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९ केरी-आर्द्रा नक्षत्र बैठे, वहांसे पक्की केरी का रस चलित होता है, उसे वो केरी अभक्ष्य है ॥ बास आती हुइ, सड गइ हुइ, बीगड़ गइ हुइ, हमेश के लीए अभक्ष्य है। आम चूसके खाना, उस्से उनका रस नीकाल के खाना व्याजबी है। सबबकी चूसनेसे उनका गोटला जहां डाले वहां अपनी लाळ लगीहो, उस्से असंख्य समुर्छिम लाळीये और पंचेन्द्रिय मनुष्य उत्पन्न होवे। फीर भी केरी में त्रस जीव (कीडे) कभी नीकलते है । रस नीकाला हो, तव उनमें जीव देखने में आनेसे रस का जंतु पेटमें न जाते है, उनकी और अपनी रक्षा होती है। और चूसनेसे सचित्त रसका उपयोग होता है। अचित्त का नहीं होता है। केरी का रस उन्हाले की उग्र गरमी से सुबे का नीकाला हुआ साम तक रहने का असंभव है। वास्ते जब उपयोग करना हो, तब रस नीकालना । और चार, छ याने आठ घंटे तक रखना हो, तो ठंडे पानी के बतरन में रस का बरतन रखना। जहां गरमी न लगे वैसी जगा में रखना । आर्द्रा नक्षत्र से केरी का अवश्य त्याग करना जरुरी है । क्यों की उनके बादमें यह क्षेत्रमें केरी प्रत्यक्ष बिगड़ी हुइ मालूम होती है. बरसाद आदि कारण से कोई वख्त जल्दी भी बीगड़ जाती है, इसी लीए शास्त्रकारोंने “आर्द्रा" की मर्यादा रक्खी है, वो झूठी ठरती नहि । (क्यों की-आर्द्रा में बरसाद का खास संभव होने से वह बराबर है। आगे पीछे की
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