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________________ १६६ भक्ष्यका विवेकपूर्वक विचार करके स्थिरचित्तसें, मौन रखकर भोजन करना चाहिये । जूठे मुखसे बात करने से एक तो ज्ञानावरणीय कर्मका वंधन होता है । दूसरा, वातों में ध्यान जाने से भोजन में मक्खी आदि स जीवके गिरनेसे उस जीवकी हिंसा होती है । मक्खी खानेमें आ जाय तो वमन हो जाता है । वैसेही सरस - निरस भोजनकी प्रशंसा व निन्दा भी नहीं करनी चाहिये । इसलिये मौनपूर्वक भोजन करना उचित है । कदाचित् बोलनेकी जरूरत पड़े तो जलसे मुख-शुद्धि करके बोलना चाहिये । भोजन में कोई भी सजीव-निर्जीव कलेवर न आ जाय वैसी स्थिरचित्त से निगाह रखकर, बराबर देख-भाल करके उपयोगपूर्वक हित-मित ( पथ्य और परिमित ) व समय पर ही भोजन करना उचित है । भोजन करने समयकी धोती पृथक् ही होनी चाहिये । १ साथमें बैठकर भोजन करनेकी प्रवृत्ति अनुचित है। क्योंकि किसीके दाद, खुजली, फोड़े, फुन्सी आदि संक्रामक रोग होते हैं, दूसरे के साथमें जीमनेसे उन रोगोका पीप लगना संभव है । फिर भी एक दूसरेका जूठा खानापिना भी बुरा ही है । साथमें जीमनेसे जूठन भी बहुत पड़तो है और जूठन से जीवोत्पत्तिः होती है आदि अनेक बुराइयाँ हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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