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१६५ - अहा ! हमारे पूर्वज कैसे दीर्घदृष्टि व अगम बुद्धिवाले तथा व्यवहार व धर्मकार्यमें कितने कुशल थे ? और अब हम कैसे हुए ? कि उनके वचनोंका अनादर करके स्वच्छन्द होकर
और अपने आपको श्याने समझकर हमारे पूर्वजों द्वारा उपार्जित उत्तम शाखको भी खो बैठे है ! ___ अब तो हम "विनाशकाले विपरीतबुद्धिः" के अनुसार अपने समस्त सुवर्ण समान पदार्थको लोहा समझ उसे बेचकर और उसके स्थान पर जो लोहा है उसे मुवर्ण समझते हुए हर्ष पूर्वक (उसमें कितनेक मिथ्या लाभोंकी कल्पना करके) अपनाते हैं। देखा जाय तो कैसी दयाजनक स्थितिमें हम हमें पाते हैं ? वह अपने ही कर्मका दोष है। वस्तुतः अभी भी यदि हम नहीं संमालेंगे, तो इससे भी बढ़ कर खराव दशाको हम पहुँच जायँगे। वास्ते हे सुज्ञ बंधुओ ! अभी भी समालो:
और ऐसे अपवित्र भाजनोंका त्याग करके काँसे अथवा तांबेपीत्तलके ही पात्रोंमें आहार करो। रसोई तथा भोजन करने के पीत्तलके सब वर्तन कलईदार होने चाहिए । वैसेही पत्तलदोनेके आश्रित भी त्रस जीव रहते हैं उससे उन्हें तथा केलेके पत्तों पर भी भोजन करना मुनासिब नहीं। अन्य-दर्शनिओंके वहां इसका खास ध्यान रखना चाहिए ।
दिनमें भी अंधेरेमें भोजन करना ठीक नहीं. वास्ते दिनमें जहां ठीक उजेला हो वहीं बड़े और स्वच्छ पात्रमें, भक्ष्या
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