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________________ १५८ । जीसे खास जैसी योग्य व्यवस्था करना, की जीसें जैसी हिंसा होने न पावे । कीतनीक दफा सामुदायिक ऐसे मौके पे ऐसा होता भी है । सामान्य श्रावकों को उपयोग रखने जैसा है । तो फीर सचित्तका त्यागीओं के लीए प्रश्न ही क्या है ? इसी तरह सचित्त चीजें कीस तरह अचित्त होवे ? उनका थोडा परिचय दिया है. ज्यादा गुरु आदि सें समज लेना । सचित्त के त्यागी उपरांत एकासनादि व्रतोमें भी सचित्त लीया न जावें । जीसे उनमें वापरने के लीए अचित्त ही चीज होनी चाहिये । वो अचित्त किसतरह प्राप्त कीया जाय ? वो इस प्रकरण से मालूम होगा । 1 उपसंहारः arate अभक्ष्योंका श्री जिनेश्वर देवोने निषेध कीया है। जीसे उनका त्याग करना । और, और भी अनाचरणीयका त्याग करना । और वनस्पति आदिका अवश्य प्रतिज्ञा करने सें विरति का लाभ मीलता है । विरतिका फल वडा भारी है । कहा भी है की " ज्ञानस्य फलं विरतिः " ज्ञान [ पढनेtre] का फल विरति है । और जो वैसा न हुआ, तो सिर्फ ज्ञान ( अनुभव ) से क्या ? वो तो जब रहनी में आवे तब सारभूत है । चिदानंदजी महाराजश्रीने भी कहा है की - शुक रामको नाम खाने, नवि परमारथ तस जाने या विध भणी वेद सुणावे, पण अकळकळा नहिपावे ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003639
Book TitleAbhakshya Anantkay Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPranlal Mangalji
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1942
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size8 MB
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