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________________ १९८ सोलहसों जिन मंदिरों का जिर्णोद्धार करवाया । तथा सात तीर्थयात्रा की । " प्रथम व्रत: - १ “ मारो" इस प्रकार जो अक्षर मुंह से निकले तो भी उपवास करना । द्वितीय व्रत: - भूल से अथवा दूसरी भांति अगर झूठ बोला गया तो आयंबिल इत्यादि तपश्चर्या करना । तृतीय व्रतः - मृत्यु पाये हुए लावारिस का भी द्रव्य लेना नहीं । चतुर्थ व्रतः — कुमारपाल महाराजा ने जैन बनने के बाद नये विवाह न करने का नियम लिया था । चातुर्मास में मन वचन और काया से शीयल - ब्रह्मचर्य का पालन करते थे । मन से शीयल भङ्ग होता, तो उपवास, वचन से भङ्ग होता, तो आयंबिल, तथा काया से भङ्ग हो तो, एकासना करते थे- उनको 'परस्त्रीभाई' की उपाधि थी। भोपालदेवी इत्यादि आठों रानियों की मृत्यु के बाद प्रधानादिकों ने बहुत कहा तथापि शादी करने के लिये उन्होंने नियमों का उल्लंघन नहीं किया। आरति ( आरात्रिक) के समय स्त्री को साथ रखने ९ हम लोग ' गर ' ' मरना' 'मर क्यों नहीं गया ' - ' जा डूब मर' ' मूर्दा इत्यादि शब्द बोलते हैं, इनमें सत्यता तो बिलकुल नहीं हैं, और जिसे ये वचन कहे जाते हैं, उसके हृदय में तो इससे भी दुःख होता है । इससे हिंसा का पाप लगता है । जिसके परिणाम स्वरूप भयंकर कष्ट सहन करना पड़ते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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