दिन समस्त पौषध करने वालोंकों अपने यहां पौषध करवाते थे। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ बारहमाननः-अतिथि संविभाग:-दुःखी ऐसे साधमिक श्रावकोंका बहोत्तर लाख के द्रव्य का कर माफ कर दिया। .. मुनिमहाराजाओं को (प्रथम तथा अन्तिम तीर्थङ्कर महाराजा के शासन में ) राज्यपिण्ड नहीं कल्पता है । इसी लिये भरत चक्रवर्ति के समान महाराजा कुमारपालने सीदाता कई स्वधार्मिक भाईयों का उद्धार किया । ____ महाराजा कुमारपालने श्री हेमचन्द्राचार्य महाराज की धर्मशाला की मुहपत्ति का पडिलेहण कराने वाले स्वधार्मिक को पांचसौं अश्व और बारह गांव का आधिपत्य प्रदान किया । तथा सर्व मुहपत्ति पडिलेहण करने वालों को कुल पांचसौं गांव का दान दिया। इस प्रकार विवेकियों में शिरोमणि के समान महाराजा कुमारपालने दूसरे भी कई भांति के पूण्योपार्जन किया था। उसमें से कुछ यहां लिखे गये हैं। इस प्रकार उत्तम धार्मिक कार्यों द्वारा उन्होंने सिर्फ दो ही भव बाकी है, इतना आत्म कार्य सिद्ध कर लिया (आनेवाली उत्सर्पिणी में पद्मनाभ प्रथम तीर्थकर महाराजा के गणधर हो कर वे उसी भव में सिद्धत्व को प्राप्त करेंगे) इसी लिये साधार्मिकों को योग्य सन्मान मान दिया है, तथा धर्म की सहायता-कर आदि छोड देना, दुःखीओं का उद्धार करना। तथा अढारह देशों में अहिंसा (अमारी पह) का प्रचार आदि से उसका उपकार प्रत्यक्ष दिखाई देता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ उपसंहार यहां पर महाराजा कुमारपाल के सम्यक्त्वमूल बारहव्रत आदि का वर्णन किया है। उसका मात्र कारण यही है किअठारह देशो के राज्य को सम्हालने का बोझा होते हुए भी उन्होंने श्रावक के गुणों का कितना पालन कर बताया है कि - जिसका अनुकरण करना तो दूर रहा लेकिन उनकी भावना पर विचार करने में भी हम पीछे है। अभी हमको कितने कठिन परिश्रम की आवश्यकता है? वेसी शुभ भावनाओं को प्राप्त करने के निमित्त - प्रसंगोपात्त यह विषय यहां दिया गया है आनन्द - कामदेव आदि श्रावको की-जिन की प्रशंसा स्वयं भगवान् महावीरने भी अपने श्रीमुख द्वारा की, तथा जिन्होंने श्रावक को कर्तव्यों को पूर्ण रूपसे पालन किया । कि जिन कर्तव्यों के कारण निरवद्य आहार लेना योग्य है । इस बड़ा कठिन मार्ग समजना चाहिये । जो उस प्रकार की शक्ति नहीं होवे, तो - सचित्त त्यागी रहना जरुरी है। आखिर जो यह भी नही हो सके, तो बाईस अभक्ष्य और अनन्तकाय का तो अवश्य ही त्याग करना चाहिये । यहां पर यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि - अभक्ष्य आदि का त्याग इत्यादि तुच्छ नियमों को लेने से ही मात्र हमारा पूर्ण संतोष होजाने का नही, लेकिन आनन्द कामदेव तथा महाराजा कुमारपाल इत्यादि के समान श्रावकों के बारह व्रतों को अंगीकार करते हुए क्रमानुसार पंचमहाव्रत की प्राप्ति के लिये Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ प्रयास करना योग्य है । शास्त्रकार महाराजा प्रथम तो सर्व विरतिपने का ही उपदेश करते हैं। लेकिन जब श्रावक असमर्थ तथा निरूत्साही प्रतीत होता है, तो देशविरति आदि का उपदेश देते हैं। सूचना १ पृष्ट १५५ की५वीं पंक्ति में उस शेरडी] का रस दो घडीबाद अचित्त है। ऐसा लिखा गया है लेकिन उसका समय बतलाया गया नहीं हैं । इसलिये श्री लघुप्रवचनसारोद्धार में उसका समय दो पहर कहा गया है । इसके बाद वह अभक्ष्य है। इस बाबत में खुलासा करने का कारण यही है कि-वर्षीतप के पारणेके समय कई एक अणजान श्रावक भाइयों ऐसा कालातीत रस काम में लेते हैं। तो उन्हे उपयोग रखना जरूरी है। २. बादाम, पीस्ता, चारोली, काली लाल-श्वेत कीसमिस (द्राख), अखरोट, कोकनी केला, खूबानी, अंजीर, मुंगफली, सुखें कोपरें, सुखी रायण, कच्ची खांड, सूखे बखाइ बेर, इत्यादि और पृष्ठ १११ में फाल्गुन चौमासी के बाद अभक्ष्य में गिनाये गये हैं । प्रथम आवृत्ति में इन चीजों के अषाड चौमासी के बाद त्याग करने का लिखा है । सूखे मेवे को फाल्गुन-चौमासीसें से अभक्ष्य होने का मतान्तर भी बतलाया है। इसी लिए इस आवृत्ति में उन्हें फाल्गुन चौमासी से ही अभक्ष्य गिनाये है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ श्री लक्ष्मीरत्न सूरि-कृत अभक्ष्य अनंतकायनी सज्झाय. ढाळ - जीनसासन रे सूधी सदहणा घरे, सुणी गुरु मुख रे नवे तत्त्व निरता करे; मिथ्यामति रे कपट कदाग्रह परिहरे, सही पाळे रे ते नर समकित मन खरे. त्रुटक - मन खरे समकित शुद्ध पाळे, टाळे दोष दया परो, धुर पंच अणुव्रत, त्रण गुणवत, च्यार शिक्षाव्रत धरो; इम देश विरति क्रिया निरति, करो भवियण मन रुली, दाखवी नियगुण परह केरा, दोष मम काढो वली. १ - मम काढो रे लोभी नर कूडो करो, जाणी सावध रे अभदय बावीसे परहरो; वड पींपळ रे पीपरीन कटुंबरो, अंबर फळ रे रखे तुमे भक्षण करो. ढाळ चुटक—-रखे भक्षण करो मांखण, मद्य, मधु, आमिष तणुं, विष, हेम, करहा छांडी परहा, दोष मूल माटी घणुं; परिहरो सज्जन रयणी भोजन, प्रथम दूरगति बारणुं, मम करो व्याळे अति असुरु, रवि उदय विण पारणु. २ ढाळ - अथाणुं रे अनंतकाय सवि निमीयें, काचं गोरस रे मांहे कठोळ न जीमीये; वी गण रे तुच्छ फळ सवि छंडीये, आपणपुं' रे व्रत लाधुं नवि खंडीये. १ वाळु २ आपणुं. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ त्रुटक-नवि खंडीये सवि नीम लेइ, देइ फळ व्रत भंगर्नु, अज्ञात फळ, बहु बीज, भक्षण चलित रस हुये जेहन; संपर आणी अभक्ष्य जागी, तजो ए बाबीस ए, गुरु वयण विगते वळीय प्रीलो, अनंतकाय बत्रीश ए. ३ ढाळ-अनंती रे कंद जाति जाणो सहु, जस भक्षण रे पातिक बोल्या छे बहु; कचूरो रे, हळदर, नीली आदु वळी, वज्र, मूरण रे कंद बेहु कुमळी फळी. त्रुटक-जे फळीअ कुमळी बीज पाखे, चाखे चतुर न आंबली, आलु, पिंडालु, थेग, थुहर, सतावरी, लसण कळी; गाजर, मूळा, गळो, गिरणी. विरहाली, टंक, वत्थुल्लो, पल्लंक, सूरण, बोल, बीली, मोथ, नीली, सांभो. ढाळ-वंस करेला, रे कुंपल कुअळा तरु तगां; अंकूरा, रे लोढा, ते जळ पोयणां; कुंआरी रे, भमर वृक्षती छालडी, जे कहिये रे लोके अमृत वेलडी. त्रुडक-वेलडी केरा तंतु ताजा, खीलोडाने, खरसूश्रा, भूइ फोडी छत्राकार जाणो, नील फूल ते सवि जुगा, बत्रीश लोक प्रसिद्ध बोच्या, लक्ष्मीरत्न मूरि इम कहे,' परिहरे जे वहु दोष जाणी, प्रागी ते शिा सुख लहे. ५ इति अभश्य-अनन्तकायनी सज्झाय. Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ सचित्त-अचित्त विचार सझाय. प्रवचन अमरी मरी ससदा, गुरुपय पंकज प्रणमी मुदा; वस्तु तणुं कहुं काळ प्रमाण, सचित्तअचित्त विधि जीम लीयो जाण. १ बेहुऋतु मळी चोमासामान, षट् ऋतु मळी वर्ष प्रमाण; वर्षा शीत उष्ण त्रिहुं काळ, त्रिहुं चोमासे वर्ष रसाळ . श्रावण भाद्रवो आसो मास, कार्तिके वरसाळो वास; मागशीर पोष माहाने फाग, ए चारे शोयाळा लाग. चैत्र वैशाख ने जेऊ, आषाढ, उष्णकाळ ए चारे गाढ; वर्षा शरद शिशिर हेमंत, वसंत ग्रीष्म षट् ऋतु एम तंत. वर्षानर दिवस पकवान, त्रीस दिवस शीयाळे भान; बीस दिवसे उनाळे रहे, पछी अभक्ष्य श्री जीनवर कहे. रांध्यं त्रिदल रहे चिहुं जामे, ओदन आठ प्रहर अभिराम; सोठ पहर दहिं कांजी, छास, पछी रहे तो जीव निवास. पापड लोइया, वटक प्रमाण - चाहर प्रहर पोळीनुं मान; मात्र प्रमुख निविगय पक्वान्नचलितरसं तस काळनुं मान. धान घोषण छ घडी परमाग, दोय घडी जळवाणी जाण; फळ धोयण एक प्रहर प्रमाण, त्रिफला जळ बे घडीने मान. गवार उकाळे जेह, शुद्र उष्णजळ कहिये तेह; शहर तीन च पंत्र प्रमाण, वर्षा शीत उनाळे जाग. १. चार पहोर. ३ ६ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ११ १३ श्रावण भाद्रवडे दिन पंच, मिश्र लोट अणचालित संच; आसो कार्तिक चिहुं दिन जाण, मागशीर पोष दिन तीन प्रमाण १० माह फागणे कया पण जामे, चैत्र वैशाख चिहूं पोर अभिराम; जेठ आषाड प्रहर त्रण जोइ, तद उपरांत अचित्त ते होई. अलसी, कोद्रवा, कांग ने जवार, साते सरसें अचित्त रसाळ ; विदल सर्व, तल, तुयरी, वाल, पांचे वरसें अचित्त रसाळ १२ गहुँ, शालि, खडधान, कपास, जव त्रिहुं वरसें अचित्त ते खास; सीत ताप वर्षादिक जोइ, सचित्त योनि अचित्त छे होइ. हरडे, पीपर, मरिच, बदाम, खारेक, द्राख, एलां अभिराम; शत जोयण जलवटमां वहे, साठ जोयम थलवटमां कहे. धूम अग्नि परियहण करी, अचित्त योनि तस थाये खरी; सचित्त योनि प्रहवणनी जेह, थाये अचित्त प्रवचन कहे तेह. गेरु, मणशिल, लुण, हरियाळ, आपे जलवट मांहे रसाळ; ते अचित्त हाये प्रवचन साख, पण लेवानी नहि तस भाख. घोळो सिंधव को अचित्त, श्राद्ध विधें अक्षर परतीत; इलादिक ओला जे थाय, तेह अचित्त थापना नवि थाय. खोरुं घृत जे कालातीत, पलटाए बरगादिक रीत; काचं दूध विद्दल संयोग थाये अभक्ष्य कहे मुनि लोग. बार प्रहर रहे जुगली रावं, सोल प्रहर राइतुं अजाब; दहि राइ विदले देवाय, उष्ण करे तो शुद्वज थाय. १ पांच पहोर. २ एलची. ३ जुवारनी पातळी घश. १४ १५ १६ १७ १८ १९ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ कडा विजय परि शेक्युं धान, मुहूर्त चोवीश गोमूत्रनुं मान; ढणीयादिक विदलनी दाळ, शेक्यां धान परेंत समकाळ. २० चार प्रहर शीरो, लापसी, विदल परें ते प्रवचन वसी; जीहां जेनो काळ पूरो थाय, तिहां ते वस्तु अभक्ष्य कहेवाय. अथाणां प्रमुख सहु जाण, चलित रसें तसकाळनुं मान; बलवणादिक केरो काळ, शास्त्र मांहे छे तेह विशाळ तेह भणी इहां नाण्यो एह, अल्प बुद्धिने पडे संदेह; आर्द्रधान अंकूरा निकळे, ते सहु वस्तु अभक्ष्यमां भळे. ए बोल्या लवलेश विचार, विस्तार प्रवचनसारोद्धार; धीरविमल पंडित सुपसाय, कवि