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*[श्रावक के धार्मिक जीवन में भी अहिंसाःतपः और संयम प्रधान रूप से होने चाहिए। इस काअहार में भी ये तीन तत्व अवश्य होने ही चाहिए । ये तिन तत्त्व जैन आहारविधि और भक्ष्याभक्ष्य विचार की भीकसौटी रूप है। "जैन खानपान की विधि में आरोग्यः रुच्युत्पादकत्वः वगेरह तत्त्वों का स्थान नहीं है" ऐसा किसी को भी नहीं मानना चाहिए । परंतु ये सबकी साथ ऊपर जनाए हुए तीन तत्त्व मुख्य होते हैं। वाचक महाशय वह हकीकत इस पुस्तक में कुछ विस्तार से जान सकेंगे]
बाइस अभक्ष्यःपंचुंबरिचउ-विगई हिम-विस-करगेअस-बमट्टोअ। राइ-भोयणगंचिय बहु-बीय अणंत-संधाणा ॥१॥ घोलवडा वायंगण अमुणिय-नामाइं पुप्फ फलाई। तुच्छ फलं चलिअ-रसं वज्जे वज्जाणिबावीसं ॥१॥
पांच प्रकार के ऊबर फल, चार महा वगई, हिम, विष, कड़ा (औला), सब तरह की मिट्टी, रात्रि भोजन, ___ * मूल ग्रंथ में अथवा नीचे की टिप्पणीयों में प्रायः जहां [ ऐसे] कोष्ठक के बीच में लिखा हुवा हो वह इस आवृत्ति में हमारे द्वारा अभी ही बढ़ती की हुई समझना चाहिए।
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