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________________ १९२ तथा तेल इत्यादि सम्भालित रहता है, ओर वह जल वेसे का वेसा ही रहने से उसमें 'समूर्छिम' जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। तथा अधिक समय तक या कई दिनों तक एक ही स्थान- . में रहते ही दूसरे भी कई प्रकार के 'त्रस' जीवो की उत्पत्ति तथा विनाश होता रहता है। इसलिये जब स्नान करना होवे तब किसी निर्जीव स्थान पर रेती इत्यादि में तथा जो धूप में शीघ्र सूखने मिट्टी होवे, ऐसे स्थान स्नान करने के योग्य है। श्रावक को कभी भी नदी, तालाव, कुण्ड इत्यादि में स्नान करना नहीं चाहिये। क्योंकि उससे अनेक जीवों की हिंसा होती है। तथा जल का परिमाण तो रहता ही नहीं. उचदह नियम वाले श्रावक को तो कभी जलाशय में स्नान करना ही नहीं चाहिये। कई वार जहरीले जन्तुओं के कारण प्राणों के हरण भी हो जाता हैं। तथा पानी में डूब जाने से अथवा तैरना नहीं आने से तथा कोई स्थान में फँस जाने से प्राणो से हाथ धोने तक की नोबत आजाती है। इस प्रकार कई कारण होने से कभी भी एक योग्य श्रद्धालू श्रावक को किसी भी जलाशय में स्नान नहीं करना चाहिये. स्मशान जाने के समय भी विवेकपूर्ण श्रावक जल छान कर स्नान कर सकता है । श्रावक सचित्त पानी से स्नानन इत्यादि नहीं कर सकता है तब तो जलाशय में स्नान करना क्रीडा करना -कितने दोषों का कारण है ? इस तरफ अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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