नयविमल कीधी सझाय २४ इति श्री सचित्त अचित्त विचार सज्झाय सम्पूर्ण.. श्रीमद् उपाध्यायजी महाराजश्री यशोविजयजी महाराज विरचित चार आहारमां - आहारी - अणाहारीनी सज्झाय [ अरिहंत पद ध्यातो थको - ए देशी. ] समरं भगवती भारती प्रणमी गुरु गुणवंतो रे ! स्वादिम जेह दुविहारमां सूजे ते कहूं कंतो रे ! श्री / जन० १ } २१ २२ श्रीजिन वचन विचाराये कोजीएं धर्म निःसंगो रे ! व्रत पच्चखाण नं खंडिये धरीये संवर रंगो रे ! श्रीजिन० २ पीपर, सुंठ, तीखा, भला हरडे, जीएं, ते सार रे ! जावंत्री, जायफळ, एलची, स्वादिम हम निर्धारि रे ! श्रीजिन० ३ २३ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०९ काठ, कुलंजर, कुमठा, चणीक-बावा कचूरो, रे ! मोथ ने कंटाशेळियो' पोहोकर-मूळ कपूरो रे ! श्री जिन० ४ हींगला, अष्टक, बावची, बूकी हींगु त्रेवीशो रे ! बलवण, संचल, सूझतां संभारो निसदिसो रे ! श्रीजिन. ५ हरडा, बहेडां वखाणीये, काथो, पान, सोपारी रे; अज, अजमोद, अजमो भलों खेरवडी निरधारो रे-श्रीजिन० ६ तज ने तमाल, लवींग शुं जेठीमध गणो भेला रे ! पान वळी तुलसी तणां दुविहारे ले यो हेला रे ! श्रीजिन० ५ मूल जवासना जाणीये वावडींग, कसेलो रे; पीपरीमूळ जोइ लीजीए, राखज्यो व्रत वेलो रे ! श्रीजिन० ८ बावळ खेर ने खीजडो, छाली धवादिक जागो रे ! कुसुम सुगंध सुवासियो वासी पु नितर्यो पाणी रे ! श्रीजिन० ९ एहवा भेद अनेक छे; खादिम नीति माहे रे; जीरुं स्वादिम कमु भाष्यमां, खादिममा बोजे ठाम रे ! श्रीजिन० १० मधु, गोळ प्रमुख जे प्रश्रमा स्वादिम जानिमां भाष्यो रे ! ते पग तृप्तिने कारणे आवरणाए नवि राख्यो रे ! श्रीजिन० ११ हवे अणाहार ते वर्ण, जे चौविहारमा सूझे रे ! लींब पचांग, गळो, कडु जेहथी मति नवि मंझे रे ! श्रीजिन० १२ राख, धमासो, ने रोहिणी, मुखड, त्रिफलां वखाणो रे ! किरियातो, अतिविष, ओलीयो, रिंगणी पण तिम जाणो रे ! श्रीजिन० १३ १ पुष्कळ मूळ (१) २ पू विनीतस्यो ( पाठान्तर ) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आछी, आसंघ, चितरो, गूगळ, हरडां दालो रे; बोण कही अणहारमां मळी मजीठ निहाळो रे ! श्रीजिन० १४ कणेरनां मूळ, पुंवाडीया, बोल, बीयो ते जाण्यो रे; हळदर सूझे चौविहारमां वळी उपलेट बखाण्यो रे ! श्रीजिन० १५ चोपचिनी वज जाणीये बोरडी मूळ कंधेरी रे ! गाय - गोमूत्र खाणीये वळी कुंवार अनेरी रे ! कंदरु, वडकुडा (गुंदा) भला ते अणाहारमां कहिये रे ! एहवा भेद अनेक छे, प्रवचनथी सवि लहीए रे ! श्रीजिन० १६ श्रीजिन० १७ वस्तु अनिष्ट इच्छा विना ते मुखमां घरी जे रे ! चार आहारथी बहिरो ते अणहार कही जे रे ! एह जुगत शुं जे लही व्रत पच्चकखाण न खंडे रे ! तेह शुं गुण अनुरागिणी शिव-लच्छी रति मंडे रे ! श्रीजिन० १९ श्री नयविजय सुगुरु तणा लेइ पसाय उदार रे ! 'वाचक जशविजये कह्यो एह विशेष विचार रे ! श्रीजिन० १८ (तपगच्छ गयण दिवाकरुं श्री परम (प्रभु) सरि राज्ये रे ! ए सज्झाय रच्यो भलो भवियणने हित काजे रे ! श्रीजिन० २० १ वाचक जश सज्झाय रची, ए सेवक सुविश्वारो रे ! २ को प्रतमां आ गाथा वधारे छे : श्री जिन० २१ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________