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१६८ आहार 'निग्रंथ मुनिराजों को व्होराने बाद उपयोग पूर्वक भोजन करने से वो अमृत तुल्य फल देते है। अलावा उनके विष तुल्य फलं-अवश्य चखना पडता है । वैसा जानकर भव्य बन्धुओं ! अष्ट-प्रवचन माता को हृदयमें रखके यह मनुष्य
१ शुद्धमान आहा में प्रथम न्यायोपार्जित द्रव्यका आहार करना चाहिए । अन्यायसें प्राप्त किया हुआ धनका आहार तुन्छ है । जीनका न्यायपूर्वक व्यापारादिमें से प्राप्त कीया हुआ धन हो उनका ही उत्तम और शुद्ध भोजन है। वैसा और श्रादकसें लगता हुआ दोष न लगाकर निदेोष अहार व्होराना वो शुद्धमान आहार है। वैसा ही न्यायोपार्जित अल्प धन में "पुण्या" श्रावक एक दीन खुदही उपवास करते थे, और दूसरे दिन उक्त महानुभावको पनी उपवास करतीथी. ऐसा करके दर रोज एक साधर्मिक भ ईयोंकी भक्ति करते थे। हमलोग भी वैसी तरह न्यायसें धन कमाना उचित है । नहि तो जूट, कपट, कर अन्याय मार्गसें प्राप्त कीया हुआ धन यहां ही छोड़ कर हाय ! द्रव्य ! हाय ! द्रव्य ! करके मर कर उनका फल भोगवना पडेगा. अन्याय, अनीति जहां तहां चल रही है । कोई विरले आत्मा न्याय मार्गपर चलनेवाले होंगे। उनका अनुकरण होवे तो उत्तम है। देशावरों के धंधादारी हरोफों की सामने हरीफाई करने में बहुत मुश्केलीआं खडी हुई है। अपने धंधे की बीच पड़ने का भयंकर अन्याय वो लोग कर रहे है । वो स्थितिमें अपने देशी व्यापारीयों का अनीति आदि की कीतना अन्याय गीना जावे ? वो विचारना जरूरी है।
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