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सकती है । उन के लिये खूब इंतजाम रखना चाहिये. और जिस तरह बन सके उसी तरह जिह्वास्वाद कमी रख जैसी बहुतसी चिजों का त्याग कहना ही उत्तम है । तथापि यदि अपनी जिहवेन्द्रिय बस में न रह सकती हो तो, सब बातोमें अच्छी तरह से उपयोगपूर्वक वर्तना चाहिये. अन्यथा अनेक प्राणीओ के विनाशक होकर दुर्गति का अतिथि बन कर पूर्वकृत कर्म का फळ का अनुभव करना ही पडेगा. अर्थात् वोही मार्ग है-१ जिबेन्द्रिय का जय करना या २. प्रमाद छोडकर यतनापूर्वक वर्ताव करना, जिस से अल्प दोष लगने का संभव रहता है।
७. संभारा–तथा सेव, वडी, पापड, खेरा, फरफर, उड़द की सेव, सालीवडां, खीचीका पापड, वगरह सियाले में और उन्हाले में सूर्योदय बाद आटा बांधकर बनाना
१ सेव [परदेशी मेंदा की अभक्ष्य है ] पापड, उड़द की सेव का आटा सूर्योदय बाद ही बांधना चाहिये. फरफर, खिचि का पापड, सालिघडां इत्यादि चावल का आटा को रांधकर बनाते है, वो भी सूर्योदय बाद ही करना चाहिये. खेरा-जो चणाका आटा आथकर मशालामिश्रित बनाते है, वो भी सूर्योदय बाद आथकर बनाना चाहिये, नहींतर वो अभक्ष्य है । विरतिवंत को अवश्य खाते पहिले इसी बात का उपयोग रखना चाहिये कि कैसे ? कब ? और कीसी विधि से? चीज बनाई गई है ? भक्ष्य है ? या अभक्ष्य है ? इस बात का विचार कर पीछे उपयोग करना युक्त है।
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