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________________ उनका आक्षेप उलटा प्रजा पर डाला जाता है । प्राचीन जमाने में प्रजाकी आरोग्यता बहुत श्रेष्ठ थी. आजकल के समय में अखाडे वगैरह का बहुतसा साधन है जिसे कुछ संख्या शक्तिशालि होती है । लेकिन साथ २ प्रजा की लाखों की संख्या शक्ति हीन होती जारही है। अक्सर देखने में आता है कि छोटे गावों में रहेने वालोंकी भी आरोग्यता जोखमदारी में है। यानी सच्चे रूपसे उनकी तन्दुरस्तीकी तरफ कोई निगाह नहीं करते. लेकिन आरोग्यता के बहाने से प्रजाका धार्मिक, नैतिक बंधारण तुड़वाने का प्रबन्ध देखा जाता है. दिनमें आठ आठ घंटे किताबोका ही ज्ञान देने के बदले में महेनत का ज्ञान देने में आवे, तो प्रजा उद्योगी और 'परिश्रमी बनती है, व होशियार होती है। शाम को जरूरी महत्व की कीताने पढ़ाने में आवे या अच्छे मनुष्य का सत्संग 'किया जाय, तो भी सच्ची बुद्धि बढ़ती है । परन्तु इस सच्चे रास्ते का कोई अमल नहीं करते व देखादेखी चलते है. ] १५ बहुबीज = याने ज्यादा बीजवाले फल में बीज के दरमियान अन्तर न हो, अर्थात् बीज से बीज मिला हुवा हो । ऐसे फलादिक में गर थोड़ा व बीज ज्यादा होते है । जिसमें गर और बीज का अलगर रहने की (स्थान) जगह नहीं हो. उनको ज्यादा बीज वाले फल समझना चाहिये: - जैसे कि कोठीasi, टींवरू, करमदे ( बीज पैदा होने के अव्वल अन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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