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________________ धर्म अपनी इच्छा से करना पसंद न पड़े तो भी कर्मरूपी रोग दूर करने के लीए धर्म रूपी औषध फरजीआत लेना। जैसे की कोइ रोगी आदमी होवे, उनको कटु-झहर समान औषध पीना ठीक नहिं लगे, तब उस्से विमुख रह कर जो वो दूधपाकपुरी आदि मिष्ट पदार्थ खावे, तो थोडा वख्त में वे मृत्यु वश हो जाये, और जो शहर जैसी कड़वी औषधि बलात्कार से भी पीवे, तो उनका रोग का अवश्य निवारण हो जाय । जो हमारे को धर्म पर खुशी से प्रेम बढता नहि, तो भी बढाना । यदि विषयवासना बगरह में लपट गये तो अनंतभव भ्रमण करना पड़ेगा। इस लिए कर्म रूपी रोग का निवारण करने को यह धर्म रूपी ( औषध ) का प्रयोगें बतलाया हैं, उसे कंटाळ के विमुख न होते ही, संपूर्ण आत्मवीर्य विकसावना, जीस्से सहजमें ही शिव संपदा प्राप्त कर सके। १४ चवाणा-सेव, गांठीये, बुंदी, दाल, चेवड़ा वगरह (फरसन) चवाणे का काल मिठाइ जीतना जानना. और वर्ण, गंध, रस, स्पर्श फीर जाय तब काळमान पहले भी अभक्ष्य १ बुंदी नरम तली हुइ हो, तो वाशी होती है. २ रात को भीगाइ हुइ दाल वासी हो जावे, वास्ते नहि वापरना. ३ घी और तेल कडच्छा हो जाय, तब अभक्ष्य कहा है, तो वैसे घा तेल की मीठाइ भी अभक्ष्य समझनी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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