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स्वयं मरण के भय से बचते तो नहीं, वह निर्विवाद है । फिर बल और शरीर की पुष्टि का मंतव्य कहां रहता है ? जैसे अपने को मरना अच्छा लगता नहीं, बालबच्चों का या सगेसम्बंधि-कुटुम्बियों का वियोग सहन होता नहीं वैसे ही हरेक मृत्यु या वियोग चाहता नहीं । अतः जैसा वर्ताव दूसरों द्वारा अपने लिये चाहें, वैसा ही वर्ताव स्वयं भी दूसरे हरेक प्राणि के लिये चाहे और करें । यह न्याय सर दलील हरेक को हमेशा खास अपने सामने रखनी चाहिए । इसी में ही अपना और सब का भला है । सब प्राणी के साथ मित्रभाव चाहने वाला मांस नहीं खा सकते । क्यों कि मांस खाने में कीसी की हत्या अपने लिये होती है । और उसकी साथ वैरभाव रहता ही है । कीसी को मारना उनकी साथ वैरभाव का कारण बनता है भारतवर्ष में पवित्रता और आर्यपन है, यह मांसाहार के त्याग से और सिर्फ वनस्पति तथा दूध वगैरह सात्विक और निर्दोष खुराक से ही टिकाया हुआ है, परंतु सीधी या आड़ी टेडी रीति से मांस, रुधिर या चरबीजन्य पापमय चीजें खाने पीने से टिक सकता नाहीं । मांसाहार से स्वास्थ्य भी बिगड़ता है । मनुष्य का मांस खाने वाले राक्षस जैसे जंगली मनुष्यों की बात सुनते हुए हर किसी मांसाहारी के मन में भी उस के पापाचरण की घृणा उत्पन्न होती है। तो फिर मांसाहार में धर्म तो होवे ही कैसे ? मांसाहार कैसे धर्म १ [यांत्रिक
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