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दुःख सहन करने की आवश्यक्ताए नहि रहती है । सुज्ञो ! अविरतिसें महा दुःखों, पराधीनतासें तिर्यच, नारकी वगैरह भवोंमें सहन करना पडता है । जीस लीए विरतिका अंगीकार कर लो, थोडासा कष्टसे बहुत फलप्राप्ति करानेवाली होती है। और वो कष्ट - दुःख ( अज्ञानीको ) बहारसें दीखता है । लेकीन भविष्य में सुखका निमित्त होनेसें ( विरति ) सुख रूप ही है। जिसे सकाम निर्जरा होती है । और वो नहिं अंगीकार करेंगे तो दूसरे भवमें तिर्यच और नारकीमें व परमाधामी वगैरह क्रूर मनुष्यों और देवोसें आती हुइ भयंकर व्याधियां पराधीनतासें सहन करनी पडेगी । उसे ज्यादा अब क्या दुःख है? सारांशमें:- प्राणान्त कष्टोसें भी तीर्थंकर महाराजाने निषेध की हुई वस्तुओं का भक्षण करना नहि. और उनमें भी, अमुक शेरकी छुट - आगार वगैरह न रखके कायरता का त्याग करके बावीश अभक्ष्यका सर्वथा त्याग करने उपरांत दूसरा भी अनावरणीय - अभक्ष्यका भी त्याग - नियम अवश्य करना ।
नियम ( प्रतिज्ञा - व्रत) कैसे लेना ? और कीस तरह पालना ? व्रतके अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार, यह चार भेदसें दोष लगता है। जैसेकी चौविहार (चार आहारका त्याग ) कीया हो । बहुत प्यास लगे जब पानी पीनेकी इच्छा मात्र करे, वो अतिक्रम, जिस जगहपे पानी हो वो जगह पानी पीनेके जावे, वो " व्यतिक्रम " दोष लगता है। पानी पीनेके लीए पानी के
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