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उस लोटेका उपयोग करना । और जिसलोटा या ग्लाससे पानी पीया हो, उस्से भी मुंहकी लाळ लगनेसें कपडेसे साफ करना । जब पानी पीना पडे तव हरेक वख्त वो ग्लास देखना की " उनमें सूक्ष्म जीव जंतु या कचरा तो नहिं है ?" देखके ही पानी पीना । खुल्ला रक्खा गया पानी पीनेमें बहुत दोष है ।
पानी छीछरा ग्लास से पीना । क्यों की " उनमें क्या है ? " वो देख सकते है । ( लंबा और गहरा ) प्याले में देखने नही आवे वैसे प्याले काममें नहि लेना । वो कपडेसें बराबर साफ भी नहिं हो सकते है । सामान्य रीति सें ही (लंबे गहरे ) प्याले बराबर देखा नहि जाता। उनकी भीतरकी कीनारीके नीचे राख, मैल, कचरा वगैरह रह जाता है । क्यों के बराबर साफ नहीं हो सकते है | वैसेही छीछरे प्यालेके भी गोल कांठे के वळांक में मैल भरा रहता है, जीसे गोल कांठे वाले छीछरे प्याले भी काम के नहि है ।
श्रावकोंने मुंह के दूरसे - उपरसे पानी पीनेकी वैष्णवोंकी तरह आदत रखनी ठीक नहि है । क्यों की दूरसे मुंह में पानी डालते बख्त " संपातिम जंतुओ " मुंहमें गीर पडते हैं, अगर पानीमें जीव हो, तो वो भी मुंहमें आ जाता है । किंतु मुंहको ग्लास लगाके पीने से दांत और होठ के स्पर्श होते ही उन्हे बचा सकतें है । और अपन लोग भी झेरी जंतुओंसे बच सकते है । स्वपर उभयकी दया और रक्षा होती है ।
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