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और सूर्य अस्त के पूर्व ही बराबर सूखजाना चाहिये, नहीं तो वासी होजाते हैं। चातुर्मास में इस प्रकार की वस्तुएं बनाना और खाना या रखना योग्य नहीं है। क्यों कि उसमें त्रस जीव तथा लीलन-फूलन की उत्पत्ति हो जाती है। कदापि चातुर्मास में पापड़ अशाड़ सुद १ से पूर्णिमातक बनाये गये हो, और खाने के वास्ते रखना होतो उनको वख्त वख्तपर सुखाना चाहिये, एवं वार वार हेर फेर करना चाहिये । परन्तु आजकल आलस्य के वशीभूत होकर एसा उपयोग नहीं रखते हैं। इस लिये चातुर्मास में नहीं खाना ही उत्तम है। कितनेक लोग सियाले, उनाले में बनाये हुए सेव, पापड़, चातुर्मास और दूसरे सियाले तक रखते हैं, मगर वो अयुक्त है। अषाड़ मुद पूर्णिमा के पूर्व वो वस्तु उपयोग में लेलेनी चाहिये, और कार्तिक सुद पूर्णिमा के बाद बनानी चाहिये । सेव, पापड़ जो बाजार में मिलते हैं, यह बिलकुल नहीं लेना चाहिये । उपयोग पूर्वक घर पर बनाया गया हो, वो ही उपयोग में लेना चाहिये। “पापड़ और बड़ी चोमासे में अभक्ष्य है" एसा श्राद्ध विधि में कहा है।
८दूधपाकः-बासुदी, खीर, शीखंड, दूध, दूध की मलाई आदि दूसरे दिन वासी होजाते हैं। सबब अभक्ष्य हैं। वैसे ही रात को बनाया हुआ भी अभक्ष्य है। जिव्हा की लोलुपता से ऐसी चीजें रातमं वासी रखकर दूसरे दिन खाना शर्म की बात है। दही की मलाई का समय दहीं के मुआफिक ही जानना।
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